ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran

  • Home
  • India
  • Bangalore
  • ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran

ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran ब्रह्मवैवर्त पुराण परम दुर्लभ है।
यह

इसमें नये-नये अत्यंत गोपनीय रमणीय रहस्य भरे पड़े हैं।

यह हरिभक्तिप्रद, दुर्लभ हरिदास्य का दाता, सुखद, ब्रह्म की प्राप्ति करने वाला साररूप और शोक संताप का नाशक है।

जैसे सरिताओं में शुभकारिणी गंगा तत्क्षण ही मुक्ति प्रदान करने वाली हैं,

तीर्थों में पुष्कर और

पुरियों में काशी जैसे शुद्ध है,

सभी वर्षों में जैसे भारत वर्ष शुभ और तत्काल मुक्तिप्रद है,

जैसे पर्वतों में सुमेरु,

पुष्पों में प

ारिजात-पुष्प,

पत्रों में तुलसी पत्र,

व्रतों में एकादशीव्रत,

वृक्षों में कल्पवृक्ष,

देवताओं में श्रीकृष्ण,

ज्ञानि शिरोमणियों में महादेव,

योगीन्द्रों में गणेश्वर,

सिद्धेन्द्रों में एकमात्र कपिल,

तेजस्वियों में सूर्य,

वैष्णवों में अग्रगण्य भगवान सनत्कुमार,

राजाओं में श्रीराम,

धनुर्धारियों में लक्ष्मण,

देवियों में महापुण्यवती सती दुर्गा,

श्रीकृष्ण की प्रेयसियों में प्राणाधिका राधा,

ईश्वरियों में लक्ष्मी तथा

पण्डितों में सरस्वती सर्वश्रेष्ठ हैं;

उसी प्रकार सभी पुराणों में ब्रह्मवैवर्त श्रेष्ठ है।

इससे विशिष्ट, सुखद, मधुर, उत्तम पुण्य का दाता और संदेहनाशक दूसरा कोई पुराण नहीं है।

यह इस लोक में सुखद, संपूर्ण संपत्तियों का उत्तम दाता, शुभद, पुण्यद, विग्नविनाशक और उत्तम हरि-दास्य प्रदान करने वाला है तथा परलोक में प्रभूत आनन्द देने वाला है।

संपूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं का तथा समूची पृथ्वी की प्रदक्षिणा का भी फल इसके फल की समता में नगण्य है।

चारों वेदों के पाठ से भी इसका फल श्रेष्ठ है।

जो संयत चित्त होकर इस पुराण को श्रवण करता है; उसे गुणवान विद्वान वैष्णव पुत्र प्राप्त होता है।यदि कोई दुर्भगा नारी इसे सुनती है तो उसे पति के सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

इस पुराण के श्रवण से मृतवत्सा, काकवन्ध्या आदि पापिनी स्त्रियों को भी चिरजीवी पुत्र सुलभ हो जाता है।

अपुत्र को पुत्र, भार्यारहित को पत्नी और कीर्तिहीन को उत्तम यश मिल जाता है।

मूर्ख पण्डित हो जाता है।

रोगी रोग से बँधा हुआ बन्धन से, भयभीत भय से और आपत्तिग्रस्त आपत्ति से मुक्त हो जाता है।

अरण्य में, निर्जन मार्ग में अथवा दावाग्नि में फँसकर भयभीत हुआ मनुष्य इसके श्रवण से निश्चय ही उस भय से छूट जाता है।

इसके श्रवण से पुण्यवान पुरुष पर कुष्ठरोग, दरिद्रता, व्याधि और दारुण शोक का प्रभाव नहीं पड़ता। ये सभी पुण्यहीनों पर ही प्रभाव डालते हैं।

जो मनुष्य अत्यंत दत्तचित्त हो इसका आधा श्लोक अथवा चौधाई श्लोक सुनता है, उसे बहुसंख्यक गोदान का पुण्य प्राप्त होता है- इसमें संशय नहीं है।

जो मनुष्य शुद्ध समय में जितेंद्रिय होकर संकल्प पूर्वक वक्ता को दक्षिणा देकर भक्ति-भावसहित इस चार खण्डों वाले पुराण को सुनता है, वह अपने असंख्य जन्मों के बचपन, कौमार, युवा और वृद्धावस्था के संचित पाप से निःसंदेह मुक्त हो जाता है तथा श्रीकृष्ण का रूप धारण करके रत्ननिर्मित विमान द्वारा अविनाशी गोलोक में जा पहुँचता है। वहाँ उसे श्रीकृष्ण की दासता प्राप्त हो जाती है, यह ध्रुव है। असंख्य ब्रह्माओं का विनाश होने पर भी उसका पतन नहीं होता। वह श्रीकृष्ण के समीप पार्षद होकर चिरकाल तक उनकी सेवा करता है।

जो श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त हो इस पुराण को सुनता है, वह श्रीहरि की भक्ति और पुण्य का भागी होता है तथा उसके पूर्वजन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।

इसमें सम्पूर्ण धर्मों का निरूपण है। यह पुराण सब लोगों को अत्यन्त प्रिय है तथा सबकी समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाला है।
यह सम्पूर्ण अभीष्ट पदों को देने वाला है। पुराणों में सारभूत है। इसकी तुलना वेद से की गयी है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड: अध्याय 9 श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर शिव-पार्वती द्वारा ब्राह्मण की खोज, आकाशवाणी के ...
22/08/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड: अध्याय 9 श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर शिव-पार्वती द्वारा ब्राह्मण की खोज, आकाशवाणी के सूचित करने पर पार्वती का महल में जाकर पुत्र को देखना और शिवजी को बुलाकर दिखाना, शिव-पार्वती का पुत्र को गोद में लेकर आनन्द मनाना

#शिव
#पार्वती

श्रीनारायण कहते हैं– मुने! इस प्रकार जब श्रीहरि अन्तर्धान हो गये, तब दुर्गा और शंकर ब्राह्मण की खोज करते हुए चारों ओर घूमने लगे।

उस समय पार्वती जी कहने लगीं– हे विप्रवर! आप तो अत्यन्त वृद्ध और भूख से व्याकुल थे। हे तात! आप कहाँ चले गये? विभो! मुझे दर्शन दीजिये और मेरे प्राणों की रक्षा कीजिये। शिव जी शीघ्र उठिये और उन ब्राह्मण देव की खोज कीजिये। वे क्षणमात्र के लिये उदास मन वाले हम लोगों के सामने आये थे। परमेश्वर! यदि भूख से पीड़ित अतिथि गृहस्थ के घर से अपूजित होकर चला जाता है तो क्या उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ नहीं हो जाता? यहाँ तक कि उसके पितर उसके द्वारा दिये गये पिण्डदान और तर्पण को नहीं ग्रहण करते तथा अग्नि उसकी दी हुई आहुति और देवगण उसके द्वारा निवेदित पुष्प एवं जल नहीं स्वीकार करते। उस अपवित्र का हव्य, पुष्प, जल और द्रव्य– सभी मदिरा के तुल्य हो जाता है। उसका शरीर मल-सदृश और स्पर्श पुण्यनाशक हो जाता है।

