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23/06/2025

इटावा के अहेरीपुर में यादव कथावाचक के साथ बर्बरता: जातिगत घृणा का घिनौना चेहरा
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के अहेरीपुर क्षेत्र में एक शर्मनाक और हृदयविदारक घटना ने सनातन धर्म के नाम पर जातिगत घृणा की क्रूरता को उजागर किया है। यहाँ यादव समाज से संबंधित एक कथावाचक धार्मिक कथा का आयोजन कर रहे थे। लेकिन जैसे ही स्थानीय ब्राह्मण समाज को पता चला कि कथावाचक यादव हैं, उन्होंने कथा को बाधित कर कथावाचक के साथ अमानवीय व्यवहार किया।
सूत्रों के अनुसार, कथावाचक के साथ मारपीट की गई, उनका सिर जबरन मुंडवाया गया, और उन्हें सार्वजनिक रूप से जमीन पर नाक रगड़ने के लिए मजबूर किया गया। इतना ही नहीं, उन पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया गया और भविष्य में कथा न करने की धमकी दी गई। यह सब केवल इसलिए क्योंकि वे यादव समाज से हैं।
यह घटना कई गंभीर सवाल खड़े करती है:
क्या यादव हिंदू नहीं हैं? सनातन धर्म, जो समानता और सर्वधर्म संभाव का दावा करता है, क्या वह केवल एक जाति विशेष का अधिकार बनकर रह गया है?
क्या धार्मिक कथा सुनाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों तक सीमित है?
जातिगत घृणा का यह जहर सनातन धर्म की सेवा है या उसका अपमान?
उत्तर प्रदेश में ओबीसी और दलित समुदाय कांवड़ यात्रा में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, मंदिरों के लिए गारा छानते हैं, और हिंदू धर्म के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। लेकिन ऐसी घटनाएँ यह सवाल उठाती हैं कि क्या उनकी भक्ति और योगदान को समाज में स्वीकार किया जाता है? यह घटना न केवल यादव समाज, बल्कि पूरे हिंदू समाज के लिए एक चुनौती है कि क्या हम वास्तव में सनातन धर्म के समावेशी मूल्यों पर खरे उतर रहे हैं?
कानूनी और सामाजिक कार्रवाई की मांग
स्थानीय पुलिस ने इस मामले में अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है, जिससे पीड़ित समुदाय में रोष बढ़ रहा है। सामाजिक कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को भी इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की गई है।
यह घटना न केवल एक व्यक्ति के अपमान की कहानी है, बल्कि उस गहरी जड़ें जमा चुकी जातिगत मानसिकता का प्रतीक है, जो आज भी हमारे समाज को विभाजित करती है। अब समय है कि हम सब मिलकर इस तरह की बर्बरता के खिलाफ आवाज उठाएँ और सनातन धर्म के सच्चे मूल्यों को पुनर्जनन दे

बिजनौर, उत्तर प्रदेश: डायलिसिस के दौरान बिजली कटने से मरीज की दर्दनाक मौत, जनरेटर में डीजल न होने का गंभीर आरोप: उत्तर प...
16/06/2025

बिजनौर, उत्तर प्रदेश: डायलिसिस के दौरान बिजली कटने से मरीज की दर्दनाक मौत, जनरेटर में डीजल न होने का गंभीर आरोप:
उत्तर प्रदेश के बिजनौर में एक हृदयविदारक घटना ने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल स्थिति को फिर से उजागर कर दिया है। बिजनौर मेडिकल कॉलेज से संबद्ध जिला अस्पताल के डायलिसिस विंग में शुक्रवार (13 जून, 2025) को 26 वर्षीय युवक सरफराज अहमद की डायलिसिस प्रक्रिया के दौरान बिजली कटने से मौत हो गई। इस घटना ने न केवल अस्पताल प्रशासन की लापरवाही को सामने लाया, बल्कि डायलिसिस यूनिट के संचालन में गंभीर खामियों को भी उजागर किया।
घटना का विवरण
बिजनौर जिले के फुलसंदा गांव के निवासी सरफराज अहमद को किडनी से संबंधित गंभीर समस्या थी, जिसके लिए वे नियमित रूप से डायलिसिस करवाने के लिए अपनी मां सलमा के साथ जिला अस्पताल आते थे। शुक्रवार सुबह करीब 10 बजे सरफराज अपनी मां के साथ डायलिसिस के लिए अस्पताल पहुंचे। डायलिसिस प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन कुछ ही देर बाद अचानक बिजली की आपूर्ति ठप हो गई। बिजली कटते ही डायलिसिस मशीन बंद हो गई, और मशीन में मरीज का लगभग आधा खून फंस गया, जो उसे वापस चढ़ाया जाना था।
परिजनों का आरोप है कि बिजली जाने के बाद अस्पताल का बैकअप जनरेटर भी शुरू नहीं किया गया, क्योंकि उसमें डीजल ही उपलब्ध नहीं था। सरफराज की मां सलमा ने डॉक्टरों और अस्पताल कर्मचारियों से बार-बार जनरेटर चालू करने की गुहार लगाई, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। सलमा ने कहा, "मैं चीखती रही, गिड़गिड़ाती रही, लेकिन किसी ने मेरे बेटे की जान बचाने की कोशिश नहीं की। मशीन में उसका आधा खून अटक गया था, और वह तड़पता रहा।" कुछ ही देर में सरफराज की हालत बिगड़ गई, और उनकी मां की आंखों के सामने उन्होंने दम तोड़ दिया।
अस्पताल की लापरवाही और अव्यवस्था
यह घटना उस समय हुई, जब जिला अस्पताल में मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ) पूर्ण बोरा निरीक्षण के लिए मौजूद थे। घटना की जानकारी मिलते ही सीडीओ ने तत्काल जनरेटर के लिए डीजल मंगवाया, जिससे डायलिसिस वार्ड में मौजूद चार अन्य मरीजों की जान बचाई जा सकी। हालांकि, सरफराज के लिए यह मदद देर से आई।
अस्पताल के कर्मचारियों ने बताया कि डायलिसिस यूनिट का संचालन एक निजी कंपनी, संजीवनी प्राइवेट लिमिटेड, के तहत सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल पर किया जा रहा है। कर्मचारियों का कहना है कि इस कंपनी ने जनरेटर के लिए डीजल की आपूर्ति नहीं की थी, जिसके कारण यह त्रासदी हुई। इसके अलावा, डायलिसिस वार्ड में अपर्याप्त स्टाफ, अस्वच्छता, और मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOPs) का पालन न होने की भी शिकायतें सामने आई हैं।
परिजनों का आक्रोश और प्रशासन की प्रतिक्रिया
सरफराज की मौत के बाद उनके परिजनों और स्थानीय लोगों ने अस्पताल के बाहर जमकर हंगामा किया। परिजनों ने अस्पताल प्रशासन और निजी कंपनी पर लापरवाही का आरोप लगाते हुए इसे "सीधी हत्या" करार दिया। सलमा ने रोते हुए कहा, "मेरा बेटा अपने पैरों पर चलकर आया था, लेकिन लापरवाही ने उसकी जिंदगी छीन ली।"
घटना की गंभीरता को देखते हुए जिलाधिकारी जसजीत कौर और मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) मौके पर पहुंचे। डीएम ने डायलिसिस यूनिट के सभी रिकॉर्ड जब्त कर लिए और मामले की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए। उन्होंने कहा, "डायलिसिस यूनिट में भारी अव्यवस्था और स्वच्छता की कमी पाई गई है। दोषी कंपनी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी, और उसे ब्लैकलिस्ट करने की प्रक्रिया शुरू हो रही है।"
सोशल मीडिया पर आक्रोश
इस घटना ने सोशल मीडिया, विशेष रूप से एक्स प्लेटफॉर्म, पर व्यापक चर्चा छेड़ दी है। कई यूजर्स ने इसे उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था की विफलता का प्रतीक बताया। एक यूजर ने लिखा, "मुख्यमंत्री 24 घंटे बिजली की बात करते हैं, लेकिन अस्पताल में जनरेटर के लिए डीजल तक नहीं है। यह सरासर हत्या है।" दूसरों ने इस घटना को गरीब मरीजों के साथ होने वाले अन्याय का उदाहरण बताया और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की।
स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल स्थिति
उत्तर प्रदेश में डायलिसिस सुविधाओं की स्थिति पहले से ही चिंताजनक है। भारतीय नेफ्रोलॉजी जर्नल के अनुसार, राज्य में अनुमानित 48,000 अंतिम चरण की किडनी रोग (ESKD) के मरीज हैं, लेकिन डायलिसिस मशीनों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की भारी कमी है। बिजनौर जैसे जिला अस्पतालों में 5-10 डायलिसिस मशीनें हैं, जो मरीजों की संख्या के सामने नाकाफी हैं। इसके अलावा, केवल 57.3% डायलिसिस यूनिट्स में ही नेफ्रोलॉजिस्ट की देखरेख होती है, जिससे जोखिम और बढ़ जाता है।
प्रधानमंत्री राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम (PMNDP) और आयुष्मान भारत योजना के तहत मुफ्त डायलिसिस की सुविधा उपलब्ध है, लेकिन बुनियादी ढांचे की कमी और रखरखाव में लापरवाही इसे प्रभावी बनाने में बाधा डाल रही है।
आगे की कार्रवाई और सवाल
जिलाधिकारी ने जांच समिति गठित कर दी है, जो डायलिसिस यूनिट के संचालन, जनरेटर की स्थिति, और कर्मचारियों की जिम्मेदारी की जांच करेगी। प्रशासन ने परिजनों को आर्थिक सहायता का आश्वासन भी दिया है। हालांकि, यह घटना कई गंभीर सवाल खड़े करती है:
क्या सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे?
निजी कंपनियों को PPP मॉडल के तहत दी गई जिम्मेदारियों की निगरानी कैसे सुनिश्चित होगी?
सरफराज जैसे मरीजों की मौत का जिम्मेदार कौन है, और क्या दोषियों को सजा मिलेगी?
उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है। यह घटना उन लाखों गरीब मरीजों की व्यथा को दर्शाती है, जो सरकारी अस्पतालों पर निर्भर हैं। जब तक बुनियादी सुविधाओं और जवाबदेही में सुधार नहीं होगा, ऐसी त्रासदियां होती रहेंगी।

