02/07/2025
बारिश और हमारी पढ़ाई!
झमाझम आषाढ़ बरस रहा था। जेठ की गर्मी धूप से तपी धरती अब पानी से तृप्त हो गयी थी। मौसम में ठंडक तो नहीं कह सकते क्योंकि एक अजीब सी उमस वाली चिपचिपी गर्मी होने लगी थी।
लगातार पानी बरसने से घर आंगन, दुआर धुल गए थे। पेड़, पेड़ों के पत्ते धुले, नहाये से नये नये लगने लगे थे।
पेड़ों की पत्तियों पर रुकी बारिश की बूँदों को हम डालियाँ पकड़ कर हिला कर नीचे गिराते थे और जब बूँदें हमारे चेहरे पर, हाथ पैरो पर गिर कर हमें भिगोती थी तब हम सब अपने मित्रों संग उछल उछल कर खुश होते, ताली बजाते थे।
इसी उमस भरी बारिश में हमारे स्कूल खुल जाते थे। नई नई कॉपी किताब, बस्ता, कपड़े , पेन जैसे हमें हमारे स्कूली साथियों को दिखाने के लिए कितना कुछ होता था।
नई क्लास, नये मित्र, नया क्लास रूम, नई क्लास टीचर संग हमारे मन में खूब सारी फूटती नई उमङ्गे होती थी।
सुबह उठकर साइकिल पोछ कर चमकाते, एक दिन पहले ही ड्रेस धोकर प्रेस करके रख देते थे।
सुबह तैयार होकर स्कूल जाने की खुशी में मानों भूख ही नहीं लगती थी।
जल्दी जल्दी भिंडी की हरी तरकारी संग गर्म गर्म फुल्के संग कुछ निवाले गटकते और बाकी टिफिन में रख लेते हैं हाँ रोटी तरकारी के साथ साथ आम का अचार रखना नही भूलते थे।
स्कूल के गेट के आगे पानी खड़ा होता था और साइकिल के आने जाने से अच्छा खासा दहला (कीचड़) हो जाता था। उस दहले के बीच में चपरासी काका ईंट के टुकड़े रख देते थे जिस पर पैर रख कर हम सब आते जाते थे।
स्कूल से आकर कपड़े बदलते, कुछ खा पी कर बस्ता खोलकर कॉपी निकाल कर स्कूल में रफ किया पाठ फेयर कॉपी में सुंदर सी राईटिंग बनाकर सजा कर लिखते।
सब बिषयों का पाठ जब लिख लेते तब थोड़ी देर इधर उधर खेलने निकलते और फिर रात का भोजन करने के बाद लैंप जला कर स्कूल में पढ़े पाठ को पढ़ कर दोहराते। बीच बीच में बत्ती आती जाती रहती थी तो लैंप की रोशनी कम ज्यादा करते जाते थे।
रोशनी पाकर कहीं से उड़कर आकर पतिंगा तंग करता। उसको एक कटोरी के नीचे ढँक कर काबू पाते और फिर पढ़ने में तल्लीन हो जाते थे।
स्कूल जाते समय खुद को बारिश से बचाकर जाते लेकिन घर लौटते समय बस्ते की किताबों को पन्नी में रखते और फिर भीगते, नहाते ,शोर मचाते सड़को पर मस्तियाँ करते घर आते थे।
उस समय सुविधाएं कम थी लेकिन कसम से सुख बहुत था।
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Amit Kumar Jha