अग्नि पुराण Agni Puran

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अग्नि पुराण Agni Puran जो अग्निपुराण श्रवण करते हैं, उन्हें तीर्थ-सेवन, गोदान, यज्ञ तथा उपवास आदि की क्या आवश्यकता है ?

‘अग्निपुराण’ ब्रह्मस्वरूप हैं |

अग्निपुराण परम पवित्र, आरोग्य एवं धनका साधक, दुःस्वप्न का नाश करनेवाला, मनुष्यों को सुख और आनन्द देनेवाला तथा भवबंधन से मोक्ष दिलानेवाला है |

जिनके घरों में हस्तलिखित अग्निपुराण की पोथी मौजूद होगी, वहा उपद्रवों का जोर नहीं चल सकता |

जो मनुष्य प्रतिदिन अग्निपुराण श्रवण करते हैं, उन्हें तीर्थ-सेवन, गोदान, यज्ञ तथा उपवास आदि की क्या आवश्यकता है ?

जो प्रतिदिन एक प्र

स्थ तिल और एक माशा सुवर्ण दान करता है तथा जो अग्निपुराण का एक ही श्लोक सुनता है, उन दोनों का फल समान है |

श्लोक सुनानेवाला पुरुष तिल और सुवर्ण-दान का फल पा जाता है |

इसके एक अध्याय का पाठ गोदान से बढकर है |

इस पुराण को सुनने की इच्छामात्र करनेसे दिन-रातका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता हैं |

वृद्धपुष्कर-तीर्थ में सौ कपिला गौओं का दान करने से जो फल मिलता है, वही अग्निपुराण का पाठ करने से मिल जाता हैं |

‘प्रवुत्ति’ और ‘निवृत्ति’ रूप धर्म तथा ‘परा’ और ‘अपरा’ नामवाली दोनों विद्याएँ इस ‘अग्निपुराण’ नामक शास्त्र की समानता नहीं कर सकती |

प्रतिदिन अग्निपुराण का पाठ अथवा श्रवण करनेवाला भक्त-मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता हैं |

जिस घर में अग्निपुराण की पुस्तक रहेगी, वहाँ विघ्न-बाधाओं, अनर्थों तथा चोरों आदि का भय नहीं होगा |

जहाँ अग्निपुराण रहेगा, उस घर में गर्भपात का भय न होगा, बालकों को ग्रह नहीं सतायेंगे तथा पिशाच आदि का भय भी निवृत्त हो जायेगा |

इस पुराण का श्रवण करनेवाला ब्राह्मण वेदवेत्ता होता है, क्षत्रिय पृथ्वी का राजा होता है, वैश्य धन पाता हैं, शुद्र नीरोग रहता है |

जो भगवान विष्णु में मन लगाकर सर्वत्र समानदृष्टि रखते हुए ब्रह्मस्वरुप अग्निपुराण का प्रतिदिन पाठ या श्रवण करता हैं, उसके दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम आदि सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं |

इस पुस्तक के पढने-सुनने और पूजन करनवाले पुरुष के और भी जो कुछ पाप होते हैं, उन सबको भगवान् केशव नष्ट कर देते हैं |

जो मनुष्य हेमंत-ऋतू में गंध और पुष्प आदि से पूजा करके श्री अग्निपुराण का श्रवण करता हैं, उसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता हैं |

शिशिर-ऋतू में इसके श्रवण से पुंडरिक का तथा वसंत-ऋतू में अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है |

गर्मी में वाजपेय का, वर्षा में राजसूय का तथा शरद-ऋतू में इस पुराण का पाठ और श्रवण करनेसे एक हजार गोदान करने का फल प्राप्त होता है |

जिसके घर में हस्तलिखित अग्निपुराण की पूस्तक पूजित होती है, उसे सदा ही विजय प्राप्त होती है तथा भोग और मोक्ष – दोनों ही उसके हाथ में रहते हैं – यह बात पूर्वकाल में कालाग्निस्वरुप श्रीहरि ने स्वयं ही बतायी थी |

आग्नेय पुराण ब्रह्मविद्या एवं अद्वैतज्ञान रूप है |
यह अग्निपुराण ‘परा-अपरा’ – दोनों विद्याओं का स्वरुप है |

