Sat saheb ji

Sat saheb ji जीव हमारी जाती है, मानव धर्म हमारा।
हिन्दू, मुस्लिम,सिख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।

राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय जूसरी भाकरो की ढाणी मकराना (डीडवाना कुचामन)पूर्ण संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित अनमो...
30/04/2025

राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय
जूसरी भाकरो की ढाणी मकराना (डीडवाना कुचामन)
पूर्ण संत रामपाल जी महाराज जी द्वारा लिखित अनमोल पुस्तक #ज्ञान_गंगा वितरित की गई जिससे बच्चों का भविष्य बर्बाद होने से बचेगा







#राजस्थान
#न्यूज

अन्नपूर्णा मुहिम: गरीबी और भूख के विरुद्ध संत रामपाल जी महाराज की राष्ट्रव्यापी प्रेरणाक्या आप जानते हैं कि भारत में आज ...
30/04/2025

अन्नपूर्णा मुहिम: गरीबी और भूख के विरुद्ध संत रामपाल जी महाराज की राष्ट्रव्यापी प्रेरणा

क्या आप जानते हैं कि भारत में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें रोज़ दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती? भूख केवल एक शारीरिक पीड़ा नहीं है, यह आत्म-सम्मान और जीवन की गरिमा को भी चोट पहुंचाती है। ऐसे समय में संत रामपाल जी महाराज द्वारा प्रेरित ‘अन्नपूर्णा मुहिम’ एक नई आशा बनकर उभरी है।

यह केवल भोजन वितरण की योजना नहीं, बल्कि एक आत्मिक और सामाजिक जागरूकता का यज्ञ है। इस मुहिम के माध्यम से देशभर में हजारों अनुयायी रेलवे स्टेशन, अस्पतालों, झुग्गियों और फुटपाथों पर भूखों को सम्मानपूर्वक पौष्टिक भोजन वितरित करते हैं—बिना किसी स्वार्थ, प्रचार या दिखावे के।

संत रामपाल जी महाराज की सतज्ञान प्रेरित यह मुहिम संदेश देती है कि सच्चा धर्म वही है जिसमें सेवा, समर्पण और परोपकार हो। यह कोई ‘दान’ नहीं बल्कि ईश्वर की भक्ति है, जो मानवता के चरणों में अर्पित की जाती है।
अन्नपूर्णा मुहिम न केवल भूख मिटा रही है, बल्कि समाज में करुणा, समानता और सेवा का बीज बो रही है।

पढ़ें पूरी जानकारी: news.jagatgururampalji.org/annapurna-muhi…

31/05/2024
28/05/2024
24/05/2024

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हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 547-548

ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 4

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरूषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि।। 4।।

त्रि-पाद-ऊर्ध्वः-उदैत्-पुरूषः-पादः-अस्य-इह-अभवत्-पूनः-ततः-विश्वङ्- व्यक्रामत्-सः-अशनानशने-अभि

अनुवाद :- (पुरूषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊर्ध्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक-अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात् ऊपर के हिस्से में (उदैत्) प्रकट होता है अर्थात् विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात् एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी
पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात् क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष के भी (अभि)ऊपर (विश्वङ्)सर्वत्रा (व्यक्रामत्)व्याप्त है अर्थात् उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया है।

भावार्थ :- यही सर्व सृष्टि रचन हार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात् स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अकह (अनामय) लोक शेष रचना से पूर्व का है फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और
वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात् काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष
से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्मदण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है, कबीर परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सर्व के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी रेंज (क्षमता) को सर्व ब्रह्माण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए छोड़ा हुआ है जैसे मोबाईल फोन का टावर एक देशीय होते हुए अपनी शक्ति अर्थात् मोबाइल फोन की रेंज (क्षमता) चहुं ओर फैलाए रहता है। इसी प्रकार पूर्ण प्रभु ने अपनी निराकार शक्ति सर्व
व्यापक की है जिससे पूर्ण परमात्मा सर्व ब्रह्माण्डों को एक स्थान पर बैठ कर नियन्त्रित रखता है।
इसी का प्रमाण आदरणीय गरीबदास जी महाराज दे रहे हैं (अमृतवाणी राग कल्याण) तीन चरण चिन्तामणी साहेब, शेष बदन पर छाए। माता, पिता, कुल न बन्धु, ना किन्हें जननी जाये।।
ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 5
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरूषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः।। 5।।
तस्मात्-विराट्-अजायत-विराजः-अधि-पुरूषः स-जातः-अत्यरिच्यत- पश्चात् -भूमिम-अथः-पुरः।
अनुवाद :- (तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात् ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरूष अर्थात् काल भगवान से (अधि) बड़े (पुरूषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक, काल ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (स) उस पूर्ण परमेश्वर ने ही (जातः) उत्पन्न किया अर्थात् स्थापित किया।

