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Nayee Kitab prakashan प्रकाशक एवं पुस्तक विक्रेता

 #नयीपुस्तक मैंने संवत् 1933 में भाषा-कवियों के जीवनचरित्र-विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे, जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्या...
14/07/2025

#नयीपुस्तक
मैंने संवत् 1933 में भाषा-कवियों के जीवनचरित्र-विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे, जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी’ के महापात्र भाट हैं। इसी तरह की बहुत-सी बातें देखकर मुझसे चुप न रहा गया। मैने सोचा, अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाना चाहिए, जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन कवियों के जीवनचरित्र, सन् संवत्, जाति, निवासस्थान आदि कविता के ग्रन्थों-समेत विस्तारपूर्वक लिखे हों। मैंने प्रथम संस्कृत, अरवी, फ़ारसी, भाषा, और अँगरेज़ी के ग्रन्थों से पूर्ण अपने पुस्तकालय का छः महीने तक यथावत् अवलोकन किया। फिर कवियों का एक सूचीपत्र बनाकर उनके ग्रन्थ, उनके विद्यमान होने के सन्-संवत् और उनके जीवनचरित्र, जहाँ तक प्रकट हुए, सब लिखे। पहले मैंने सोचा था कि एक छोटा-सा संग्रह बनाऊँगा; पर धीरे-धीरे ऐसा भारी ग्रन्थ हुआ कि 1000 कवियों के नामोंसहित जीवनचरित्र इकट्ठे हो गये, जिनमें 836 की कविता मैंने इस ग्रन्थ में लिखी, और विस्तार के भय से केवल इतने ही कवियों की कविता लिख चुकने पर ग्रंथ को समाप्त कर दिया। मुझको इस बात के प्रकट करने में कुछ संदेह नहीं कि ऐसा संग्रह कोई आज तक नहीं रचा गया। परंतु इस वात को प्रकट करना अपने मुँह मियाँ मिट्टू बनना है। इस कारण इस संग्रह की बुराई-भलाई देखने-पढ़ने वालों की राय पर छोड़ी जाती है। जिन कवियों के ग्रंथ मैने पाये, उनके सन्-संवत् बहुत ठीक ठीक लिखे हैं, और जिनके ग्रंथ नहीं मिले, उनके सन् संवत हमने अटकल से लिख दिये हैं। जो कहीं एक कवि का नाम दुवारा लिखा गया हो, अथवा एक कवि का कवित्त दूसरे कवि के नाम से लिखा हो, तो विद्वज्जन उसे सुधार लें, और मेरी भूल चूक को क्षमा करें। क्योंकि मुझे काव्य का कुछ भी वोध नहीं है। कविलोग इस ग्रंथ में प्रशंसा के बहुत कवित्त देखकर कहेंगे कि इतने कवित्त वीर-यश के क्यों लिखे? मैंने सन्-संवत् और उस कवि के समय-निर्माण करने को ऐसा किया है; क्योंकि इस संग्रह के बनाने का कारण केवल कवियों के समय, देश, सन्-संवत् बताना हैं।
आमेजन और nayeekitab.in पर इस पुस्तक की प्री-बुकिंग चल रही हैं।
लिंक:
आमेजन - https://www.amazon.in/dp/9348409956
वेबसाइट - https://nayeekitab.in/books/shivsingh-saroj

उनका नाम सिद्धार्थ और गौतम भी था। सिद्धि-लाभ करके वे बुद्ध कहलाये । सुगत, तथागत और अमिताभ और भी उनके अनेक नाम हैं।बाल्यक...
14/07/2025

उनका नाम सिद्धार्थ और गौतम भी था। सिद्धि-लाभ करके वे बुद्ध कहलाये । सुगत, तथागत और अमिताभ और भी उनके अनेक नाम हैं।
बाल्यकाल से ही उनमें वीतराग के लक्षण प्रकट होने लगे थे। शिक्षा प्राप्त करने पर उनकी और भी वृद्धि हुई। शुद्धोदन को चिन्ता हुई और उन्हें संसारी बनाने के लिये उन्होंने उनका ब्याह कर देना ही ठीक समझा। खोज और परीक्षा करने पर देवदह की राजकुमारी यशोधरा ही, जिसे गोपा भी कहते हैं, उनकी वधू बनने योग्य सिद्ध हुई।
यशोधरा के पिता महाराज दण्डपाणि ने सम्बन्ध स्वीकार करने के पहले वर की विद्या-बुद्धि के साथ उसके बल-वीर्य की भी परीक्षा लेनी चाही। सिद्धार्थ ने शास्त्र शिक्षा के साथ ही साथ शस्त्र शिक्षा भी ग्रहण की थी, परन्तु शास्त्र की ओर ही पुत्र का मनोयोग समझकर पिता को कुछ चिन्ता हुई। तथापि कुमार सब परीक्षाओं में अनायास ही उत्तीर्ण हो गये। ‘टूटत ही धनु भयेहु विवाहू’ के अनुसार यशोधरा के साथ उनका विवाह हो गया।
पिता ने उनके लिए ऐसा प्रासाद बनवाया था, जिसमें सभी ऋतुओं के योग्य सुख के साधन एकत्र थे। किसी राग-रंग और आमोद-प्रमोद की कमी न थी। परन्तु भगवान् तो इसके लिए अवतीर्ण हुए नहीं थे। पिता का प्रबन्ध था कि जो कुछ स्वस्थ, शोभन और सजीव हो उसी पर उनकी दृष्टि पड़े।

