
17/05/2025
"संध्या दीदी, आप यहां अपनी मां से मिलने आई हैं, उनसे मिलिए और अपने काम से मतलब रखिए। बार-बार मुझे समझाने की जरूरत नहीं है। आखिर बर्दाश्त की भी एक हद होती है। मैं भी आपकी उम्र की हूं और मुझे मेरे काम में दखलअंदाजी पसंद नहीं है।" – नैना ने तीखे लहजे में कहा।
उसकी बात सुनकर संध्या चुप रह गई। उसने भाई सौरभ की ओर देखा, पर वो तो आंखें झुकाकर बैठा था। मां–गीता देवी की निगाहें संध्या से मिलीं — जिनमें लाचारी और बेबसी साफ झलक रही थी।
संध्या जानती थी, बहस बढ़ाने से मां को और मुश्किल होगी। वो सब कुछ सह गई, जैसे बहुत कुछ सहती रही थीं मां भी… चुपचाप।
संध्या की शादी को दो साल हो चुके थे। पिता के निधन के बाद आज पहली बार वह अपने दो महीने के बेटे के साथ मायके आई थी। लेकिन यहां का बदला हुआ माहौल देखकर उसका दिल भर आया। मां गीता देवी कभी सलीके से रहने वाली, आत्मसम्मान से भरी महिला थीं। आज घिसी-पिटी साड़ी में, बिना कुछ बोले एक कोने में बैठी थीं।
पापा के समय में घर में बेटी और बहू दोनों बराबर थीं। लेकिन उनके जाने के बाद जैसे नैना का राज कायम हो गया था। संध्या ने मां की अलमारी देखी तो वह खाली पड़ी थी। मां ने कहा – "पुरानी साड़ियाँ लेनदेन में दे दीं, अब मन नहीं करता।"
पर रात नैना ने अपनी बहन से जो बातें फोन पर कीं, वह सुनकर संध्या कांप उठी।
"भला विधवा औरत को पनीर की सब्जी खिलाने की क्या जरूरत? ये ननद जल्दी जाए तो मेरा पिंड छूटे।"
संध्या के मन में उबाल आया लेकिन वो चुप रही।
सुबह जब नैना ने सबको नाश्ते में कचौरी दी और मां को नहीं, तो संध्या ने कहा –
"भाभी, मां को कचौरी क्यों नहीं दी?"
"मां जी ये सब नहीं खातीं" – नैना बोली।
"आपने परोसा ही नहीं तो कैसे खाएंगी?" – संध्या ने अपनी प्लेट मां को दे दी और रसोई की ओर बढ़ी।
बस, इतना कहना था कि नैना का असली रूप सामने आ गया।
"अगर इतना ही शौक है अपनी मां को खिलाने का, तो अपने साथ ले जाइए। और आइंदा इस घर में मत आइए।"
संध्या का सब्र टूट गया। बेटे को गोद में उठाते हुए बोली –
"ठीक है भाभी, जा रही हूं। पापा के साथ-साथ अब मेरा मायका भी खत्म हो चुका है।"
तभी गीता देवी बोलीं –
"रुक जा बेटी। अब चुप रहने से सिर्फ अपनों का दिल टूटता है। बहुत सह लिया मैंने, पर आज नहीं। ये घर मेरा है, और इस पर हक भी मेरा है। तू नहीं जाएगी, अगर किसी को जाना है तो ये बहू जाएगी।"
नैना चौंक गई – "आप रहेंगी किसके साथ?"
"मैं खुद की जिम्मेदारी उठा सकती हूं। बस अब और नहीं सहूंगी।" – मां का जवाब था।
और पहली बार सौरभ बोला –
"नैना, मां का घर है ये। वो चाहें तो हमें निकाल सकती हैं। और प्रॉपर्टी संध्या दीदी के नाम कर सकती हैं। अब तुम्हें तय करना है कि किराए पर रहना है या घर में चुप रहना है।"
नैना को जैसे सांप सूंघ गया। स्वार्थ के सामने आत्मसम्मान हारता नहीं, बस वक़्त लगता है खड़े होने में।
अगर आपने भी अपनी मां को चुप रहकर टूटते देखा है…
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क्योंकि किसी भी घर की असली मालकिन वो मां होती है, जो चुप रहती है… लेकिन जब बोलती है, तो पूरी दुनिया सुनती है।