भावार्थ :- उपरोक्त मंत्र 4 में वर्णित तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पत्ति की अर्थात् उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर प्रभु) से ही विराट अर्थात् ब्रह्म
(काल) की उत्पत्ति हुईं। यही प्रमाण गीता अध्याय 3 मन्त्रा15 में है कि अक्षर पुरूष अर्थात् अविनाशी प्रभु से ब्रह्म उत्पन्न हुआ यही प्रमाण अर्थववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 सूक्त 3 में है
कि पूर्ण ब्रह्म से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई उसी पूर्ण ब्रह्म ने (भूमिम्) भूमि आदि छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात् इसका भी
मालिक है।
ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 15
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरूषं पशुम्।। 15।।
प्त-अस्य-आसन्-परिधयः-त्रिसप्त-समिधः-कृताः
देवा-यत्-यज्ञम्- तन्वानाः- अबध्नन्-पुरूषम्-पशुम्।

अनुवाद :- (सप्त) सात शंख ब्रह्माण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्माण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्मदण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन्) विद्यमान हैं (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक
कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।

भावार्थ :- सात शंख ब्रह्माण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्माण्ड ब्रह्म के हैं जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है जिस कारण से बलि दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीडि़त भक्तात्माओं को काल के कर्म
बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात् बंधन छुड़वाने वाला बन्दी छोड़ है। इसी का प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में है कि कविरंघारिसि (कविर्)
कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रा (असि) है अर्थात् पाप विनाशक कबीर है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर (असि) है।

क्रमशः_____
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04/02/2024
12/01/2024

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हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 339-340

◆ धर्मदास बोला :-

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 944-945 :-
हम वैष्णव बैरागी, धर्म में सदा रहाई। सुद्र न बैठें संग, कलप ऐसी मन मांही।।944।।
दोहा-सुन जिंदा मम ज्ञान कूं, अधिक अचार बिचार।
हमरी करनी जो करै, उतरे भवजल पार।।945।।
‘‘धर्मदास वचन’’

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 944-945 का सरलार्थ :- धर्मदास जी ने उत्तर दिया कि मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ। मेरे को अपने परमात्मा विष्णु के प्रति पूर्ण वैराग्य है। सदा अपने हिन्दू धर्म में पुण्य के कार्य करता हूँ। हम शुद्र को निकट नहीं बैठने देते, यह हमारे मन की कल्पना है। हम शुद्ध, स्वच्छ रहते हैं। हे जिन्दा! हमारा ज्ञान सुन। हम अधिक आचार-विचार
यानि कर्मकाण्ड करते हैं। हमारी क्रिया जो करेगा, वह भवजल (संसार सागर) से पार हो जाएगा। कबीर जी ने कहा :-

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 946-951 :-
बोलैं धनी कबीर, सुनौं वैष्णव बैरागी। कौन तुम्हारा नाम, गाम कहिये बड़भागी।।946।।
कौन कौंम कुल जाति, कहां को गवन किया है।
कौन तुम्हारी रहसि, किन्हें तुम नाम दिया है।।947।।
कौन तुम्हारा ज्ञान ध्यान, सुमरण है भाई।
कौन पुरूषकी सेव, कहां समाधि लगाई।।948।।
को आसन को गुफा, के भ्रमत रहौ सदाई।
शालिग सेवन कीन, बहुत अति भार उठाई।।949।।
झोली झंडा धूप दीप, तुम अधिक आचारी।
बोलै धनी कबीर, भेद कहियौं ब्रह्मचारी।।950।।
दोहा-हम कूं पार लंघावही, पार उजागर रूप।
जिंद कहै धर्मदास सैं, तुम हो मुक्ति स्वरूप।।951।।

