
30/07/2025
गीत भी उदास थे, छन्द बदहवास थे
रागिनी अधीर थी, राग बने दास थे
और हम ठगे- ठगे
रात दिन जगे-जगे
चाँद के लिए सदा, चकोर माँगते रहे
रात के चरन पकड़ के भोर माँगते रहे
चाह थी कि हर कली को, तितलियों का प्यार दें
आँसुओं की पालकी को, आँख के कहार दें
हर झुकी - झुकी नज़र की, आरती उतार दें
पतझड़ों से हार चुके , बाग़ को बहार दें
किन्तु भाग्य में लिखा
है कौन जो मिटा सका
सिन्धु की लहर में स्वयं बूँद सा समा सका
किन्तु हम बुझे - बुझे
अश्रुबाण से बिंधे
सूख चुके नयन हेतु, लोर माँगते रहे
रात के चरन पकड़ के, भोर माँगते रहे
इस धरा पे कौन है जो दर्द में पला नहीं
या किसी सुबह को साँझ -साँझ में ढ़ला नही
कौन सूर्य है जो स्वयं अग्नि में जला नहीं
कौन है पथिक जो राह - राह में चला नहीं
देह , प्राण , चेतना
है विशुद्ध कल्पना
शूल के नगर - नगर में फूल की विवेचना
सत्य की तलाश में
सृजन में, विनाश में
शान्त प्राण - सिन्धु में हिलोर माँगते रहे
रात के चरन पकड़ के , भोर माँगते रहे
- मुक्तेश्वर पराशर
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