17/08/2025
श्री अरविंद जब पहली दफा साधना में उतरे
तो उनके गुरु ने उन्हें कहा कि विचार तुम्हारे भीतर चलेंगे बहुत, तुम एक छोटा सा काम ही करना, कि तुम विचारों को मक्खियां समझ लेना, कि मक्खियां तुम्हारे सिर के आसपास मंडरा रही हैं।
और तुम उनकी फिक्र न करना, उनको शोरगुल मचाने देना। तुम समझना कि तुम बीच में खड़े हो और मक्खियां गज रही हैं चारों तरफ।
श्री अरविंद तीन दिन तक वैसी अवस्था में बैठे रहे। पहले तो वे बहुत घबडाए, क्योंकि मक्खियां थोड़ी न थीं। एक—एक विचार अगर एक—एक मक्खी था, तो करोड़ों मक्खियां भिनभिनाने लगीं। पर संकल्प के व्यक्ति थे। उन्होंने कहा कि अगर मक्खियां ही मानना है, तो फिर चिंता क्या करनी है, बैठे रहना है। बैठे रहे, बैठे रहे; मक्खियां भिनभिनाती रहीं, न तो उनसे लड़े, न उनको भगाया, न हटाया।
धीरे— धीरे उन्होंने पाया, घंटों के बीतने के बाद, मक्खियों की भीड़ कम होती जा रही है। तब भरोसा बढा कि सिर्फ बैठने से भीड़ कम हो रही है, तो और बैठने से और भी कम हो जाएगी। तो फिर प्रसन्नता भी आ गई, आस्था भी आ गई, आशा भी आ गई, आत्मविश्वास भी बढ़ा। फिर वे बैठे ही रहे, फिर उन्होंने सोचा कि अब उठना उचित नहीं, क्योंकि उठने पर हो सकता है कि फिर इतनी भीड़ से गुजरना पड़े। तो बैठे ही रही। तो वे तीन दिन तक बिना खाए—पीए बैठे ही रहे। उन्होंने तय कर लिया कि जब तक आखिरी मक्खी न चली जाए, तब तक मैं बैठा ही रहूंगा। तीन दिन में आखिरी मक्खी भी चली गई। कोई विचार न रहा।
उस क्षण में सुना जाता है जीवन—संगीत, उस क्षण में भीतर का स्रोत प्रकट हो जाता है। जब आप होते हैं निर्विचार, तब संबंध हो जाता है हृदय के संगीत से। जब तक विचार से भरे हैं, तब तक कोलाहल रहेगा। पर यह कोलाहल, बहुत कठिन नहीं है इसको पार करना। सिर्फ उपेक्षा और इस कोलाहल में न उलझने की दृष्टि, और धीरे— धीरे अपने को शिथिल छोड़ते जाना भर जरूरी है।
बुद्ध ने कहा है, उपेक्षा से भीतर की तरफ चलना।
वह चल रहा है शोरगुल, चलने देना। जैसे एक बाजार से तुम गुजर रहे हो, तो ठीक है, बाजार है। तुम उसकी चिंता नहीं ले रहे हो। ऐसे ही तुम इस भीतर के बाजार से भी गुजरते वक्त परेशान मत होना। एक उपेक्षा का भाव रखना कि ठीक है, बाजार है। अब तक यही इकट्ठा किया है, वह है। तुम चुपचाप साक्षीभाव से भीतर की तरफ चलना और गहरे खोजना।
डरना मत, क्योंकि निश्चित ही स्रोत है। वह स्रोत अनेकों ने पाया है और तुम भी पा सकते हो। वह जिन्होंने पाया है, उनकी गवाही है कि पाया जा सकता है।
वह तुम्हारे भीतर है, पर्त दर पर्त दबा है। बहुत पर्तें हो सकती हैं। लेकिन घबड़ाना मत और उसकी खोज जारी रखना। और कितना ही उपद्रव भीतर मालूम पड़े, तुम शांत बैठ कर उस उपद्रव को देखते रहना।
यह जो भीतर का जगत है, इस भीतर के जगत में विचारों को शिथिल छोड़ना और विचारों से अपने को शांति से अलग हटा लेना— यही एकमात्र प्रयोग है, सारे धर्मों, सारी व्यवस्थाओं, सारे योग, सारे तंत्रों में।
एक ही महत्वपूर्ण बात है कि किसी तरह भीतर के कोलाहल की पर्त को पार करके आप उस जगह पहुंच जाएं, जहां भीतर शांति का झरना है। वह झरना आपके भीतर है। वह उतना ही आपके भीतर है, जितना बुद्ध के भीतर है, उससे रत्ती भर भी कम नहीं है।
उस झरने से संपर्क स्थापित करने की बात है। और जिस दिन तुम इस स्रोत से संबंधित हो जाओगे, तुम्हारा जीवन श्रद्धा, आशा और प्रेम से भर जाएगा।
ओशो
साधना सूत्र