31/07/2025
गोस्वामी तुलसीदास जयन्ती की शुभकामनाएं
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।।श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरयो शरीर।।
भक्तमाल सुमेरु गोस्वामी तुलसीदास जी
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त्रेता काव्य निबंध करिव सत कोटि रमायन ।
इक अच्छर उच्चरे ब्रह्महत्यादि परायन ।।
पुनि भक्तन सुख देन बहुरि लीला विस्तारी ।
राम चरण रस मत्त रहत अहनिसि व्रतधारी ।
संसार अपार के पार को सगुन रुप नौका लिए ।
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बालमीकि तुलसी भए ।।
(भक्तमाल, छप्पय १२९)
जगत में आदि कवि हुए श्री वाल्मीकि जी और आदि काव्य हुआ उनके द्वारा रचित श्रीमदरामायण पर उसका भी प्रसार संस्कृत भाषा में होने के कारण जब कुछ सीमित सा होने लगा तो भगवत् कृपा से गोस्वामी श्री तुलसीदास जी का प्राकट्य हुआ, जिन्होंने सरल, सरस हिन्दी भाषा में श्री रामचरित मानस की रचना की,
उन दिनों मध्यकाल में भारत की परिस्थिति बडी विषम थी,विधर्मियों का बोल- बाला था, वेद, पुराण, शास्त्र आदि सद्ग्रंथ जलाये जा रहे थे, एक भी हिन्दू अवशेष न रहे, इसके लिये गुप्त एवं प्रकट रूप से चेष्टा की जा रही थी, धर्मप्रेमी निराश हो गये थे तभी भगवत्कृपा से श्रीरामानंद सम्प्रदाय में महाकवि का प्रादुर्भाव हुआ था।श्री गुरु परंपरा इस प्रकार है --
१. जगद्गुरु श्री स्वामी रामानंदाचार्य
२. श्री स्वामी अनंतानंदाचार्य
३. श्री स्वामी नरहर्यानंद
४. श्री गोस्वामी तुलसीदास
गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्रीसीताराम जी के पादपद्म के प्रेमपराग का पान कर सर्वदा उन्मत्त रहते थे, दिन -रात श्रीरामनाम को रटते रहते थे इस अपार संसार-सागर को पार करने के लिये आपने श्री रामचरितमानस रूप सुन्दर- सुगम नौका का निर्माण किया ।
प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे, उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था ।
"पन्द्रह सौ चौवन विषै,कालिन्दी के तीर।
श्रावण-शुक्ला-सप्तमी तुलसी धरयो शरीर।।"
संवत् १५५४ की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान दम्पति के यहाँ बारह महीने तक गर्भ में रहने के पश्चात् गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ, जन्म के दूसरे दिन इनकी माता असार संसार से चल बसीं, दासी चुनियाँ ने बड़े प्रेम से बालक का पालन-पोषण किया, जब बालक प्रकट हुआ तब उसके मुख में बत्तीस दांत थे और वह रूदन नहीं कर रहा था अपितु हंस रहा था, प्रकट होते ही उसने मुख से राम नाम का उच्चारण किया अतः बालक का नाम पड़ गया रामबोला, दासी चुनिया समझ गयी थी की यह कोई साधारण बालक नहीं है, संसार के लोग इस बालक को अमंगलकारी कहने लगे, संसार के लोग बालक हो हानि ना पहुंचाए इस कारण से दासी चुनिया बालक का अलग जगह पालन पोषण करती रही परंतु जब तुलसीदास लगभग साढ़े पाँच वर्ष के हुए तब चुनियाँ का भी देहांत हो गया।