08/06/2025

न्यूज़ हेडलाइन: गडचिरोली में पर्यावरण पर संकट, लॉयड्स के लिए 900 हेक्टेयर जंगल और 1 लाख पेड़ काटने की मंजूरी
गडचिरोली, 9 जून 2025: केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र के गडचिरोली जिले में लॉयड्स मेटल्स एंड एनर्जी लिमिटेड को लौह अयस्क शुद्धिकरण प्लांट के लिए 900 हेक्टेयर जंगल और 1 लाख से अधिक पेड़ काटने की अनुमति दी है। पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने यह मंजूरी दी, जिसके तहत सूरजगढ़ खदान में लौह अयस्क उत्पादन को 10 से 26 मिलियन टन प्रति वर्ष तक बढ़ाने की योजना है।
पर्यावरण दिवस पर सवाल:
5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधारोपण और पर्यावरण संरक्षण की बातें हुईं, लेकिन इस फैसले ने सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए हैं। पर्यावरणविद और स्थानीय आदिवासी पूछ रहे हैं कि क्या यही वह पर्यावरण संरक्षण है जिसकी बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं? गडचिरोली का यह क्षेत्र जैव-विविधता से भरपूर है और आदिवासी समुदायों की आजीविका का आधार है।
परियोजना का उद्देश्य:
लॉयड्स इस प्लांट में लौह अयस्क को शुद्ध कर उच्च गुणवत्ता वाला स्टील बनाने की योजना बना रही है। कंपनी का दावा है कि यह परियोजना क्षेत्र में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देगी। हालांकि, पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे जैव-विविधता को भारी नुकसान होगा और आदिवासियों की आजीविका प्रभावित होगी।
विरोध और चिंताएँ:
स्थानीय आदिवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता इस फैसले का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि 900 हेक्टेयर जंगल और 1.23 लाख पेड़ों की कटाई से पर्यावरण को अपूरणीय क्षति होगी। पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने कहा कि इससे नदियाँ और जैव-विविधता खत्म हो सकती है। आदिवासी समुदायों का कहना है कि यह उनके जल, जंगल और जमीन के अधिकारों का हनन है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ:
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए इसे आदिवासियों के अधिकारों का उल्लंघन बताया। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में उनकी सरकार ने हसदेव जंगल को बचाने का प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें भाजपा भी शामिल थी। शिव सेना (यूबीटी) के आदित्य ठाकरे ने भी गडचिरोली में खनन और अन्य परियोजनाओं के लिए 1,800 हेक्टेयर जंगल काटने के फैसले का विरोध किया।
आगे क्या?
पर्यावरणविद और स्थानीय समुदाय आंदोलन तेज करने की चेतावनी दे रहे हैं। कुछ ने चिपको आंदोलन की तर्ज पर पेड़ों को बचाने के लिए रक्षा सूत्र बांधने की बात कही है। सरकार का कहना है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण में संतुलन बनाया जाएगा, लेकिन ठोस कदमों की कमी से सवाल बने हुए हैं।

ताजमहल का निर्माण: प्रेम, इंजीनियरिंग और मेहनत की कहानीताजमहल, आगरा में यमुना नदी के किनारे खड़ा, मुगल वास्तुकला का अनमो...
08/06/2025

