22/11/2025
पुआल के गट्ठरों का ढेर जिसे हमारी अवधी भाषा में गजहर कहा जाता है, उसके ऊपर बैठना बचपन के अनेक आनंद में से एक था। ढेरी पर बैठकर अमरूद और शकरकंद खाना अगहन की विलासिता थी।
अगहन आते ही उन गट्ठरों की गंध ढूंढता हूं, वह गंध जो मेरी स्मृतियों के अंदर महक रही है। उस आग की गंध जिसका स्वाद गुड़ जैसा था, पानी में लिपटे गेहूं के खेत की गंध, ओस से भीगे हुए मेड़ की गंध, पुआल की ढेर की गंध, ताल के आस पास छाए कुहरे की गंध, मंदिर के पास लगे गेंदे और कनेल की गंध, छप्पर पर लौकी के फूलों की गंध मन मिरगा को पागल करते हैं।
मैं ढूंढता हूं उस दुलार की गंध जो गाय अपने बछड़े में पाती है। वह वत्स भाव की गंध मैं संबंधों में ढूंढता हूं। अगहन आते ही स्वेटर में अम्मा के हाथों की महक ढूंढता हूं, उस धूप की गंध ढूंढता हूं जिसके स्पर्श में मां जैसा ही वात्सल्य छिपा होता था, कुएं के टटके पानी की गंध ढूंढता हूं जिससे छूकर ही नहावन मान लिया जाता था।
अगहन आते पकते हुए लाल दूध और उबलती राब की गंध आस पास किसी तितली जैसे फिरने लगती है। रसियाउर में सने ललके चाउर की गंध, चरखी से निकले ऊख के रस में मिले दही और भुने शकरकंद की गंध ढूंढता हूं। शाम को चलने वाली बौराही पछिया हवाओं की गंध जिसमें बरफ घुली होती थी, अगहन आते ही ढूंढने लगता हूं।
भूंजे चावल, चिवड़े और मक्के के दाने में अगहन महकता है। हरी धनिया और ताजे आलू के साथ हरी मिर्च को चटनी अगहन को अमृत बनाता था।
अगहन आते ही लोहित श्वेत मटर के फूले से भरे खेत की गंध, अगहनी अरहर के पीत पुष्पों और छीमियों की गंध के पीछे भागता हूं। अपनी गांठों में वासंती शिशु को पाल रहे पेड़ों के गंभीर स्वरों में बसे भाव गंध को पहचानने की कोशिश करता हूं। बाग में बहती अमरूदों की गंध दुआर पर लगे पालक बथुए और सरसों से मिलकर कितनी गाढ़ी हो जाती है। अगहन आते ही बासी भात, सगपहिता, निमोना और छाछ वाली थाली की गंध मुझे पागल करती है।
मन अगहनी गंध के वशीभूत है।
Pawan Vijay भैया जी की कलम से