अब तो बालक अनाथ सा हो गया, वह द्वार- द्वार भटकने लगा, माता पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आयी, एक ब्राह्मणी का वेष धारण कर माता पार्वती प्रतिदिन गोस्वामी जी के पास आतीं और इन्हें अपने हाथों से भोजन करा जाती थीं, इधर भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्रीअनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्दजी ने इस बालक को ढूंढ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा, शंकर जी ने उनसे कहा था की यह बालक विश्व के कल्याण हेतु प्रकट हुआ है, उसे वे अयोध्या ले गए और वहाँ संवत् १५३१ माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया, बिना सिखाए ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया ।
इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी तथा "तुलसीदास" नामकरण किया और अयोध्या में ही रहकर विद्याध्ययन कराने लगे, वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे, वहाँ श्रीनरहरिदास जी ने तुलसीदासजी को श्रीरामचरित सुनाया :-----
"मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सों सूकरखेत।"
जब बालक लगभग १२ वर्ष का हो गया तब गुरुदेव ने उसे काशी के भक्त और विद्वान् शेष सनातन जी के पास भेजा और कहा की यह बालक थोडा कम समझता है ,आपको इसे पढ़ाने में थोड़ी अधिक मेहनत करनी पड़ेगी, परंतु हुआ उसके विपरीत , बालक रामबोला ने शीघ्र ही वेद शास्त्रो का अध्ययन कर लिया, शेषसनातन जी तुलसीदास की योग्यतापर रीझ गये उन्होंने बालक रामबोला को पंद्रह वर्षतक अपने पास रखा और वेद वेदांग का सम्पूर्ण अध्ययन कराया, शेषसनातन जी ने नरहर्यानंद जी से कहा की बालक तो तीक्ष्ण बुद्धि वाला है फिर आपने ऐसा क्यों कहा की यह बालक कम समझता है, नरहर्यानंद जी आश्चर्य में पड गए, सत्य बात तो यह थी की बालक तुलसीदास के मन में राम कथा सुनने की प्रबल लालसा थी, गुरुमुख से जितनी कथा सुनी जाए उन्हें कम ही जान पड़ता, तुलसीदास ने विद्याध्ययन तो कर लिया, परंतु ऐसा जान पडता है कि उन दिनों भजन कुछ शिथिल पड गया,उनके हदय मे लौकिक वासनाएँ जाग उठी और अपनी जन्मभूमि का स्मरण हो आया, अपने विद्या गुरु की अनुमति लेकर वे राजापुर पहुंचे।
राजापुर में अब उनके घर का ढूहामात्र अवशेष था, पता लगाने पर गाँव के भाट ने बताया – एक बार हरिपुर से आकर एक नाई ने आत्माराम जी (तुलसीदास जी के पिता ) से कहा की आपका बालक अमंगलकारी नहीं अपितु महान् भक्त है, उसकी दुर्दशा न होने दो , अपने बालक को ले आओ परंतु आत्माराम जी ने अस्वीकार कर दिया, तभी एक सिद्ध ने शाप दे दिया कि तुमने भक्त का अपमान किया है, छ: महीने के भीतर तुम्हारा और दस वर्ष के भीतर तुम्हारे वंश का नाश हो जाय , वैसा ही हुआ, इसलिये अब तुम्हारे वंश में कोई नहीं है, उसके बाद तुलसीदास जी ने विधिपूर्वक पिण्डदान एवं श्राद्ध किया । गांव के लोगो ने आग्रह करके मकान बनवा दिया और वहीं पर रहकर तुलसीदास जी लोगो को भगवान् राम की कथा सुनाने लगे ।
कार्तिक की द्वितीया के दिन भारद्वाज गोत्र का एक ब्राह्मण वहाँ सकुटुम्ब यमुना स्नान करने आया, कथा बांचने के समय उसने तुलसीदास जी को देखा और मन- ही- मन मुग्ध होकर कुछ दूसरा ही संकल्प करने लगा , उसको अपनी कन्या का विवाह गोस्वामी जी के साथ ही करवाना था, गाँव के लोगो से गोस्वामी जी की जाति- पाँति पूछ ली और अपने घर लौट गया।
वह वैशाख महीने में दूसरी बार आया, तुलसीदास जी से उसने बडा आग्रह किया कि आप मेरी कन्या स्वीकार करें, पहले तो तुलसीदासजी ने स्पष्ट नकार दी, परंतु जब उसने अनशन कर दिया, धरना देकर बैठ गया, तब उन्होने स्वीकार कर लिया।
