Jhar UpDate

Jhar UpDate एक कदम नवनिर्माण झारखंड की ओर झारखंड की संस्कृति सभ्यता और अस्मिता को बचाना है।

कुड़मि को जनजाति से अत्यंत पिछड़ी जाति (OBC) में दर्ज कर देने का दुष्परिणाम आज ये है:1. हमारी भाषा कुड़मालि विलुप्ति के ...
26/04/2025

कुड़मि को जनजाति से अत्यंत पिछड़ी जाति (OBC) में दर्ज कर देने का दुष्परिणाम आज ये है:

1. हमारी भाषा कुड़मालि विलुप्ति के कगार पर है।
2. शिक्षा और रोजगार में हम लगातार पिछड़ रहे हैं, क्योंकि

झारखंड में अत्यंत पिछड़ी जाति समूह की जनसंख्या 48% है,

लेकिन आरक्षण मात्र 8% है।

नतीजतन सरकारी नौकरियों में हमारी भागीदारी नाममात्र रह गई है।
3. कृषि की स्थिति इतनी दयनीय है कि 99% परिवारों के पास एक एकड़ भी जमीन नहीं है।

परिणामस्वरूप हमारे युवा मुश्किल से मैट्रिक तक पढ़ते हैं और फिर

दिल्ली, मुंबई, गुजरात, पुणे, बंगलोर जैसे शहरों में अकुशल मजदूर बनकर पलायन करने को मजबूर हैं।
4. धार्मिक भ्रम में फँसकर हमने स्वयं को हिन्दू मानने की भूल की है।

मात्र दो पीढ़ियों पूर्व लिए गए गलत निर्णयों के कारण

आज हम स्मरणनाश (Memocide) की स्थिति में पहुँच गए हैं।
5. यदि पुनर्जागरण असफल रहा तो भविष्य में —

उत्तर में राजमहल की पहाड़ियाँ,

दक्षिण में मयूरभंज,

पूरब में मेदिनीपुर,

पश्चिम में सरगुजा तक फैली हमारी जनजाति कुड़मि

शेष भारत में सबसे सस्ते अकुशल मजदूर के रूप में REFUGEE बन जाएगी।

और तब हमारी एक समृद्ध संस्कृति, सभ्यता, और भाषा हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगी।
इतिहास के पन्नों से भी हमारा नाम मिट जाएगा।
यानी आज का कुड़मि, कल का Gypsy बन जाएगा!

अतः साथियों, जहाँ भी हैं — अपनी मातृभाषा कुड़मालि को बोलिए, अपनाइए और आगे बढ़ाइए।
यह अस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई है!

लेख ✍️... Deepak Kumar Punuriar
(सम्पादन व प्रस्तुति - Kudmi Bandhu "Totemic")

००  सिखुआड़ ( शिखा/चोटी) - जिस स्थान में चुटिया रखीं जातीं हैं, उस जगह पर दिमाग़ की सारी नसें आकर एकत्रित होती है।प्रकृत...
26/04/2025