अग्निदेव के द्वारा वर्णित यह ‘आग्नेय पुराण’ वेड के तुल्य माननीय है तथा यह सभी विषयों का ज्ञान करानेवाला हैं |

जो इसका पाठ या श्रवण करेगा, जो इसे स्वयं लिखेगा या दूसरों से लिखायेगा, शिष्यों का पढ़ायेगा या सुनायेगा अथवा इस पुस्तक का पूजन या धारण करेगा, वह सब पापों से मुक्त एवं पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोक में जायगा |

जो इस उत्तम पुराण को लिखाकर ब्राह्मणों को दान देता हैं, वह ब्रह्मलोक में जाता हैं तथा अपने कुल की सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता हैं |

जो एक श्लोक का भी पाठ करता हैं, उसका पाप-पंक से छुटकारा हो जाता हैं |
अग्निपुराण का पठन और चिन्तन अत्यंत शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं |
यह परम पद प्रदान करनेवाला है |

आग्नेय पुराण परम दुर्लभ हैं, भाग्यवान पुरुषों को ही यह प्राप्त होता है |

‘ब्रह्म’ या ‘वेड स्वरुप’ इस अग्निपुराण का चिन्तन करनेवाले पुरुष श्रीहरि को प्राप्त होते हैं |

इसके चिन्तन से विद्यार्थियों को विद्या और राज्य की इच्छा रखनेवालों को राज्य की प्राप्ति होती है |

जिन्हें पुत्र नहीं है, उन्हें पुत्र मिलता हैं तथा जो लोग निराश्रय है, उन्हें आश्रय प्राप्त होता है |

सौभाग्य चाहनेवाले सौभाग्य को तथा मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य मोक्ष को पाते हैं |

इसे लिखने और लिखानेवाले लोग पापरहित होकर लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं |

इससे बढकर सर्वोत्तम सार, इससे उत्तम सुह्रद, इससे श्रेष्ठ ग्रन्थ तथा इससे उत्कृष्ट कोई गति नहीं हैं |

इस पुराण से बढकर शास्त्र नहीं है, इससे बढकर वेदान्त भी नहीं है |

यह पुराण सर्वोत्कृष्ट है |

इस पृथ्वी पर अग्निपुराण से बढकर श्रेष्ठ और दुर्लभ वस्तु कोई नहीं है |

जो इसे सुनता या सुनाता, पढ़ता या पढाता, लिखता या लिखवाता तथा इसका पूजन और कीर्तन करता हैं, वह परम शुद्ध हो सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करके कुलसहित स्वर्ग को जाता हैं |

जो इस पुस्तक के लिये पेटी, सूत, पत्र, काठ की पट्टी, उसे बाँधने की रस्सी तथा वेष्टन वस्त्र आदि दान करता हैं, वह स्वर्गलोक को जाता है |

जो अग्निपुराण की पुस्तक का दान करता है, वह ब्रह्मलोक में जाता है |

जिसके घर में यह पुस्तक रहती है, उसके यहाँ उत्पातका भय नहीं रहता |

वह भोग और मोक्ष को प्राप्त होता है |

 #अग्निपुराण
04/06/2025

#अग्निपुराण

अध्याय – ५७ संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म #अग्निपुराण   #संस्कारों   पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! अब मैं आश्...
30/10/2024

