12/01/2024
( के आगे पढिए.....)
📖📖📖
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 339-340
◆ धर्मदास बोला :-
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 944-945 :-
हम वैष्णव बैरागी, धर्म में सदा रहाई। सुद्र न बैठें संग, कलप ऐसी मन मांही।।944।।
दोहा-सुन जिंदा मम ज्ञान कूं, अधिक अचार बिचार।
हमरी करनी जो करै, उतरे भवजल पार।।945।।
‘‘धर्मदास वचन’’
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 944-945 का सरलार्थ :- धर्मदास जी ने उत्तर दिया कि मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ। मेरे को अपने परमात्मा विष्णु के प्रति पूर्ण वैराग्य है। सदा अपने हिन्दू धर्म में पुण्य के कार्य करता हूँ। हम शुद्र को निकट नहीं बैठने देते, यह हमारे मन की कल्पना है। हम शुद्ध, स्वच्छ रहते हैं। हे जिन्दा! हमारा ज्ञान सुन। हम अधिक आचार-विचार
यानि कर्मकाण्ड करते हैं। हमारी क्रिया जो करेगा, वह भवजल (संसार सागर) से पार हो जाएगा। कबीर जी ने कहा :-
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 946-951 :-
बोलैं धनी कबीर, सुनौं वैष्णव बैरागी। कौन तुम्हारा नाम, गाम कहिये बड़भागी।।946।।
कौन कौंम कुल जाति, कहां को गवन किया है।
कौन तुम्हारी रहसि, किन्हें तुम नाम दिया है।।947।।
कौन तुम्हारा ज्ञान ध्यान, सुमरण है भाई।
कौन पुरूषकी सेव, कहां समाधि लगाई।।948।।
को आसन को गुफा, के भ्रमत रहौ सदाई।
शालिग सेवन कीन, बहुत अति भार उठाई।।949।।
झोली झंडा धूप दीप, तुम अधिक आचारी।
बोलै धनी कबीर, भेद कहियौं ब्रह्मचारी।।950।।
दोहा-हम कूं पार लंघावही, पार उजागर रूप।
जिंद कहै धर्मदास सैं, तुम हो मुक्ति स्वरूप।।951।।
‘‘कबीर साहिब वचन’’
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 946-951 का सरलार्थ :- (धनी कबीर) कुल के मालिक कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को एक महात्मा, स्वामी जी कहकर संबोधित किया ताकि यह मेरी पूर्ण बात सुन सके। परमात्मा ने प्रश्न किया कि हे वैष्णव बैरागी! हे (बड़ भागी) भाग्यवान! आप अपना नाम तथा गाँव का नाम बताने की कृपा करें। आप किस वर्ण (जाति)
में जन्में हैं? अब आपको कहाँ जाना है? आपका (रिहिस) निवास यानि संत डेरा कहाँ है? आपको किस गुरू ने नाम दिया है? आप किस नाम का स्मरण करते हैं? आप किस (पुरूष)
प्रभु के पुजारी हैं? कहाँ पर समाधि लगाते हो? आप किसी गुफा में रहते हो या कोई (आसन) स्थाई स्थान यानि डेरा बनाया है या सदा भ्रमण करते रहते हो? आपने शालिगराम (मूर्तियाँ
जो पत्थर तथा पीतल की ढे़र सारी ले रखी थी जो एक पेटी में डाल रखी थी। उनको उस समय देखा था जब धर्मदास जी उनकी पूजा कर रहा था) यानि मूर्तियों की पूजा की है।
यह बहुत भार उठाया हुआ है। हे ब्रह्मचारी (ब्रह्म = परमात्मा के आचारी = भक्ति के आचार यानि कर्मकाण्ड आचरण करने वाले)! मुझे इस साधना का ज्ञान बताएँ। मैं भक्ति करने का
इच्छुक हूँ। मुझे सच्ची साधना का ज्ञान बताने वाला कोई नहीं मिला है। आप धूप, दीप (ज्योति के लिए दीपक जैसा पीतल का पात्र), झोली, झंडा आदि लिए हो। आप तो अधिक (आचारी) कर्मकांडी हो। आप बहुत भक्ति करने वाले लगते हो। (धनी कबीर) सबके मालिक कुल धनी कबीर जी ने जिंदा बाबा के वेश में धर्मदास जी से निवेदन किया कि आप तो मुक्ति के दाता हैं। मेरे को भी पार करो। आपका चेहरा बताता है कि आप महान आत्मा (उजागर स्वरूप) हैं। धर्मदास ने बताया :-
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 952-957 :-
बांदौगढ़ है गाम, नाम धर्मदास कहीजै। वैश्य कुली कुल जाति, शुद्र की नहीं बात सुनीजै।।952।।
सिर्गुण ज्ञान स्वरूप, ध्यान शालिग की सेवा।
मलागीर छिरकंत, संत सब पुजै देवा।।953।।