संवत १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरूवार की आधी रात को विवाह संपन्न हुआ, अपनी नवविवाहिता वधू को लेकर तुलसीदासजी अपने ग्राम राजापुर आ गये, एक बार जब उसने अपने पीहर जाने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अनुमति नहीं दी, वर्षो बीतने पर एक दिन वह अपने भाई के साथ मायके चली गयी, जब तुलसीदास जी बाहर से आये और उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी मायके चली गयी, तो वे भी चल पड़े रात का समय था, किसी प्रकार नदी पार करके जब ये ससुराल मे पहुंचे तब सब लोग किवाड़ बंद करके सो गये थे, तुलसीदास जी ने आवाज दी, उनकी पत्नी ने आवाज पहचानकर किवाड़ खोल दिये, उसने कहा की प्रेम में तुम इतने अंधे हो गये थे किं अंधेरी रात को भी सुधि नहीं रही, धन्य हो ! तुम्हारा मेरे इस हाड मांस के शरीर से जितना मोह हैं, उसका आधा भी यदि भगवान् से होता तो इस भयंकर संसार से तुम्हारी मुक्ति हो जाती –
"हाड मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भव भीति।।"
फिर क्या था, वे एक क्षण भी न रुके, वहाँ से चल पड़े उन्हें अपने गुरु के वचन याद हो आये, वे मन-ही-मन उसका जप करने लगे –
"नरहरि कंचन कामिनी, रहिये इनते दूर ।
जो चाहिय कल्याण निज, राम दरस भरपूर ।।"
गोस्वामी जी काशी पहुंचे और वहां प्रह्लाद घाट पर एक ब्रह्मण के घर निवास किया, वहां उनकी कवित्व शक्ति स्फुरित हो गयी और वह संस्कृत में रचना करने लगे, यह एक अद्भुत बात थी कि दिन मे वे जितनी कविता रचना करते रात में सब की सब लुप्त हो जाती, यह घटना रोज घटती परंतु वे समझ नहीं पाते थे कि मुझको क्या करना चाहिये, आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ, भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा कि तुम अपनी भाषा मे काव्य रचना करो , संस्कृत में नहीं, नींद उचट गयी तुलसीदास जी उठकर बैठ गये, उनके हृदय में स्वप्न की आवाज गूंजने लगी, उसी समय भगवान् श्री शंकर और माता पार्वती दोनों ही उनके सामने प्रकट हुए, तुलसीदास जी ने साष्टांग् प्रणाम किया।
शिव जी ने कहा कि – मातृभाषा में काव्य निर्माण करो , संस्कृत के पचडे में मत पड़ो, जिससे सबका कल्याण हो वही करना चाहिये बिना सोचे विचारे अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है, तुम जाकर अयोध्या में रहो और वही काव्य रचना करो, जहां भगवान् की जन्म स्थली है और जो भगवान् श्रीसीताराम जी का नित्य धाम है वही उनकी कथा की रचना करना उचित होगा, मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान सफल होगी,
इतना कहकर गौरीशंकर जी अन्तर्धान हो गये और उनकी कृपा एवं अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी अयोध्या पहुंचे, तुलसीदास जी वहीं रहने लगे, एक समय दूध पीते थे, भगवान् का भरोसा था । संसार की चिंता उनका स्पर्श नहीं कर पाती थी, कुछ दिन यों ही बीतेन।
संवत् १६३१ आ गया उस वर्ष चैत्र शुक्ल रामनवमी के दिन प्राय: वैसा ही योग जुट गया था, जैसा त्रेतायुग मे रामजन्म के दिन था, उस दिन प्रातः काल तुलसीदास जी सोचने लगे – क्या इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है ?