ताजमहल का निर्माण: प्रेम, इंजीनियरिंग और मेहनत की कहानी
ताजमहल, आगरा में यमुना नदी के किनारे खड़ा, मुगल वास्तुकला का अनमोल रत्न है। यह शाहजहाँ द्वारा अपनी पत्नी मुमताज़ महल की याद में बनवाया गया स्मारक है, जो प्रेम और भव्यता का प्रतीक है। इसके निर्माण की कहानी कारीगरों की मेहनत, इंजीनियरिंग की चुनौतियों और विश्व भर से आई सामग्री की गाथा है। आइए, जानते हैं कि ताजमहल कैसे बना, किन मुश्किलों का सामना हुआ, और इसके पीछे की प्रेरणा क्या थी।
प्रेरणा: मुमताज़ की मृत्यु और शाहजहाँ का वादा
1631 में, शाहजहाँ की पत्नी मुमताज़ महल का निधन बुरहानपुर में उनके 14वें बच्चे को जन्म देते समय हुआ। शाहजहाँ इस दुख से टूट गए। माना जाता है कि मुमताज़ ने मरने से पहले एक भव्य मकबरा बनाने की इच्छा जताई थी। शाहजहाँ ने इसे स्वर्ग की प्रतिकृति के रूप में बनाने का फैसला किया, जो उनकी प्रेम कहानी को अमर रखे। यहीं से ताजमहल का विचार जन्मा।
निर्माण की शुरुआत: 1632 से 1653 तक
निर्माण जनवरी 1632 में शुरू हुआ। मुख्य मकबरा 1648 तक पूरा हुआ, और पूरे परिसर को 1653 में अंतिम रूप मिला। 22 साल तक 20,000 से अधिक कारीगरों और मजदूरों ने इसमें काम किया। लागत 32 मिलियन रुपये थी, जो आज के मूल्य में करीब 1 बिलियन डॉलर है।
स्थान: ताजमहल यमुना के किनारे एक ऊँचे पठार पर बना। यह जमीन जयपुर के महाराजा जयसिंह की थी, जिन्हें बदले में आगरा में एक महल दिया गया।
नींव: नमी से बचाने के लिए 50 कुएँ खोदे गए और कंकड़-पत्थरों से भरे गए। नींव को यमुना से 50 मीटर ऊँचा रखा गया। बाँस की जगह ईंटों से विशाल स्कैफोल्डिंग बनाई गई, जिसे बाद में स्थानीय लोगों को मुफ्त ईंटें लेने देकर हटवाया गया।
सामग्री: विश्व भर से संग्रह
ताजमहल की सुंदरता इसकी सामग्री में है, जिसे भारत और विदेशों से लाया गया। 1,000 से अधिक हाथियों ने परिवहन में मदद की।
श्वेत संगमरमर: राजस्थान के मकराना से लाया गया, जो इसकी चमक का कारण है।
कीमती पत्थर: 28 प्रकार के रत्न जड़े गए, जैसे:
जैस्पर (पंजाब)
जेड (चीन)
फ़िरोज़ा (तिब्बत)
लैपिस लज़ुली (अफगानिस्तान)
नीलम (श्रीलंका)
कार्नेलियन (अरब)
लाल बलुआ पत्थर: दीवारों और अन्य संरचनाओं के लिए।
मोर्टार: चूना, गोंद और ज्वालामुखी राख का मिश्रण, जिसमें स्थानीय मिट्टी और जड़ी-बूटियाँ भी मिलाई गईं। यह मिश्रण आज भी संरचना को मजबूत रखता है।
परिवहन: मकराना से संगमरमर बैलगाड़ियों और हाथियों से लाया गया। विदेशी पत्थर समुद्री और स्थलीय मार्गों से आए, जैसे बगदाद, तिब्बत और रूस से।
कारीगर और इंजीनियर: वैश्विक सहयोग
20,000 मजदूरों और 37 प्रमुख कारीगरों की टीम ने ताजमहल बनाया।
प्रमुख वास्तुकार: उस्ताद अहमद लाहौरी, जिन्होंने डिज़ाइन की अगुआई की।
अन्य कारीगर:
इस्माइल खाँ (ऑट्टोमन): गुंबद डिज़ाइनर।
अमानत खान (फारस): कैलीग्राफी विशेषज्ञ।
अता मुहम्मद (बुखारा): फूलों की नक्काशी।
दक्षिण भारत और कन्नौज के कारीगर: पच्चीकारी और राजमिस्त्री।
शाहजहाँ: डिज़ाइन में सक्रिय रहे, कई हिस्सों को स्वयं तैयार किया।
पारिश्रमिक: कारीगरों को अच्छा वेतन मिला। कुछ को आजीवन वेतन दिया गया ताकि वे ऐसी दूसरी इमारत न बनाएँ। हाथ कटवाने की कहानी मिथक है। कई कारीगरों को ताजगंज में बसाया गया और लाल किले के निर्माण में लगाया गया।
चुनौतियाँ: इंजीनियरिंग और लॉजिस्टिक्स
निर्माण में कई मुश्किलें आईं:
परिवहन: विश्व भर से सामग्री लाना जटिल था।
नींव: यमुना के किनारे नमी और बाढ़ का खतरा था, जिसके लिए गहरी नींव बनाई गई।
स्कैफोल्डिंग: विशाल ईंट ढांचे को हटाना चुनौती थी।
सटीकता: समरूपता और नक्काशी के लिए मैन्युअल उपकरणों से सटीक काम हुआ।
वित्त: भारी लागत ने मुगल खजाने पर दबाव डाला।
निर्माण के बाद
1658 में, औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को कैद कर लिया। शाहजहाँ ने आगरा किले से ताजमहल को देखते हुए अंतिम दिन बिताए। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें मुमताज़ के बगल में दफनाया गया।
यूनेस्को: 1983 में ताजमहल विश्व धरोहर बना।
संरक्षण: यमुना का प्रदूषण और हवा से संगमरमर को नुकसान हो रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इसका रखरखाव करता है।
विवाद: बंद कमरों को खोलने की माँग पर अदालत ने रोक लगाई।
निर्माण से पहले
ममजतात का नदिहन (1631): तजमहल की प्रेरणा।
शहजहान का शसन: 1628 से शुरू, मुगल कला का स्वर्ण युग।
हममायन का मकबरा (1570): ताजमहल की वास्तुकला पर प्रभाव।
वास्तुकला
ताजमहल में भारत-इस्मालकन वास्तुशिल्प का मिश्रण है। 187 फीट ऊँचा गमबद, चार मीनारें, पचकारीक़, और कैलीग्रफी इसकी खासियत हैं।

कोका-कोला: नशीली शुरुआत से वैश्विक शीतल पेय का सफरदुनिया का हर कोना आज कोका-कोला के स्वाद से वाकिफ है। यह सिर्फ एक शीतल ...
08/06/2025