इसी बीच वहाँ आकाशवाणी हुई, जिसे शोक से आतुर तथा विकलता से युक्त दुर्गा ने सुना। (आकाशवाणी ने कहा) जगन्माता! शान्त हो जाओ और मन्दिर में अपने पुत्र की ओर दृष्टिपात करो। वह साक्षात गोलोकाधिपति परिपूर्णतम परात्पर श्रीकृष्ण है तथा सुपुण्यक-व्रतरूपी वृक्ष का सनातन फल है। योगी लोग जिस अविनाशी तेज का प्रसन्न मन से निरन्तर ध्यान करते हैं; वैष्णवगण तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवता जिसके ध्यान में लीन रहते हैं; प्रत्येक कल्प मे जिस पूजनीय की सर्वप्रथम पूजा होती है, जिसके स्मरणमात्र से समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं, तथा जो पुण्य की राशिस्वरूप है, मन्दिर में विराजमान अपने उस पुत्र की ओर तो दृष्टि डालो। प्रत्येक कल्प में तुम जिस सनातन ज्योति रूप का ध्यान करती हो, वही तुम्हारा पुत्र है। यह मुक्तिदाता तथा भक्तों के अनुग्रह का मूर्त रूप है। जरा उसकी ओर तो निहारो। जो तुम्हारी कामनापूर्ति का बीज, तपरूपी कल्पवृक्ष का फल और लावण्यता में करोड़ों कामदेवों की निन्दा करने वाला है, अपने उस सुन्दर पुत्र को देखो। दुर्गे! तुम क्यों विलाप कर रही हो? अरे, यह क्षुधातुर ब्राह्मण नहीं है, यह तो विप्रवेष में जनार्दन हैं। अब कहाँ वह वृद्ध और कहाँ वह अतिथि? नारद! यों कहकर सरस्वती चुप हो गयीं।

तब उस आकाशवाणी को सुनकर सती पार्वती भयभीत हो अपने महल में गयीं। वहाँ उन्होंने पलंग पर सोये हुए बालक को देखा। वह आनन्दपूर्वक मुस्कराते हुए महल की छत के भीतरी भाग को निहार रहा था। उसकी प्रभाव सैकड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य थी। वह अपने प्रकाश समूह से भूतल को प्रकाशित कर रहा था। हर्षपूर्वक स्वेच्छानुसार इधर-उधर देखते हुए शय्या पर उछल-कूद रहा था और स्तनपान की इच्छा से रोते हुए ‘उमा’ ऐसा शब्द कर रहा था। उस अद्भुत रूप को देखकर सर्वमंगला पार्वती त्रस्त हो शंकर जी के संनिकट गयीं और उन प्राणेश्वर से मंगल-वचन बोलीं।

पार्वती ने कहा– प्राणपति! घर चलिये और मन्दिर के भीतर चलकर प्रत्येक कल्प में आप जिसका ध्यान करते हैं तथा जो तपस्या का फलदाता है, उसे देखिये। जो पुण्य का बीज, महोत्सवस्वरूप, ‘पुत्’ नामक नरक से रक्षा करने का कारण और भवसागर से पार करने वाला है, शीघ्र ही उस पुत्र के मुख का अवलोकन कीजिये; क्योंकि समस्त तीर्थों में स्नान तथा सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा-ग्रहण का पुण्य इस पुत्रदर्शन के पुण्य की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकता। सर्वस्व दान कर देने से जो पुण्य होता है तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वे सभी इस पुत्रदर्शन जन्य पुण्य के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं हैं।

पार्वती के ये वचन सुनकर शिवजी का मन हर्षमग्न हो गया। वे तुरंत ही अपनी प्रियतमा के साथ अपने घर आये। वहाँ उन्होंने शय्या पर अपने पुत्र को देखा। उसकी कान्ति तपाये हुए स्वर्ण के समान उद्दीप्त थी। (फिर सोचने लगे) मेरे हृदय में जो अत्यन्त मनोहर रूप विद्यमान था, यह तो वही है। तत्पश्चात दुर्गा ने उस पुत्र को शय्या पर से उठा लिया और उसे छाती से लगाकर वे उसका चुम्बन करने लगीं। उस समय वे आनन्द-सागर में निमग्न होकर यों कहने लगीं–‘बेटा! जैसे दरिद्र का मन सहसा उत्तम धन पाकर संतुष्ट हो जाता है, उसी तरह तुझ सनातन अमूल्य रत्न की प्राप्ति से मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया।

जैसे चिरकाल से प्रवासी हुए प्रियतम के घर लौटने पर स्त्री का मन पूर्णतया हर्षमग्न हो जाता है, वही दशा मेरे मन की भी हो रही है। वत्स! जैसे एक पुत्र वाली माता चिरकाल से बाहर गये हुए अपने इकलौते पुत्र को आया हुआ देखकर परितुष्ट होती है, वैसे ही इस समय मैं भी संतुष्ट हो रही हूँ। जैसे मनुष्य चिरकाल से नष्ट हुए उत्तम रत्न को तथा अनावृष्टि के समय उत्तम वृष्टि को पाकर हर्ष से फूल उठता है, उसी प्रकार तुझ पुत्र को पाकर मैं भी हर्ष-गद्गद हो रही हूँ। जैसे चिरकाल के पश्चात आश्रयहीन अंधेरा मन परम निर्मल नेत्र की प्राप्ति से प्रसन्न हो जाता है, वही अवस्था (तुझे पाकर) मेरे मन की भी हो रही है। जैसे दुस्तर अगाध सागर में गिरे हुए अथवा विपत्ति में फँसे हुए नौका आदि साधनविहीन मनुष्य का मन नौका को पाकर आनन्द से भर जाता है, वैसे ही मेरा मन भी आनन्दित हो रहा है। जैसे प्यास से सूखे हुए कण्ठ वाले मनुष्यों का मन चिरकाल के पश्चात अत्यन्त शीतल एवं सुवासित जल को पाकर प्रसन्न हो जाता है, वही दशा मेरे मन की भी है। जैसे दावाग्नि से घिरे हुए को अग्निरहित स्थान और आश्रयहीन को आश्रय मिल जाने से मन की इच्छा पूरी हो जाती है, उसी प्रकार मेरी भी इच्छापूर्ति हो रही है।

चिरकाल से व्रतोपवास करने वाले भूखे मनुष्य का मन जैसे सामने उत्तम अन्न देखकर प्रसन्न हो उठता है, उसी तरह मेरा मन भी हर्षित हो रहा है।’ यों कहकर पार्वती ने अपने बालक को गोद में लेकर प्रेम के साथ उसके मुख में अपना स्तन दे दिया। उस समय उनका मन परमानन्द में निमग्न हो रहा था। तत्पश्चात भगवान शंकर ने भी प्रसन्न मन से उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया।

22/08/2025

वन्ध्या | Goddess | भगवती | Shashthi | षष्ठी | Stotra | स्तोत्र | Listen | श्रवण | Long-live | पुत्र

#षष्ठीदेवी



shashthi stotra
shashthi devi stotra
shashthi devi stotram
shashthi mata ki aarti
shashthi upkram

