17/10/2024
अध्याय – ३८ देवालय-निर्माण से प्राप्त होनेवाले फल आदि का वर्णन
#अग्निपुराण
#देवालय
अग्निदेव कहते हैं – मुनिवर वसिष्ठ ! भगवान् वासुदेव आदि विभिन्न देवताओं के निमित्त मंदिर का निर्माण कराने से जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, अब मैं उसीका वर्णन करूँगा | जो देवता के लिये मंदिर-जलाशय आदिके निर्माण कराने की इच्छा करता हैं, उसका वह शुभ संकल्प ही उसके हजारों जन्मों के पापों का नाश कर देता हैं | जो मनसे भावनाद्वारा भी मंदिरका निर्माण करते हैं, उनमे सैकड़ों जन्मों के पापों का नाश हो जाता हैं | जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण के लिये किसी दुसरे के द्वारा बनवाये जाते हुए मंदिर के निर्माण कार्य का अनुमोदन मात्र कर देते हैं, वे भी समस्त पापों से मुक्त हो उन अच्युतदेव के लोक (वैकुण्ठ अथवा गोलोकधाम को) प्राप्त होते हैं | भगवान् विष्णु के निमित्त मंदिर का निर्माण करके मनुष्य अपने भूतपूर्व तथा भविष्य में होनेवाले दस हजार कुलों को तत्काल विष्णुलोक में जाने का अधिकारी बना देता हैं | श्रीकृष्ण-मंदिर का निर्माण करनेवाले मनुष्य के पितर नरक के क्लेशों से तत्काल छुटकारा पा जाते हैं और दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो बड़े हर्ष के साथ विष्णुधाम में निवास करते हैं | देवालय का निर्माण ब्रह्महत्या आदि पापों के पुंज का नाश करनेवाला हैं ||१-५||
यज्ञों से जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती हैं, वह भी देवालय का निर्माण करानेमात्र से प्राप्त हो जाता है | देवालय का निर्माण करा देनेपर समस्त तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त हो जाता हैं | देवता-ब्राह्मण आदि के लिये रणभूमि में मारे जानेवाले धर्मात्मा शूरवीरों को जिस फल आदि की प्राप्ति होती हैं, वाही देवालय के निर्माण से भी सुलभ होता हैं | कोई शठता (कंजूसी) के कारण धुल-मिट्टीसे भी देवालय बनवा दे तो वह उसे स्वर्ग या दिव्यलोक प्रदान करनेवाला होता हैं | एकायतन (एक ही देवविग्रह के लिये एक कमरेका ) मंदिर बनवानेवाले पुरुष को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है | त्र्यायतन –मंदिर का निर्माता ब्रह्मलोक में निवास पाता है |पंचायतन मंदिर का निर्माण करनेवाले को शिवलोक की प्राप्ति होती है और अष्टायतन मंदिर के निर्माण से श्रीहरि के सनिधिमें रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है | जो षोडशायतन मंदिर का निर्माण कराता है, वह भोग और मोक्ष, दोनों पाता है | श्रीहरि के मंदिर की तीन श्रेणियाँ हैं – कनिष्ठ, माध्यम और श्रेष्ठ | इनका निर्माण कराने से क्रमश: स्वर्गलोक, विष्णुलोक तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है | धनि मनुष्य भगवान् विष्णु का उत्तम श्रेणी का मंदिर बनवाकर जिस फल को प्राप्त करता हैं, उसे ही निर्धन मनुष्य निम्नश्रेणी का मंदिर बनवाकर भी प्राप्त कर लेता हैं | धन-उपार्जनकर उसमें से थोडा-सा ही खर्च करके यदि मनुष्य देव-मंदिर बनवा ले तो बहुत अधिक पुण्य एव, भगवान् का वरदान प्राप्त करता हैं | एक लाख या एक हजार या एक सौ अथवा उसका आधा (५०) मुद्रा ही खर्च करके भगवान् विष्णु का मंदिर बनवानेवाला मनुष्य उस नित्य धाम को प्राप्त होता हैं, जहाँ साक्षात् गरुड की ध्वजा फहरानेवाले भगवान् विष्णु विराजमान होते हैं ||६-१२||
