12/11/2025
अखिल भारतीय दुसाध उत्थान परिषद् के द्वारा “जागरूकता कार्यक्रम” के माध्यम से पूर्वजों कि गाथा |
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अखिल भारतीय दुसाध उत्थान परिषद्, बिहार प्रदेश अपने सभी सदस्यों के लिए “जागरूकता कार्यक्रम” के माध्यम से पूर्वजों कि गाथा को विभिन्न श्रोतों से आपके समक्ष रखने का प्रयास किया है। आशा और विश्वाश के साथ आप सभी स्वजाति बन्धुओं के समक्ष रखा जा रहा है तथा इस कड़ी को आगे बढ़ाने में हम सभी एक-दुसरे का सहयोग लेंगे। आपके पास कोई लेख-सामग्री हो तो अवश्य साझा करें |
अध्याय – 01/2
भारत पर आर्य आक्रमण |
ऐतिहासिक, पुरातात्विक वैज्ञानिक एवं वैदिक ग्रंथों के आधार पर यह प्रमाणित किया जा चुका है कि आर्य ब्राह्मण सहित क्षत्रिय और वैश्य वर्ग हमारे देश में ई.पू. 1500 में रूस के बोल्गा के तटीय इलाके से ईरान होते हुए हिन्दूकुश पर्वत के दरों से होकर सर्वप्रथम पंजाब (हड़प्पा नगर) आए और वहां से सम्पूर्ण उतरी भारत में फैल गए। सन् 2001 में उत्ताह विश्वविद्यालय, साल्टलेक सीटी अमेरिका के डॉ. माइकल बामशाद और आन्ध्र विश्वविद्यालय विशाखापट्टनम के मानवशास्त्र में भारत के प्रो. वी. भास्कर राव के संयुक्त अनुवांशिक शोघ (DNA Reaserch)" रिपोर्ट एवं बाद में पूना के जय दीक्षित (चित्तपावन ब्राह्मण) डॉ. रघुनंदन दीक्षित और डॉ. अजय जोशी के संयुक्त दल के द्वारा किए गए अनुवांशिक शोध ने उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्य पर वैज्ञानिक मुहर लगा दी है।
इसके बाद आर्य ब्राह्मणों के विदेशी और आक्रमणकारी होने के संबंध में कोई संदेह नहीं रह जाता है। अनुवांशिक शोध बिल्कुल सटीक एवं विश्वसनीय
होता है। इसमें मिलावट अथवा साक्ष्य मिटाने की संभावना नहीं रहती है। "अनुवांशिक विश्लेषण (Y. Choromosenes Analysis) से पता चला है कि भारत में सवर्ण जाति के लोगों का संबंध यूरोपियन लोगों से अधिक है, और एशियन लोगों से कम है। यह भी प्रमाणित हुआ है कि भारत में आने वाले यूरोपियन लोग अधिकांशतः पुरुष थे और केवल पुरुष का आना आक्रमण को ही प्रमाणित करता है, विस्थापन नहीं। यदि विस्थापन होता, तो उनके साव यूरोपियन महिलायें भी होतीं। विदेशी आर्य ब्राह्मण भारत में घोड़े पर चढ़ कर आए थे। उनके पास नुकीले हथियार भी ये और रथ का भी उपयोग करते थे,
जिनकी पुष्टि वर्तमान अनुवांशिक शोध भी करता है। अतः अनुसंधान ने स्पष्टतः यह प्रमाणित कर दिया है कि घुड़सवार रथी और लोहे के नुकीले हवियार चलाने वाले लोगों ने भारत के मूलनिवासी, कृषि व्यवसाय करने वाली, शांतिप्रिय जनता पर आक्रमण किया, और अपने वर्चस्व को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से उन पर जातिप्रथा का शिकंजा कस दिया।