कोका-कोला: नशीली शुरुआत से वैश्विक शीतल पेय का सफर
दुनिया का हर कोना आज कोका-कोला के स्वाद से वाकिफ है। यह सिर्फ एक शीतल पेय नहीं, बल्कि ताजगी और खुशी का प्रतीक है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब इसकी शुरुआत हुई थी, तब इसमें कोकीन मिलाई जाती थी? जी हां, कोका-कोला की कहानी उतनी ही हैरान करने वाली है, जितना इसका स्वाद!
टॉनिक से शुरू हुआ सफर
साल 1886 में अटलांटा, जॉर्जिया के एक फार्मासिस्ट डॉ. जॉन स्टिथ पेम्बर्टन ने कोका-कोला को पहली बार बनाया। उस वक्त इसे फाउंटेन ड्रिंक के रूप में बेचा गया, जो एक औषधीय टॉनिक माना जाता था। इस ड्रिंक में कोका के पत्तों का अर्क था, जिसमें थोड़ी मात्रा में कोकीन मौजूद थी—लगभग 9 मिलीग्राम प्रति 8 औंस ग्लास। उस समय कोकीन को कोई खतरनाक चीज नहीं माना जाता था। इसे तो दवा की तरह इस्तेमाल किया जाता था, जो सिरदर्द, थकान और यहां तक कि अवसाद को दूर करने का दावा करती थी।
1899 में कोका-कोला की बोतलबंद बिक्री शुरू हुई। इसने इसे घर-घर तक पहुंचा दिया। कोकीन की थोड़ी-सी मात्रा की वजह से यह पेय पीने वालों को तुरंत ताजगी और ऊर्जा देता था, जिसने इसे तेजी से लोकप्रिय बना दिया।
नाम में छुपा राज
कोका-कोला का नाम इसके दो खास अवयवों से आया—कोका, यानी कोका के पत्ते, जिनसे कोकीन निकलता था, और कोला, यानी कोला नट, जिसमें कैफीन होता है। इन दोनों ने मिलकर इसे एक ऐसा पेय बनाया, जो लोगों को तुरंत चुस्त-दुरुस्त महसूस कराता था। उस दौर में इसे एक टॉनिक के तौर पर बेचा जाता था, जो मानसिक और शारीरिक थकान को पल में भगा देता था।
कोकीन का दौर और बदलाव
19वीं सदी के अंत में कोकीन का इस्तेमाल मेडिकल दुनिया में आम था। इसे सिरदर्द से लेकर शराब की लत तक के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता था। कोका-कोला भी इन्हीं फायदों के साथ बाजार में उतारा गया। लेकिन 20वीं सदी की शुरुआत में कोकीन के नशे और इसके नुकसान के बारे में लोग जागरूक होने लगे। कोकीन की आलोचना बढ़ी, और सरकारों ने इसे नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए।
1903 में कोका-कोला कंपनी ने अपने पेय से कोकीन को हटाना शुरू किया। कोका के पत्तों से कोकीन-मुक्त अर्क का इस्तेमाल होने लगा। 1904 तक कोकीन की मात्रा लगभग खत्म हो चुकी थी, और 1929 तक इसे पूरी तरह हटा दिया गया। लेकिन कोका-कोला का जादू कम नहीं हुआ। इसका स्वाद और कैफीन लोगों को इतना भा चुका था कि इसकी मांग आसमान छूने लगी।
आज का कोका-कोला
आज कोका-कोला सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक वैश्विक ब्रांड है। कंपनी अब कोकीन-मुक्त कोका पत्तों का अर्क इस्तेमाल करती है, जिसे खास प्रक्रिया से तैयार किया जाता है। कोका-कोला के विज्ञापन, जैसे सांता क्लॉज का मॉडर्न लुक या "Share a Coke" कैंपेन, ने इसे दुनिया भर में एक सांस्कृतिक प्रतीक बना दिया।
कोका-कोला की कहानी एक छोटे से टॉनिक से शुरू होकर वैश्विक ब्रांड तक पहुंची। इसकी नशीली शुरुआत भले ही चौंकाने वाली हो, लेकिन इसने समय के साथ खुद को बदला और आज यह ताजगी का दूसरा नाम बन चुका है।

जापानी सिपाही हीरू ओनोदा: युद्ध खत्म होने के 29 साल बाद भी लड़ता रहा एक अनोखा योद्धाद्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने व...
08/06/2025