०० सिखुआड़ ( शिखा/चोटी) - जिस स्थान में चुटिया रखीं जातीं हैं, उस जगह पर दिमाग़ की सारी नसें आकर एकत्रित होती है।
प्रकृति के उच्चतम प्रारूप इतने दुरूह/ रहस्यमय/ गुढ़ /जटिल होते हैं कि सामान्य जन इन्हें विपरीत या अनर्थ तक मान बैठते हैं प्रकृति की एक झलक भी अस्तित्व को झकझोर देती है। पहले का पढ़ा हुआ, सुना - समझा हुआ,सब हवा हो जाता है। यह सत्य है कि बिना आत्मसात किए मिला हुआ ज्ञान समझ से परे होता है। तत्वज्ञान, जीवन-दृष्टि, दार्शनिक आयामों को इसलिए स्वयं अनुभव करें, दुसरे के ज्ञान भरोसे मत रहें।जिस किसी ने भी प्रकृति के उस उच्चतम प्रारूप का एक झलक देख लिया हो उसे उसकी प्राकृतिक रहस्य को खोलने में, खोलकर देखने और समझने में एक अलौकिक शक्ति मदद करती है। प्रकृति और आकृति का गुप्त रहस्य सहजता से समझ आने लगती है। प्रकृति के हर गांठ/ रहस्य को समझना अपने आप में एक खोज है।
प्रतीक - शिखा , चोटी) शिखा या चोटी मुख्यतः सिर के उस स्थान पर होता है जहां सभी सुक्ष्म तंत्रिकाओं का समाप्ति की अवस्था में मिल एकत्रित होता है - उसी स्थान को सहस्रार चक्र भी कहते हैं । जिसको विज्ञान pineal glainds कहता है।सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है इसे "हजारों पंखुड़ियों वाले कमल" भी कहते हैं। यहां पहुंचे पर साधक निर्विचार हो जाता है। जिस प्रकार जन्म देने वाली मां का संबंध अपने बच्चों के साथ नाभि से रहता है, ठीक उसी प्रकार अंतिम विंदु भी शिखा / चोटी रखने वाला स्थान सहस्रार चक्र है। मानव शरीर में नाभि प्रदेश को मणिपुर चक्र कहते हैं । चोटी/शिखा वाला क्षेत्र से वैज्ञानिक मतानुसार " सेरिब्रोस्पाइनल फ्ल्यूड" नामक रस निकालता है। इसी ब्रह्मा रंध्र को दशम द्वार भी कहते हैं। इस गुप्त ज्ञान के रहस्य को समझाने वालों को सिखुआड़ कहा गया है। जो प्रतीक/चिन्ह के रूप में शिखा या चोटी को मानते हैं। जिस प्रकार हर प्राकृतिक फलों में मुल स्रोत से जुड़ा हुआ भाग एवं अंतिम सिरा सभी शिराओं का समुह या मिलन स्थल होता है।नौ द्वार निम्नलिखित है - दो (02) आंखें, दो (02) कान, एक नासिका, एक मुंह, एक नाभि, गुदा द्वार, मुत्र द्वारा।
सारे स्वरों का समन्वय द्वार यही शिखा स्थान है, जहां से स्वरों का उद्भव होता है ( देखें - शंखुआड़, बंसरीआड़.......)
यही प्रकृति शक्ति का उद्भव स्थान है, जिसको जागृत करने में सामान्य जनों को उम्र बीत जाता है।

अगर हम एक सेकेंड के लिये ही सही निर्विचार हो सके तो हमने कुंडलिनी के शीर्ष सहस्त्रार चक्र का अनुभव कर लिया समझो अब बस इसे स्थिर करने कि जरूरत है, कुंडलिनी चक्र के बारे मे लोगों के पास सिर्फ उधार का ज्ञान है या लिखी लिखी बातें खुद का कोई अनुभव नही है, या तो सारे चक्र को संतुलित करें या फिर सबसे ऊपरी चक्र को संतुलित करें या साध लें।

यह चक्र आज्ञा चक्र के भी ऊपर है यानी अद्वैत कि अनुभूति देने वाली अवस्था, इससे ऊपर शायद ही किसी ने अनुभव किया है, जो यहां तक पहुंच गया उसके लिये कोई रहस्य, रहस्य नहीं रहता, जहां निगाह गई उसकी परत धीरे-धीरे खुलने लग जाती है, यहीं तक पहुचने मे लोगों का जीवन निकल जाता है और पात्रता पैदा हो गई तो कुछ मिनटों का काम है, बाकी सब बातें है बातों का क्या।

लेख जारी है ...
अन्य सभी किलि/गुस्टियों की विस्तृत जानकारी हेतु......