आश्चर्य है , अभी इस समय अवतार कैसे हो सकता है ?
उसी समय श्री हनुमान जी ने प्रकट होकर तुलसीदास जी को दर्शन दिया, तुलसीदास जी ने प्रणाम् करके पूछा – क्या पृथ्वी पर इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है ?
हनुमान जी बोले – अवतार तो होगा परंतु मनुष्य शरीर के रूप में नहीं अपितु ग्रन्थ के रूप में, इसके बाद हनुमान जी ने गोस्वामी जी का अभिषेक किया, शिव, पार्वती, गणेश, सरस्वती ,नारद और शेष ने आशीर्वाद दिये और सबकी कृपा एवं आज्ञा प्राप्त करके श्रीतुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की, दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन मे श्रीरामचरित मानस की रचना समाप्त हुई।
संवत् १६३३ मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये, यह कथा पाखंडियो के छल-प्रपञ्च को मिटाने वाली, पवित्र सात्त्विक धर्म का प्रचार करने वाली, कलिकाल के पाप- कलाप का नाश करने वाली, भगवत् प्रेम की छटा छिटकाने वाली, संतो के चित्त में भगवत्प्रेम की लहर पैदा करने वाली है । भगवत् प्रेम श्रीशिवजी की कृपा के अधीन है, यह रहस्य बताने वाली है, इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति हुई, उसी दिन इस पर लिखा गया कि – "शूभमिति हरि: ओम् तत्सत्"
देवताओं ने जय-जयकार की ध्वनि की और फूल बरसाये श्री तुलसीदास जी को वरदान दिये, रामायण की प्रशंसा की, श्री रामचरित मानस की रचना के बाद श्री गणेश जी वहाँ आ गए और अपनी दिव्या दिव्य लेखनी से मानस जी की कुछ प्रतियां क्षण भर में लिख ली, उन प्रतियों को लिखकर गोस्वामी जी से कहा की इस सुंदर मधुर काव्य का रसपान हम अपने लोक में करेंगे और अन्य गणो को भी कराएँगे, ऐसा कहकर गणेश जी अपने लोक को चले गए ।
श्री रामचरितमानस क्या है, इस बात को सभी अपने- अपने भाव के अनुसार समझते एवं ग्रहण करते हैं, परंतु अब भी उसकी वास्तविक महिमा का स्पर्श विरले ही पुरुष का सके होंगे।
श्री रामचरितमानस के प्रथम श्रोता संत :------
मनुष्यों में सबसे प्रथम यह ग्रन्थ सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ मिथिला के परम संत श्रीरूपारुण स्वामी जी महाराज को वे निरंतर विदेह जनक के भाव में ही मग्न रहते थे और श्रीराम जी को अपना जामाता समझकर प्रेम करते थे, गोस्वामी जी ने उन्ही को सबसे अच्छा अधिकारी समझा और श्री रामचरितमानस सुनाया, उसके बाद बहुतों ने रामायण की कथा सुनी, उन्ही दिनों भगवान् की आज्ञा हुई कि तुम काशी जाओ और श्रीसुलसीदास जी ने वहां से प्रस्थान किया तथा वे काशी आकर रहने लगे।
गोस्वामी जी ने काशी आकर भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री रामचरितमानस सुनाया, काशी में ब्राह्मणों और विद्वानों ने इस ग्रन्थ का बहुत विरोध किया, वे कहने लगे की कैसे इस बात का पता लगेगा की रामचरितमानस में लिखी बातें शास्त्रीय है या नहीं, इसका प्रमाण कुछ है ही नहीं, निश्चय हुआ की ग्रन्थ को विश्वनाथ जी के मंदिर में रात भर रखा जाए और शंकर को स्वयं प्रातः निश्चय करने दिया जाए, समस्त शास्त्र और वेदों के निचे मानस जी को रखा गया, सबेरे जब पट खोला गया तो रामचरितमानस सबसे ऊपर थी और उसपर लिखा हुआ पाया गया "सत्यम शिवम् सुन्दरम्" और नीचे भगवान् श्री शंकर की सही थी।