जापानी सिपाही हीरू ओनोदा: युद्ध खत्म होने के 29 साल बाद भी लड़ता रहा एक अनोखा योद्धा
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने विश्व इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। इस युद्ध में लाखों लोग मारे गए, और कई देशों ने भारी तबाही झेली। जापान, जिसने 1941 में पर्ल हार्बर पर हमला करके युद्ध में अपनी स्थिति मजबूत की थी, 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमलों के बाद मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ। लेकिन एक जापानी सिपाही, लेफ्टिनेंट हीरू ओनोदा, की कहानी इतिहास में एक अनोखा अध्याय जोड़ती है। यह सिपाही 29 साल तक, यानी 1974 तक, यह मानकर जंगल में गुरिल्ला युद्ध लड़ता रहा कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। यह कहानी न केवल साहस और निष्ठा की है, बल्कि एक सैनिक के अटूट विश्वास और देशभक्ति की भी है।
हीरू ओनोदा का प्रारंभिक जीवन
हीरू ओनोदा का जन्म 19 मार्च 1922 को जापान के वाकायामा प्रान्त के कामेकावा गांव में हुआ था। 17 साल की उम्र में वे चीन के वुहान में ताजिमा योको ट्रेडिंग कंपनी में काम करने गए। 18 साल की उम्र में, 1940 में, उन्हें इंपीरियल जापानी सेना में भर्ती किया गया। उनकी प्रशिक्षण अवधि में उन्हें खुफिया अधिकारी और गुरिल्ला युद्ध विशेषज्ञ के रूप में तैयार किया गया। 1944 में, जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, ओनोदा को फिलीपींस के लुबांग द्वीप पर भेजा गया। उन्हें आदेश दिया गया कि वे किसी भी हालत में आत्मसमर्पण न करें और दुश्मन की आपूर्ति लाइनों को नष्ट करते रहें। उनके कमांडर मेजर योशिमी तानिगुची ने स्पष्ट निर्देश दिए: "हम तुम्हें लेने आएंगे। तुम्हें कभी आत्मसमर्पण नहीं करना है।"
युद्ध का अंत और ओनोदा की अनजान लड़ाई
1945 में, जब अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए, जापान ने अगस्त 1945 में मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। लुबांग द्वीप पर फरवरी 1945 में अमेरिकी सेना ने कब्जा कर लिया था, और अधिकांश जापानी सैनिक या तो मारे गए या आत्मसमर्पण कर चुके थे। लेकिन ओनोदा और उनके तीन साथी—युइची अकात्सु, शोइची शिमादा, और किंशichi कोजुका—जंगल में छिप गए। उन्हें विश्वास था कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है।
इन चार सैनिकों ने जंगल में गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई। वे स्थानीय मछुआरों और किसानों की फसलों और पशुओं को लूटते, अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों और स्थानीय पुलिस पर हमले करते, और जंगल में छिपकर अपनी मौजूदगी को बनाए रखते। उनके लिए, युद्ध अभी भी चल रहा था, और वे अपने कमांडर के आदेश का पालन कर रहे थे।
युद्ध समाप्ति की सूचना और ओनोदा का अविश्वास
युद्ध खत्म होने की खबर को फैलाने के लिए, मित्र राष्ट्रों और फिलीपींस सरकार ने कई बार लुबांग द्वीप पर पर्चियां गिराईं, जिनमें लिखा था, "युद्ध खत्म हो गया है। बाहर आ जाओ।" लेकिन ओनोदा और उनके साथियों ने इन पर्चियों को मित्र राष्ट्रों की चाल माना और उन पर विश्वास नहीं किया। 1952 में, जापान सरकार ने उनके परिवारों की तस्वीरें और पत्र छपवाकर जंगल में गिराए, लेकिन ओनोदा ने इसे भी प्रचार माना। उनकी मान्यता थी कि अगर जापान युद्ध हार गया होता, तो कोई भी जीवित नहीं बचता, क्योंकि जापानी संस्कृति में हार स्वीकार करना सम्मान के खिलाफ था। उनकी मां ने उन्हें एक खंजर दिया था, जिसे हार की स्थिति में आत्महत्या के लिए इस्तेमाल करना था, लेकिन ओनोदा ने कभी हार नहीं मानी।
साथियों का नुकसान
समय के साथ, ओनोदा के साथी एक-एक करके कम होते गए। 1949 में, युइची अकात्सु ने समूह छोड़ दिया और 1950 में फिलीपींस की सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इस घटना ने ओनोदा को और सतर्क कर दिया। 1954 में, शोइची शिमादा एक खोजी दल के साथ मुठभेड़ में मारा गया। 1972 में, किंशichi कोजुका स्थानीय पुलिस के साथ गोलीबारी में मारा गया। अब ओनोदा अकेले रह गए थे, लेकिन उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी।
नोरिओ सुजुकी और अंतिम समर्पण
1972 में कोजुका की मौत की खबर जापान पहुंची, जिसने वहां हलचल मचा दी। जापानी सरकार और जनता को उम्मीद जगी कि शायद ओनोदा अभी भी जीवित हैं। 1974 में, एक जापानी साहसी और टोक्यो विश्वविद्यालय के छात्र नोरिओ सुजुकी ने ओनोदा को खोजने का फैसला किया। सुजुकी ने लुबांग के जंगलों में ओनोदा से मुलाकात की और उन्हें युद्ध समाप्त होने की सच्चाई बताई। लेकिन ओनोदा ने कहा कि वह तब तक आत्मसमर्पण नहीं करेंगे, जब तक उनके कमांडर मेजर तानिगुची स्वयं उन्हें आदेश न दें।
जापानी सरकार ने रिटायर्ड मेजर तानिगुची को फिलीपींस भेजा। 9 मार्च 1974 को, तानिगुची ने औपचारिक रूप से ओनोदा को युद्ध समाप्त होने और आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। ओनोदा, जिनकी उम्र अब 52 साल थी, ने अपनी राइफल, 400 गोलियां, और अपनी मां का दिया हुआ खंजर फिलीपींस सरकार को सौंप दिया। उनकी वर्दी, हालांकि जीर्ण-शीर्ण, अभी भी उनकी निष्ठा और साहस की कहानी कह रही थी।
जापान में वापसी और बाद का जीवन
1974 में जापान लौटने पर ओनोदा का नायक की तरह स्वागत हुआ। हजारों लोग सड़कों पर उन्हें देखने के लिए उमड़े। उनकी कहानी ने जापानी जनता को प्रेरित किया, और उन्हें रेडियो और टेलीविजन पर अपनी वीरता के किस्से सुनाने के लिए बुलाया गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा, No Surrender: My Thirty-Year War, लिखी, जो बेस्टसेलर बनी। हालांकि, ओनोदा ने लुबांग द्वीप पर अपने कार्यों के दौरान कई स्थानीय लोगों की हत्या की थी, जिसका उनकी आत्मकथा में उल्लेख नहीं था। फिलीपींस सरकार ने युद्ध नियमों के तहत उन्हें माफी दी और जापान वापस जाने की अनुमति दी।
जापान लौटने के बाद, ओनोदा को आधुनिक जापान में बदलाव और पारंपरिक मूल्यों के कम होने का दुख हुआ। 1975 में, वे ब्राजील चले गए, जहां उन्होंने मवेशी पालन शुरू किया और एक जापानी समुदाय, कॉलोनिया जैमिक, में प्रमुख भूमिका निभाई। 1984 में, एक जापानी किशोर द्वारा अपने माता-पिता की हत्या की खबर पढ़ने के बाद, वे जापान लौटे और युवाओं के लिए "ओनोदा नेचर स्कूल" की स्थापना की, जहां उन्होंने प्रकृति और अनुशासन के महत्व को सिखाया।
मृत्यु और विरासत
16 जनवरी 2014 को, 91 वर्ष की आयु में, टोक्यो के सेंट ल्यूक इंटरनेशनल हॉस्पिटल में निमोनिया की जटिलताओं के कारण ओनोदा का निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर जापान के तत्कालीन मुख्य कैबिनेट सचिव योशीहिदे सुगा ने कहा, "मुझे अभी भी स्पष्ट रूप से याद है कि जब श्री ओनोदा जापान लौटे, तो मुझे युद्ध के अंत के बारे में आश्वस्त किया गया था।" उनकी जीवित रहने की इच्छा और देशभक्ति को आज भी जापान में सम्मान दिया जाता है।

कुर्बानी पर विवाद के बीच गोश्त के फायदों पर चर्चा: प्रोटीन, आयरन और विटामिन की कमी को पूरा करने में मददगारईद-उल-अज़हा के...
08/06/2025

