08/08/2025
🌧️ कटे हाथ के साथ 150 किलोमीटर पैदल…
बारिश की ठंडी बूंदें उसके ज़ख्म पर गिर रही थीं।
पैरों के नीचे की सड़क गरम थी, पर दिल में बस घर लौटने की आग थी।
नंगे पाँव, बिना खाना-पानी…
एक हाथ में दर्द, दूसरे में उम्मीद — और कदम जो बस रुकना नहीं चाहते थे।
ये 15 साल का बच्चा बिहार से पलायन करके हरियाणा आया था।
सोचा था नौकरी मिलेगी, 10 हज़ार रुपये महीना मिलेगा, घर में रोटी-पानी का इंतज़ाम हो जाएगा।
लेकिन मिला क्या?
एक बंद कमरा, ज़ुल्म, और एक चारा काटने वाली मशीन जिसने उसका हाथ छीन लिया।
हाथ कटने के बाद भी न दवा, न अस्पताल।
बस कच्ची पट्टी बांध दी गई, जैसे ज़िंदगी की कोई कीमत ही न हो।
उसने दर्द को दबाया, आँसुओं को निगला और घर की ओर चल पड़ा —
150 किलोमीटर… पैदल…
नूह शहर में दो सरकारी शिक्षक उसे सड़क किनारे भीगते हुए मिले।
चेहरा पीला, आँखें बुझी हुईं, पेट खाली।
उन्होंने खाना खिलाया, कपड़े दिए, पुलिस तक पहुँचाया।
तभी जाकर किसी ने सुना उसकी चुप्पी में छुपी चीख़।
लेकिन सोचिए…
क्या ये सिर्फ़ इस एक बच्चे की कहानी है?
नहीं — यह कहानी है बिहार के हर उस मज़दूर की, जो मजबूरी में घर छोड़ता है,
किसी और के सपनों को अपने खून-पसीने से सींचता है, और बदले में ज़ख्म पाता है।
हमारी सरकारें?
कभी आँकड़ों में पलायन छुपा देती हैं, कभी मजदूरों के घाव।
उनके लिए यह बस एक केस फ़ाइल है —
हमारे लिए यह इंसान का टूटता हुआ बचपन है।
कब तक भूख, मजबूरी और पलायन की ये कहानी ऐसे ही चलती रहेगी?
कब तक हम अपने बच्चों के हाथ और सपने दोनों गंवाते रहेंगे?