भाषाई साक्ष्य के आधार पर सुविख्यात इतिहासकार डॉ. नवल वियोगी" लिखते हैं कि "आर्यों का मूल वासस्थान रूस के वोल्गा नदी का पश्चिमी प्रदेश तथा कैस्पियन सागर के चारों ओर का भूमाग था। इसके बाद वे दक्षिणी रूस के प्रदेशों में जा बसे। वहीं से आर्य स्वात वैली" (गंधार), ईरान होते हुए भारत की ओर बढ़े।" महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ई.पू. 3000 भारत और ईरान की श्वेत जातियों का एक कबीला था जिसका सम्मिलित नाम आर्य" था। इनकी मुख्य जीविका का साघन पशुपालन था। आर्य का मतलब घुमक्कड़ (यायावार) होता है, जो बाद में श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में जाने जाना लगा।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि आर्य शीतप्रधान भूभाग के निवासी थे। इसी कारण उनका वर्ण गोरा, नाक ऊंची, आंखें और बाल भूरे तथा कद लम्बा था।
आर्य अधिक गर्मी के आदि नहीं थे। इसका वर्णन ऋग्वेद (क्र.-1/42/8 में कहा गया है कि हमारे मार्ग में अधिक गर्मी न हो) में भी मिलता है। वे निश्चय ही शीतप्रधान क्षेत्र के निवासी थे। पतंजली" (महाभाष्य सूत्र 2/2/6) के अनुसार ब्राह्मणों का रंग साफ, पीले भूरे बाल होते हैं। "आर्य अर्थ-सभ्य, बर्वर गड़ेरिए थे। वे आर्य बोलियां बोलने वाले घुमक्कड़ चरवाहे थे। वे कुतों को पालते थे, बैलों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी में यूरोप के मैदान में घूमते थे। वे वृक्ष के मोटे तनों से छोटी नाव बनाते थे।"
भारत के मूल आदि-निवासी काले रंग के थे जिनका चेहरा गोल और आंखें बड़ी थीं। इससे संबंधित ऋग्वेदिक ऋचाएं निम्नवत है-
ऋग्वेद 5/29/10-हे इंद्र। तूने छोटी नाक वाले दस्युओं को मारा तथा संग्राम में मृध्रवाक (न समझ में आने वाली भाषा) बोलने वालों को मारा।
ऋग्वेद 5/29/10-हे स्तोता। काले रंग के असुरों को मार कर विचरण करने वाले जल के समान द्रव्य तेजयुक्त निश्पन्न सोम की भली प्रकार स्तुति करो।
ऋग्वेद 1/138/8-तूने काली त्वचा वाले शत्रुओं को विनष्ट किया।
ऋग्वेद 4/16/13-हे इंद्र! तूने 5000 काले रंग के असुरों को मारा तथा जैसे लोग जीर्ण-शीर्ण कपड़ों को फाड़ डालते हैं उसी तरह तूने शत्रु के नगरों को तोड़ डाला।
उपर्युक्त मंत्रों में छोटी नाक वाले दस्यु, काले रंग के असुर, काली त्वचा वाले शत्रु, भारतीय मूलनिवासियों को ही कहा गया है। आर्य मूलभारतीयों के काले रंग के कारण भी उनसे घृणा करते थे। ईरानी लोग भारतीयों को काले रंग वाले कहते हैं, जैसा कि हिन्दू शब्द का अर्थ पर्सियन में काला होता है।
भारत में आने के बाद विदेशी आर्य ब्राह्मण सर्वप्रथम हिमालय की तराई क्षेत्रों के किरात और निशाद तथा सिन्धुघाटी सभ्यता के (मोहनजोदड़ो और हड़प्पा) जनों के सम्पर्क और संघर्ष में आए। वे यहां के हजारों साल के कठिन परिश्रम से अर्जित की गई सभ्यता के प्रतीक सुंदर शहरों को ऐसे उजाड़ कर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया जैसे कोई अबोध बच्चा अज्ञानतावश सुन्दर खिलौने को तोड़ फेंकता है।
राहुल सांकृत्यायन ने बोल्गा से गंगा में लिखा है कि आर्यों ने कुनार, पंजकोरा जैसी अनेक नदियों को कितनी मुश्किल से पार किया। इसका भी प्रमाण कहीं अन्यत्र नहीं, ऋग्वेद में ही मौजूद है-
ऋग्वेद 1/121/15-तुम नाव द्वारा पार होने योग्य नब्बे नदियों को पार कर यज्ञविहीन असुरों के पास पहुंचो एवं उन्हें कत्र्तव्य में लगाओ।