कुर्बानी पर विवाद के बीच गोश्त के फायदों पर चर्चा: प्रोटीन, आयरन और विटामिन की कमी को पूरा करने में मददगार
ईद-उल-अज़हा के मौके पर गोश्त के पोषण मूल्य और स्वास्थ्य लाभों पर एक नजर
नई दिल्ली: जैसे-जैसे ईद-उल-अज़हा (बकरीद) नजदीक आ रही है, कुर्बानी को लेकर भारत में हर साल की तरह बहस तेज हो रही है। इस बीच, पोषण विशेषज्ञ और स्वास्थ्य विशेषज्ञ गोश्त के फायदों पर ध्यान देने की सलाह दे रहे हैं। गोश्त न केवल स्वाद में लाजवाब है, बल्कि यह प्रोटीन, आयरन, जिंक और विटामिन बी12 का एक समृद्ध स्रोत भी है, जो भारत में प्रोटीन की कमी से जूझ रहे 73% लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।
गोश्त के पोषण मूल्य
पोषण विशेषज्ञों के अनुसार, 100 ग्राम गोश्त में लगभग 33 ग्राम प्रोटीन होता है, जो एक सामान्य व्यक्ति की दैनिक प्रोटीन आवश्यकता का करीब 60% हिस्सा पूरा कर सकता है। इसके अलावा, गोश्त में आयरन, जिंक और विटामिन बी12 की प्रचुर मात्रा होती है। ये पोषक तत्व न केवल रक्त में हीमोग्लोबिन के स्तर को बढ़ाने में मदद करते हैं, बल्कि इम्यूनिटी को भी मजबूत करते हैं।
आयरन: खून की कमी (एनीमिया) को रोकने में मदद करता है।
जिंक: इम्यून सिस्टम को मजबूत करता है और त्वचा-बालों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।
विटामिन बी12: तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क के कार्यों को बेहतर बनाता है।
भारत में प्रोटीन की कमी एक गंभीर समस्या
हाल के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में 73% आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न-आय वर्ग में यह समस्या अधिक गंभीर है। ऐसे में गोश्त जैसे प्राकृतिक प्रोटीन स्रोतों का महत्व और बढ़ जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि संतुलित मात्रा में गोश्त का सेवन न केवल पोषण की कमी को पूरा कर सकता है, बल्कि कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में भी मददगार हो सकता है।
कुर्बानी पर हो-हल्ला: क्या है जरूरी?
ईद-उल-अज़हा के मौके पर कुर्बानी की परंपरा को लेकर हर साल भारत में बहस छिड़ जाती है। कुछ लोग इसे धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा मानते हैं, तो कुछ इसे पशु क्रूरता से जोड़कर देखते हैं। लेकिन इस बीच, गोश्त के पोषण मूल्य और इसके स्वास्थ्य लाभों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। X पर कई यूजर्स इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कुर्बानी से प्राप्त गोश्त न केवल परिवारों के लिए पौष्टिक भोजन का स्रोत है, बल्कि इसे जरूरतमंदों में बांटने की परंपरा सामाजिक समरसता को भी बढ़ावा देती है।
एक यूजर ने X पर लिखा, “जब 73% लोग प्रोटीन की कमी से जूझ रहे हैं, तो कुर्बानी जैसे अवसरों पर गोश्त बांटना गरीबों के लिए पोषण का एक बड़ा स्रोत बन सकता है। इस पर बहस के बजाय हमें इसके फायदों पर ध्यान देना चाहिए।”
विशेषज्ञों की राय
डॉ. रीमा शर्मा, पोषण विशेषज्ञ, कहती हैं, “गोश्त में उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन होता है, जो मांसपेशियों के निर्माण और शरीर की मरम्मत के लिए जरूरी है। इसे संतुलित मात्रा में खाने से स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं। कुर्बानी के गोश्त को जरूरतमंदों तक पहुंचाने से समाज में पोषण की कमी को कम करने में मदद मिल सकती है।”
हालांकि, विशेषज्ञ यह भी सलाह देते हैं कि गोश्त का सेवन संतुलित मात्रा में करना चाहिए, और इसे स्वच्छता के साथ पकाकर खाना जरूरी है ताकि स्वास्थ्य जोखिमों से बचा जा सके।
सामाजिक और धार्मिक महत्व
ईद-उल-अज़हा के मौके पर कुर्बानी की परंपरा न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। गोश्त को तीन हिस्सों में बांटकर परिवार, रिश्तेदारों और गरीबों में वितरित करने की प्रथा सामुदायिक एकता को बढ़ावा देती है। यह परंपरा जरूरतमंदों तक पौष्टिक भोजन पहुंचाने का एक प्रभावी माध्यम भी है।
जब भारत में लाखों लोग कुपोषण और प्रोटीन की कमी से जूझ रहे हैं, ऐसे में गोश्त जैसे पौष्टिक खाद्य स्रोतों को विवाद का विषय बनाने के बजाय इसके स्वास्थ्य लाभों पर ध्यान देना जरूरी है। ईद-उल-अज़हा के मौके पर कुर्बानी के गोश्त का सही उपयोग न केवल धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है, बल्कि समाज में पोषण की कमी को दूर करने में भी योगदान दे सकता है।
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गाजीपुर में शादी की खुशियां मातम में बदली: DJ पर डांस को लेकर दूल्हे राकेश की पीट-पीटकर हत्या, 8 के खिलाफ मुकदमा दर्जगाज...
08/06/2025

गाजीपुर में शादी की खुशियां मातम में बदली: DJ पर डांस को लेकर दूल्हे राकेश की पीट-पीटकर हत्या, 8 के खिलाफ मुकदमा दर्ज
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के जगदीशपुर गांव में 4 जून 2025 को एक शादी समारोह के दौरान DJ पर डांस को लेकर हुए विवाद ने खूनी रूप ले लिया। इस घटना में दूल्हे राकेश राम की पीट-पीटकर निर्मम हत्या कर दी गई, जबकि उनके पिता बिर्गेडियर राम गंभीर रूप से घायल हो गए। पुलिस ने इस मामले में विनोद राम, प्रदीप, मोनू, पप्पू, मिथलेश, विशाल, सकलू और विपिन के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया है।
घटना का विवरण
जानकारी के अनुसार, राकेश राम अपनी बारात लेकर जगदीशपुर गांव में दुल्हन के घर पहुंचे थे। जयमाला के बाद DJ पर डांस को लेकर लड़के और लड़की पक्ष के बीच विवाद शुरू हुआ। विवाद इतना बढ़ गया कि आरोपी पप्पू नामक युवक ने राकेश के सिर पर तमंचे की बट से जोरदार प्रहार किया। इसके बाद अन्य आरोपियों ने लाठी-डंडों से राकेश और उनके पिता पर हमला कर दिया। गंभीर रूप से घायल राकेश को वाराणसी के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 6 या 7 जून को इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई।
पुलिस की कार्रवाई
घटना की सूचना मिलते ही पुलिस ने मौके पर पहुंचकर जांच शुरू की। राकेश के परिजनों की शिकायत पर आठ आरोपियों के खिलाफ IPC की धारा 302 (हत्या) और अन्य संबंधित धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया। पुलिस ने एक आरोपी को हिरासत में लिया है, जबकि अन्य की तलाश जारी है। CCTV फुटेज और चश्मदीदों के बयानों के आधार पर जांच को आगे बढ़ाया जा रहा है।
दुल्हन ने की थी बचाने की कोशिश
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, जब राकेश पर हमला हुआ, तो दुल्हन खुद उनकी जान बचाने के लिए दौड़ी, लेकिन हमलावरों ने उसे भी धमकाया। इस घटना ने पूरे गांव में शोक की लहर पैदा कर दी है। दुल्हन और उनके परिवार का रो-रोकर बुरा हाल है।
सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया
इस घटना ने स्थानीय लोगों में भारी आक्रोश पैदा किया है। सोशल मीडिया पर लोग इस क्रूरता की निंदा कर रहे हैं और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। X पर कई यूजर्स ने इस घटना को "नरपिशाचों की करतूत" करार देते हुए प्रशासन से त्वरित न्याय की अपील की है। अभी तक किसी बड़े राजनीतिक दल की ओर से इस मामले पर आधिकारिक बयान सामने नहीं आया है।
मामले की जांच जारी
पुलिस अधीक्षक ने बताया कि प्रारंभिक जांच में यह स्पष्ट हुआ है कि विवाद DJ पर डांस के मुद्दे से शुरू हुआ था, जो देखते ही देखते हिंसक हो गया। घायल बिर्गेडियर राम का इलाज जारी है, और उनके बयान दर्ज किए जाएंगे। पुलिस ने गांव में तनाव को देखते हुए अतिरिक्त बल तैनात किया है।
यह घटना उत्तर प्रदेश में शादी समारोहों के दौरान छोटे-छोटे विवादों के हिंसक रूप लेने की बढ़ती प्रवृत्ति पर गंभीर सवाल उठाती है। समाज और प्रशासन को इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है।

