14/09/2024
मेरे अपने शहर, सीतामढ़ी की फुलमतिया की दिल को झकझोर देने वाली कहानी 🌿
मिलिए फुलमतिया से, मेरे अपने शहर सीतामढ़ी की एक संघर्षशील महिला से। पिछले 20 सालों से वह सीतामढ़ी रेलवे स्टेशन पर पारंपरिक नीम और बांस के दातून बेचती आ रही हैं। उनके चेहरे पर बीते सालों की थकान और कठिनाइयों की कहानियाँ झलकती हैं। वह याद करती हैं जब स्टेशन पर 20-30 आदमी और औरतें उन्हीं की तरह ये साधारण हर्बल दातून बेचा करते थे। "अब कौन खरीदे हैं? नीम और बांस से मुंह साफ करने वाले लोग कहाँ हैं?" वह कहती हैं, उनकी आवाज़ में बीतते वक़्त की बेबसी झलकती है। "ज़माना बदल गया है, बाबू!"
फुलमतिया के शब्द उस विकास के शोर में सुई की तरह चुभते हैं जिसके दावे रोज़ किए जाते हैं। वह और उनके जैसे कुछ लोग अब भी संघर्ष कर रहे हैं, अपने अस्तित्व की छोटी-सी जगह से चिपके हुए, जबकि पुलिस उन्हें हर जगह से धकेल देती है। वह नेपाल सीमा के पास के थोक विक्रेताओं से अपना माल खरीदती हैं और उसे बेचती हैं, जिससे उन्हें मुश्किल से ही गुज़ारा होता है। जो पहले ₹1 में 20-25 दातून बिकते थे, अब ₹1 में केवल एक मिलता है, और नीम का दातून ₹2 में। उनका रोज़ का मकसद? किसी तरह ₹20-₹25 जुटाना, ताकि दो वक्त की साधारण रोटी का इंतज़ाम हो सके।
मानो जीवन पहले ही कठिन न हो, जब भी रेलवे के बड़े अधिकारी आते हैं, फुलमतिया और उनके जैसे अन्य लोगों को मारा-पीटा जाता है और भगा दिया जाता है, मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं। सोचिए, 20 साल ऐसे जीकर देखिए। सोचिए, एक ऐसे देश में रहकर, जो विकास की बड़ी-बड़ी बातें करता है, फिर भी फुलमतिया जैसी महिला की गरिमा की रक्षा नहीं कर पाता।
यह कहानी सिर्फ फुलमतिया की नहीं है; यह उन अनगिनत गुमनाम चेहरों की कहानी है जो हर दिन अपनी ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सरकार एक के बाद एक योजना घोषित करती है, गरीबी हटाने और रोजगार सृजन की बातें करती है, लेकिन फुलमतिया के लिए ये वादे खोखले हैं। वह इन योजनाओं को जानती तक नहीं; उसने इन्हें कभी देखा तक नहीं। ये योजनाएँ उस तक पहुँचती ही नहीं।
विकास कहाँ है? 78 साल की आज़ादी के बाद भी फुलमतिया जैसी लोग अंधकार में क्यों हैं? इन योजनाओं का क्या फायदा अगर वे उनके जीवन में उजाला नहीं ला सकतीं?
और हम यहाँ हैं—मध्यवर्गीय वेतनभोगी, भारी-भरकम टैक्स से दबे हुए, लाखों रुपये हर साल हमारी कमाई से काट लिए जाते हैं। हमें बदले में क्या मिलता है? कुछ भी नहीं, जो न्यायपूर्ण महसूस हो। हमारी मेहनत की कमाई, जिसे हम उम्मीद करते हैं कि वह फुलमतिया जैसे लोगों को उठाने में काम आएगी, वह कहीं इस नौकरशाही और अक्षमता की मशीनरी में गायब हो जाती है। क्यों? क्यों हमारा सिस्टम सबसे कमजोर लोगों को ही विफल कर देता है?
अब समय आ गया है कि हम आँखें मूँदना बंद करें। अब समय आ गया है कि हम जवाब और जवाबदेही की माँग करें। क्योंकि अगर सिस्टम फुलमतिया को विफल कर रहा है, तो वह हम सबको विफल कर रहा है।
हमें बदलाव चाहिए। एक ऐसा बदलाव जहाँ विकास सिर्फ भाषणों का शब्द नहीं, बल्कि इस देश के हर कोने में महसूस किया जाने वाला हकीकत हो। एक हकीकत जो हर फुलमतिया तक पहुँचे।
आइए, सिर्फ बदलाव की बात न करें—उसकी माँग करें।
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