18/09/2025
गाँव के किनारे छोटे-से घर में रहने वाली सुनीता शादी के बाद अपने ससुराल आई थी। घर बहुत बड़ा था, पर हालात बहुत छोटे। मिट्टी की दीवारें, टूटी छत और एक छोटी-सी रसोई। वहीं से शुरू हुआ उसका संघर्ष।
सुनीता हर सुबह चार बजे उठकर मिट्टी की चूल्हे में आग जलाती और घर के सब लोगों के लिए खाना बनाती। घर की गरीबी देखकर उसने कभी शिकायत नहीं की। जब तेल ख़त्म हो जाता, तो पानी और नमक में ही सब्ज़ी पका देती। आटा कम पड़ता, तो आटे में उबले चावल मिलाकर रोटियाँ बेल देती।
एक दिन सास ने ताना मारा—
“हमारे घर में बहू आई है, पर खाने में मज़ा नहीं आता। गरीब बहू की रसोई में तो बस भूख मिटती है, स्वाद कहाँ मिलेगा!”
सुनीता ने कुछ नहीं कहा, बस हल्की मुस्कान दी। उसी शाम उसने पड़ोसन से थोड़े सूखे मसाले और हरी मिर्च उधार ली और अपनी छोटी-सी रसोई में जादू कर दिया। जब सबने खाना खाया तो हर कोई कह उठा—
“आज तो मज़ा आ गया, सुनीता!”
सास की आँखों में भी आँसू थे। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि बहू गरीबी से नहीं, अपने हुनर और प्यार से घर को सँवारती है।
उस दिन के बाद सुनीता की छोटी-सी गरीब रसोई पूरे परिवार के लिए सबसे बड़ी दौलत बन गई। क्योंकि उसमें सिर्फ़ खाना नहीं, बल्कि बहू का प्यार, त्याग और अपनापन पकता था।