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12/08/2025
11/08/2025

नीयत बेपर्दा, सत्ता के करघे पर तबाही बुनी जा रही है—
और जब चुनाव आयोग बिक जाए, तो इतिहास सड़कों पर लिखा जाता है।"

पिता — वो चट्टान, जिसके साए में बच्चा खुद को अजेय महसूस करता है पिता की बाँहों में कोई डर नहीं होता, वहाँ सिर्फ़ भरोसा औ...
11/08/2025

पिता — वो चट्टान, जिसके साए में बच्चा खुद को अजेय महसूस करता है

पिता की बाँहों में कोई डर नहीं होता, वहाँ सिर्फ़ भरोसा और हौसला पनपता है।
उनकी गोद में बैठकर बच्चा जीत का पहला सबक सीखता है — कि गिरने से डरना नहीं, हर बार उठना है।
जब पिता अपने मजबूत हाथों से गले लगाते हैं, तो दिनभर की थकान एक पल में उम्मीद में बदल जाती है।
वो एक आलिंगन जैसे कहता है, "तू चाहे जितना भी छोटा हो, तेरे पीछे मैं हूँ।"
दुनिया चाहे कितनी भी बड़ी और डरावनी क्यों न लगे, पिता की बाँहों में आते ही सब छोटा और आसान लगने लगता है।
संघर्ष के समय, यही बाँहें सबसे बड़ी ताक़त बन जाती हैं — जो कहती हैं, "लड़, तू जीत सकता है।"

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"मेहनत करती नारी की आभा के आगे,संगमरमर का ताज भी धुंधला पड़ जाए,उसकी सुंदरता में पसीने की चमक है,जो हर सुबह नए सपनों को ...
11/08/2025

"मेहनत करती नारी की आभा के आगे,
संगमरमर का ताज भी धुंधला पड़ जाए,
उसकी सुंदरता में पसीने की चमक है,
जो हर सुबह नए सपनों को आकार दे जाए।" ❤️🥀

पूरा जीवन काट दिया…पर जब मर गया,तो गांव के घाट पर चिता तक न मिली,मुखाग्नि देने वाला बेटा परदेस में फंसा था—वो भी रोटी के...
10/08/2025

पूरा जीवन काट दिया…
पर जब मर गया,
तो गांव के घाट पर चिता तक न मिली,
मुखाग्नि देने वाला बेटा परदेस में फंसा था—
वो भी रोटी के लिए।

सर्दियों की ठिठुरन में,
जब नेता–अफसर गरम कोट और हीटर में थे,
मैंने खेत के किनारे अलाव के पास रात काटी।
गर्म कपड़े तो दूर,
सरकारी कम्बल भी कभी मेरे घर नहीं आया।

जवानी आई थी,
पर यहाँ जवानी का मतलब था—
ईंट-भट्टों पर मजदूरी,
ट्रेन की छत पर बैठकर पंजाब की ओर जाना,
या खाड़ी के रेगिस्तान में पसीना बहाना।
मोहब्बत, कॉलेज, सपनों की गलियाँ—
ये सब मेरे हिस्से में नहीं आए।

भूख लगी तो आंगनवाड़ी का चावल अधूरा था,
और मनरेगा का काम कागज़ पर ही खत्म हो गया।

दुख इतने थे कि
आंसू भी अब आंखों में आने से डरते हैं।
परिश्रम किया इतना,
कि पांव फट गए, हाथ कठोर हो गए—
पर यहाँ मेहनत का मतलब सिर्फ़
दूसरों की थाली भरना है, अपनी नहीं।

मैं वही हूं—
बिहार का वो आम आदमी,
जिससे चुनाव में वादा सब करते हैं,
पर वक़्त आने पर
सब उसे भूला देते हैं।

~Bihar

"दिन में सब हँसते हैं, खिलखिलाते हैं…पर शाम ढलते ही दुखों की एक पंचायत सी लग जाती है —जहाँ हर कोई अपने अकेलेपन के खिलाफ़...
08/08/2025

"दिन में सब हँसते हैं, खिलखिलाते हैं…
पर शाम ढलते ही दुखों की एक पंचायत सी लग जाती है —
जहाँ हर कोई अपने अकेलेपन के खिलाफ़ चुपचाप लड़ रहा होता है।" 🥹

बिहार: सपनों के बदले घोटालों का सौदाप्रशांत किशोर का आरोप सिर्फ़ 25 लाख रुपये की रिश्वत का मामला नहीं है —यह उस सोच का आ...
08/08/2025

बिहार: सपनों के बदले घोटालों का सौदा

प्रशांत किशोर का आरोप सिर्फ़ 25 लाख रुपये की रिश्वत का मामला नहीं है —
यह उस सोच का आईना है, जिसने बिहार को दशकों पीछे धकेल दिया।

2019 की बात है…
कहा जा रहा है कि स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल से ₹25 लाख लिए।
पैसा मंत्री के पिता के अकाउंट में गया, फिर बहू के अकाउंट में पहुँचा, और आखिरकार दिल्ली द्वारका में एक फ्लैट खरीद लिया गया।
उधर, बदले में जायसवाल के किशनगंज मेडिकल कॉलेज को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिल गया —
यानी, अब खुद डिग्री देने का अधिकार।

सोचिए…
कोरोना काल में जब बिहार के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से लोग दम तोड़ रहे थे,
जब बच्चे बुखार में तड़प रहे थे,
जब गरीब मरीज अस्पताल के बाहर ज़मीन पर पड़े थे…
तब हमारे स्वास्थ्य मंत्री साहब दिल्ली में अपने सपनों का फ्लैट सजा रहे थे।