अध्याय – ५७ संस्कारों का वर्णन और ब्रह्मचारी के धर्म

#अग्निपुराण
#संस्कारों

पुष्कर कहते हैं – परशुरामजी ! अब मैं आश्रमी पुरुषों के धर्म का वर्णन करूँगा; सुनो ! यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं | स्त्रियों के ऋतूधर्म की सोलह रात्रियाँ होती हैं, उनमें पहले की तीन रातें निन्दित हैं | शेष रातों में जो युग्म अर्थात चौथी, छठी, आठवीं और दसवीं आदि रात्रियाँ हैं, उनमें ही पुत्र की इच्छा रखनेवाला पुरुष स्त्री- समागम करे | यह ‘गर्भाधान-संस्कार’ कहलाता हैं | ‘गर्भ’ रह गया – इस बातका स्पष्टरुप से ज्ञान हो जानेपर गर्भस्थ शिशु के हिलने-डुलनेसे पहले ही ‘पुंसवन-संस्कार’ होता हैं | तत्पश्यात छठे या आठवें मास में ‘सीमन्तोत्रयन’ किया जाता हैं | उस दिन पुल्लिंग नामवाले नक्षत्र का होना शुभ हैं | बालक का जन्म होनेपर नाल काटने के पहले ही विद्वान् पुरुषों को उसका ‘जातकर्म-संस्कार’ करना चाहिये | सूतक निवृत्त होनेपर ‘नामकरण-संस्कार’ का विधान हैं | ब्राह्मण के नाम के अन्तमें ‘शर्मा’ और क्षत्रिय के नाम के अंत में ‘वर्मा’ होना चाहिये | वैश्य और शुद्र के नामों के अंत में क्रमश: ‘गुप्त’ और ‘दास’ पदका होना उत्तम माना गया हैं | उक्त संस्कार के समय पत्नी स्वामी की गोद में पुत्रको दे और कहे –‘यह आपका पुत्र है’ ||१-५||

फिर कुलाचार के अनुरूप ‘चूडाकरण’ करे | ब्राह्मण बालक का ‘उपनयन-संस्कार’ गर्भ अथवा जन्म से आठवे वर्ष में होना चाहिये | गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय बालक का तथा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य बालक का उपनयन करना चाहिये | ब्राह्मण बालक का उपनयन सोलहवें, क्षत्रिय बालक का बाईसवें और वैश्य बालक का चौबीसवें वर्ष से आगे नहीं जाना चाहिये | तीनों वर्णों के लिये क्रमश: मूँज, प्रत्यंच्या तथा वल्कलकी मेखला बतायी गयी है | इसप्रकार तीनों वर्णों के ब्रह्मचारियों के लिये क्रमश: मृग, व्याघ्र तथा बकरे के चर्म और पलाश, पीपल तथा बेल के दण्ड धारण करने योग्य बताये गये हैं | ब्राह्मण का दण्ड उसके केशतक, क्षत्रिय का ललाटतक और वैश्य का मुखतक लंबा होना चाहिये | इसप्रकार क्रमश: दण्डों की लंबाई बतायी गयी है | ये दण्ड टेढ़े – मेढ़े न हों | इनके छिलके मौजूद हों तथा ये आगमें जलाये न गये हों ||६-९||

उक्त तीनों वर्णों के लिये वस्त्र और यज्ञोपवीत क्रमश: कपास (रुई), रेशम तथा उनके होने चाहिये | ब्राह्मण ब्रह्मचारी भिक्षा माँगते समय वाक्य के आदि में ‘भवत’ शब्द का प्रयोग करे | [जैसे माताके पास जाकर कहे – ‘भवति भिक्षां में देहि मात: |’ पूज्य माताजी ! मुझे भिक्षा दें | ] इसीप्रकार क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्य के मध्य में तथा वैश्य ब्रह्मचारी वाक्य के अन्तमें ‘भवत’ शब्द का प्रयोग करें | (यथा –क्षत्रिय – भिक्षां भवति में देहि | वैश्य – भिक्षां में देहि भवति|) पहले वहीँ भिक्षा माँगे, जहाँ भिक्षा अवश्य प्राप्त होने की सम्भावना हो | स्त्रियों के अन्य सभी संस्कार बिना मन्त्र के होने चाहिये, केवल विवाह-संस्कार ही मंत्रोच्चारणपूर्वक होता हैं | गुरु को चाहिये कि वह शिष्य का उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार करके पहले शौचाचार, सदाचार, अग्निहोत्र तथा संध्योपासना की शिक्षा दे ||१०-१२||

