30/10/2025
“लिखना मेरे लिए सांस लेने की तरह है।”
विनोद कुमार शुक्ल जी द्वारा लिखा गया यह वाक्य कोई साधारण वाक्य नहीं, बल्कि इसमें हर लेखक के पूरे जीवन का सार छिपा है ।
वह बेचैनी, वह तड़प, सृजन की वह ज्वाला जो तब तक शांत नहीं होती जब तक शब्द रूप लेकर बाहर न आ जाएं।
और सच कहूं तो मेरे लिए भी लिखना ठीक वैसा ही है। मैं जब लिखती हूं, तो सिर्फ कागज़ पर शब्द नहीं उतरते , मेरा मन, मेरे अनुभव, मेरे घाव, मेरी खुशियाँ, मेरी चाहतें ,मेरा विश्वास, और विश्वासघात सब शब्दों में ढल जाते हैं। लेखन मेरे लिए आत्मसंवाद है, जहाँ मैं खुद से मिलती हूं, खुद को समझती हूं, और कई बार खुद को सांत्वना भी देती हूं।
जब मैं दुखी होती हूं, तो शब्द मेरा सहारा बनते हैं। जब मैं खुश होती हूं, तो वही शब्द मेरे साथ नाचते हैं। जब मैं टूटती हूं, तो लेखन मुझे जोड़ देता है।
लेखन मेरे भीतर का वह दीपक है जो हर अंधेरे में जलता रहता है, कभी धीमी लौ से, कभी तेज़ रोशनी से।
विनोद कुमार शुक्ल जी का लेखन इसी आंतरिक संसार का प्रमाण है। उनका हर शब्द आत्मा से निकला हुआ लगता है। उन्होंने यह दिखाया कि लिखना केवल विचार व्यक्त करना नहीं, बल्कि जीना है , हर उस भावना को जीना, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं।
उनकी तरह, मेरे लिए भी लेखन कोई विकल्प नहीं, बल्कि एक आवश्यकता है , जैसे बिना सांस के शरीर नहीं चल सकता, वैसे ही बिना लिखे मेरा मन अधूरा रह जाता है।
कई लोग अपने दुख, अपने सवाल, अपने रिश्तों को दूसरों से बाँटकर हल्का कर लेते हैं, लेकिन मैं उन्हें कागज़ पर उतारकर खुद को हल्का करती हूं।
मेरे शब्द मेरे मौन की आवाज़ हैं ।
वे उन भावनाओं को अभिव्यक्ति देते हैं जिन्हें मैं ज़ुबां से नहीं कह पाती।
जब प्रेम मन में उमड़ता है, तो शब्दों में मिठास घुल जाती है।
जब विरह का सागर उठता है, तो वही शब्द नम हो जाते हैं।
जब विश्वास टूटता है, तो शब्दों में तीखापन आ जाता है।
और जब कोई सच्चा अहसास जन्म लेता है, तो शब्द कविता बन जाते हैं।
मेरे लिए लेखन साधना है , एक ऐसी साधना जिसमें न कोई मंदिर है, न कोई आरती।
यहाँ कलम ही दीपक है, कागज़ ही वेदी है, और भावनाएँ ही आराधना हैं।
जब मैं लिखती हूं, तो समय जैसे ठहर जाता है। न बाहर की दुनिया रह जाती है, न भीतर की सीमाएँ। बस एक प्रवाह होता है , शब्दों का, विचारों का, और संवेदनाओं का।
मैंने पाया है कि लेखन मुझे बचाता है , उन क्षणों में जब मन टूटा होता है, जब रिश्ते खामोश होते हैं, जब भीतर बहुत कुछ कहना होता है पर कोई सुनने वाला नहीं होता।
ऐसे में लेखन मेरा सहारा बनता है, मेरा मित्र, मेरा दर्पण।
विनोद कुमार शुक्ल जी की यह पंक्ति इसलिए अमर है क्योंकि यह हर लेखक, हर सृजनशील आत्मा का अनुभव है।
और मेरी दृष्टि में भी लिखना केवल शब्दों को जोड़ना नहीं, बल्कि जीवन को अर्थ देना है।
क्योंकि जब शब्द बहते हैं, तो मन जीता है।
और जब मन जीता है, तो आत्मा सांस लेती है।
इसलिए मैं भी यही महसूस करती हूं कि
लिखना मेरे लिए सांस लेने की तरह है। अगर मैं न लिखूं, तो शायद मैं जीना ही भूल जाऊं और मर जाऊं।
और अंत में यह प्रार्थना भी करना चाहती हूं कि
विनोद कुमार शुक्ल जी शीघ्र स्वस्थ हों।
उनकी लेखनी और उनका विचार-संसार हमारे साहित्य की आत्मा है।
उनका स्वस्थ रहना, लेखन जगत का जीवित रहना है।
स्त्रीrang सुजाता
#विनोदकुमारशुक्ल
चित्र इंटरनेट @कविताएं