ये सिर्फ़ एक फ्लैट की कहानी नहीं —
ये है जनता के विश्वास की लाश पर बने महलों की हकीकत।

हर चुनाव में नेता वादा करते हैं — "बिहार बदलेगा"।
लेकिन बदलता क्या है?
बस उनका बैंक बैलेंस और संपत्ति का आकार।

हमारे स्कूल आज भी बिना शिक्षक के हैं,
अस्पताल बिना डॉक्टर के,
गाँव बिना सड़क के,
और करोड़ों लोग बेरोज़गार…
क्योंकि हमारे टैक्स का पैसा, हमारे संसाधन,
कुछ लोगों के निजी ख्वाब पूरे करने में लग जाते हैं।

सवाल अब ये है —
क्या बिहार का हर नेता भ्रष्ट है?
या हम जनता ने ही अपनी चुप्पी से उन्हें भ्रष्ट होने की इजाज़त दे दी है?

अगर बिहार को सच में आगे बढ़ाना है,
तो सिर्फ़ नाराज़ होने से काम नहीं चलेगा —
हमें सवाल पूछने होंगे, जवाब मांगने होंगे,
और उन चेहरों को पहचानना होगा जो हमारी गरीबी पर अपने सपने पालते हैं।










🌧️ कटे हाथ के साथ 150 किलोमीटर पैदल…बारिश की ठंडी बूंदें उसके ज़ख्म पर गिर रही थीं।पैरों के नीचे की सड़क गरम थी, पर दिल ...
08/08/2025

🌧️ कटे हाथ के साथ 150 किलोमीटर पैदल…

बारिश की ठंडी बूंदें उसके ज़ख्म पर गिर रही थीं।
पैरों के नीचे की सड़क गरम थी, पर दिल में बस घर लौटने की आग थी।
नंगे पाँव, बिना खाना-पानी…
एक हाथ में दर्द, दूसरे में उम्मीद — और कदम जो बस रुकना नहीं चाहते थे।

ये 15 साल का बच्चा बिहार से पलायन करके हरियाणा आया था।
सोचा था नौकरी मिलेगी, 10 हज़ार रुपये महीना मिलेगा, घर में रोटी-पानी का इंतज़ाम हो जाएगा।
लेकिन मिला क्या?
एक बंद कमरा, ज़ुल्म, और एक चारा काटने वाली मशीन जिसने उसका हाथ छीन लिया।

हाथ कटने के बाद भी न दवा, न अस्पताल।
बस कच्ची पट्टी बांध दी गई, जैसे ज़िंदगी की कोई कीमत ही न हो।
उसने दर्द को दबाया, आँसुओं को निगला और घर की ओर चल पड़ा —
150 किलोमीटर… पैदल…

नूह शहर में दो सरकारी शिक्षक उसे सड़क किनारे भीगते हुए मिले।
चेहरा पीला, आँखें बुझी हुईं, पेट खाली।
उन्होंने खाना खिलाया, कपड़े दिए, पुलिस तक पहुँचाया।
तभी जाकर किसी ने सुना उसकी चुप्पी में छुपी चीख़।

लेकिन सोचिए…
क्या ये सिर्फ़ इस एक बच्चे की कहानी है?
नहीं — यह कहानी है बिहार के हर उस मज़दूर की, जो मजबूरी में घर छोड़ता है,
किसी और के सपनों को अपने खून-पसीने से सींचता है, और बदले में ज़ख्म पाता है।

हमारी सरकारें?
कभी आँकड़ों में पलायन छुपा देती हैं, कभी मजदूरों के घाव।
उनके लिए यह बस एक केस फ़ाइल है —
हमारे लिए यह इंसान का टूटता हुआ बचपन है।

कब तक भूख, मजबूरी और पलायन की ये कहानी ऐसे ही चलती रहेगी?
कब तक हम अपने बच्चों के हाथ और सपने दोनों गंवाते रहेंगे?






बिहार में चुनाव आयोग ने ऐसा करिश्मा दिखाया है कि हँसें या रोएं, समझ नहीं आता।एक घर में 60 लोग वोटर बना दिए गए — नाम देखि...
07/08/2025

बिहार में चुनाव आयोग ने ऐसा करिश्मा दिखाया है कि हँसें या रोएं, समझ नहीं आता।

एक घर में 60 लोग वोटर बना दिए गए — नाम देखिए तो कोई खान, कोई पांडेय, कोई यादव... जैसे जातीय समरसता का नमूना वहीं तैयार किया गया हो।

19 साल के लड़के की उम्र 74 साल लिख दी गई है। अब ये समझ नहीं आ रहा कि लड़का जल्दी बूढ़ा हो गया, या चुनाव आयोग टाइम ट्रैवल में विश्वास करता है।

किसी के पिता का नाम "Father" लिखा है, और माँ का नाम "Election Commission of India"। यानी अब सरकार ही माँ बन गई है।

सबसे मज़ेदार (या शर्मनाक?) बात – एक ही व्यक्ति का नाम 5 से ज़्यादा मतदान केंद्रों पर दर्ज है। अब वो एक दिन में कहाँ-कहाँ वोट देने जाएगा, ये बस वही जानता है… या शायद आयोग भी नहीं जानता।

ऐसी लापरवाही में गलती नहीं, बल्कि एक बड़ी लापरवाही और जिम्मेदारी से भागना दिखता है।

ये सिर्फ आंकड़ों की गलती नहीं है, ये लोकतंत्र के साथ मज़ाक है।

चुनाव आयोग से उम्मीद है कि वो इस पर शर्मिंदा होगा और जिम्मेदारी लेगा।
वरना भरोसा उठने में देर नहीं लगती।





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