वन्ध्या का विलोम
व्च्ध्यास्त्री
वंध्या का अर्थ
वंध्यत्व
वंध्यत्व म्हणजे काय

goddess shashthi husband
goddess shashthi mantra
goddess shashthi temple
goddess shashthi devi
goddess shashthi
goddess shashthi idol
goddess shashthi in
goddess shashthi story
goddess sashti
hindu goddess shashthi

षष्टी देवी मंत्र
षष्ठी देवी
षष्ठी देवी पूजन विधि
षष्ठी देवी कौन है
षट्टठी देवी का मंत्र
षट्टी देवी स्तोत्र
षट्ठटी देवी आरती
षट्टठी देवी व्रत कैसे करे
षष्ठी देवी स्तोत्र

balak ke balak ke balak ke balak ke
baba balak baba balak nath
balak wala bhajan
balak se bhai balak se balak se balak se
balak se bhai balak se song
balak tere balak se song
balak se wala gana
balak bala song
bacche ke baal badhane ka tarika
balak baba song
बालक दे भाई बालक दे गाना
balak de balak de song
balak kya hota hai
baba balak mandir
bacchon ke bal kaise bandhe
ladka ka bal kaise badhae
balak ka vilom
balak nath ka beta
balak ke bal lagte song
baba balak ke balak
bal bhavan latest video
chhote bal kaise banate hain
balak ka samanarthi
chhote balon ke bare mein
balak vidhi
balak hai song
balak yojana
बालक में भाई बालक में
बालक दे भाई बालक दे
बालक से बालक से
बालक होंगे काले काले

child and women welfare
child and women
child labour act
child clinic
child helpline number
child pose
child education plan
child specialist
child clinic
child labour age

child song
child cartoon
child in us
child dance
child in us enigma
child dance song
child tracking app

बालक शब्द रूप
बालक का शब्द रूप
बालक माता-पिता योजना
बालक का बहुवचन
बालक शब्द रूप स्त्रीलिंग
बालक का पर्यायवाची शब्द
बालक का रूप
बालक का विलोम शब्द
बालक का स्त्रीलिंग शब्द
बालक का अर्थ

children videos for kids
videos for babies videos for babies
babies videos small babies
what happened to the children
children's baby songs
what child is this child of the poor
different types of children
children's baby videos
children of narcissists
lil baby children
little children videos
what is a child
where is the child
nba youngboy children
what is children
childhood and development of children
childchewer guitar cover
children responsibility

एक वर्ष बाव्लाचा आहार
एक वर्ष के मौसम चार
एक वर्ष पूरा हुआ इंतजार का
एक वर्ष में कितने दिन होते हैं
एक वर्ष में कितने सप्ताह
एक वर्ष में कितने महीने होते हैं
एक वर्ष में कितने घंटे होते हैं
एक वर्ष में एक महीना याह्च्छया
एक वर्ष म्हणजे किती दिवस

stotra nidhi
stotramala
stotra sanhita
stotra ratnavali
stotra paath
stotra mantra
stotra geetham
stotra ratnam

स्तोत्र सुमनांजली
स्तोत्र संग्रह
स्तोत्र मंत्र
स्तोत्र रत्नावली
स्तोत्र मंत्राचे विज्ञान
स्तोत्र पाठ
स्तोत्र संस्कृत
stotra mala
stotra meaning
stotra malika

स्तोत्र रत्नावली
स्तोत्र समानार्थी
स्तोत्र का अर्थ
स्तोत्र संग्रह
स्तोत्र ग्रन्थ
स्तोत्र निधि
स्तोत्र रत्नाकर
stotra nidhi
stotramala
stotra sanhita
stotra ratnavali
stotra paath
stotra mantra
stotra geetham
stotra ratnam

putra kaisa hona chahie
putra putra wala cartoon
pura putra ki kahani
putra kitne prakar ke hote hain
putra putri ki kahani
putra wala dikhaiye
putra putra ki comedy
chhota putra ka gana
putra ke liye bhajan
पुत्र प्रताप के लिए क्या करें
पुत्र पुत्र पुत्र पुत्र
पुत्र पुत्री की कॉमेडी
putra ka janm kyon hota hai
putra ka kartavya kya hai
putra song download
putra video song
putra ki kahani
putra ka meaning
putri putra kab hai
putra putra song
putra ka kya naam tha
pita aur putra ki kahani
पुत्र का पर्यायवाची
पुत्र पुत्री वीडियो
putra ko english mein kya kahate hain
पुत्र बताइए
पुत्र के गाने
पिता पुत्र के गाने
का पुत्र
पुत्री पुत्र दिखाइए
पुत्रदा के गाने
पुत्र बाल दिखाइए
पुत्र वाला टिकटोक
पुत्र का भजन
पुत्र पुत्रियां वाला
बड़े पुत्र के गा
पुत्र पुत्रियां

music to listen to while reading
listening to music while studying
what to listen to while reading
best music to listen while sleeping
music to listen while studying
recommended songs to listen to
listening music while sleeping
what to listen to while studying
what are you listening for
what to listen before sleep
what are you listening to right now
listening to music while reading
thing to listen to go to sleep
the best songs to listen to
things to listen to while sleeping
best music to listen to
best to listen before sleep
can we listen music while studying
best songs for listening while studying
music to listen to while working
sounds to listen to while reading
best music to listen while studying
how to study while listening music
song to listen to while reading
something soothing to listen to
best sounds to listen to while sleeping
best songs to listen to while playing
best songs to listen while reading
what is the best way to listen to music

अधिक सामग्री देखने के लिए Tap on Subscribe to see MORE content

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड: अध्याय 8 पार्वती की स्तुति से प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण का पार्वती को अपने रूप के दर्शन कराना...
19/08/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड: अध्याय 8 पार्वती की स्तुति से प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण का पार्वती को अपने रूप के दर्शन कराना, वर प्रदान करना और बालकरूप से उनकी शय्या पर खेलना

#पार्वती
#श्रीकृष्ण

श्रीनारायण कहते हैं– नारद! पार्वती द्वारा किये गये उस स्तवन को सुनकर करुणानिधि श्रीकृष्ण पार्वती को अपने उस स्वरूप के, जो सबके लिये अदृश्य और परम दुर्लभ है, दर्शन कराये। उस समय पार्वती देवी स्तुति करके अपने मन को एकमात्र श्रीकृष्ण में लगाकर ध्यान में संलग्न थीं। उन्होंने उस तेजोराशि के मध्य सबको मोहित करने वाले श्रीकृष्ण के स्वरूप का दर्शन किया। वह एक रत्नपूर्ण मनोरम आसन पर, जो बहुमूल्य रत्नों का बना हुआ था, जिसमें हीरे जड़े हुए थे और जो मणियों की मालाओं से शोभित था, विराजमान था। उसके शरीर पर पीताम्बर सुशोभित था, हाथ में वंशी शोभा दे रही थी। गले में वनमाला की निराली छटा थी। शरीर का रंग श्याम था। रत्नों के आभूषण उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसकी किशोर-अवस्था तथा वेश-भूषा विचित्र थी। उसके ललाट पर चन्दन की खौर लगी थी।