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 #कुड़मी समाज का संवैधानिक और मानवशास्त्रीय इतिहास #1918 में मांटेगु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने स्पष्ट किया था कि भारतीय परिष...
25/04/2025

#कुड़मी समाज का संवैधानिक और मानवशास्त्रीय इतिहास #

1918 में मांटेगु-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने स्पष्ट किया था कि भारतीय परिषद के उच्च अधिकार के बिना भारत के पिछड़े क्षेत्रों में सुधार संभव नहीं हो पाएगा। इसके आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1919 को यूनाइटेड किंगडम की संसद द्वारा पारित किया गया।

इस अधिनियम के अंतर्गत भारत को दो भागों में विभाजित किया गया:
1. सामान्य प्रांत
2. पिछड़े क्षेत्र, जिन्हें Excluded Areas(अपवर्जित क्षेत्र) कहा गया।

इन अपवर्जित क्षेत्रों में बिना गवर्नर जनरल की अनुमति कोई भी कानून लागू नहीं किया जा सकता था।
यह प्रावधान इन क्षेत्रों की विशिष्टता और सांस्कृतिक विविधता की रक्षा के लिए था।

मांटेगु रिपोर्ट से पूर्व, सन् 1884 में H.H रिस्ले के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण एंथ्रोपोलॉजिकल_रिसर्च की गई।
इसका लेख 1891 में 'Tribes and Castes of Bengal' में प्रकाशित हुआ, जिसमें बंगाल की कई जनजातियों का वर्णन किया गया।

2 मई 1913, को गैज़ेट ऑफ़ इंडिया (शिमला) में एक ऐतिहासिक नोटिफिकेशन प्रकाशित हुआ जिसमें निम्नलिखित समुदायों को भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1865 से अलग रखा गया

मुंडा, संथाल, ओराव, हो, भूमिज, खड़िया, गोंड, कांध, कोरवा, घासी, माल पहाड़िया, पान (उड़ीसा-बिहार) और कुड़मी।

इन समुदायों की अपनी परंपराएं, संस्कृति और उत्तराधिकार नियम थे, जिन्हें केंद्र में रखकर उन्हें मूल कानूनों से अलग रखा गया।

वर्ष 1918 के बाद, फिर से एक जनजातीय सर्वेक्षण की शुरुआत हुई, जो 1931 तक चला।
भारतीय जनगणना रिपोर्ट 1931 में जातीय वर्गीकरण के साथ-साथ आदिम जनजातियों की सूची भी प्रकाशित हुई, जिसमें कुड़मी समाज को भी स्थान मिला।

एंथ्रोपोलॉजिकल रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि कुड़मी समाज के कुछ विवादों का निर्णय उनके परंपरागत नियमों के अनुसार न्यायालय ने सुनाया था, जो उनकी स्वशासित सामाजिक व्यवस्था को मान्यता देता है।

यह इतिहास बताता है कि कुड़मी समाज एक समृद्ध परंपरा, विशिष्ट संस्कृति और अपने स्वशासित सामाजिक न्याय व्यवस्था वाला समुदाय रहा है।
आज जरूरत है कि हम अपने इतिहास, पहचान और अधिकारों को जागरूकता और गर्व के साथ आगे बढ़ाएँ।

🟩 साध खीआ : कुड़मियों की एक प्राचीन और संवेदनशील परंपराकुड़मी समाज में गर्भवती महिलाओं की देखभाल को विशेष महत्व दिया जात...
25/04/2025

🟩 साध खीआ : कुड़मियों की एक प्राचीन और संवेदनशील परंपरा

कुड़मी समाज में गर्भवती महिलाओं की देखभाल को विशेष महत्व दिया जाता है। गर्भवती महिला की शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए उसे उसकी इच्छा के अनुसार पौष्टिक भोजन दिया जाता है। इसी प्रेम और देखभाल की परंपरा को साध खीआ कहा जाता है।

सातवें महीने में होती है साध खीआ की शुरुआत

यह परंपरा गर्भावस्था के सातवें महीने में शुरू होती है। ऐसा माना जाता है कि सातवें महीने से लेकर आठवें महीने तक गर्भ में शिशु के जन्म लेने की पूरी क्षमता विकसित हो जाती है। कुड़मियों में एक कहावत प्रचलित है:

🟩आठ मास, काठ मास
अर्थात – "आठ महीने का शिशु लकड़ी के समान मजबूत होता है।"

तीन प्रकार से ली जाती है साध

कुड़मियों में साध खीआ को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है:

1. ससुराल से साध लेना
2. मायके से साध लेना
3. रिश्तेदारों एवं प्रियजनों से साध लेना

गुड़-भात का आयोजन और आशीर्वाद की रस्म

छह महीने की गर्भवती होने के बाद किसी शुभ दिन गर्भवती महिला गुड़ भात बनाती है। फिर वह अपने भेआईद/गुस्टि के बुजुर्गों — जैसे दादा-दादी, सास-ससुर — को यह भोजन परोसती है। इस अवसर पर महिला को बड़ों से यह आशीर्वाद मिलता है कि वह बिना अधिक पीड़ा के स्वस्थ शिशु को जन्म दे।

पारंपरिक रूप से साध खीआ की शुरुआत कैसे होती है?

गर्भावस्था की जानकारी सबसे पहले लड़की के मायके वालों को दी जाती है। इसके बाद ग्राम देवी-देवताओं को सूचना दी जाती है, जैसे:

गरमथान,
बूढ़ाबाबा,
माहामाई,
बघउत_कुदरा,
बअसमाता,
गोसाई,
जाहिरबूढ़ी,
बड़पहाड़

साध खीआ की रस्म की शुरुआत महिला की मामी करती है। इसके बाद उसकी माँ, काकी, झेठी, शुभचिंतक तथा अन्य परिवारजन भी रस्म में सम्मिलित होते हैं।

परंपरा में हो रहे बदलाव और उनके दुष्परिणाम

आज के समय में आर्थिक रूप से समृद्ध कुछ कुड़मी परिवारों ने इस नेग को बदलते समय के अनुसार बदल दिया है। अब वे इसे सामूहिक भोज के रूप में मनाने लगे हैं। इससे समाज में उनके रुतबे में तो वृद्धि होती है, परंतु वे अपने पुरखों की परंपरा को तोड़ रहे हैं।

इस बदलाव से समाज में सामाजिक खाई बनने लगती है और गर्भवती महिला के लिए यह परंपरा अब बोझिल और मानसिक रूप से कठिन होती जा रही है। अतिथियों की देखभाल और अपने शारीरिक-मानसिक हालात को साझा करना उसके लिए चुनौती बन जाता है।

समाप्ति: परंपरा का मूल भाव न भूले

साध खीआ का मूल उद्देश्य गर्भवती महिला को संबल देना, उसकी इच्छाओं का सम्मान करना और समाज व परिवार से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करना है। इसे दिखावा या प्रतिस्पर्धा का रूप देना न केवल परंपरा के साथ अन्याय है, बल्कि गर्भवती महिला के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।

"कुड़मि – एक नस्लीय जनजाति की पहचान"(चिंतन मंथन)1. नस्ल या जाति?कुड़मि कोई साधारण जाति नहीं, बल्कि *एक शुद्ध नस्लीय जनजा...
25/04/2025

"कुड़मि – एक नस्लीय जनजाति की पहचान"
(चिंतन मंथन)

1. नस्ल या जाति?
कुड़मि कोई साधारण जाति नहीं, बल्कि *एक शुद्ध नस्लीय जनजाति है – जो हजारों वर्षों से अपनी पहचान, परंपरा और आनुवंशिक संरचना को अक्षुण्ण रखे हुए है।
यह समुदाय 81 गुसटियों और उपगुसटियों में विभाजित है, और आज तक सिर्फ इन्हीं में वैवाहिक संबंध बनाता आया है।
हालिया Genetic Study बतलाता है कि छोटानागपुर क्षेत्र के कुड़मियों की आनुवांशिक रचना 60,000 वर्षों से मिश्रित (hybrid) नहीं हुई है।