जो लोग बचपन में खेलते समय धूलि से भगवान् विष्णु का मंदिर बनाते हैं, वे भी उनके धाम को प्राप्त होते हैं | तीर्थमें, पवित्र स्थानमें, सिद्धक्षेत्रमें तथा किसी आश्रमपर जो भगवान् विष्णुका मंदिर बनवाते हैं, उन्हें अन्यत्र मंदिर बनाने का जो फल बताया गया हैं, उससे तीन गुना अधिक फल मिलता हैं | जो लोग भगवान् विष्णु के मंदिर को चुने से लिपाते और उसपर बन्धुक के फुल का चित्र बनाते हैं, वे अन्तमें भगवान् के धाम में पहुँच जाते हैं | भगवान् का जो मंदिर गिर गया हो, गिर रहा हो, अथवा आधा गिर चूका हो, उसका जो मनुष्य जीर्णोद्धार करता हैं, वह नवीन मंदिर बनवाने की अपेक्षा दूना पुण्यफल प्राप्त करता हैं | जो गिरे हुए विष्णु-मंदिर को पुन: बनवाता और गिरे हुए की रक्षा करता है, वह मनुष्य साक्षात भगवान् विष्णु का स्वरुप प्राप्त करता हैं | भगवान् के मंदिर की ईटे जबतक रहती हैं, तबतक उसका बनवालेवाला विष्णुलोक में कुलसहित प्रतिष्ठित होता है | इस संसार में और परलोक में वही पुण्यवान और पूजनीय हैं ||१३-२०||
जो भगवान् श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाता हैं, वही पुण्यवान उत्पन्न हुआ है, उसीने अपने कुल की रक्षा की है | जो भगवान् विष्णु, शिव, सूर्य और देवी आदिका मंदिर बनवाता है, वाही इस लोकमें कीर्ति का भागी होता हैं | सदा धन की रक्षा में लगे रहनेवाले मुर्ख मनुष्य को बड़े कष्ट से कमाये हुए अधिक धन से क्या लाभ हुआ, यदि उससे श्रीकृष्ण का मंदिर ही नहीं बनवाता | जिसका धन पितरों, ब्राह्मणों और देवताओं के उपयोग में नहीं आ सका, उसके धनकी प्राप्ति व्यर्थ हुई | जैसे प्राणियों की मृत्यु निश्चित हैं, उसी प्रकार कमाये हुए धनका नाश भी निश्चित है | मूर्ख मनुष्य ही क्षणभंगुर जीवन और चचंल धन के मोह में बंधा रहता हैं | जब धन दान के लिये, प्राणियों के उपभोग के लिये, कीर्ति के लिये और धर्म के लिये काम में नहीं लाया जा सके तो उस धन का मालिक बनने में क्या लाभ हैं ? इसलिये प्रारब्ध से मिले अथवा पुरुषार्थसे, किसी भी उपाय से धनको प्राप्तकर उसे उत्तम ब्राह्मणों को दान दें, अथवा कोई स्थिर कीर्ति बनवावे | चूँकि दान और कीर्ति से भी बढ़कर मंदिर बनवाना हैं, इसलिये बुद्धिमान मनुष्य विष्णु आदि देवताओं का मंदिर आदि बनवावे | भक्तिमान श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा यदि भगवान् के मंदिर का निर्माण और उसमें भगवान् का प्रवेश (स्थापन आदि) हुआ तो यह समझना चाहिये कि उसने समस्त चराचर त्रिभुवन को रहनेके लिये भवन बनवा दिया | ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ भी भूत, वर्तमान, भविष्य, स्थूल, सूक्ष्म और इससे भिन्न है, वह सब भगवान् विष्णु से प्रकट हुआ है | उन देवाधिदेव सर्वव्यापक महात्मा विष्णु का मंदिर में स्थापन करके मनुष्य पुन:संसार में जन्म नहीं लेता (मुक्त हो जाता हैं) | जिसप्रकार विष्णु का मंदिर बनवाने में फल बताया गया हैं, उसीप्रकार अन्य देवताओं- शिव, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, दुर्गा और लक्ष्मी आदि का भी मंदिर बनवाने से होता हैं | मंदिर बनवाने से अधिक पुण्य देवताकी प्रतिमा बनवाने में हैं | देव-प्रतिमा की स्थापना-सम्बन्धी जो यज्ञ होता है, उसके फल का तो अंत ही नहीं हैं | कच्ची मिटटी की प्रतिमासे लकड़ी की प्रतिमा उत्तम है, उससे ईट की, उससे भी पत्थर की और उससे भी अधिक सुवर्ण आदि धातुओं की प्रतिमा का फल है | देवमंदिर का प्रारम्भ करने मात्र से सात जन्मों के किये हुए पाप का नाश हो जाता है तथा बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी होता है, वह नरक में नहीं जाता | इतना ही नहीं, वह मनुष्य अपनी सौ पीढ़ी का उद्धार करके उसे विष्णुलोक में पहुंचा देता हैं | यमराज ने अपने दूतों से देवमंदिर बनानेवालों को लक्ष्य करके ऐसा कहा था ||२१-३५||