‘‘कबीर साहिब वचन’’

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 946-951 का सरलार्थ :- (धनी कबीर) कुल के मालिक कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को एक महात्मा, स्वामी जी कहकर संबोधित किया ताकि यह मेरी पूर्ण बात सुन सके। परमात्मा ने प्रश्न किया कि हे वैष्णव बैरागी! हे (बड़ भागी) भाग्यवान! आप अपना नाम तथा गाँव का नाम बताने की कृपा करें। आप किस वर्ण (जाति)
में जन्में हैं? अब आपको कहाँ जाना है? आपका (रिहिस) निवास यानि संत डेरा कहाँ है? आपको किस गुरू ने नाम दिया है? आप किस नाम का स्मरण करते हैं? आप किस (पुरूष)
प्रभु के पुजारी हैं? कहाँ पर समाधि लगाते हो? आप किसी गुफा में रहते हो या कोई (आसन) स्थाई स्थान यानि डेरा बनाया है या सदा भ्रमण करते रहते हो? आपने शालिगराम (मूर्तियाँ
जो पत्थर तथा पीतल की ढे़र सारी ले रखी थी जो एक पेटी में डाल रखी थी। उनको उस समय देखा था जब धर्मदास जी उनकी पूजा कर रहा था) यानि मूर्तियों की पूजा की है।
यह बहुत भार उठाया हुआ है। हे ब्रह्मचारी (ब्रह्म = परमात्मा के आचारी = भक्ति के आचार यानि कर्मकाण्ड आचरण करने वाले)! मुझे इस साधना का ज्ञान बताएँ। मैं भक्ति करने का
इच्छुक हूँ। मुझे सच्ची साधना का ज्ञान बताने वाला कोई नहीं मिला है। आप धूप, दीप (ज्योति के लिए दीपक जैसा पीतल का पात्र), झोली, झंडा आदि लिए हो। आप तो अधिक (आचारी) कर्मकांडी हो। आप बहुत भक्ति करने वाले लगते हो। (धनी कबीर) सबके मालिक कुल धनी कबीर जी ने जिंदा बाबा के वेश में धर्मदास जी से निवेदन किया कि आप तो मुक्ति के दाता हैं। मेरे को भी पार करो। आपका चेहरा बताता है कि आप महान आत्मा (उजागर स्वरूप) हैं। धर्मदास ने बताया :-

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 952-957 :-
बांदौगढ़ है गाम, नाम धर्मदास कहीजै। वैश्य कुली कुल जाति, शुद्र की नहीं बात सुनीजै।।952।।
सिर्गुण ज्ञान स्वरूप, ध्यान शालिग की सेवा।
मलागीर छिरकंत, संत सब पुजै देवा।।953।।
अठसठि तीरथ न्हांन, ध्यान करि करि हम आये।
पुजै शालिगराम, तिलक गलि माल चढायै।।954।।
धूप दीप अधिकार, आरती करैं हमेशा। राम कृष्ण का जाप, रटत हैं शंकर शेषा।।955।।
नेम धर्म सें नेह, सनेह दुनियां से नांहीं। आरूढं बैराग, औरकी मानौं नांहीं।956।।
दोहा-सुनि जिंदे मम धर्म कूं, वैष्णव रूप हमार।
अठसठि तीरथ हम किये, चीन्हा सिरजनहार।।957।।

◆ ‘‘धर्मदास वचन’’