उनके टोटेम (गुस्टि चिन्ह) भी इसी क्षेत्र के जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों और वस्तुओं से जुड़े हैं।
यानी कुड़मि कहीं बाहर से नहीं आए, वे इसी धरती के "भूञ फुट" हैं।

2. कृषि: केवल पेशा नहीं, संस्कृति है
कुड़मियों का मुख्य पेशा धान की खेती रहा है।
इन्होंने छोटानागपुर के पठार में हजारों धान की किस्में खोजीं और उन्हें विकसित किया।
इन किस्मों और खेतों के नाम आज भी कुड़मालि भाषा में हैं – जैसे:
बहि आइड़, काना आइड़, बाइद, गड़ा, हिड़, जभि, टाँ आइड़, बा आइड़ि आदि –
नाम से ही खेत के गुण का अंदाजा लगाया जा सकता है!

3. भाषा: आत्मनिर्मित और वैज्ञानिक
कुड़मालि भाषा को किसी से उधार नहीं लिया गया, यह भाषा कुड़मियों ने स्वयं बनाई।
इसके शब्द स्वतंत्र, सहज और प्रकृति से उपजे हुए हैं।
इस भाषा में जीवन के हर पहलू को समझाने की क्षमता है।
झूमर, गीत, लोकगाथाएँ – हजारों वर्षों से इस भाषा में चले आ रहे हैं।
इतनी सशक्त भाषा को नवागंतुकों ने भी सीखा, ताकि वे कुड़मियों के बीच रह सकें –
क्योंकि यही भाषा उन्हें पेट, शरण और जीवन दिला सकी।
लेकिन समय के साथ कुड़मालि की विविध बोलियों को नागपुरी, खरठा, पंचपरगनिया आदि कहकर पुकारा गया –
और हम भी अपनी मूल भाषा कुड़मालि को भूलने लगे।

4. राइ रइया और परब: खेती से उपजा आध्यात्म
कुड़मियों ने अनुभव किया कि उनका अस्तित्व धान पर टिका है,
इसीलिए उन्होंने उन प्राकृतिक शक्तियों को राइ रइया (देवइता देवइति) माना,
जो धान की वृद्धि में सहायक थीं।
12 मासे 13 परब इसी विज्ञान पर आधारित हैं –
हर परब धान की वृद्धि के एक क्रम को पूरा करता है।
कोई कल्पना नहीं, कोई अंधविश्वास नहीं – सिर्फ अनुभव और प्रकृति से जुड़ी आस्था।
आज हम बाहरी पूजा-पद्धतियों, पंडितों और देवी-देवताओं की ओर मुड़ गए हैं,
और अपनी पुरखैनि परब राइ रइया को भूलने लगे हैं।
हमारी भावी पीढ़ी को यह विश्वास ही नहीं होगा कि करम और सोहराय हमारे पुरखों की पूजा थी –
गाँव में 'बरद खूँटा' भी एक पवित्र स्थान था।

इसलिए साथियों, आइए – अपने आप को फिर से पहचानें।
हम जाति नहीं, एक नस्लीय जनजाति हैं।
हमारी भाषा, कृषि, परब और परंपरा –
सब हमारी पहचान का जीवित प्रमाण हैं।
इन्हें छोड़ना मतलब अपनी जड़ को काटना है।

लेख ✍️.. Deepak Kumar Punuriar
(सम्पादन व प्रस्तुति - Kudmi Bandhu "Totemic")

108 कर्मचारी संघ  अनिश्चितकालीन हड़ताल में चले गए पश्चिमी सिंहभूम चाईबासा सदर अस्पताल चाईबासा में धरना प्रदर्शन किया गया
16/04/2025

108 कर्मचारी संघ अनिश्चितकालीन हड़ताल में चले गए पश्चिमी सिंहभूम चाईबासा सदर अस्पताल चाईबासा में धरना प्रदर्शन किया गया

झारखंडी लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (JLKM) की  बैठक में जिले के झारखंड- आंदोलनकारी के साथ कई बड़े दिग्गज नेताओं ने पा...
13/04/2025