08/06/2025

अलवर के सरकारी अस्पताल में शर्मनाक वारदात: ICU में 32 वर्षीय महिला मरीज से रेप, गैंगरेप की जांच शुरू
अलवर, राजस्थान: राजस्थान के अलवर जिले के ESIC मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक दिल दहलाने वाली घटना सामने आई है। ICU में भर्ती 32 वर्षीय महिला मरीज के साथ नर्सिंग स्टाफ द्वारा नशे का इंजेक्शन देकर दुष्कर्म करने का मामला दर्ज किया गया है। पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि यह वारदात रेप की है या गैंगरेप की।
घटना का विवरण
जानकारी के अनुसार, पीड़िता को 2 जून 2025 को ट्यूब नसबंदी के ऑपरेशन के लिए ESIC मेडिकल कॉलेज में भर्ती किया गया था। 4 जून की रात को ऑपरेशन के बाद उसे ICU में शिफ्ट किया गया। आरोप है कि उसी रात करीब 1:30 बजे, नर्सिंग स्टाफ सुभाष गठाला ने महिला को नशे का इंजेक्शन लगाया, जिससे वह अर्धचेतन अवस्था में चली गई। इसके बाद, बेड के चारों ओर पर्दे लगाकर आरोपी ने दुष्कर्म की वारदात को अंजाम दिया।
पीड़िता के पति ने बताया कि रात 11 बजे एक सुरक्षा गार्ड ने उन्हें ICU से बाहर वेटिंग रूम में जाने को कहा। अगले दिन, 5 जून को जब महिला को होश आया, तो उसने अपने पति को इस भयावह घटना की जानकारी दी। पीड़िता ने बताया कि वह नशे की हालत में थी और विरोध करने में असमर्थ थी।
पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई
पीड़िता के पति ने 6 जून को उद्योग नगर (MIA) थाने में शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने तुरंत FIR दर्ज की और पीड़िता का मेडिकल परीक्षण करवाया। पुलिस सूत्रों के अनुसार, ICU में उस समय 8 बेड पर 7 मरीज भर्ती थे, जिनमें 3 महिलाएं थीं। अन्य मरीजों और स्टाफ से पूछताछ के साथ-साथ CCTV फुटेज की जांच की जा रही है।
आरोपी नर्सिंग कर्मी सुभाष गठाला को शनिवार, 7 जून को कॉलेज प्रशासन ने निलंबित कर दिया। ESIC मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. असीम दास ने बताया कि मामले की जांच के लिए एक समिति गठित की गई है, जो शनिवार शाम तक अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। दोषी के खिलाफ सख्त कार्रवाई का आश्वासन दिया गया है।
अस्पताल प्रशासन पर सवाल
पीड़िता और उनके परिजनों ने अस्पताल प्रशासन पर मामले को दबाने का आरोप लगाया है। पीड़िता ने जिला प्रशासन की ADM बीना महावर से मदद मांगी, जिसके बाद पुलिस को त्वरित कार्रवाई के निर्देश दिए गए। इस घटना ने अस्पतालों में मरीजों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
राजनीतिक प्रतिक्रिया
घटना के बाद राजनीतिक हलचल तेज हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बीजेपी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उनकी सरकार में राजस्थान का हेल्थ मॉडल सराहा गया था, लेकिन वर्तमान सरकार ने इसे तबाह कर दिया। नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली ने इसे "समाज की आत्मा पर हमला" करार दिया। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने भी सरकार से जवाबदेही की मांग की।
जांच में गैंगरेप की आशंका
पुलिस इस बात की पड़ताल कर रही है कि क्या यह घटना गैंगरेप की थी। CCTV फुटेज और अन्य मरीजों के बयानों के आधार पर जांच को आगे बढ़ाया जा रहा है। सोमवार को पीड़िता के मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज किए जाएंगे, जिसके बाद आरोपी की गिरफ्तारी की प्रक्रिया शुरू होगी।
सामाजिक आक्रोश
इस घटना ने स्थानीय लोगों में गुस्सा पैदा कर दिया है। लोग अस्पतालों में महिला मरीजों की सुरक्षा और जवाबदेही की मांग कर रहे हैं। यह मामला राजस्थान में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक बार फिर गंभीर सवाल उठा रहा है।

होलोडोमोर: यूक्रेन में 1932-33 का भयावह नरसंहार , कैसे हुआ था दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहारकीव, 6 जून 2025: यूक्रेन में 193...
06/06/2025