जो पूर्वकी ओर मुँह करके भोजन करता हैं, वह आयुष्य भोगता हैं, दक्षिण की ओर मुँह करके खानेवाला यशका, पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करनेवाला लक्ष्मी (धन) का तथा उत्तर की ओर मुँह करके अन्न ग्रहण करनेवाला पुरुष सत्यका उपभोग करता हैं | ब्रह्मचारी प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल अग्निहोत्र करे | अपवित्र वस्तुका होम निषिद्ध हैं | होम के समय हाथ की अन्गुलियों को परस्पर सटाये रहे | मधु, मांस, मनुष्यों के साथ विवाद, गाना और नाचना आदि छोड़ दे | हिंसा, परायी निंदा तथा विशेषत: अश्लील चर्चा (गाली=गलौच आदि) का त्याग करे | दण्ड आदि धारण किये रहे } यदि वह टूट जाय तो जलमें उसका विसर्जन कर दे और नवीं दण्ड धारण करे | वेदों का अध्ययन पूरा करके गुरु को दक्षिणा देने के पश्चात व्रतांत-स्नान करे; अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर जीवनभर गुरुकुल में ही निवास करता रहे ||१३-१६||

इसीप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ब्रह्मचर्याश्रम –वर्णन’ नामक का सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ||५७||

23/10/2024

श्रीभगवान ने कहा–यह सब ‘ज्ञान’ कहा गया हैं और जो इसके विपरीत हैं वह ‘अज्ञान’ है | गीता | अग्नि पुराण

#ज्ञान
#गीता


ज्ञान की बातें
ज्ञान की बात
ज्ञान बिंदु
ज्ञान गंगा
ज्ञान की कहानी
ज्ञान घटे नर मूढ़
ज्ञान की कथा
ज्ञान की ज्योति

अज्ञान तिमिराच्धस्य ज्ञानाझन
अज्ञान के अंधेरों से
अज्ञान पालक कायदा
अज्ञान पणात पाप पुण्या ते
अज्ञान म्हणजे काय
अज्ञान ते दूर झाले
अज्ञान से ज्ञान तक
अज्ञान का विलोम शब्द
अज्ञान बाब्ठाचा झाला गुन्हा
अज्ञान क्या है

गीता उपदेश
गीता सार
गीता का ज्ञान

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श्रीभगवान ने कहा – अर्जुन ! अभिमान शून्यता, दम्भ का अभाव, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु सेवा, बाहर भीतर की शुद्धि, अंत:करण की स्थिरता, मन, इन्द्रिय एवं शरीर का निग्रह, विषय भोगों में आसक्ति का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा, तथा रोग आदि में दुःखरूप दोष का बारं बार विचार करना, पुत्र, स्त्री और गृह आदि में आसक्ति और ममता का अभाव - यह सब ‘ज्ञान’ कहा गया हैं और जो इसके विपरीत हैं, वह ‘अज्ञान’ है “ | अग्नि पुराण अध्याय – ११६ गीता – सार

अध्याय – २८ आचार्य के अभिषेक का विधान #आचार्य #अभिषेक नारदजी कहते हैं – महर्षियों ! अब मैं आचार्य के अभिषेक का वर्णन करू...
22/10/2024

अध्याय – २८ आचार्य के अभिषेक का विधान

#आचार्य
#अभिषेक

नारदजी कहते हैं – महर्षियों ! अब मैं आचार्य के अभिषेक का वर्णन करूँगा, जिसे पुत्र अथवा पुत्रोपम श्रद्धालु शिष्य सम्पादित कर सकता हैं | इस अभिषेक से साधक सिद्धिका भागी होता है और रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है | राजाको राज्य और स्त्री को पुत्रकी प्राप्ति होती है | इससे अंत:करण के मलका नाश होता है | मिट्टी के बहुत-से घड़ों में उत्तम रत्न रखकर एक स्थानपर स्थापित करे | पहले एक घडा बीचमें रखे; फिर उसके चारों ओर घट स्थापित करे | इसतरह एक सहस्त्र या एक सौ आवृत्तिमें उन सबकी स्थापना करे | फिर मण्डप के भीतर कमलाकर मण्डल में पूर्व और ईशानकोण के मध्यभाग में पीठ या सिंहासनपर भगवान् विष्णु को स्थापित करके पुत्र एवं साधक आदि का सकलीकरण करे | तदनन्तर शिष्य या पुत्र भगवत्पूजनपूर्वक गुरुकी अर्चना करके उन कलशों के जलसे उनका अभिषेक करे | उससमय गीत-वाद्य का उत्सव होता रहे | फिर योगपीठ आदि गुरुको अर्पित कर दे और प्रार्थना करे – ‘गुरुदेव ! आप हम सब मनुष्यों को कृपापूर्वक अनुगृहित करें |’ गुरु भी उनको समय-दीक्षा के अनुकूल आचार का उपदेश दे | इससे गुरु और साधक भी सम्पूर्ण मनोरथों के भागी होते हैं ||१-५||

इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘आचार्य के अभिषेक की विधिका वर्णन’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ||२८||

18/10/2024

को जो in reality से जानना हैं वही मेरे opinion में knowledge | गीता | Gita | अग्नि पुराण | AgniPuran


#गीता


गीता उपदेश
गीता सार
गीता का ज्ञान
Gita updesh

श्रीभगवान ने कहा – अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र’ हैं; जो इसे जानता हैं, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ कहा गया है | ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ को जो याथार्थ रूप से जानना हैं, वही मेरे मत में ‘ज्ञान’ है | पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूल प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति – यह विकारों सहित ‘क्षेत्र’ हैं | जिसे यहाँ संक्षेप से बतलाया गया हैं | अग्नि पुराण अध्याय – ११६ गीता – सार

God said Arjun These bodies r fields who knows this is called Kshetragya Wat FIELDS field knowling to know in reality is in my opinion knowledge 5 mahabhutas ego intellect UNmanifest ORIGINAL nature 10 senses 1 mind objects of 5 SENSES desire hatred happiness pleasure sadness pain GROSS body consciousness and patience these r fields including along with its defects DISorders which is summarized here has been described in brief AgniPuran Chapter 116 Gita Essence

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अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन #अग्निपुराण   #देवालय    अग्निदेव कहते हैं – मुनिवर वसिष्...
17/10/2024

अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन

#अग्निपुराण
#देवालय

अग्निदेव कहते हैं – मुनिवर वसिष्ठ ! भगवान् वासुदेव आदि विभिन्न देवताओं के निमित्त मंदिर का निर्माण कराने से जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, अब मैं उसीका वर्णन करूँगा | जो देवता के लिये मंदिर-जलाशय आदिके निर्माण कराने की इच्छा करता हैं, उसका वह शुभ संकल्प ही उसके हजारों जन्मों के पापों का नाश कर देता हैं | जो मनसे भावनाद्वारा भी मंदिरका निर्माण करते हैं, उनमे सैकड़ों जन्मों के पापों का नाश हो जाता हैं | जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण के लिये किसी दुसरे के द्वारा बनवाये जाते हुए मंदिर के निर्माण कार्य का अनुमोदन मात्र कर देते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त हो उन अच्युतदेव के लोक (वैकुण्ठ अथवा गोलोकधाम को) प्राप्त होते हैं | भगवान् विष्णु के निमित्त मंदिर का निर्माण करके मनुष्य अपने भूतपूर्व तथा भविष्य में होनेवाले दस हजार कुलों को तत्काल विष्णुलोक में जाने का अधिकारी बना देता हैं | श्रीकृष्ण-मंदिर का निर्माण करनेवाले मनुष्य के पितर नरक के क्लेशों से तत्काल छुटकारा पा जाते हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो बड़े हर्ष के साथ विष्णुधाम में निवास करते हैं | देवालय का निर्माण ब्रह्महत्या आदि पापों के पुंज का नाश करनेवाला हैं ||१-५||