झारखंडी लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (JLKM) की बैठक में जिले के झारखंड- आंदोलनकारी के साथ कई बड़े दिग्गज नेताओं ने पार्टी का दामन थामा।

चाईबासा - जिला पश्चिमी सिंहभूम के चाईबासा स्थित सर्किट हाउस परिसदन में जिला संगठन सचिव दुर्योधन महतो की अध्यक्षता में जिला स्तरीय बैठक एवं सदस्यता ग्रहण कार्यक्रम रखा गया। जिसमें केंद्र के पदाधिकारी एवं जिले के सभी मोर्चा के पदाधिकारी एवं सैकड़ो नए कार्यकर्ता सम्मिलित हुए। झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के विचारधारा को देखते हुए । कई झारखंड आंदोलनकारी, क्रांतिकारी, के साथ साथ जिले के दिग्गज नेताओं ने पार्टी का दामन थामा। चाईबासा झारखंड जेनरल कामगार यूनियन सह आदिवासी किसान मजदूर पार्टी सरायकेला खरसावां के जिलाअध्यक्ष हीरालाल हेंब्रम, सरायकेला जिला उपाध्यक्ष राम सिंह तियु , खुटपानी प्रखंड अध्यक्ष महानायक सुंडी, खरसावां प्रखंड अध्यक्ष शंकर दिग्गी, तांतनगर प्रखंड अध्यक्ष जगबंधु हेंब्रम, सदर चाईबासा प्रखंड अध्यक्ष विशाल पूर्ति, मझगांव प्रखंड अध्यक्ष अनिल चतार, मंझारी प्रखंड अध्यक्ष जगदीश बिरूवा, चक्रधरपुर प्रखंड अध्यक्ष डालसेन पूर्ति ,पार्टी के सदस्य रोशन बंकीरा, जेना करवा, अविनाश करवा मिथिलेश हेंब्रम, रमेश गोडसोरा, गोया गोप रांन्दो हेंब्रम, रमेश पान, डुमू सोय, भगवान दास ठाकुर, सामू पूर्ति,संजय पूर्ति, कार्तिक तांती, सूरज गुदूवा, निर्मल गोप, यदुनाथ पाठ पिंगुआ, क्षर्मेंद्र पाट पिंगुवां, बिरसिंह गोप , विजय बारी आमू बिरूली, चाईबासा निर्दलीय पूर्व प्रत्याशी संजय देवगम इत्यादि सैकड़ो में नए सदस्यों ने सदस्यता ग्रहण की। सर्वप्रथम संगठन के पदाधिकारी जिला अध्यक्ष करण महतो , केंद्रीय उपाध्यक्ष सह पूर्व प्रत्याशी सरायकेला , प्रेम माडी, जिला संगठन सचिव दुर्योधन महतो, चक्रधरपुर नगर अध्यक्ष गणेश महतो , एस टी मोर्चा जिला अध्यक्ष बुवाई बिरुली, मनोहरपुर प्रखंड अध्यक्ष निशूचक चाम्पीया , युवा मोर्चा जिला अध्यक्ष अजय महतो, सोनुवा प्रखंड अध्यक्ष सर्वजीत , बंदगांव प्रखंड अध्यक्ष अखिलेश कुमार जिले व प्रखंड पदाधिकारी तूफान महतो , महेंद्र , अंबिका के द्वारा के द्वारा नए सदस्यों को फूल माला पहनाकर स्वागत किया गया। तत्पश्चात जिले के विभिन्न मुद्दों पर चर्चाएं हुई, जिसमें मनोहरपुर तरतरा निवासी झारखंड के लाल आल्हाद महतो की ईरान में दुर्घटना से निधन हो गया , उनका शव 17 दिन होने के बाद भी नहीं मिला इस पर विशेष चर्चा की गई, साथ ही बोकारो बीएसएल प्रबंधन के द्वारा प्रेम महतो की हत्या की गई थी । हथियारों को जल्द से जल्द सजा देने की चर्चा हुई, दोनों की आत्मा की शांति हेतु दो मिनट का मौन धारण भी किया गया। अंत में मीडिया प्रभारी यथार्थ शंकर महतो के द्वारा धन्यवाद ज्ञापन दिया गया।