होलोडोमोर: यूक्रेन में 1932-33 का भयावह नरसंहार , कैसे हुआ था दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार
कीव, 6 जून 2025: यूक्रेन में 1932-33 के होलोडोमोर की स्मृति, कैसे फिरसे होलोडोमोर की यादें ताजा कर रहा है युद्ध ।
होलोडोमोर जिसे इतिहास की सबसे भयावह मानव निर्मित त्रासदियों में से एक माना जाता है, एक बार फिर सुर्खियों में है। इस अकाल में लाखों यूक्रेनियाई लोग भुखमरी, कुपोषण और इससे संबंधित बीमारियों के शिकार हुए थे। "होलोडोमोर" शब्द, जिसका अर्थ यूक्रेनियाई भाषा में "भुखमरी द्वारा हत्या" है, आज भी यूक्रेन की सामूहिक चेतना में गहरे दर्द और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक बना हुआ है। इतिहासकारों और यूक्रेनियाई लोगों द्वारा इसे जोसेफ स्टालिन की सोवियत नीतियों के कारण एक नरसंहार के रूप में देखा जाता है, जबकि इसकी मान्यता को लेकर वैश्विक स्तर पर बहस जारी है।
होलोडोमोर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1920 के दशक में, सोवियत संघ ने तेजी से औद्योगीकरण और सामूहिक खेती (collectivization) की नीति अपनाई। यूक्रेन, जो सोवियत संघ का "रोटी का टोकरी" कहलाता था, इस नीति से सबसे अधिक प्रभावित हुआ। स्टालिन ने निजी खेतों को जब्त कर सामूहिक फार्म (kolkhoz) स्थापित किए, जिसका भारी विरोध छोटे और मध्यम किसानों, यानी "कुलकों" ने किया। स्टालिन ने इन किसानों को "वर्ग शत्रु" घोषित कर उनके खिलाफ "डेकुलकाइजेशन" अभियान चलाया, जिसमें लाखों किसानों को निर्वासित किया गया या मार दिया गया। इस नीति ने यूक्रेन की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया और होलोडोमोर की नींव रखी।
होलोडोमोर के कारण
होलोडोमोर के पीछे सोवियत सरकार की नीतियां थीं, जिनमें शामिल थे:
सामूहिक खेती: निजी खेतों का अंत और सामूहिक फार्मों की अक्षमता ने अनाज उत्पादन को कम किया। फिर भी, सरकार ने अवास्तविक अनाज कोटा थोपे।
अनाज की जब्ती: यूक्रेन से भारी मात्रा में अनाज जब्त कर विदेशों में निर्यात किया गया, जिसके कारण किसानों के पास भोजन नहीं बचा।
कुलकों का दमन: उत्पादक किसानों को नष्ट करने से खाद्य उत्पादन की क्षमता और कम हुई।
यूक्रेनियाई राष्ट्रीयता पर हमला: कई इतिहासकारों का मानना है कि होलोडोमोर यूक्रेनियाई राष्ट्रीय पहचान और संस्कृति को कुचलने का सुनियोजित प्रयास था। यूक्रेनियाई बुद्धिजीवियों और सांस्कृतिक नेताओं को भी निशाना बनाया गया।
प्राकृतिक कारक: 1932 में कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ा, लेकिन यह अकाल का प्रमुख कारण नहीं था।
विनाशकारी परिणाम
होलोडोमोर के दौरान अनुमानित 3.5 से 7 मिलियन यूक्रेनियाई लोगों की मृत्यु हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में पूरा परिवार और गांव उजड़ गए। इस त्रासदी ने यूक्रेन की ग्रामीण संस्कृति, भाषा और राष्ट्रीय चेतना को गहरा आघात पहुंचाया। भुखमरी की भयावहता ऐसी थी कि कई लोगों को नरभक्षण जैसी अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। सोवियत सरकार ने इस त्रासदी को छिपाने के लिए प्रचार का सहारा लिया, और पश्चिमी देशों को इसकी सच्चाई बहुत बाद में पता चली। पत्रकार गैरेथ जोन्स जैसे कुछ लोगों ने इसकी सच्चाई उजागर करने की कोशिश की, लेकिन उनकी आवाज को दबा दिया गया।
नरसंहार के रूप में मान्यता
होलोडोमोर को नरसंहार के रूप में मान्यता देना एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा रहा है। 2006 में यूक्रेन की संसद ने इसे आधिकारिक तौर पर नरसंहार घोषित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और कई यूरोपीय देशों सहित 20 से अधिक देशों ने इसे नरसंहार के रूप recognized किया है। हालांकि, रूस और कुछ अन्य देश इसे सामूहिक खेती की नीतियों का अनपेक्षित परिणाम मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने 2003 में इसे मानवता के खिलाफ अपराध माना, लेकिन नरसंहार की स्पष्ट मान्यता से बचता रहा।
दस्तावेज और साक्ष्य
होलोडोमोर के दस्तावेज और साक्ष्य आज भी इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए महत्वपूर्ण हैं। कीव में होलोडोमोर स्मारक संग्रहालय में हजारों दस्तावेज, तस्वीरें, और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान संरक्षित हैं। यूक्रेन के राष्ट्रीय अभिलेखागार में सोवियत सरकार के आदेशों, अनाज जब्ती के रिकॉर्ड, और स्थानीय अधिकारियों के पत्राचार मौजूद हैं, जो इस त्रासदी की सुनियोजित प्रकृति को दर्शाते हैं। प्रत्यक्षदर्शियों की कहानियां, जैसे बच्चों और परिवारों की भुखमरी की मार्मिक कहानियां, इस त्रासदी की भयावहता को जीवित रखती हैं।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया
उस समय, सोवियत प्रचार ने होलोडोमोर को दुनिया से छिपाने में सफलता हासिल की थी। पश्चिमी देशों को इसकी सच्चाई 1980 के दशक में तब पता गुरुण, जब यूक्रेनियाई प्रवासियों और इतिहासकारों ने इस पर शोध शुरू किया। पत्रकार गैरेथ जोन्स और कुछ अन्य लोगों ने 1930 के दशक में इसकी सच्चाई को उजागर करने की कोशिश की, लेकिन उनकी बात को नजरअंदाज कर दिया गया। आज, होलोडोमोर की स्मृति को जीवित रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन, प्रदर्शनियां, और शैक्षिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
यूक्रेन में स्मृति और स्मारक
यूक्रेन में होलोडोमोर की स्मृति को जीवित रखने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। प्रत्येक वर्ष नवंबर के चौथे शनिवार को "होलोडोमोर स्मृति दिवस" मनाया जाता है, जिसमें लोग मोमबत्तियां जलाकर मृतकों को श्रद्धांजलि देते हैं। कीव का होलोडोमोर स्मारक संग्रहालय इस त्रासदी के दस्तावेजों और साक्ष्यों को प्रदर्शित करता है। यूक्रेन के स्कूलों में होलोडोमोर को इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, ताकि नई पीढ़ी इस त्रासदी से सबक ले सके।
होलोडोमोर का प्रभाव आज भी यूक्रेन-रूस संबंधों में स्पष्ट दिखता है। 2014 में क्रीमिया पर रूस के कब्जे और पूर्वी यूक्रेन में संघर्ष के बाद, होलोडोमोर की स्मृति ने यूक्रेनियाई लोगों में राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावना को और मजबूत किया है। यह त्रासदी यूक्रेन की राष्ट्रीय पहचान का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है और रूस के प्रति अविश्वास को बढ़ाती है।
होलोडोमोर केवल एक अकाल नहीं था, बल्कि यह मानवता के खिलाफ एक भयावह अपराध था, जिसने लाखों यूक्रेनियाई लोगों की जान ले ली और उनकी संस्कृति व पहचान को गहरा नुकसान पहुंचाया। आज, जब दुनिया मानवाधिकारों और ऐतिहासिक सत्य की बात करती है, होलोडोमोर हमें याद दिलाता है कि सत्ता का दुरुपयोग और नीतियों की क्रूरता कितनी विनाशकारी हो सकती है। यूक्रेन और विश्व समुदाय इस त्रासदी को याद रखने और इसके सबक को भविष्य में लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

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