उल्लेखनीय है कि यज्ञ आर्यों के संस्कृति की ही परिचायक है। इनके आने के पूर्व यज्ञ और पशुबलि भारत में प्रचलित नहीं थी। इन दोनों का प्रचलन ईरान में था। जेन्द अवेस्ता (ईरानी ग्रंथ) से सिद्ध होता है कि इसमें 100 घोड़े, 1000 बैल, 10,000 मेड़ अथवा बकरों की बलि की चर्चा की गई है। ऋग्वेद से भी यह बात स्पष्ट होती है कि यज्ञों में पशुओं की बलि होती थी जो आर्यों की देन है। मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि "यज्ञ नहीं करने वाले असुर समुदाय में यज्ञ की परम्परा शुरू करो।" जो लोग यज्ञ संस्कृति से बिल्कुल अनजान थे, वे भारत के मूलनिवासी असुर समुदाय के ही लोग थे।
आर्यों के विदेशी होने तथा भारत पर आक्रमण का परम प्रमाण ऋग्वेद है।
इसमें मौजूद ऋचाएं यह सिद्ध करती हैं कि आर्यों ने भारत के मूल बाशिंदों पर आक्रमण कर उन्हें छलपूर्वक पराजित किया। यह निम्न प्रकार उल्लेखित है-
ऋग्वेद 1/42/1-हे पूशा! हमें मार्ग के पार लगा दो। हे जलवर्षक मेघ के पुत्र! हमारे आगे चलो।
ऋग्वेद 2/15/5- इंद्र ने धुनि नामक विशाल नदी को इतना सुखा दिया कि सरलता से पार किया जा सके। इस प्रकार उन्होंने नदी पार करने में असमर्थ ऋषियों को सरलता से पार उतार दिया। वे ऋषि धन के उद्देश्य से नदी के पार गए। इंद्र ने यह सब काम सोमरस के नशे में किया था।
ऋग्वेद 1/42/3- तुम हमारा रास्ता रोकने वाले चोर एवं कुटिल व्यक्ति को हमारे मार्ग से दूर भगा दो।
ऋग्वेद 1/42/7- हमारा मार्ग सुगम और शोभन बनाओ। हे पुशा। इस मार्ग में हमारी रक्षा का उत्तर दायित्व तुम्हारा है।
ऋग्वेद 1/42/8- तुम हमें घास वाले सुंदर देश में चले जाओं।
हमें मार्ग में कोई नया कष्ट न हो। हे पुशाः इस मार्ग में हमारी रक्षा के विषय में तुम्हीं जानते हो।
उपर्युक्त मंत्रों से स्पष्ट होता है कि आर्य कहीं बाहर से आक्रमणकारी के रूप में भारत आए थे। इस दौरान इनके मार्ग में कई बाधाएं आई थीं, जिससे उबरने के लिए उन्होंने अपने अधिपति इंद्र से गुहार लगाई थी।
भारत आक्रमण के दौरान मार्ग में आने वाले कठिनाइयों पर विजय पाने की अभिलाशा प्रयुक्त मंत्र में स्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। मंत्र में "हरे घास वाला देश" भारत को ही लक्ष्य करके कहा गया है, क्योंकि वोल्गा के तटिय क्षेत्र और ईरान आदि क्षेत्रों से जीविका के साधन समाप्त हो जाने के बाद ही आर्य ब्राह्मण भारत की ओर कूच किए।
उन्हें हरे-भरे घास वाले स्थान की आवश्यकता थी, ताकि चरागाह और जीविका की कोई कमी न हो। आर्यों के लिए ऐसा स्थान भारत जैसे सुजलाम् सुफलाम् मलयश शीतलाम् देश ही हो सकता था। आर्य ब्राह्मण विदेशी हैं, इससे संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पाठक लेखक की "अनुवांशिक शोप और विदेशी आर्य ब्राह्मण" (सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली) नामक शोधग्रंथ पढ़ सकते हैं।
ऋग्वेद में ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे पता चलता है कि बर्बर आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों पर आक्रमण किया था। अनायों पर आयों द्वारा आक्रमण और हत्या के जिस क्रूरतम तरीकों को अपनाया गया इसका वर्णन उन्हीं के लिखे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में आया है।