◆ पारख के अंग की वाणी नं. 952-957 का सरलार्थ :- धर्मदास जी अपनी प्रशंसा सुनकर मन-मन में हर्षित हुआ तथा अपना परिचय बताया। मेरा गाँव-बांधवगढ़ (मध्यप्रदेश प्रान्त में) है। मेरे को धर्मदास कहते हैं। मेरी कुल जाति वैश्य है। हम शुद्र से बात नहीं करते। मैं सर्गुण परमात्मा के स्वरूप शालिग (मूर्तियों) की पूजा करता हूँ। (मलया गीर) चंदन छिड़कता हूँ। सब संत इसी प्रकार देवताओं की पूजा करते हैं। मैं अड़सठ तीर्थों के स्नान के लिए निकला हूँ। कुछ पर स्नान कर आया हूँ। वहाँ ध्यान व पूजा करके आया हूँ।
हम शालिगराम की पूजा करते हैं, तिलक लगाते हैं। गले में माला डालते हैं। इस तरह सर्गुण परमात्मा रूप में मूर्ति की पूजा करते हैं। धूप लगाते हैं, (दीप) देशी घी की ज्योति जलाते हैं। आरती प्रतिदिन सदा करते हैं। राम-कृष्ण का जाप जपते हैं। शंकर भगवान तथा शेष नाग की पूजा करते हैं। मैं तो सदा अपने नित्य नियम यानि भक्ति कर्म में लगा रहता हूँ। मुझे संसार से कोई प्रेम (लगाव) नहीं है। मैं अपने वैष्णव धर्म पर पूर्ण रूप से आरूढ़
हूँ। अन्य किसी के धर्म के ज्ञान को नहीं मानता। हे जिन्दा! मेरे धर्म के विषय में सुन! मेरा वैष्णव धर्म है। मेरी वैष्णव वेशभूषा है। मैंने अड़सठ तीर्थों पर भ्रमण करके (सृजनहार) सबके
उत्पत्तिकर्ता परमात्मा को चिन्हा है यानि प्राप्त किया है।

◆कबीर जी ने कहा :-

◆पारख के अंग की वाणी नं. 958-975 :-
बौलै जिन्दा बैंन, कहां सें शालिंग आये।
को अठसठिका धाम, मुझैं ततकाल बताये।।958।।
राम कृष्ण कहां रहै, नगर वह कौन कहावै।
ये जड़वत हैं देव, तास क्यौं घंट बजावै।।959।।
सुनहि गुनहि नहीं बात, धात पत्थर के स्वामी।
कहां भरमें धर्मदास, चीन्ह निजपद निहकामी।।960।।
आवत जात न कोय, हम ही अलख अबिनाशी सांई।
रहत सकल सरबंग, बोलि है जहाँ तहाँ सब मांही।।961।।
बोलत घट घट पूर्ण ब्रह्म, धर्म आदू नहीं जाना।
चिदानंदकौं चीन्ह, डारि पत्थर पाषाणा।।962।।
दोहा-राम कृष्ण कोट्यौं गये, धनी एक का एक।
जिंद कहै धर्मदाससैं, बूझौं ज्ञान बिबेक।।963।।
बूझौं ज्ञान बिबेक, एक निज निश्चय आनं।
दूजा दोजिख जात, कहा पूजो पाषानं।।964।।
शिला न शालिगराम, प्रतिमा पत्थर कहावै।
पत्थर पीतल घात बूड़ जल दरीया जावै।965।।
कूटि घड्या घनसार, लगी है टांकी ज्याकै।
चितर्या बदन बनाय, ऐसी पूजा को राखै।।966।।
जलकी बूंद जिहान, गर्भ में साज बनाया।
दश द्वार की देह, नेहसैं मनुष्य कहाया।।967।।
जठर अग्नि में राखि, साखि सुनियौं धर्मदासा।
तजि पत्थर पाषान, छाडि़ यह बोदी आशा।।968।।
दोहा-अनंत कोटि ब्रह्मांड रचि, सब तजि रहै नियार।
जिंद कहैं धर्मदाससूं, जाका करो बिचार।।969।।
जाका करौ बिचार, सकल जिन सृष्टि रचाई।
वार पार नहीं कोय, बोलता सब घट माहीं।।970।।
अजर आदि अनादि, समाधि स्वरूप बखाना।
दम देही नहीं तास, अभय पद निरगुण जान्या।।971।।
सकल सुनि प्रवान, समानि रहै अनुरागी।
तुम्हरी चीन्ह न परैं, सुनौं वैष्णव बैरागी।।972।।
अलख अछेद अभेद, सकल ज्यूनीसैं न्यारा।
बाहरि भीतरि पूर्णब्रह्म, आश्रम अधरि अधारा।।973।।
अलख अबोल अडोल, संगि साथी नहीं कोई।
परलो कोटि अनंत, पलक में अनगिन होई।।974।।
दोहा-अजर अमर पद अभय है, अबिगत आदि अनादि।
जिंद कहै धर्मदाससैं, जा घर विद्या न बाद।।975।।

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