यज्ञों से जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती हैं, वह भी देवालय का निर्माण करानेमात्र से प्राप्त हो जाता है | देवालय का निर्माण करा देनेपर समस्त तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त हो जाता हैं | देवता-ब्राह्मण आदि के लिये रणभूमि में मारे जानेवाले धर्मात्मा शूरवीरों को जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, वाही देवालय के निर्माण से भी सुलभ होता हैं | कोई शठता (कंजूसी) के कारण धुल-मिट्टीसे भी देवालय बनवा दे तो वह उसे स्वर्ग या दिव्यलोक प्रदान करनेवाला होता हैं | एकायतन (एक ही देवविग्रह के लिये एक कमरेका ) मंदिर बनवानेवाले पुरुष को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है | त्र्यायतन –मंदिर का निर्माता ब्रह्मलोक में निवास पाता है |पंचायतन मंदिर का निर्माण करनेवाले को शिवलोक की प्राप्ति होती है और अष्टायतन मंदिर के निर्माण से श्रीहरि के सनिधिमें रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है | जो षोडशायतन मंदिर का निर्माण कराता है, वह भोग और मोक्ष, दोनों पाता है | श्रीहरि के मंदिर की तीन श्रेणियाँ हैं – कनिष्ठ, माध्यम और श्रेष्ठ | इनका निर्माण कराने से क्रमश: स्वर्गलोक, विष्णुलोक तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है | धनि मनुष्य भगवान् विष्णु का उत्तम श्रेणी का मंदिर बनवाकर जिस फल को प्राप्त करता हैं, उसे ही निर्धन मनुष्य निम्नश्रेणी का मंदिर बनवाकर भी प्राप्त कर लेता हैं | धन-उपार्जनकर उसमें से थोडा-सा ही खर्च करके यदि मनुष्य देव-मंदिर बनवा ले तो बहुत अधिक पुण्य एव, भगवान् का वरदान प्राप्त करता हैं | एक लाख या एक हजार या एक सौ अथवा उसका आधा (५०) मुद्रा ही खर्च करके भगवान् विष्णु का मंदिर बनवानेवाला मनुष्य उस नित्य धाम को प्राप्त होता हैं, जहाँ साक्षात् गरुड की ध्वजा फहरानेवाले भगवान् विष्णु विराजमान होते हैं ||६-१२||

जो लोग बचपन में खेलते समय धूलि से भगवान् विष्णु का मंदिर बनाते हैं, वे भी उनके धाम को प्राप्त होते हैं | तीर्थमें, पवित्र स्थानमें, सिद्धक्षेत्रमें तथा किसी आश्रमपर जो भगवान् विष्णुका मंदिर बनवाते हैं, उन्हें अन्यत्र मंदिर बनाने का जो फल बताया गया हैं, उससे तीन गुना अधिक फल मिलता हैं | जो लोग भगवान् विष्णु के मंदिर को चुने से लिपाते और उसपर बन्धुक के फुल का चित्र बनाते हैं, वे अन्तमें भगवान् के धाम में पहुँच जाते हैं | भगवान् का जो मंदिर गिर गया हो, गिर रहा हो, अथवा आधा गिर चूका हो, उसका जो मनुष्य जीर्णोद्धार करता हैं, वह नवीन मंदिर बनवाने की अपेक्षा दूना पुण्यफल प्राप्त करता हैं | जो गिरे हुए विष्णु-मंदिर को पुन: बनवाता और गिरे हुए की रक्षा करता है, वह मनुष्य साक्षात भगवान् विष्णु का स्वरुप प्राप्त करता हैं | भगवान् के मंदिर की ईटे जबतक रहती हैं, तबतक उसका बनवालेवाला विष्णुलोक में कुलसहित प्रतिष्ठित होता है | इस संसार में और परलोक में वही पुण्यवान और पूजनीय हैं ||१३-२०||