प्रमाणस्वरूप देखें- ऋग्वेद-8.40.6- हम इंद्र" की कृपा से दासों द्वारा एकत्रित किए गए धन का भोग करेंगे। इंद्र और अग्नि हमारे सभी शत्रुओं को मारे।
ऋग्वेद-2.15.4- इंद्र ने सोमरस की नशे में असुरों से बहुत सी गायें, घोड़े तथा रथ छीन कर दभीति को प्रदान किए।
ऋग्वेद-10.99.3- इंद्र शत्रु की सी द्वारों वाली नगरी में स्थित धन को बल से छीन कर ले आते हैं और उन्हें पराजित करते हैं।
अल्बेद-10.69.6- अग्नि ने पर्वत पर उत्पन्न धन की दासों से जीत कर आर्यों को दिया।
ऋग्वेद-2.20.8- इंद्र ने वज्र से शत्रुओं की लोहे से निर्मित नगरी को पूरी तरह नष्ट कर दिया।
ऋग्वेद-4.30.20- इंद्र ने पत्थरों के बने हुए सी नगर (असुरों से लूटकर) दिवोदास को दिये।
ऋग्वेद-1.53.8- इंद्र ने अकेले ही असुरों के सी नगरों को घेर कर विनष्ट कर दिया।
ऋग्वेद-1.176.4- हे इंद्र। सोमरस न निचोड़ने वाले और दुःसाध्य शत्रुओं का नाश कर उनका धन हमें दो।
ऋग्वेद-5.28.3- हे अग्नि ! हमें धनवान बनाने के लिए शत्रुओं का नाश करो।
ऋग्वेद-1/33/7- हे इंद्र! आपने रोते हुए, खाते हुए एवं हंसते हुए जैसे पाया, इन दस्युओं को युद्ध करके देश से बाहर भगा दिया है। आपने देवलोक से आकर बड़े उत्कर्ष के साथ इन दस्युओं को जला कर हम यज्ञ और स्तुति करने वालों की रक्षा की है।
ऋग्वेद 2/15/9- चुमुरि और धुनि नामक अनार्य को गाढ़ी नींद में सुला कर इंद्र ने भांग पीकर मारा तथा उसका धन छीन लिया।
ऋग्वेद 4/16/13-काले चमड़ी वाले 50,000 राक्षसों (मूलनिवासी अनायों) की इंद्र ने हत्या कर दी।
ऋग्वेद 4/30/15-5000 सौ सेवक से घिरे रहने वाले वचीं नाम के असुर राजा का इंद्र ने वध कर दिया।
ऋग्वेद 4/30/14-इंद्र ने शंबर नाम के अनार्य राजा को उल्टा सिर लटका कर (अधोमुख कर) बड़ी ही निर्ममतापूर्वक मारा।
ऋग्वेद 1/130/8-इद्र ने कृष्ण नामक असुर को अंशुमती नदी के किनारे उसकी खाल उत्तार कर मारा और जिंदा भस्म कर दिया।
इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला।
ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्रों से स्पष्ट पता चलता है कि "आयों में प्रेम, प्रीति और मानवता नाम की कोई चीज नहीं थी। हिंसा, देश, हत्या, उत्पीड़न और वर्बर दुर्घर्षता उनका मुख्य चारित्रिक लक्ष्य था।" ऋग्वेद के अनुसार युद्ध के दौरान अनुमानतः 2,66,000 भारत के मूलनिवासियों की आर्यों द्वारा हत्याएं की गई थीं, तथा हजारों शहरों, नगरों और कीलों को ध्वस्त किया गया। इसका साक्षी स्वयं वेद है। प्राचीन इतिहास के प्रकांड पंडित डी.डी. कोसम्बी" ने लिखा है कि "भारत पर आर्य आक्रमण, मूलनिवासियों पर विजय और यहां की सभ्यता के विध्वंश की जानकारी का प्रमुख स्रोत प्रचीनतम चारों वेद हैं।" "आर्य तो प्राक् सभ्य लिपिहीन दुर्घर्ष योद्धा मात्र थे। वे बर्बर एवं ध्वंस उत्पीड़न प्रेमी थे। वे पशुपालक और शिकारी थे। ऋग्वेद से ही प्रमाणित होता है कि आक्रमणकारी आर्यों की छवि चोरी, छिनतई, राहजनी तथा धन अपहरणकर्ता की जैसी है (एस. के. विश्वास)। इन्द्र को रात के अंधकारों में गोशालों से पगहा खोल कर चोरी करते देखा गया है। आक्रमणकारी आर्यों ने नदियों के ऊपर बने बांधों को तोड़कर ही सिन्धु सभ्यता के उत्पादनों को ध्वंस किया। यही कारण है कि वह सभ्यता पुनः उठ खड़ी न हो सकी।