मुख पर मनोहर मुस्कान खेल रही थी। वह वन्दनीय स्वरूप शरद्ऋतु के चन्द्रमा का उपहासक तथा मालती की मालाओं से युक्त था। उसके मस्तक पर मयूरपिच्छ की अनोखी छवि थी। गोपांगनाएँ उसे घेरे हुए थीं। वह राधा के वक्षःस्थल को उद्भासित कर रहा था, उसकी लावण्यता करोड़ों कामदेवों को मात कर रही थी, वही लीला का धाम, मनोहर, अत्यन्त प्रसन्न, सबका प्रेमपात्र और भक्तों पर अनुग्रह करने वाला था। ऐसे उस रूप को देखकर सुन्दरी पार्वती ने मन-ही-मन उसी के अनुरूप पुत्र की कामना की और उसी क्षण उन्हें वह वर प्राप्त भी हो गया। इस प्रकार वरदानी परमात्मा ने पार्वती के मन में जिस-जिस वस्तु की कामना थी, उसे पूर्ण करके देवताओं का भी अभीष्ट सिद्ध किया। तत्पश्चात यह तेज अन्तर्धान हो गया। तब देवताओं ने कृपापरवश हो सनत्कुमार को समझाया और उन्होंने उन उमा रहित दिगम्बर शिव को प्रसन्न चित्तवाली पार्वती को लौटा दिया। फिर तो विश्व को आनन्दित करने वाली दुर्गा ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के रत्न तथा भिक्षुओं और वन्दियों को सुवर्ण दान किये। ब्राह्मणों, देवताओं तथा पर्वतों को भोजन कराया।

सर्वोत्तम उपहारों द्वारा शंकर जी की पूजा की, बाजा बजवाया, मांगलिक कार्य कराये और श्रीहरि से सम्बन्ध रखने वाले सुन्दर गीत गवाये। इस प्रकार दुर्गा ने व्रत को समाप्त करके परम उल्लास के साथ दान देकर सबको भोजन कराया। तत्पश्चात अपने स्वामी शिव जी के साथ स्वयं भी भोजन किया। इसके बाद उत्तम पान के सुन्दर बीड़े, जो कपूर आदि से सुवासित थे, क्रमशः सबको देकर कौतुकवश शिव जी के साथ स्वयं भी खाया। तदनन्तर पार्वती देवी एकान्त में भगवान शंकर के साथ विहार करने लगीं। इसी बीच में एक ब्राह्मण दरवाजे पर आया। मुने! उस भिक्षुक ब्राह्मण का रूप तैलाभाव के कारण रूखा था, शरीर मैले वस्त्र से आच्छादित था, उसके दाँत अत्यन्त स्वच्छ थे, वह तृष्णा से पूर्णतया पीड़ित था, उसका शरीर कृश था, वह उज्ज्वल वर्ण का तिलक धारण किये हुए था, उसका स्वर बहुत दीन था और दीनता के कारण उसकी मूर्ति कुत्सित थी। इस प्रकार के उस अत्यन्त वृद्ध तथा दुर्बल ब्राह्मण ने अन्न की याचना करने के लिये दरवाजे पर डंडे के सहारे खड़े होकर महादेव जी को पुकारा।

ब्राह्मण ने कहा– महादेव! आप क्या कर रहे हैं? मैं सात रात तक चलने वाले व्रत के समाप्त होने पर भूख से व्याकुल होकर भोजन की इच्छा से आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। हे तात! आप तो करुणा के सागर हैं, अतः मुझ जराग्रस्त तथा तृष्णा से अत्यन्त पीड़ित वृद्ध की ओर दृष्टि डालिये। अरे ओ महादेव! आप क्या कर रहे हैं? माता पार्वती! उठो और मुझे सुवासित जल तथा अन्न प्रदान करो। गिरिराजकुमारी! मुझ शरणागत की रक्षा करो। माता! ओ माता! तुम तो जगत की माता हो, फिर मैं जगत से बाहर थोड़े ही हूँ; अतः शीघ्र आओ। भला, अपनी माता के रहते हुए मैं किस कारण तृष्णा से पीड़ित हो रहा हूँ? ब्राह्मण की दीन वाणी सुनकर शिव-पार्वती उठे। इसी समय शिवजी का शुक्रपात हो गया। वे पार्वती के साथ द्वापर पर आये। वहाँ उन्होंने उस वृद्ध तथा दीन ब्राह्मण को देखा जो वृद्ध-अवस्था से अत्यन्त पीड़ित था। उसके शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं।

वह डंडा लिये हुए था और उसकी कमर झुक गयी थी। वह तपस्वी होते हुए भी अशान्त था। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख गये थे और वह बड़ी शक्ति लगाकर उन दोनों को प्रणाम तथा उनका स्तवन कर रहा था। उसके अमृत से भी उत्तम वचन सुनकर नीलकण्ठ महादेवजी प्रसन्न हो गये। तब वे मुस्कराकर परम प्रेम के साथ उससे बोले।

शंकर जी ने कहा– वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ विप्रवर! इस समय मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपका घर कहाँ है और आपका नाम क्या है? इसे शीघ्र बतलाइये।

पार्वती जी बोलीं– विप्रवर! कहाँ से आपका आगमन हुआ है? मेरा परम सौभाग्य था जो आप यहाँ पधारे। आप ब्राह्मण अतिथि होकर मेरे घर पर आये हैं, अतः आज मेरा जन्म सफल हो गया। द्विजश्रेष्ठ! अतिथि के शरीर में देवता, ब्राह्मण और गुरु निवास करते हैं; अतः जिसने अतिथि का आदर-सत्कार कर लिया, उसने मानो तीनों लोकों की पूजा कर ली। अतिथि के चरणों में सभी तीर्थ सदा वर्तमान रहते हैं, अतः अतिथि के चरण-प्रक्षालन के जल से निश्चय ही गृहस्थ को तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है। जिसने अपनी शक्ति के अनुसार यथोचित रूप से अतिथि की पूजा कर ली, उसने मानो सभी तीर्थों में स्नान कर लिया तथा सभी यज्ञों में दीक्षा ग्रहण कर ली।

जिसने भारतवर्ष में भक्तिपूर्वक अतिथि का पूजन कर लिया, उसके द्वारा मानो भूतल पर सम्पूर्ण महादान कर लिये गये; क्योंकि वेदों में वर्णित जो नाना प्रकार के पुण्य हैं, वे तथा उनके अतिरिक्त अन्य पुण्यकर्म भी अतिथि-सेवा की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते। इसलिये जिसके घर से अतिथि अनादृत होकर लौट जाता है, उस गृहस्थ के पितर, देवता, अग्नि और गुरुजन भी तिरस्कृत हो उस अतिथि के पीछे चले जाते हैं। जो अपने अभीष्ट अतिथि की अर्चना नहीं करता, वह बड़े-बड़े पापों को प्राप्त करता है।

ब्राह्मण ने कहा– वेदज्ञे! आप तो वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हैं, अतः वेदोक्त विधि से पूजन कीजिये। माता! मैं भूख-प्यास से पीड़ित हूँ। मैंने श्रुतियों में ऐसा वचन भी सुना है कि जब मनुष्य व्याधियुक्त, आहार रहित तथा उपवास-व्रती होता है, तब वह स्वेच्छानुसार भोजन करना चाहता है।

