08/06/2025
जापानी सिपाही हीरू ओनोदा: युद्ध खत्म होने के 29 साल बाद भी लड़ता रहा एक अनोखा योद्धा
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने विश्व इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। इस युद्ध में लाखों लोग मारे गए, और कई देशों ने भारी तबाही झेली। जापान, जिसने 1941 में पर्ल हार्बर पर हमला करके युद्ध में अपनी स्थिति मजबूत की थी, 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमलों के बाद मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ। लेकिन एक जापानी सिपाही, लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा, की कहानी इतिहास में एक अनोखा अध्याय जोड़ती है। यह सिपाही 29 साल तक, यानी 1974 तक, यह मानकर जंगल में गुरिल्ला युद्ध लड़ता रहा कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। यह कहानी न केवल साहस और निष्ठा की है, बल्कि एक सैनिक के अटूट विश्वास और देशभक्ति की भी है।
हीरू ओनोदा का प्रारंभिक जीवन
हीरू ओनोदा का जन्म 19 मार्च 1922 को जापान के वाकायामा प्रान्त के कामेकावा गांव में हुआ था। 17 साल की उम्र में वे चीन के वुहान में ताजिमा योको ट्रेडिंग कंपनी में काम करने गए। 18 साल की उम्र में, 1940 में, उन्हें इंपीरियल जापानी सेना में भर्ती किया गया। उनकी प्रशिक्षण अवधि में उन्हें खुफिया अधिकारी और गुरिल्ला युद्ध विशेषज्ञ के रूप में तैयार किया गया। 1944 में, जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, ओनोदा को फिलीपींस के लुबांग द्वीप पर भेजा गया। उन्हें आदेश दिया गया कि वे किसी भी हालत में आत्मसमर्पण न करें और दुश्मन की आपूर्ति लाइनों को नष्ट करते रहें। उनके कमांडर मेजर योशिमी तानिगुची ने स्पष्ट निर्देश दिए: "हम तुम्हें लेने आएंगे। तुम्हें कभी आत्मसमर्पण नहीं करना है।"
युद्ध का अंत और ओनोदा की अनजान लड़ाई
1945 में, जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए, जापान ने अगस्त 1945 में मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। लुबांग द्वीप पर फरवरी 1945 में अमेरिकी सेना ने कब्जा कर लिया था, और अधिकांश जापानी सैनिक या तो मारे गए या आत्मसमर्पण कर चुके थे। लेकिन ओनोदा और उनके तीन साथी—युइची अकात्सु, शोइची शिमादा, और किंशichi कोजुका—जंगल में छिप गए। उन्हें विश्वास था कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है।
इन चार सैनिकों ने जंगल में गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई। वे स्थानीय मछुआरों और किसानों की फसलों और पशुओं को लूटते, अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों और स्थानीय पुलिस पर हमले करते, और जंगल में छिपकर अपनी मौजूदगी को बनाए रखते। उनके लिए, युद्ध अभी भी चल रहा था, और वे अपने कमांडर के आदेश का पालन कर रहे थे।
युद्ध समाप्ति की सूचना और ओनोदा का अविश्वास
युद्ध खत्म होने की खबर को फैलाने के लिए, मित्र राष्ट्रों और फिलीपींस सरकार ने कई बार लुबांग द्वीप पर पर्चियां गिराईं, जिनमें लिखा था, "युद्ध खत्म हो गया है। बाहर आ जाओ।" लेकिन ओनोदा और उनके साथियों ने इन पर्चियों को मित्र राष्ट्रों की चाल माना और उन पर विश्वास नहीं किया। 1952 में, जापान सरकार ने उनके परिवारों की तस्वीरें और पत्र छपवाकर जंगल में गिराए, लेकिन ओनोदा ने इसे भी प्रचार माना। उनकी मान्यता थी कि अगर जापान युद्ध हार गया होता, तो कोई भी जीवित नहीं बचता, क्योंकि जापानी संस्कृति में हार स्वीकार करना सम्मान के खिलाफ था। उनकी मां ने उन्हें एक खंजर दिया था, जिसे हार की स्थिति में आत्महत्या के लिए इस्तेमाल करना था, लेकिन ओनोदा ने कभी हार नहीं मानी।