इस प्रकार कई साहित्यिक और पुरातात्विक और वैज्ञानिक साक्ष्य यह प्रमाणित करते हैं कि विदेशी आर्य ब्राह्मणों ने भारत के मूलनिवासियों के सुन्दर सुव्यवस्थित और सुरम्य नगरों और सभ्यताओं (सिन्धु घाटी सभ्यता) को नष्ट कर अपनी विषमतामूलक संस्कृति कायम की। यही संस्कृति आर्य समाज अथवा ब्राह्मणी धर्म अथवा वर्णाश्रम धर्म या हिन्दू घर्म के रूप में प्रचलित हुआ, जिसमें सिर्फ विषमता ही विषमता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार आर्यों और मूलनिवासियों (पिछड़ा वर्ग, एस.सी. वर्ग, एस.टी. वर्ग और धर्मपरिवर्तित समुदाय) के बीच हुए प्रथम युद्ध को ही देवासुर संग्राम का नाम दिया गया है (बोल्गा से गंगा)। उत्तरवैदिक ग्रंथों (पौराणिक ग्रंथ) में वर्णित हथियारों से लैस हिन्दू देवी-देवताओं द्वारा अपने खड़ग-खंज का इस्तेमाल कर असुरों को छलपूर्वक कत्ल करने की घटना आर्य-अनार्य संघर्ष की ही कहानी है। जब भारत में विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर तोड़े गए, सोने-चांदी की मूर्तियां और मंदिर के खजाना लूटे गए तो हिन्दू देवी-देवताओं के अस्त्र-शस्त्र काम नहीं आए। ये गोरी, गजनी, तैमूरलंग आदि का कुछ नहीं बिगाड़ सके। इससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों ने कल्पित अस्त्र-शस्त्रधारी देवी-देवताओं की आड़ में राजा बलि, महिषासुर, हिरण्यकश्यप तथा रावण जैसे भारत के मूलनिवासी शूरवीरों की छलपूर्वक हत्या कर भारत की
धरती पर ब्राह्मणराज की स्थापना की। सच्चाई जानने के लिए बहुजनों को अपना इतिहास जानना होगा तथा इससे सबक सीखना होगा।
आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों को ही असुर, दानव, दास, दस्यु और राक्षस कहा है। वास्तव में राक्षस शब्द रक्षस" (अर्थात् अपनी समाज और राज्य की रक्षा करने वाला) से बना है। "इसी प्रकार असुर का अर्थ होता है (असु प्राण) प्राणवाण, वीर्यवान, शक्तिवान तथा सुरापान नहीं (अ-नहीं+सुर सुरा पीने वाला) करने वाला। ईश्वर असुर को ही कहा जाता है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि जो प्राणों की इन्द्रियों में रमण करता है वह असुर है (असुशु प्राणेशु इन्द्रियेशु एव रमन्त इति असुराः)।" ये हमेशा विजयी होते थे इसीलिए इन्हें प्राणवाण और शक्तिवान कहा जाने लगा।" इस प्रकार विदेशी आर्य ब्राह्मणों ने जिन्हें असुर या राक्षस (अपने समाज की रक्षा करने वाला) के नाम पर छलपूर्ण पराजित किया, हत्या की, वे सभी भारत के वीर स्वाभिमानी मूलनिवासी राजा थे तथा बहुजन समाज के रक्षक एवं गौरव थे; जैसे लंकापति रावण, महिषासुर, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, जालंधर आदि। जब मस्तिष्क से ब्राह्मणवादी इतिहास का पर्दा हट जाएगा, तो असलियत साफ-साफ झलकने लगेगी।
विशेष आभार - डॉ विजय कुमार त्रिशरण जी को सादर
ई अरविन्द कुमार
(बिहार प्रदेश अध्यक्ष)
अखिल भारतीय दुसाध उत्थान परिषद्, बिहार प्रदेश
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