पार्वती जी ने कहा– विप्रवर! आप क्या भोजन करना चाहते हैं? वह यदि त्रिलोकी में परम दुर्लभ होगा तो भी आज मैं आपको खिलाऊँगी। आप मेरा जन्म सफल कीजिये।

ब्राह्मण ने कहा– सुव्रते! मैंने सुना है कि उत्तम व्रतपरायणा आपने पुण्यक-व्रत में सभी प्रकार का भोजन एकत्रित किया है, अतः उन्हीं अनेक प्रकार के मिष्टान्नों को खाने के लिये मैं आया हूँ। मैं आपका पुत्र हूँ। जो मिष्टान्न तीनों लोकों में दुर्लभ हैं, उन पदार्थों को मुझे देकर आप सबसे पहले मेरी पूजा करें। साध्वि! वेदवादियों का कथन है कि पिता पाँच प्रकार के होते हैं। माताएँ अनेक तरह की कही जाती हैं और पुत्र के पाँच भेद हैं। विद्यादाता (गुरु), अन्नदाता, भय से रक्षा करने वाला, जन्मदाता (पिता) और कन्यादाता (श्वसुर) ये मनुष्यों के वेदोक्त पिता कहे गये हैं। गुरुपत्नी, गर्भधात्री (जननी), स्तनदात्री (धाय), पिता की बहिन (बूआ), माता की बहिन (मौसी), माता की सपत्नी (सौतेली माता), अन्न प्रदान करने वाली (पाचिका) और पुत्रवधू– ये माताएँ कहलाती हैं। भृत्य, शिष्य, दत्तक, वीर्य से उत्पन्न (औरस) और शरणागत– ये पाँच प्रकार के पुत्र हैं। इनमें चार धर्मपुत्र कहलाते हैं और पाँचवाँ औरस पुत्र धन का भागी होता है।

विद्यादातान्नदाता च भयत्राता च जन्मदः। कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः।। गुरुपत्नी गर्भधात्री स्तनदात्री पितुः स्वसा। स्वसा मातुः सपत्नी च पुत्रभार्यान्नदायिका।। भृत्यः शिष्यश्च पोष्यश्च वीर्यजः शरणागतः। धर्मपुत्राश्च चत्वारो वीर्यजो धनभागिति।।-(गणपतिखण्ड 8। 47-49)

माता! मैं आप पुत्रहीना का ही अनाथ पुत्र हूँ, वृद्धावस्था से ग्रस्त हूँ और इस समय भूख-प्यास से पीड़ित होकर आपकी शरण में आया हूँ।

गिरिराजकिशोरी! अन्नों में श्रेष्ठ पूड़ी, उत्तम-उत्तम पके फल, आटे के बने हुए नानाप्रकार के पदार्थ, काल-देशानुसार उत्पन्न हुई वस्तुएं, पक्वान्न, चावल के आटे का बना हुआ तिकोना पदार्थ विशेष, दूध, गन्ना, गुड़ के बने हुए द्रव्य, घी, दही, अगहनी का भात, घृत में पका हुआ व्यंजन, गुड़ मिश्रित तिलों के लड्डू, मेरी जानकारी से बाहर सुधा-तुल्य अन्य वस्तुएँ, कर्पूर आदि से सुवासित सुन्दर श्रेष्ठ ताम्बूल, अत्यन्त निर्मल तथा स्वादिष्ट जल– इन सभी सुवासित पदार्थों को, जिन्हें खाकर मेरी सुन्दर तोंद हो जाये, मुझे प्रदान कीजिये।

आपके स्वामी सारी सम्पत्तियों के दाता तथा त्रिलोकी के सृष्टिकर्ता हैं और आप सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली महालक्ष्मीस्वरूपा हैं; अतः आप मुझे रमणीय रत्नसिंहासन, अमूल्य रत्नों के आभूषण, अग्निशुद्ध सुन्दर वस्त्र, अत्यन्त दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र, श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति, मृत्युंजय नामक ज्ञान, सुखप्रदायिनी दानशक्ति और सर्वसिद्धि दीजिये। सतीमाता! आप ही सदा श्रीहरि की प्रिया तथा सर्वस्व प्रदान करने वाली शक्ति हैं; अतः अपने पुत्र के लिये आपको कौन-सी वस्तु अदेय है? मैं उत्तम धर्म और तपस्या में लगे हुए मन को अत्यन्त निर्मल करके सारा कार्य करूँगा, परंतु जन्महेतुक कामनाओं में नहीं लगूँगा; क्योंकि मनुष्य अपनी इच्छा से कर्म करता है, कर्म से भोग की प्राप्ति होती है। वे भोग शुभ और अशुभ दो प्रकार के होते हैं और वे ही दोनों सुख-दुःख के हेतु हैं। जगदम्बिके! न किसी से दुःख होता है न सुख, सब अपने कर्म का ही भोग है; इसलिये विद्वान पुरुष कर्म से विरत हो जाते हैं। सत्पुरुष निरन्तर आनन्दपूर्वक बुद्धिद्वारा हरि का स्मरण करने से, तपस्या से तथा भक्तों के संग से कर्म को ही निर्मूल कर देते हैं; क्योंकि इन्द्रिय और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न हुआ सुख तभी तक रहता है, जब तक उनका नाश नहीं हो जाता, परंतु हरिकीर्तनरूप सुख सब काल में वर्तमान रहता है।

सतीदेवि! हरि ध्यानपरायण भक्तों की आयु नष्ट नहीं होती; क्योंकि काल तथा मृत्युंजय उन पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते– यह ध्रुव है। वे चिरजीवी भक्त भारतवर्ष में चिरकाल तक जीवित रहते हैं और सम्पूर्ण सिद्धियों का ज्ञान प्राप्त करके स्वच्छन्दतापूर्वक सर्वत्रगामी होते हैं। हरिभक्तों को पूर्वजन्म का स्मरण बना रहता है। वे अपने करोड़ों जन्मों को जानते हैं और उनकी कथाएँ कहते हैं; फिर आनन्द के साथ स्वेच्छानुसार जन्म धारण करते हैं। वे स्वयं तो पवित्र होते ही हैं, अपनी लीला से दूसरों को तथा तीर्थों को पवित्र कर देते हैं। इस पुण्यक्षेत्र भारत में वे परोपकार और सेवा के लिये भ्रमण करते रहते हैं। वे वैष्णव जिस तीर्थ में गोदोहन-कालमात्र भी ठहर जाते हैं तो उनके चरणस्पर्श से वसुन्धरा तत्काल ही पवित्र हो जाती है। जिन मनुष्यों को भक्तों का दर्शन अथवा आलिंगन प्राप्त हो जाता है, वे मानो समस्त तीर्थों में भ्रमण कर चुके और उन्हें सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा मिल चुकी।

