30/07/2025
गांव की रातें!
शाम होते ही नानी लालटेन में तेल भरती और शीशा साफ करके लालटेन जलाकर छज्जे से लटकती टेढ़ी सरिया में लटका देती थी जिससे ओसारा और दुआर पर उजाला हो जाता था। घर गांव से बाहर होने के नाते जलती लालटेन काफी दूर से ही नजर आती थी इसलिए नानी सोते समय भी उसे बुझाती नही थी बस उसकी बत्ती कम करके उजाला कम कर देती थी।
घर के डेउढ़ी की चौखट पर मिट्टी के तेल का दीया जलाकर आंचल से गोड लग कर रखा जाता और एक दीया रसोई घर में जलाकर लकड़ी की बनी डीयूठी पर रख दी जाती और उसके उजाले में भोजन बनता था।
दिन ढलते ही हम बच्चे छत पर जाने के लिए उतावले होने लगते थे। लेकिन बड़ी मिन्नतों के बाद छत पर जाने की अनुमति मिलती थी।
छत पर जाने के लिए सीढ़ी नही बनी थी बल्कि बांस की बनी सीढ़ी लगाई गई थी उस पर चढ़कर फिर छत पर जाते थे। हम तो शैतान बच्चे थे बांस की सीढ़ी तो भी ठीक है हम तो घर के पिछली दीवार से जोड़कर नया कमरा बनाने के लिए जो आधी ईंट छोड़ी जाती है उस आधी ईंट पर पैर रखकर और उसे ही पकड़कर बिल्ली जैसे छत पर चुपके से चढ़ जाते थे।
छत पर एक एक करके सारे बच्चे इकट्ठे होते और फिर कभी अंताक्षरी, कभी कौवा उड़ जैसे खेल खेले जाते।
भोजन करने के बाद वही कथरी बिछाकर सोते।
रात में बहती ठंडी पुरवाई बयार जब घर के बगल में बोरिंग के पास लगे रातरानी फूलों की खुश्बू का झोंका लेकर आती तो लगता कि मानों सपनों की दुनियां में हैं।
चांदनी रात में , पुरवाई बयार हो उस पर रात रानी, बेला फूलों की खुश्बू हो तो मन कितना भी खिन्न हो प्रसन्न हो जाए। खैर तब मन कहां खिन्न होते थे। टेंशन, डिप्रेशन को कौन जानता था।
रात में सोने से पहले हम तारे गिनते, तारों की पहचान करते। छोटी छोटी सैकड़ों की झुंड में दिपावली की जलती बुझती लड़ियों की तरह जो हैं वो कचपचिया हैं, चार तारे मिलकर चारपाई बनाएं हैं और तीन उनकी पूंछ बने हैं ये हन्नी हन्ना हैं, इनसे थोड़ा दूर एक अकेला तारा टिमटिमा रहा है वो राजा है, लाल रंग की रोशनी वाला मंगल तारा है, सबसे बड़ा तारा बिफई (बृहस्पति) है, बीच में डगर बनी है तो मां कहती थी कि ये आकाश गंगा है,कोई तारा टूटा तो कहते थे कि किसी की आत्मा निकली है।
कुछ यूं हमारी तारों को लेकर जानकारी होती थी।
रात के अंधेरे में हम दूर खड़े पेड़ों में भी तमाम पशु पक्षी की आकृति की कल्पना किया करते थे।
यही सब करते न जाने कब नीद के आगोश में समा जाते थे। सुबह जब सूर्य की रोशनी पड़ने लगती थी, मक्खियां भिनभिनाने लगती थी तब कहीं जाकर नीद खुलती थी तब छत से कथरी गुदड़ी समेट कर नीचे उतर कर आते थे।
सच में वो कितने अच्छे दिन थे।
अब तो नर्म गद्दे, एसी, कूलर, पंखा सब है बस नींद नही होती है।
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अरूणिमा सिंह