साथियों का नुकसान
समय के साथ, ओनोदा के साथी एक-एक करके कम होते गए। 1949 में, युइची अकात्सु ने समूह छोड़ दिया और 1950 में फिलीपींस की सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इस घटना ने ओनोदा को और सतर्क कर दिया। 1954 में, शोइची शिमादा एक खोजी दल के साथ मुठभेड़ में मारा गया। 1972 में, किंशichi कोजुका स्थानीय पुलिस के साथ गोलीबारी में मारा गया। अब ओनोदा अकेले रह गए थे, लेकिन उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी।
नोरिओ सुजुकी और अंतिम समर्पण
1972 में कोजुका की मौत की खबर जापान पहुंची, जिसने वहां हलचल मचा दी। जापानी सरकार और जनता को उम्मीद जगी कि शायद ओनोदा अभी भी जीवित हैं। 1974 में, एक जापानी साहसी और टोक्यो विश्वविद्यालय के छात्र नोरिओ सुजुकी ने ओनोदा को खोजने का फैसला किया। सुजुकी ने लुबांग के जंगलों में ओनोदा से मुलाकात की और उन्हें युद्ध समाप्त होने की सच्चाई बताई। लेकिन ओनोदा ने कहा कि वह तब तक आत्मसमर्पण नहीं करेंगे, जब तक उनके कमांडर मेजर तानिगुची स्वयं उन्हें आदेश न दें।
जापानी सरकार ने रिटायर्ड मेजर तानिगुची को फिलीपींस भेजा। 9 मार्च 1974 को, तानिगुची ने औपचारिक रूप से ओनोदा को युद्ध समाप्त होने और आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। ओनोदा, जिनकी उम्र अब 52 साल थी, ने अपनी राइफल, 400 गोलियां, और अपनी मां का दिया हुआ खंजर फिलीपींस सरकार को सौंप दिया। उनकी वर्दी, हालांकि जीर्ण-शीर्ण, अभी भी उनकी निष्ठा और साहस की कहानी कह रही थी।
जापान में वापसी और बाद का जीवन
1974 में जापान लौटने पर ओनोदा का नायक की तरह स्वागत हुआ। हजारों लोग सड़कों पर उन्हें देखने के लिए उमड़े। उनकी कहानी ने जापानी जनता को प्रेरित किया, और उन्हें रेडियो और टेलीविजन पर अपनी वीरता के किस्से सुनाने के लिए बुलाया गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा, No Surrender: My Thirty-Year War, लिखी, जो बेस्टसेलर बनी। हालांकि, ओनोदा ने लुबांग द्वीप पर अपने कार्यों के दौरान कई स्थानीय लोगों की हत्या की थी, जिसका उनकी आत्मकथा में उल्लेख नहीं था। फिलीपींस सरकार ने युद्ध नियमों के तहत उन्हें माफी दी और जापान वापस जाने की अनुमति दी।
जापान लौटने के बाद, ओनोदा को आधुनिक जापान में बदलाव और पारंपरिक मूल्यों के कम होने का दुख हुआ। 1975 में, वे ब्राजील चले गए, जहां उन्होंने मवेशी पालन शुरू किया और एक जापानी समुदाय, कॉलोनिया जैमिक, में प्रमुख भूमिका निभाई। 1984 में, एक जापानी किशोर द्वारा अपने माता-पिता की हत्या की खबर पढ़ने के बाद, वे जापान लौटे और युवाओं के लिए "ओनोदा नेचर स्कूल" की स्थापना की, जहां उन्होंने प्रकृति और अनुशासन के महत्व को सिखाया।
मृत्यु और विरासत
16 जनवरी 2014 को, 91 वर्ष की आयु में, टोक्यो के सेंट ल्यूक इंटरनेशनल हॉस्पिटल में निमोनिया की जटिलताओं के कारण ओनोदा का निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर जापान के तत्कालीन मुख्य कैबिनेट सचिव योशीहिदे सुगा ने कहा, "मुझे अभी भी स्पष्ट रूप से याद है कि जब श्री ओनोदा जापान लौटे, तो मुझे युद्ध के अंत के बारे में आश्वस्त किया गया था।" उनकी जीवित रहने की इच्छा और देशभक्ति को आज भी जापान में सम्मान दिया जाता है।