इसका अर्थ है की इसमें जो लिखा है वह सब सत्य है , शिव है और जीवन को सुंदर बनाने वाला है, उस समय उपस्थित लोगो ने "सत्यं शिवं सुंदरम् "की आवाज भी कानों से सुनी।
श्रीमधुसूदन सरस्वती नामक महापण्डित के पास जाकर कहा कि भगवान् शिव ने उनकी पुस्तक पर सही तो कर दी है, परंतु यह किस श्रेणी की पुस्तक है, यह बात नहीं बतलायी है, मधुसूदन सरस्वती ‘अद्वैत सम्प्रदाय’ के प्रधान आचार्य थे, पंडितो ने कहा - अब आप उसे देखिये और बतलाइये कि वह किसके समकक्ष है, श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने रामायण की पुस्तक मंगायी, उसका आद्योपान्त अवलोकन किया और उन्हे बडा आनन्द हुआ उन्होने उस पुस्तक पर सम्मति लिख दी –
"आनन्दकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥"
अर्थात् इस आनन्दवन काशीमें तुलसीदास जी चलते- फिरते तुलसी वृक्ष के समान हैं, इनकी कविता मञ्जरी के समान है, जो सदैव श्रीरामरूप भ्रमरसे सुशोभित रहती है अर्थात् तुलसीदासजी की कविता मञ्जरी पर श्रीरामजी भ्रमर की भाँति मंडराते रहते हैं।
श्री नाभादास जी ने भक्तो की माला (भक्तमाल ) की रचना की, अब माला का सुमेरु का चयन करना कठिन हो गया, किस संत को सुमेरु बनाएं इस बात का निर्णय कठिन हो रहा था, पूज्य श्री अग्रदेवचार्य जी के चरणों में प्रार्थना करने पर उन्होंने प्रेरणा की के वृंदावन में भंडारा करो और संतो का उत्सव करो, उसी भंडारे उत्सव में कोई न कोई संत सुमेरु के रूप में प्राप्त हो जायेगा, सभी तीर्थ धामो में संतो को कृपापूर्वक भंडारे में पधारने का निमंत्रण भेजा गया, काशी में अस्सी घाट पर श्री तुलसीदास जी को भी निमंत्रण पहुंचा था परंतु उस समय वे काशी में नहीं थे,क्षउस समय वे भारत के तत्कालीन बादशाह अकबर के आमंत्रण पर दिल्ली पधारे थे, दिल्ली से लौटते समय गोस्वामी तुलसीदास जी वृंदावन दर्शन के लिए पहुंचे, वे श्री वृंदावन में कालीदह के समीप श्रीराम गुलेला नामक स्थान पर ठहर गए।
श्री नाभाजी का भंडारे में पधारना अति आवश्यक जानकार गोपेश्वर महादेव ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर गोस्वामी जी से भंडारे में जाकर संतो के दर्शन करने का अनुरोध किया, गोस्वामी जी भगवान् शंकर की आज्ञा पाकर भंडारे में पधारे, गोस्वामी जी जब वहां पहुंचे उस समय संतो की पंगत बैठ चुकी थी, स्थान पूरा भरा हुआ था , स्थान पर बैठने की कोई जगह नहीं थी।
तुलसीदास उस स्थान पर बैठ गए, जहां पूज्यपाद संतों के पादत्राण (जूतियां )रखी हुई थीं, परोसने वालो ने उन्हें पत्तल दी और उसमे सब्जियां व पूरियां परोस दीं, कुछ देर बाद सेवक खीर लेकर आया।
उसने पूछा – महाराज ! आपका पात्र कहाँ है ?