जो भगवान् श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाता हैं, वही पुण्यवान उत्पन्न हुआ है, उसीने अपने कुल की रक्षा की है | जो भगवान् विष्णु, शिव, सूर्य और देवी आदिका मंदिर बनवाता है, वाही इस लोकमें कीर्ति का भागी होता हैं | सदा धन की रक्षा में लगे रहनेवाले मुर्ख मनुष्य को बड़े कष्ट से कमाये हुए अधिक धन से क्या लाभ हुआ, यदि उससे श्रीकृष्ण का मंदिर ही नहीं बनवाता | जिसका धन पितरों, ब्राह्मणों और देवताओं के उपयोग में नहीं आ सका, उसके धनकी प्राप्ति व्यर्थ हुई | जैसे प्राणियों की मृत्यु निश्चित हैं, उसी प्रकार कमाये हुए धनका नाश भी निश्चित है | मूर्ख मनुष्य ही क्षणभंगुर जीवन और चचंल धन के मोह में बंधा रहता हैं | जब धन दान के लिये, प्राणियों के उपभोग के लिये, कीर्ति के लिये और धर्म के लिये काम में नहीं लाया जा सके तो उस धन का मालिक बनने में क्या लाभ हैं ? इसलिये प्रारब्ध से मिले अथवा पुरुषार्थसे, किसी भी उपाय से धनको प्राप्तकर उसे उत्तम ब्राह्मणों को दान दें, अथवा कोई स्थिर कीर्ति बनवावे | चूँकि दान और कीर्ति से भी बढ़कर मंदिर बनवाना हैं, इसलिये बुद्धिमान मनुष्य विष्णु आदि देवताओं का मंदिर आदि बनवावे | भक्तिमान श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा यदि भगवान् के मंदिर का निर्माण और उसमें भगवान् का प्रवेश (स्थापन आदि) हुआ तो यह समझना चाहिये कि उसने समस्त चराचर त्रिभुवन को रहनेके लिये भवन बनवा दिया | ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल, सूक्ष्म और इससे भिन्न है, वह सब भगवान् विष्णु से प्रकट हुआ है | उन देवाधिदेव सर्वव्यापक महात्मा विष्णु का मंदिर में स्थापन करके मनुष्य पुन:संसार में जन्म नहीं लेता (मुक्त हो जाता हैं) | जिसप्रकार विष्णु का मंदिर बनवाने में फल बताया गया हैं, उसीप्रकार अन्य देवताओं- शिव, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, दुर्गा और लक्ष्मी आदि का भी मंदिर बनवाने से होता हैं | मंदिर बनवाने से अधिक पुण्य देवताकी प्रतिमा बनवाने में हैं | देव-प्रतिमा की स्थापना-सम्बन्धी जो यज्ञ होता है, उसके फल का तो अंत ही नहीं हैं | कच्ची मिटटी की प्रतिमासे लकड़ी की प्रतिमा उत्तम है, उससे ईट की, उससे भी पत्थर की और उससे भी अधिक सुवर्ण आदि धातुओं की प्रतिमा का फल है | देवमंदिर का प्रारम्भ करने मात्र से सात जन्मों के किये हुए पाप का नाश हो जाता है तथा बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी होता है, वह नरक में नहीं जाता | इतना ही नहीं, वह मनुष्य अपनी सौ पीढ़ी का उद्धार करके उसे विष्णुलोक में पहुंचा देता हैं | यमराज ने अपने दूतों से देवमंदिर बनानेवालों को लक्ष्य करके ऐसा कहा था ||२१-३५||

यम बोले – (देवालय और) देव-प्रतिमा का निर्माण तथा उसकी पूजा आदि करनेवाले मनुष्यों को तुमलोग नरक में न ले आना तथा जो देव-मन्दिर आदि नहीं बनवाते, उन्हें ख़ास तौरपर पकड़ लाना | जाओ ! तुमलोग संसार में विचरो और न्यायपूर्वक मेरी आज्ञाका पालन करो | संसार के कोई भी प्राणी कभी तुम्हारी आज्ञा नहीं टाल सकेंगे | केवल उन लोगों को तुम छोड़ देना जो कि जगत्पिता भगवान् अनंत की शरण में जा चुके हैं; क्योंकि उन लोगों की स्थिति यहाँ (यमलोक में) नहीं होती | संसार में जहाँ भी भगवान् में चित्त लगायें हुए, भगवान् की ही शरण में पड़े हुए भगवद्भक्त महात्मा सदा भगवान् विष्णु की पूजा करते हों, उन्हें दूरसे ही छोडकर तुम लोग चले जाना | जो स्थिर होते, सोते, चलते, उठते, गिरते, पड़ते या खड़े होते समय भगवान् श्रीकृष्ण का नाम-कीर्तन करते हैं, उन्हें दूरसे ही त्याग देना | जो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा भगवान् जनार्दन की पूजा करते हैं, उनकी ओर तुम लोग आँख उठाकर देखना भी नहीं; क्योंकि भगवान् का व्रत करनेवाले लोग भगवान् को ही प्राप्त होते हैं ||३६-४१||

