12/09/2025
😲 बेटे की ज़िद और ढाई सौ रुपए की दुल्हन👰
लड़के पर जवानी आई तो रहमान के पिता ने पड़ोस के गाँव में उसकी शादी के लिए लड़की पसंद कर ली। लेकिन रहमान ने जब कूँए से पानी भरकर लौटती हुई आसिफ़ की बेटी सलीमा को देखा, तो उसका दिल खो बैठा।
जैसे कथाओं में कहा जाता है कि कोई राजकुमार नदी में बहता सुनहरे बाल देख, उस सुनहरे बालों वाली कन्या के प्रेम में व्याकुल हो उपवास करने लग जाता है, वैसा ही हाल रहमान का हो गया। वह कुछ कह नहीं पाता था, पर दिन-रात खोया-खोया रहता, चेहरा पीला पड़ गया।
माता-पिता ने उसकी हालत देख सलाह की। उन्होंने उसे दिलासा दिया—"जल्दी ही तुम्हारा विवाह होगा। लड़की जवान और कामकाजी है।" उन्होंने पास ही की रशीदा का प्रस्ताव रखा। पर रहमान ने साफ़ कह दिया—"या तो सलीमा, नहीं तो कोई नहीं।"
बहुत समझाने पर भी वह न माना। आखिर पिता करीम, सलीमा के घर गए। लौटकर आए तो चेहरा ग़ुस्से और अपमान से तमतमा रहा था। उन्होंने बताया—"आसिफ़ कहता है कि सलीमा की शादी उसी से होगी जो ढाई सौ रुपए नक़द देगा।"
ढाई सौ रुपए सुनकर रहमान की माँ के होश उड़ गए। करीम ने कहा—"इतनी बड़ी रकम कभी किसी लड़की पर खर्च नहीं हुई। ढाई सौ रुपए में तो तोप खरीदी जाती है!"
पर बेटे की ज़िद देखकर, उन्होंने अपने दोनों ऊँट बेच दिए और किसी तरह सलीमा को ब्याह लाए।
सलीमा को गर्व था कि उसके लिए ढाई सौ रुपए चुकाए गए। वह कामकाज में निपुण कम, नख़रों में ज़्यादा रहती। बन-सँवर कर पानी भरने जाती, घड़े में आधा पानी लाती और लचकती-बलखती लौटती। पड़ोस की सहेलियाँ भी उसे चेतातीं—"इतना नख़रा ठीक नहीं।"
पर सलीमा कहती—"मेरे बाप ने इतना दाम देकर मुझे भेजा है, मार खाने को नहीं!"
उसकी चाल-ढाल, कपड़े और सजने-सँवरने का ढंग देखकर रहमान की माँ अक्सर अफ़सोस करतीं—"इतने पैसे देकर बहू लाई, पर घर का काम सँभालने से ज़्यादा इसे अपने शौक़ की फ़िक्र है।"
करीम ने बेटे को समझाया—"अब घर चलाने के लिए कमाई करनी होगी। ऊँट बिक गए। तू यूँ खाली बैठा रहा तो भूखे मरेंगे।"
मन मारकर रहमान काम की तलाश में शहर चला गया। पर उसका मन सलीमा में ही अटका रहता। वह चोरी-छिपे कई बार आधी रात को गाँव लौटता, सिर्फ़ उसे देखने के लिए।
एक बार उसने देखा कि सलीमा अपनी सहेलियों संग हँसी-मज़ाक कर रही थी। उसके मन में संदेह का ज़हर समा गया। उसे लगने लगा—"मैं यहाँ परदेस में तड़प रहा हूँ और वह मज़े कर रही है। औरत जात वफ़ादार नहीं होती।"
धीरे-धीरे रहमान का शक बढ़ता गया। वह सोचता—"गाँव के लौंडे-लपाड़े उसे क्यों घूरते हैं? वह सज-सँवर कर किसे दिखाने जाती है?"
उसने सलीमा से पूछा—"जब मैं बाहर था तो तुम खूब मौज करती थीं?"
सलीमा बोली—"मैंने कभी किसी पर नज़र उठाकर भी नहीं देखा। झूठा इल्ज़ाम लगाने वाले पर ख़ुदा की मार पड़े।"
पर रहमान को तसल्ली न हुई। हर मुसाफ़िर, हर पड़ोसी की नज़र उसे सलीमा पर ही लगी लगती। उसका खाना-पीना हराम हो गया।
एक रात उसने देखा कि सलीमा बाहर से लौटते हुए मुस्कुराई। रहमान का दिल जल उठा। उसने सोचा—"यह घमंड इसके रूप का है। यही रूप मेरी आबरू मिटा रहा है। अगर यह रूप ही न रहे, तो सबकुछ ठीक हो जाएगा।"
रात के अँधेरे में उसने छुरा उठाया और सलीमा की नाक काट दी।
चीख़ सुनकर घरवाले और पड़ोसी दौड़े। किसी ने कहा—"जल्दी से ताज़ा गरम मांस नाक पर रखो, नहीं तो लड़की मर जाएगी।"
रहमान घबरा गया। सलीमा की मौत का ख़याल आते ही उसने उसी छुरे से अपनी जाँघ से मांस काटा और सलीमा की नाक पर रख दिया।
सलीमा का इलाज शहर के अस्पताल में हुआ। धीरे-धीरे उसका ज़ख़्म भरा। पर चेहरा सूज गया और आवाज़ बदल गई।
डॉक्टरनी ने कहा—"विलायत से रबड़ की नकली नाक मँगवाई जा सकती है।"
यह सुनकर रहमान घबरा गया—"नहीं! हमें नकली नाक नहीं चाहिए। तू बिना नाक के ही मुझे अच्छी लगती है।"
पर सलीमा उदास हो गई। उसने खाना पीना छोड़ दिया। मजबूरी में रहमान ने चालीस रुपए जमा कर नकली नाक मँगवाई।
पर उसने शर्त रखी—"अगर कोई मर्द घूरने लगे, तो नाक तुरंत उतार कर जेब में रख लेना