अठसठि तीरथ न्हांन, ध्यान करि करि हम आये।
पुजै शालिगराम, तिलक गलि माल चढायै।।954।।
धूप दीप अधिकार, आरती करैं हमेशा। राम कृष्ण का जाप, रटत हैं शंकर शेषा।।955।।
नेम धर्म सें नेह, सनेह दुनियां से नांहीं। आरूढं बैराग, औरकी मानौं नांहीं।956।।
दोहा-सुनि जिंदे मम धर्म कूं, वैष्णव रूप हमार।
अठसठि तीरथ हम किये, चीन्हा सिरजनहार।।957।।
◆ ‘‘धर्मदास वचन’’
◆ पारख के अंग की वाणी नं. 952-957 का सरलार्थ :- धर्मदास जी अपनी प्रशंसा सुनकर मन-मन में हर्षित हुआ तथा अपना परिचय बताया। मेरा गाँव-बांधवगढ़ (मध्यप्रदेश प्रान्त में) है। मेरे को धर्मदास कहते हैं। मेरी कुल जाति वैश्य है। हम शुद्र से बात नहीं करते। मैं सर्गुण परमात्मा के स्वरूप शालिग (मूर्तियों) की पूजा करता हूँ। (मलया गीर) चंदन छिड़कता हूँ। सब संत इसी प्रकार देवताओं की पूजा करते हैं। मैं अड़सठ तीर्थों के स्नान के लिए निकला हूँ। कुछ पर स्नान कर आया हूँ। वहाँ ध्यान व पूजा करके आया हूँ।
हम शालिगराम की पूजा करते हैं, तिलक लगाते हैं। गले में माला डालते हैं। इस तरह सर्गुण परमात्मा रूप में मूर्ति की पूजा करते हैं। धूप लगाते हैं, (दीप) देशी घी की ज्योति जलाते हैं। आरती प्रतिदिन सदा करते हैं। राम-कृष्ण का जाप जपते हैं। शंकर भगवान तथा शेष नाग की पूजा करते हैं। मैं तो सदा अपने नित्य नियम यानि भक्ति कर्म में लगा रहता हूँ। मुझे संसार से कोई प्रेम (लगाव) नहीं है। मैं अपने वैष्णव धर्म पर पूर्ण रूप से आरूढ़
हूँ। अन्य किसी के धर्म के ज्ञान को नहीं मानता। हे जिन्दा! मेरे धर्म के विषय में सुन! मेरा वैष्णव धर्म है। मेरी वैष्णव वेशभूषा है। मैंने अड़सठ तीर्थों पर भ्रमण करके (सृजनहार) सबके
उत्पत्तिकर्ता परमात्मा को चिन्हा है यानि प्राप्त किया है।
◆कबीर जी ने कहा :-
◆पारख के अंग की वाणी नं. 958-975 :-
बौलै जिन्दा बैंन, कहां सें शालिंग आये।
को अठसठिका धाम, मुझैं ततकाल बताये।।958।।
राम कृष्ण कहां रहै, नगर वह कौन कहावै।
ये जड़वत हैं देव, तास क्यौं घंट बजावै।।959।।
सुनहि गुनहि नहीं बात, धात पत्थर के स्वामी।
कहां भरमें धर्मदास, चीन्ह निजपद निहकामी।।960।।
आवत जात न कोय, हम ही अलख अबिनाशी सांई।
रहत सकल सरबंग, बोलि है जहाँ तहाँ सब मांही।।961।।
बोलत घट घट पूर्ण ब्रह्म, धर्म आदू नहीं जाना।
चिदानंदकौं चीन्ह, डारि पत्थर पाषाणा।।962।।
दोहा-राम कृष्ण कोट्यौं गये, धनी एक का एक।
जिंद कहै धर्मदाससैं, बूझौं ज्ञान बिबेक।।963।।
बूझौं ज्ञान बिबेक, एक निज निश्चय आनं।
दूजा दोजिख जात, कहा पूजो पाषानं।।964।।
शिला न शालिगराम, प्रतिमा पत्थर कहावै।
पत्थर पीतल घात बूड़ जल दरीया जावै।965।।
कूटि घड्या घनसार, लगी है टांकी ज्याकै।
चितर्या बदन बनाय, ऐसी पूजा को राखै।।966।।
जलकी बूंद जिहान, गर्भ में साज बनाया।
दश द्वार की देह, नेहसैं मनुष्य कहाया।।967।।
जठर अग्नि में राखि, साखि सुनियौं धर्मदासा।
तजि पत्थर पाषान, छाडि़ यह बोदी आशा।।968।।
दोहा-अनंत कोटि ब्रह्मांड रचि, सब तजि रहै नियार।
जिंद कहैं धर्मदाससूं, जाका करो बिचार।।969।।
जाका करौ बिचार, सकल जिन सृष्टि रचाई।
वार पार नहीं कोय, बोलता सब घट माहीं।।970।।
अजर आदि अनादि, समाधि स्वरूप बखाना।
दम देही नहीं तास, अभय पद निरगुण जान्या।।971।।
सकल सुनि प्रवान, समानि रहै अनुरागी।
तुम्हरी चीन्ह न परैं, सुनौं वैष्णव बैरागी।।972।।
अलख अछेद अभेद, सकल ज्यूनीसैं न्यारा।
बाहरि भीतरि पूर्णब्रह्म, आश्रम अधरि अधारा।।973।।
अलख अबोल अडोल, संगि साथी नहीं कोई।
परलो कोटि अनंत, पलक में अनगिन होई।।974।।
दोहा-अजर अमर पद अभय है, अबिगत आदि अनादि।
जिंद कहै धर्मदाससैं, जा घर विद्या न बाद।।975।।
क्रमशः_______________
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