जैसे सब कुछ भक्षण करने पर भी अग्नि और समस्त पदार्थों का स्पर्श करने पर भी वायु दूषित नहीं कहे जाते, उसी प्रकार निरन्तर हरि में चित्त लगाने वाले भक्त पापों से लिप्त नहीं होते। करोड़ों जन्मों के अन्त में मनुष्य-जन्म मिलता है। फिर मनुष्य-योनि में बहुत-से जन्मों के बाद उसे भक्तों का संग प्राप्त होता है।

सती पार्वति! भक्तों के संग से प्राणियों के हृदय में भक्ति का अंकुर उत्पन्न होता है और भक्तिहीनों के दर्शन से वह सूख जाता है। पुनः वैष्णवों के साथ वार्तालाप करने से वह प्रफुल्लित हो उठता है। तत्पश्चात वह अविनाशी अंकुर प्रत्येक जन्म में बढ़ता रहता है। सती! वृद्धि को प्राप्त होते हुए उस वृक्ष का फल हरि की दासता है। इस प्रकार भक्ति के परिपक्व हो जाने पर परिणाम में वह श्रीहरि का पार्षद हो जाता है। फिर तो महाप्रलय के अवसर पर ब्रह्मा, ब्रह्मलोक तथा सम्पूर्ण सृष्टि का संहार हो जाने पर भी निश्चय ही उसका नाश नहीं होता। अम्बिके! इसलिये मुझे सदा नारायण के चरणों में भक्ति प्रदान कीजिये; क्योंकि विष्णुमाये! आपके बिना विष्णु में भक्ति नहीं प्राप्त होती। आपकी तपस्या और पूजन तो लोकशिक्षा के लिये हैं; क्योंकि आप नित्यस्वरूपा सनातनी देवी हैं और समस्त कर्मों का फल प्रदान करने वाली हैं। प्रत्येक कल्प में श्रीकृष्ण गणेशरूप से आपके पुत्र बनकर आपकी गोद में आते हैं।

यों कहकर वे ब्राह्मण तुरंत ही अन्तर्धान हो गये। वे परमेश्वर इस प्रकार अन्तर्हित होकर बालरूप धारण करके महल के भीतर स्थित पार्वती की शय्या पर जा पहुँचे और जन्मे हुए बालक की भाँति घर की छत के भीतरी भाग की ओर देखने लगे। उस बालक के शरीर की आभा शुद्ध चम्पक के समान थी। उसका प्रकाश करोड़ों चन्द्रमाओं की भाँति उद्दीप्त था। सब लोग सुखपूर्वक उसकी ओर देख सकते थे। वह नेत्रों की ज्योति बढ़ाने वाला था। कामदेव को विमोहित करने वाला उसका अत्यन्त सुन्दर शरीर था। उसका अनुपम मुख शारदीय पूर्णिमा का उपहास कर रहा था। सुन्दर कमल को तिरस्कृत करने वाले उसके सुन्दर नेत्र थे। ओष्ठ और अधरपुट ऐसे लाल थे कि उसे देखकर पका हुआ बिम्बाफल भी लज्जित हो जाता था। कपाल और कपोल परम मनोहर थे। गरुड़ के चोंच की भी निन्दा करने वाली रुचिर नासिका थी। उसके सभी अंग उत्तम थे। त्रिलोकी में कहीं उसकी उपमा नहीं थी। इस प्रकार वह रमणीय शय्या पर सोया हुआ शिशु हाथ-पैर उछाल रहा था।

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड : अध्याय 6 पार्वती जी का व्रतारम्भ के लिये उद्योग, ब्रह्मादि देवों तथा ऋषि आदि का आगमन, शि...
10/08/2025

ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड : अध्याय 6 पार्वती जी का व्रतारम्भ के लिये उद्योग, ब्रह्मादि देवों तथा ऋषि आदि का आगमन, शिव जी द्वारा उनका सत्कार तथा श्रीविष्णु से पुण्यक-व्रत के विषय में प्रश्न, श्रीविष्णु का व्रत के माहात्म्य तथा गणेश की उत्पत्ति का वर्णन करना

#श्रीविष्णु
#व्रत

नारद जी ने पूछा– मुनिश्रेष्ठ! पार्वतीजी ने पति की आज्ञा से किस प्रकार उस शुभदायक व्रत का पालन किया था, वह मुझे बताइये। ब्रह्मन! तत्पश्चात उत्तम व्रतवाली पार्वती के द्वारा उस व्रत के पूर्ण किये जाने पर गोपीश श्रीकृष्ण ने किस प्रकार जन्म धारण किया, वह मुझे बतलाने की कृपा कीजिये।

श्रीनारायण ने कहा– नारद! शिव जी यद्यपि स्वयं ही तप के विधाता हैं तथापि वे पार्वती से व्रत की विधि तथा उसकी दिव्य कथा का वर्णन करके तप करने के लिये चले गये। यद्यपि शिव जी श्रीहरि के ही पृथक स्वरूप हैं तथापि वे वहाँ श्रीहरि की आराधना में संलग्न होकर उन्हीं के ध्यान में तत्पर हो श्रीहरि की भावना करने लगे। वे सनातनदेव ज्ञानानन्द में निमग्न तथा परमानन्द से परिपूर्ण थे और प्रकटरूप से विष्णु मन्त्र के स्मरण में इस प्रकार तल्लीन थे कि उन्हें रात-दिन का आना-जाना ज्ञात नहीं होता था। इधर शुभदायिनी पार्वती देवी ने पति के आज्ञानुसार हर्षपूर्ण मन से व्रतकार्य के लिये ब्राह्मणों तथा भृत्यों को प्रेरित किया और व्रतोपयोगी सभी वस्तुओं को मँगवाकर शुभ मुहूर्त में व्रत करना आरम्भ किया।

उसी समय ब्रह्मा के पुत्र भगवान सनत्कुमार वहाँ आ पहुँचे। वे तेज के मूर्तिमान राशि थे और ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। तदनन्तर पत्नी सहित ब्रह्मा भी प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मलोक से वहाँ पधारे। अत्यन्त भयभीत हुए भगवान महेश्वर भी वहाँ आये। नारद! जो क्षीरसागर में शयन करते हैं तथा जगत के शासक और पालन-पोषण करने वाले हैं, जिनके गले में वनमाला लटकती रहती है, जो रत्नों के आभूषणों से विभूषित हैं तथा जिनके शरीर का वर्ण श्याम है, वे चार भुजाधारी भगवान विष्णु लक्ष्मी तथा पार्षदों के साथ बहुत-सी सामग्री लिये हुए रत्नजटित विमान पर आरूढ़ हो वहाँ उपस्थित हुए।

