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24/03/2025

कभी रुक गए कभी चल दिए
कभी चलते चलते भटक गए
यूँही उम्र सारी गुज़र गई
यूँही ज़िन्दगी के सितम सहे

कभी नींद में कभी होश में
तू जहाँ मिला तुझे देख कर
न नज़र मिली न ज़ुबान हिली
यूँही सर झुका के गुज़र गए

कभी ज़ुल्फ़ पर कभी चश्म पर
कभी तेरे हसीं वजूद पर
जो पसंद थे मेरी किताब में
वो शेर सारे बिखर गए

मुझे याद है कभी एक थे
मगर आज हम हैं जुदा जुदा
वो जुदा हुए तो संवर गए
हम जुदा हुवे तो बिखर गए

कभी अर्श पर कभी फर्श पर
कभी उन के दर कभी दर -बदर
ग़म -ए -आशीकी तेरा शुक्रिया
हम कहाँ कहाँ से गुज़र गए

Credit -परवीन शाकिर

01/04/2024

मिरे रब की मुझ पर इनायत हुई

कहूँ भी तो कैसे इबादत हुई

हक़ीक़त हुई जैसे मुझ पर अयाँ

क़लम बन गया है ख़ुदा की ज़बाँ

मुख़ातिब है बंदे से परवरदिगार

तू हुस्न-ए-चमन तू ही रंग-ए-बहार

तू मेराज-ए-फ़न तू ही फ़न का सिंघार

मुसव्विर हूँ मैं तू मिरा शाहकार

ये सुब्हें ये शामें ये दिन और रात

ये रंगीन दिलकश हसीं काएनात

कि हूर-ओ-मलाइक वो जिन्नात में

किया है तुझे अशरफ़-उल-मख़्लुक़ात

मिरी अज़्मतों का हवाला है तू

तू ही रौशनी है उजाला है तू

फ़रिश्तों से सज्दा भी करवा दिया

कि तेरे लिए मैं ने क्या न किया

ये दुनिया जहाँ बज़्म-आराईयाँ

ये महफ़िल ये मेले ये तन्हाइयाँ

फ़लक का तुझे शामियाना दिया

ज़मीं पर तुझे आब-ओ-दाना दिया

मिले आबशारों से भी हौसले

पहाड़ों में तुझ को दिए रास्ते

ये पानी हवा और ये शम्स-ओ-क़मर

ये मौज-ए-रवाँ ये किनारा भँवर

ये शाख़ों पे ग़ुंचे चटख़्ते हुए

फ़लक पे सितारे चमकते हुए

ये सब्ज़े ये फूलों-भरी क्यारियाँ

ये पंछी ये उड़ती हुई तितलियाँ

ये शो'ला ये शबनम ये मिट्टी ये संग

ये झरनों के बजते हुए जल-तरंग

ये झीलों में हँसते हुए से कँवल

ये धरती पे मौसम की लिक्खी ग़ज़ल

ये सर्दी ये गर्मी ये बारिश ये धूप

ये चेहरा ये क़द और ये रंग-रूप

दरिंदों चरिन्दों पे क़ाबू दिया

तुझे भाई दे कर के बाज़ू दिया

बहन दी तुझे और शरीक-ए-सफ़र

ये रिश्ते ये नाते घराना ये घर

कि औलाद भी दी दिए वालदैन

अलिफ़ लाम मीम काफ़ और ऐन ग़ैन

ये अक़्ल-ओ-ज़हानत शुऊ'र-ओ-नज़र

ये बस्ती ये सहरा ये ख़ुश्की ये तर

और इस पर किताब-ए-हिदायत भी दी

नबी भी उतारे शरीअ'त भी दी

ग़रज़ कि सभी कुछ है तेरे लिए

बता क्या किया तू ने मेरे लिए

Credit: अबरार अहमद काशिफ़

13/12/2023

और कुछ देर में लुट जाएगा हर बाम पे चाँद
अक्स खो जाएँगे आईने तरस जाएँगे
अर्श के दीदा-ए-नमनाक से बारी-बारी
सब सितारे सर-ए-ख़ाशाक बरस जाएँगे
आस के मारे थके हारे शबिस्तानों में
अपनी तन्हाई समेटेगा, बिछाएगा कोई
बेवफ़ाई की घड़ी, तर्क-ए-मदारात का वक़्त
इस घड़ी अपने सिवा याद न आएगा कोई
तर्क-ए-दुनिया का समाँ ख़त्म-ए-मुलाक़ात का वक़्त
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहाँ जाओगे
इस घड़ी कोई कसी का भी नहीं रहने दो
कोई इस वक़्त मिले गा ही नहीं रहने दो
और मिले गा भी इस तौर कि पछताओगे
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहाँ जाओगे

और कुछ देर ठहर जाओ कि फिर नश्तर-ए-सुब्ह
ज़ख़्म की तरह हर इक आँख को बेदार करे
और हर कुश्ता-ए-वामाँदगी-ए-आख़िर-ए-शब
भूल कर साअत-ए-दरमांदगी-ए-आख़िर-ए-शब दरमांदगी आख़िर शब
जान पहचान मुलाक़ात पे इसरार करे

Credit: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

15/11/2023

प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण.
नर वैभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.

Credit - Ramdhari Singh Dinkar

26/09/2023

करम है उसका कोई बददुआ नहीं लगती

मेरे चराग जलें तो हवा नहीं लगती

तुम्हारे प्यार की ज़ंजीर में बंधा हूँ मैं

सज़ा ये कैसी मिली है ,सज़ा नहीं लगती

किसी से प्यार करो और तजरुबा कर लो

ये रोग ऐसा है जिसमें दवा नहीं लगती

Credit: अतुल अजनबी

04/09/2023

सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं

कोई तो निकल आएगा सरबाज़-ए-मोहब्बत
दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं

कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना
कुछ ग़ौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं

पहले तो सुना करते थे आशिक़ की मुसीबत
अब आँख से वो आठ पहर देख रहे हैं

ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले
अख़बार का परचा है ख़बर देख रहे हैं

पढ़ पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने
हँस हँस के मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर देख रहे हैं

मैं 'दाग़' हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को
मुँह फेर के ये आप किधर देख रहे हैं

Credit - दाग़ देहलवी

10/05/2022

अंतिम ऊँचाई

कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।

Credits- कुँवर नारायण

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