गाजन / भगता / चड़क / मंडा परब -  ये पर्व उस महामानव, हमारे पूर्वज के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर हैं, जिनकी अंशरूप...
11/04/2025

गाजन / भगता / चड़क / मंडा परब -
ये पर्व उस महामानव, हमारे पूर्वज के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर हैं, जिनकी अंशरूप में आज हम अस्तित्व में हैं।

इन पर्वों का आयोजन तप, त्याग, भक्ति और आस्था से भरा होता है। भगता अपने शरीर को साधना का माध्यम बनाकर उस महामानव की स्मृति में व्रत, उपवास और कठिन तप करते हैं। चड़क परब में आत्मनियंत्रण, साहस और श्रद्धा का अद्भुत समावेश होता है, जो यह दर्शाता है कि हम अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान को कभी नहीं भूल सकते।

मंडा परब विशेष रूप से प्रकृति, देवता और पूर्वजों के प्रति आभार प्रकट करने का अनूठा उत्सव है। इसमें हम न केवल अपने भौतिक जीवन को समर्पित करते हैं, बल्कि आत्मिक रूप से भी स्वयं को उनके चरणों में अर्पित करते हैं।

इस प्रकार ये पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं, हमें याद दिलाते हैं कि हमारे अस्तित्व की नींव उन पूर्वजों ने रखी है, जिन्होंने अपने श्रम, साहस और आस्था से हमें यह जीवन दिया।

उनके प्रति यह परब हमारी श्रद्धा, सम्मान और आभार का प्रतीक है।

Picture - drawn by F***y Parkes
From Wanderings of a Pilgrim in Search of the Picturesque, Vol. I (London: Pelham Richardson, 1850).

Coming soon ..Biggest festivals of the Kudumi 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻---  Parab of the Kudmi ❤️❤️.: A Celebration of Faith, Nature, a...
10/04/2025

Coming soon ..
Biggest festivals of the Kudumi 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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Parab of the Kudmi ❤️❤️.: A Celebration of Faith, Nature, and Tradition

The Kudmi, an agrarian community primarily residing in the Chota Nagpur Plateau across Jharkhand, West Bengal, and Odisha, are known for their deep-rooted connection to nature and agriculture. Among their many vibrant festivals, **Bhagta Parab** stands out as a significant tribal celebration that reflects their spiritual beliefs, cultural heritage, and communal harmony. Celebrated between the transition of spring and summer, Bhagta Parab is a festival of devotion, bravery, and artistic expression, centered around the worship of Budha Baba, a revered deity among the Kudmi and other tribal groups in the region.

# # # # Origins and Significance
Bhagta Parab is deeply tied to the Kudmi’s agrarian lifestyle and their reverence for nature. The festival occurs during a pivotal time in the agricultural calendar—after the spring harvest and before the onset of summer sowing—making it a moment to give thanks and seek blessings for prosperity. The Kudmi, traditionally farmers, view this festival as an opportunity to honor Budha Baba, a deity symbolizing wisdom, protection, and the natural world. While the festival is widely associated with Jharkhand’s tribal communities, including the Kudmi, its rituals and fervor are particularly pronounced in areas like the Tamar region.

The term “Bhagta” may derive from devotion or the devotees (Bhagats) who undertake intense acts of faith, while “Parab” means festival in local languages. For the Kudmi, Bhagta Parab is not just a religious event but a communal celebration that reinforces their identity as nature worshippers and custodians of tribal traditions.