तत्पश्चात सनक, सनन्दन, कपिल, सनातन, आसुरि, क्रतु, हंस, वोढु, पंचशिख, आरुणि, यति, सुमति, अनुयायियों सहित वसिष्ठ, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, भृगु, अंगिरा, अगस्त्य, प्रचेता, दुर्वासा, च्यवन, मरीचि, कश्यप, कण्व, जरत्कारु, गौतम, बृहस्पति, उतथ्य, संवर्त, सौभरि, जाबालि, जमदग्नि, जैगीषव्य, देवल, गोकामुख, वक्ररथ, पारिभद्र, पराशर, विश्वामित्र, वामदेव, ऋष्यश्रृंग, विभाण्डक, मार्कण्डेय, मृकण्डु, पुष्कर, लोमश, कौत्स, वत्स, दक्ष, बलाग्नि, अघमर्षण, कात्यायन, कणाद, पाणिनि, शाकटायन, शंकु, आपिशलि, शाकल्य, शंख– ये तथा और भी बहुत-से मुनि शिष्योंसहित वहाँ पधारे। मुने! धर्मपुत्र नर-नारायण भी आये। पार्वती के उस व्रत में दिक्पाल, देवता, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और गणोंसहित सभी पर्वत भी उपस्थित हुए। शैलराज हिमालय, जो अनन्त रत्नों के उद्भवस्थान हैं, कौतुकवश अपनी कन्या के व्रत में रत्नाभरणों से अलंकृत हो पत्नी, पुत्र, गण और अनुयायियों सहित पधारे। उनके साथ नाना प्रकार के द्रव्यों से संयुक्त बहुत बड़ी सामग्री थी।

उसमें व्रतोपयोगी मणि-माणिक्य और रत्न थे। अनेक प्रकार की ऐसी वस्तुएँ थीं, जो संसार में दुर्लभ हैं। एक लाख गज-रत्न, तीन लाख अश्व-रत्न, दस लाख गो-रत्न, एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ, चार लाख मुक्ता, एक सहस्र कौस्तुभमणि और अत्यन्त स्वादिष्ट तथा मीठे पदार्थों के एक लाख भार थे। इसके अतिरिक्त पार्वती के व्रत में ब्राह्मण, मनु, सिद्ध, नाग और विद्याधरों के समुदाय तथा संन्यासी, भिक्षुक और बंदीगण भी आये। उस समय कैलास पर्वत के राजमार्गों पर चन्दन का छिड़काव किया गया था। पद्मरागमणि के बने हुए शिवमन्दिर में आम के पल्लवों की बंदनवारें बँधी थीं। कदली के खंभे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह दूब, धान्य, पत्ते, खील, फल और पुष्पों से सुसज्जित था। उपस्थित सारा जन-समुदाय आनन्दपूर्वक उसे निहार रहा था। सारे कैलासवासी परमानन्द में निमग्न थे।

तदनन्तर शंकर जी ने समागत अतिथियों को ऊँचे-ऊँचे सिंहासनों पर बैठाकर उनका आदर-सत्कार किया। पार्वती के इस व्रत में इन्द्र दानाध्यक्ष, कुबेर कोषाध्यक्ष, स्वयं सूर्य आदेश देने वाले और वरुण परोसने के काम पर नियुक्त थे। उस समय दही, दूध, घृत, गुण, चीनी, तेल और मधु आदि की लाखों नदियाँ बहने लगी थीं। इसी प्रकार गेहूँ, चावल, जौ और चिउरे आदि के पहाड़ों-के-पहाड़ लग गये थे। महामुने! पार्वती के व्रत में कैलास पर्वत पर सोना, चाँदी, मूँगा और मणियों के पर्वत-सरीखे ढेर लगे हुए थे। लक्ष्मी ने भोजन तैयार किया था, जिसमें परम मनोहर खीर, पूड़ी, अगहनी का चावल और घृत से बने हुए अनेक विध व्यंजन थे।

देवर्षि गणों के साथ स्वयं नारायण ने भोजन किया। उस समय एक लाख ब्राह्मण परोसने का काम कर रहे थे। (भोजन कर लेने के पश्चात) जब वे रत्नसिंहासनों पर विराजमान हुए, तब परम चतुर लाखों ब्राह्मणों ने उन्हें कर्पूर आदि से सुवासित पान के बीड़े समर्पित किये। ब्रह्मन! देवर्षियों से भरी हुई उस सभा में जब क्षीरसागरशायी भगवान विष्णु रत्नसिंहासन पर आसीन थे, प्रसन्न मुख वाले पार्षद उन पर श्वेत चँवर डुला रहे थे, ऋषि, सिद्ध तथा देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे, वे गन्धर्वों के मनोहर गीत सुन रहे थे, उसी समय ब्रह्मा की प्रेरणा से शंकर जी ने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन ब्रह्मेश से अपने अभीष्य कर्तव्य व्रत के विषय में प्रश्न किया।

श्रीमहादेव जी ने पूछा– प्रभो! आप श्रीनिवास, तपःस्वरूप, तपस्याओं और कर्मों के फलदाता, सबके द्वारा पूजित, सम्पूर्ण व्रतों, जब-यज्ञों और पूजनों के बीजरूप से वांछाकल्पतरु और पापों का हरण करने वाले हैं। नाथ! मेरी एक प्रार्थना सुनिये। ब्रह्मन! पुत्रशोक से पीड़ित हुई पार्वती का हृदय दुःखी हो गया है, अतः वह पुत्र की कामना से परमोत्तम पुण्यक-व्रत करना चाहती है। वह सुव्रता व्रत के फलस्वरूप में उत्तम पुत्र और पति-सौभाग्य की याचना कर रही है। इनके बिना उसे संतोष नहीं है। प्राचीन काल में इस मानिनी ने अपने पिता के यज्ञ में मेरी निन्दा होने के कारण अपने शरीर का त्याग कर दिया था और अब पुनः हिमालय के घर में जन्म धारण किया है। यह सारा वृत्तान्त तो आप जानते ही हैं, आप सर्वज्ञ को मैं क्या बतलाऊँ। तत्त्वज्ञ! इस विषय में आपकी क्या आज्ञा है? आप परिणाम में शुभप्रदायिनी अपनी वह आज्ञा बतलाइये। नाथ! मैंने सब कुछ निवेदन कर दिया है, अब जो कर्तव्य हो, उसे बताने की कृपा कीजिये; क्योंकि परामर्शपूर्वक किया हुआ सारा कार्य परिणाम में सुखदायक होता है।

श्रीनारायण जी कहते हैं– नारद! उस सभा में यों कहकर भगवान शंकर ने कमलापति विष्णु की स्तुति की और फिर ब्रह्मा के मुख की ओर देखकर वे चुप हो गये। शंकर जी का वचन सुनकर जगदीश्वर विष्णु ठठाकर हँस पड़े और हितकारक तथा नीतिपूर्ण वचन कहने लगे।

श्रीविष्णु ने कहा– पार्वतीश्वर! आपकी पत्नी सती संतान-प्राप्ति के लिये इस उत्तम पुण्यक-व्रत को करना चाहती है, वह व्रतों का सारतत्त्व, स्वामि-सौभाग्य का बीज, सबके द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सम्पूर्ण अभीष्ट फल का दाता, सुखदायक, सुख का सार तथा मोक्षप्रद है। जो सबके आत्मा, साक्षीस्वरूप, ज्योतिरूप, सनातन, आश्रयरहित, निर्लिप्त, उपाधिहीन, निरामय, भक्तों के प्राणस्वरूप, भक्तों के ईश्वर, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, दूसरों के लिये दुराराध्य, परंतु भक्तों के लिये सुसाध्य, भक्ति के वशीभूत, सर्वसिद्ध और कलारहित हैं, ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिन पुरुष की कलाएँ हैं, महान विराट जिनका एक अंश है, जो निर्लिप्त, प्रकृति से परे, अविनाशी, निग्रहकर्ता, उग्रस्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रहस्वरूप, ग्रहों में उग्र ग्रह और ग्रहों का निग्रह करने वाले हैं, वे भगवान आपके बिना करोड़ों जन्मों में भी साध्य नहीं हो सकते।