जो लोग फुल, धूप, वस्त्र और अत्यंत प्रिय आभूषणोंद्वारा भगवान् की पूजा करते हैं, उनका स्पर्श न करना; क्योंकि वे मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण के धाम को पहुँच चुके हैं | जो भगवान् क मंदिर में लेप करते या बुहारी लगाते हैं, उनके पुत्रों को तथा उनके वंश को भी छोड़ देना | जिन्होंने भगवान् विष्णु का मंदिर बनवाया हो, उनके वंशमें सौ पिढीतक के मनुष्यों की ओर तुमलोग बुरे भावसे ण देखना | जो लकड़ी का पत्थर का अथवा मिटटी का ही देवालय भगवान् विष्णु के लिये बनवाता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है | प्रतिदिन यज्ञोंद्वारा भगवान् की आराधना करनेवाले को जो महान फल मिलता हैं, उसी फलको, जो विष्णु का मंदिर बनवाता है, वह भी प्राप्त करता हैं | जो भरवान अच्युत का मंदिर बनवाता है, वह अपनी बीती हुई सौ पीढ़ी के पितरों को तथा होनेवाले सौ पीढ़ी के वंशजों को भगवान् विष्णु के लोक को पहुँचा देता है | भगवान् विष्णु सप्तलोकमय हैं | उनका मंदिर जो बनवाता है, वह अपने कुल को तारता हिन्, उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति कराता हैं और स्वयं भी अक्षय लोकों को प्राप्त होता है | मंदिर में ईट के समूह का जोड़ जितने वर्षोतक रहता हैं, उतने ही हजार वर्षोतक उस मंदिर के बनवानेवाले की स्वर्गलोक में स्थिति होती है | भगवान् की प्रतिमा बनानेवाला विष्णुलोक को प्राप्त होता है, उसकी स्थापना करनेवाला भगवान् में लीन हो जाता है और देवालय बनवाकर उसमें प्रतिमा की स्थापना करनेवाला सदा भगवान् के लोक में निवास पाता हैं || ४२-५० ||

अग्निदेव बोले – यमराज के इसप्रकार आज्ञा देनेपर यमके दूत भगवान् विष्णु की स्थापना आदि करनेवालों को यमलोक में नहीं ले जाते | देवताओं की प्रतिष्ठा आदि की विधिक भगवान् हयग्रीव ने ब्रह्माजी से वर्णन किया था ||५१||

इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘देवालय-निर्माण माहात्म्यदिका वर्णन’ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ||३८||

15/10/2024

To know, in reality is, in my opinion, knowledge | Fields | Senses | Gita | AgniPuran





Gita updesh

God said Arjun These bodies r fields who knows this is called Kshetragya Wat FIELDS field knowling to know in reality is in my opinion knowledge 5 mahabhutas ego intellect UNmanifest ORIGINAL nature 10 senses 1 mind objects of 5 SENSES desire hatred happiness pleasure sadness pain GROSS body consciousness and patience these r fields including along with its defects DISorders which is summarized here has been described in brief AgniPuran Chapter 116 Gita Essence

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09/10/2024

#अग्निपुराण

07/10/2024

को जो याथार्थ रूप से जानना हैं, वही मेरे मत में ज्ञान है | क्षेत्र | क्षेत्रज्ञ | गीता | अग्नि पुराण

#गीता
#अग्निपुराण


गीता उपदेश
गीता सार
गीता का ज्ञान

श्रीभगवान ने कहा – अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र’ हैं; जो इसे जानता हैं, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ कहा गया है | ‘क्षेत्र’ और ‘क्षेत्रज्ञ’ को जो याथार्थ रूप से जानना हैं, वही मेरे मत में ‘ज्ञान’ है | पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूल प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति – यह विकारों सहित ‘क्षेत्र’ हैं | जिसे यहाँ संक्षेप से बतलाया गया हैं | अग्नि पुराण अध्याय – ११६ गीता – सार

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