यम बोले – (देवालय और) देव-प्रतिमा का निर्माण तथा उसकी पूजा आदि करनेवाले मनुष्यों को तुमलोग नरक में न ले आना तथा जो देव-मन्दिर आदि नहीं बनवाते, उन्हें ख़ास तौरपर पकड़ लाना | जाओ ! तुमलोग संसार में विचरो और न्यायपूर्वक मेरी आज्ञाका पालन करो | संसार के कोई भी प्राणी कभी तुम्हारी आज्ञा नहीं टाल सकेंगे | केवल उन लोगों को तुम छोड़ देना जो कि जगत्पिता भगवान् अनंत की शरण में जा चुके हैं; क्योंकि उन लोगों की स्थिति यहाँ (यमलोक में) नहीं होती | संसार में जहाँ भी भगवान् में चित्त लगायें हुए, भगवान् की ही शरण में पड़े हुए भगवद्भक्त महात्मा सदा भगवान् विष्णु की पूजा करते हों, उन्हें दूरसे ही छोडकर तुम लोग चले जाना | जो स्थिर होते, सोते, चलते, उठते, गिरते, पड़ते या खड़े होते समय भगवान् श्रीकृष्ण का नाम-कीर्तन करते हैं, उन्हें दूरसे ही त्याग देना | जो नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा भगवान् जनार्दन की पूजा करते हैं, उनकी ओर तुम लोग आँख उठाकर देखना भी नहीं; क्योंकि भगवान् का व्रत करनेवाले लोग भगवान् को ही प्राप्त होते हैं ||३६-४१||
जो लोग फुल, धूप, वस्त्र और अत्यंत प्रिय आभूषणोंद्वारा भगवान् की पूजा करते हैं, उनका स्पर्श न करना; क्योंकि वे मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण के धाम को पहुँच चुके हैं | जो भगवान् क मंदिर में लेप करते या बुहारी लगाते हैं, उनके पुत्रों को तथा उनके वंश को भी छोड़ देना | जिन्होंने भगवान् विष्णु का मंदिर बनवाया हो, उनके वंशमें सौ पिढीतक के मनुष्यों की ओर तुमलोग बुरे भावसे ण देखना | जो लकड़ी का पत्थर का अथवा मिटटी का ही देवालय भगवान् विष्णु के लिये बनवाता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है | प्रतिदिन यज्ञोंद्वारा भगवान् की आराधना करनेवाले को जो महान फल मिलता हैं, उसी फलको, जो विष्णु का मंदिर बनवाता है, वह भी प्राप्त करता हैं | जो भरवान अच्युत का मंदिर बनवाता है, वह अपनी बीती हुई सौ पीढ़ी के पितरों को तथा होनेवाले सौ पीढ़ी के वंशजों को भगवान् विष्णु के लोक को पहुँचा देता है | भगवान् विष्णु सप्तलोकमय हैं | उनका मंदिर जो बनवाता है, वह अपने कुल को तारता हिन्, उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति कराता हैं और स्वयं भी अक्षय लोकों को प्राप्त होता है | मंदिर में ईट के समूह का जोड़ जितने वर्षोतक रहता हैं, उतने ही हजार वर्षोतक उस मंदिर के बनवानेवाले की स्वर्गलोक में स्थिति होती है | भगवान् की प्रतिमा बनानेवाला विष्णुलोक को प्राप्त होता है, उसकी स्थापना करनेवाला भगवान् में लीन हो जाता है और देवालय बनवाकर उसमें प्रतिमा की स्थापना करनेवाला सदा भगवान् के लोक में निवास पाता हैं || ४२-५० ||
अग्निदेव बोले – यमराज के इसप्रकार आज्ञा देनेपर यमके दूत भगवान् विष्णु की स्थापना आदि करनेवालों को यमलोक में नहीं ले जाते | देवताओं की प्रतिष्ठा आदि की विधिक भगवान् हयग्रीव ने ब्रह्माजी से वर्णन किया था ||५१||
इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘देवालय-निर्माण माहात्म्यदिका वर्णन’ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ||३८||