सूर्य, शिव, नारायणी माया, कला आदि की दीर्घकाल तक उपासना करने के बाद मनुष्य भक्त-संसर्ग की हेतुस्वरूपा कृष्ण भक्ति को पाता है। शिव जी! उस निष्पक्व भक्ति को पाकर भारतवर्ष में बारंबार भ्रमण करते हुए जब भक्तों की सेवा करने से उसकी भक्ति परिपक्व हो जाती है, तब भक्तों की कृपा से तथा देवताओं के आशीर्वाद से उसे श्रीकृष्ण मन्त्र प्राप्त होता है, जो परमोत्कृष्ट निर्वाणरूप फल प्रदान करने वाला है। कृष्णव्रत और कृष्णमन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं के फल के प्रदाता हैं। चिरकाल तक श्रीकृष्ण की सेवा करने से भक्त श्रीकृष्ण-तुल्य हो जाता है। महाप्रलय के अवसर पर समस्त प्राणियों का विनाश हो जाता है– यह सर्वथा निश्चित है; परंतु जो कृष्ण भक्त हैं, वे अविनाशी हैं। उन साधुओं का नाश नहीं होता। शिव जी! श्रीकृष्णभक्त अत्यन्त निश्चिन्त होकर अविनाशी गोलोक में आनन्द मनाते हैं।

महेश्वर! आप सबका संहार करने वाले हैं, परंतु कृष्णभक्तों पर आपका वश नहीं चलता। उसी प्रकार माया सबको मोहग्रस्त कर लेती है, परंतु मेरी कृपा से वह भक्तों को नहीं मोह पाती। नारायणी माया समस्त प्राणियों की माता है। वह कृष्णभक्ति का दान करने वाली है, वह नारायणी माया मूलप्रकृति, अधीश्वरी, कृष्णप्रिया, कृष्णभक्ता, कृष्णतुल्या, अविनाशिनी, तेजःस्वरूप और स्वेच्छानुसार शरीर धारण करने वाली है। (दैत्यों द्वारा) सुरनिग्रह के अवसर पर वह देवताओं के तेज से प्रकट हुई थी। उसने दैत्यसमूहों का संहार करके दक्ष के अनेक जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप भारतवर्ष में दक्षपत्नी के गर्भ से जन्म लिया।

फिर वह सती देवी, जो सनातनी कृष्णशक्ति हैं पिता के यज्ञ में आपकी निन्दा होने के कारण शरीर का त्याग करके गोलोक को चली गयीं। शंकर! तब पूर्वकाल में आप उनके रूप तथा गुण के आश्रयभूत परम सुन्दर शरीर को लेकर भारतवर्ष में भ्रमण करते हुए दुःखी हो गये थे। उस समय श्रीशैल पर नदी के किनारे मैंने आपको समझाया था। फिर उसी देवी ने शीघ्र ही शैलराज की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया।

शंकर! उत्तम व्रत का आचरण करने वाली साध्वी शिवा पुण्यक नामक उत्तम व्रत का अनुष्ठान करें। इस व्रत के पालन से सहस्रों राजसूय-यज्ञों का पुण्य प्राप्त होता है। त्रिलोचन! इस व्रत में सहस्रों राजसूय-यज्ञों के समान धन का व्यय होता है, अतः यह व्रत सभी साध्वी महिलाओं द्वारा साध्य नहीं है। इस पुण्यक-व्रत के प्रभाव से स्वयं गोलोकनाथ श्रीकृष्ण पार्वती के गर्भ से उत्पन्न होकर आपके पुत्र होंगे। वे कृपानिधि स्वयं समस्त देवगणों के ईश्वर हैं, इसलिये त्रिलोकी में ‘गणेश’ नाम से विख्यात होंगे।

जिनके स्मरणमात्र से निश्चय ही जगत के विघ्नों का नाश हो जाता है, इस कारण उन विभु का नाम ‘विघ्ननिघ्न’ हो गया। चूँकि पुण्यक-व्रत में उन्हें नाना प्रकार के द्रव्य समर्पित किये जाते हैं, जिन्हें खाकर उनका उदर लंबा हो जाता है; अतः वे ‘लम्बोदर’ कहलायेंगे। शनि की दृष्टि पड़ने से सिर के कट जाने पर पुनः हाथी का सिर जोड़ा जायेगा, इस कारण उन्हें ‘गजानन’ कहा जायेगा। परशुराम जी के फरसे से जब इनका एक दाँत टूट जायेगा, तब ये अवश्य ही ‘एकदन्त’ नाम वाले होंगे। वे ऐश्वर्यशाली शिशु सम्पूर्ण देवगणों के, हमलोगों के तथा जगत के पूज्य होंगे।

मेरे वरदान से उनकी सबसे पहले पूजा होगी। सम्पूर्ण देवों की पूजा के समय सबसे पहले उनकी पूजा करके मनुष्य निर्विघ्नतापूर्वक पूजा के फल को पा लेता है, अन्यथा उसकी पूजा व्यर्थ हो जाती है।

मनुष्यों को चाहिये कि गणेश, सूर्य, विष्णु, शम्भु, अग्नि और दुर्गा– इन सबकी पहले पूजा करके तब अन्य देवता का पूजन करे। गणेश का पूजन करने पर जगत के विघ्न निर्मूल हो जाते हैं। सूर्य की पूजा से नीरोगता आती है। श्रीविष्णु के पूजन से पवित्रता, मोक्ष, पापनाश, यश और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है। शंकर का पूजन तत्त्वज्ञान के विषय में परम तृप्ति का बीज है। अग्नि का पूजन अपनी बुद्धि की शुद्धि का उत्पादक कहा गया है।

ब्रह्मा द्वारा संस्कृत अग्नि की पूजा से मनुष्य अन्त समय में ज्ञान-मृत्यु को प्राप्त करता है तथा शंकराग्नि के सेवन से दाता और भोक्ता होता है। दुर्गा की अर्चना हरिभक्ति प्रदान करने वाली तथा परम मंगलदायिनी होती है। इनकी पूजा के बिना अन्य की पूजा करने से वह पूजन विपरीत हो जाता है। महादेव! त्रिलोकी के लिये यही क्रम प्रत्येक कल्प में निश्चित है। ये देव निरन्तर विद्यमान रहने वाले, नित्य तथा सृष्टिपरायणं हैं। इनका आविर्भाव और तिरोभाव ईश्वर की इच्छा पर ही निर्भर है। उस सभा के बीच यों कहकर श्रीहरि मौन हो गये। उस समय देवता, ब्राह्मण तथा पार्वती सहित शंकर परम प्रसन्न हुए।

Address

Koramangala
Bangalore

Telephone

+917989782763

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Business

Send a message to ब्रह्मवैवर्त पुराण Brahmvaivart Puran:

Share