# # # # Rituals and Practices
Bhagta Parab unfolds over multiple days, blending fasting, worship, and physical displays of courage. The festival begins with a day of fasting, during which the community prepares for the central rituals. A key figure in the proceedings is the Pahan (priest), often referred to as Laya in some contexts, who is carried to a sacred pond or the Sarana Mandir (tribal temple) for a ritual bath. This act symbolizes purification and readiness for divine communion.

One of the most striking rituals occurs when the Pahan emerges from the water. Devotees form a human chain, locking their thighs together, and offer their chests for the priest to walk over—a gesture of submission and trust in the divine. This practice, unique to Bhagta Parab, showcases the community’s unity and willingness to endure physical hardship as an expression of faith.

The evening brings a shift from solemnity to exuberance with the performance of the **Chhau dance**, a traditional masked dance form known for its vigorous movements and gymnastic feats. Accompanied by rhythmic drumming and music, the dancers—often adorned with elaborate masks depicting mythological characters—narrate stories of valor and spirituality. For the Kudmi, the Chhau dance is both a cultural treasure and a communal celebration, drawing participants and spectators alike into its dynamic energy.

The following day is dedicated to displays of bravery, a hallmark of Bhagta Parab. Devotees pierce their bodies with hooks and suspend themselves from a tall wooden pole, sometimes reaching heights of up to 40 feet. Attached to ropes and swung around the pole by fellow community members, these individuals perform breathtaking aerial dances, defying pain and gravity in an act of devotion. This ritual, while intense, underscores the Kudmi’s belief in transcending physical limits to connect with the divine.

# # # # Cultural and Social Dimensions
For the Kudmi, Bhagta Parab is more than a religious observance—it’s a reaffirmation of their cultural identity. The festival integrates elements of their folk traditions, such as the Jhumair dance and songs in the Kudmali/Kurmali language, alongside the Chhau performance. These artistic expressions preserve the community’s oral history and values, passed down through generations.

Socially, Bhagta Parab fosters unity. The collective participation in rituals—whether forming the human chain, pulling the ropes for the aerial displays, or dancing together—strengthens bonds within the community. It’s a time when families and villages come together, sharing food, stories, and laughter after the day’s solemnities.

# # # # The Kudmi Context
The Kudmi, historically classified as a tribal group under British rule but later listed as an Other Backward Class (OBC) in independent India, have long sought recognition as a Scheduled Tribe (ST). Festivals like Bhagta Parab highlight their distinct cultural practices, which align closely with those of other tribal groups in the region, such as the Santhals and Mundas. The worship of Budha Baba, the emphasis on nature, and the physicality of the rituals echo the totemistic and animistic traditions that define many indigenous cultures—lending weight to their claims of tribal identity.

Unlike the more Sanskritized festivals of mainstream Hinduism, Bhagta Parab retains a raw, earthy character, rooted in the Kudmi’s agricultural and tribal ethos. Their pantheon of deities, including Budha Baba and others worshipped at sacred sites like Madapthan and Garamthan, reflects a spiritual worldview that predates and diverges from Vedic influences.

# # # # Contemporary Relevance
Today, Bhagta Parab remains a vital part of Kudmi life, though it faces challenges from modernization and migration. As younger generations move to urban areas, the festival’s rural roots are tested, yet it persists as a symbol of resilience. In recent years, the Kudmi’s push for ST status has brought renewed attention to their customs, with Bhagta Parab serving as a powerful testament to their unique heritage.

The festival also attracts cultural enthusiasts and tourists, particularly for the Chhau dance and the dramatic displays of bravery. In places like Bokaro or Purulia, where neighboring communities join in, it has evolved into a broader regional celebration, blending Kudmi traditions with local variations.

# # # # Conclusion
Bhagta Parab of the Kudmi is a festival that encapsulates the spirit of a people tied to the land and their ancestors. Through its rituals of fasting, worship, dance, and daring, it honors Budha Baba while celebrating the Kudmi’s enduring connection to nature and community. As both a spiritual and cultural event, it stands as a vibrant reminder of the diversity within India’s tribal tapestry—a legacy the Kudmi continue to nurture and defend in the face of a changing world.

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