खीर किस पात्र में परोसी जाये ?
तुलसीदास जी ने एक संत की जूती हाथो में लेकर कहा -इसमें परोस दो खीर, यह सुनते ही खीर परोसने वाला क्रोधित को उठा बोला – अरे राम राम ! कैसा साधू है जो कमंडल नहीं लाया खीर पाने के लिए ,अपना पात्र लाओ। पागल हो गये हो जो इस जूती में खीर लोगे, शोर सुनाई देने पर नाभादास जी वहाँ पर दौड़ कर आये ।उन्होने सोचा कही किसी संत का भूल कर भी अपमान न हो जाए,ज्ञनाभादास जी यह बात नहीं जानते थे की तुलसीदास जी वृंदावन पधारे हुए है, उस समय संत समाज में गोस्वामी जी का नाम बहुत प्रसिद्ध था, यदि वे अपना परिचय पहले देते तो उन्हें सिंहासन पर बिठाया जाता परंतु धन्य है गोस्वामी जी का दैन्य।
नाभादास जी ने पूछा – संत भगवान् ! आप संत की जूती में खीर क्यों पाना चाहते है ?
यह प्रश्न सुनते ही गोस्वामी जी के नेत्र भर आये, उन्होंने उत्तर दिया – परोसने वाले सेवक ने कहा की खीर पाने के लिए पात्र लाओ, संत भगवान् की जूती से उत्तम पात्र और कौनसा हो सकता है, जीव के कल्याण का सरल श्रेष्ठ साधन है की उसे अकिंचन भक्त की चरण रज प्राप्त हो जाए।
प्रह्लाद जी ने कहा है न अपने आप बुद्धि भगवान् में लगती है और न किसी के द्वारा प्रेरित किये जाने पर लगती है, तब तक बुद्धि भगवान् में नहीं लगती जब तक किसी आकिंचन प्रेमी रसिक भक्त की चरण रज मस्तक पर धारण नहीं की जाती, यह जूती परम भाग्य शालिनी है, इस जूती को न जाने कितने समय से संत के चरण की रज लगती आयी है और केवल संत चरण रज ही नहीं अपितु पवित्र व्रजरज इस जूती पर लगी है, यह रज खीर के साथ शरीर के अंदर जाएगी तो हमारा अंत:करण पवित्र हो जाएगा, संत की चरण रज में ऐसी श्रद्धा देखकर नाभा जी के नेत्र भर आये, उन्होंने नेत्र बंद कर के देखा तो जान गए की यह तो भक्त चरित्र प्रकट करते समय(भक्तमाल लेखन के समय) हमारे ध्यान में पधारे हुए महापुरुष हैं।
नाभाजी ने प्रणाम् कर के कहा – आप तो गोस्वामी श्री तुलसीदास जी है , हम पहचान नहीं पाये।
गोस्वामी जी ने कहा – हां ! संत समाज में दास को इसी नाम से जाना जाता है, परोसने वाले सेवक ने तुलसीदास जी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की, सभी संतो ने गोस्वामी जी की अद्भुत दीनता को प्रणाम् किया, इसके बाद श्री नाभादास जी ने गोस्वामी तुलसीदास जी को सिंहासन पर विराजमान करके पूजन किया और कहा की इतने बड़े महापुरुष होने पर भी ऐसी दीनता जिनके हृदय में है , संतो के प्रति ऐसी श्रद्धा जिनके हृदय में है, वे महात्मा ही भक्तमाल के सुमेरु हो सकते है ।
संतो की उपस्थिति में नाभादास जी ने पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी को भक्तमाल सुमेरु के रूप में स्वीकार किया, जो भक्तमाल की प्राचीन पांडुलिपियां जो है ,उनमे श्री तुलसीदास जी के कवित्त के ऊपर लिखा है –
"भक्तमाल सुमेरु श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज"
(संत नाभादास कृत भक्त माल से सादर)