अभी हाल तक 1857 की राजक्रान्ति का इतिहास एकांगी ही रहा है क्योंकि मूलभूत सामग्री अंग्रेजों के छोड़े रिकार्ड और उन्हीं के ...
10/07/2025

अभी हाल तक 1857 की राजक्रान्ति का इतिहास एकांगी ही रहा है क्योंकि मूलभूत सामग्री अंग्रेजों के छोड़े रिकार्ड और उन्हीं के लिखे ग्रन्थ ही रहे हैं । अनेक अंग्रेज लेखक इन विद्रोहियों के लिए बदमाश, शत्रु, हत्यारे जैसे संबोधन करते हैं । वे कभी नहीं चाहते कि इस विप्लव का इतिहास अपने गौरवशाली रूप में भारतीयों के सामने आए । इसलिए वे अपने सैन्य तथा अन्य अधिकारियों को बढ़ा–चढ़ाकर बताते रहे । दूसरी ओर भारतीय पक्ष को सामने लाने वाली सामग्री अंग्रेज क्रान्ति के बाद तक नष्ट करते रहे । वे सघन तलाशी करते रहे और जिसके पास क्रान्तिकारियों के पत्र, दस्तावेज या पयामे आजादी जैसे अखबार तक मिलते, उसे फांसी दे देते और उसका घर जला देते । आज तात्या टोपे के हस्ताक्षर प्रमाण तक नहीं हैं क्योंकि भय से जिसके पास कुछ था भी तो उसने नष्ट कर दिया । 1857 की राजक्रान्ति के शिल्पकारों के आपसी पत्रों, दस्तावेजों की तलाश तक न हो सकी । आजादी के बाद अनुसंधान के प्रति गहरी उदासीनता और मूलभूत सामग्री, संरक्षण के प्रति लापरवाही ने स्थिति को और जटिल बना दिया ।
—कर्मेन्दु शिशिर

आधुनिक हिन्दी कविता की समृद्ध परम्परा में नागार्जुन की कविताएँ दूर से ही पहचान में आ जाती हैं। एक समय था जब प्रगतिशील आन...
04/07/2025

आधुनिक हिन्दी कविता की समृद्ध परम्परा में नागार्जुन की कविताएँ दूर से ही पहचान में आ जाती हैं। एक समय था जब प्रगतिशील आन्दोलन की गोद से प्रगतिवाद का झंडा बुलन्द हुआ था और सारे लेखक-साहित्यकार उस आन्दोलन से जुड़कर प्रचार-प्रसार पाना चाहते थे। लक्ष्मीकान्त वर्मा की राय है कि “सभी लेखक इसलिए एकजुट हुए कि कम्युनिस्ट पार्टी और उसके लेखक संघ (प्रलेस) ने जैसा सांस्कृतिक आन्दोलन छेड़ रखा था, उससे जुड़े बिना न प्रचार मिल सकता था, न प्रतिष्ठा सम्भव थी।” (नागार्जुन की कविता, अजय तिवारी, पृष्ठ-191) लेकिन प्रगतिशील कवि, उनकी कविताएँ अलग चीज हैं और प्रगतिवाद की कविताएँ अलग। यह सच है कि प्रगतिवादी तीन प्रमुख कवियों में नागार्जुन का स्वर हमेशा जनता के साथ रहा और इसलिए वे जनता के कवि या जनकवि के रूप में ख्यात भी हैं। (उन्होंने स्वयं अपने को जनकवि कहा भी है।) उन्होंने हिन्दी कविता की स्वस्थ और समृद्ध परम्परा को और समृद्ध तथा जनता के प्रति जवाबदेह बनाया। यह जनता के प्रति उनकी जवाबदेही ही थी कि स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने जनता को सम्बोधित करके ढेर सारी कविताएँ लिखीं। आम जनता के ऊपर उनके अगाध विश्वास को ही वे कविताएँ दिखलाती हैं जिसे लेकर वे जनता के दरबार में पहुँचते हैं। नागार्जुन को जनता पर अटूट श्रद्धा थी। वे कविता के बहाने जन-जीवन और जनता में एक हलचल लाना चाहते थे। वे जीवन और कविता को एक-दूसरे का पर्यायवाची बनाना चाहते थे। वे कविता के माध्यम से जनता की रुचियों को परिष्कृत करना चाहते थे। भक्तिकाल के कवियों की तरह सीधे जनता के पक्ष में कविता की गवाही दिलवा रहे थे। वे छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और स्वतन्त्रता आन्दोलन, गांधी, नेहरू, जिन्ना, भारत की आजादी और गोरों की जगह कालों का शासन और उनकी विफलता को स्पष्ट देख पा रहे थे। इसलिए भी भक्तिकाल के कवियों की तरह उनकी कविता में जनता के दुख, दर्द, सन्ताप, सन्तोष, विक्षोभ, प्यार, घृणा, ममत्व और गेयता प्रमुखता से उभरकर आती हैं। याद आती हैं कबीर और जनता को सम्बोधित करती उनकी कविताएँ। यह सम्बोधन तो अन्य प्रगतिशील कवियों की कविताओं में भी है लेकिन नागार्जुन के यहाँ जो कविताएँ हैं, वे समष्टि की कविताएँ हैं। वे किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्बोधन वाली कविताएँ नहीं, बल्कि जनता की आवाज वाली कविताएँ हैं।
—भूमिका से

प्रेमचंद : घर में’ को एक नारीवादी दस्तावेज़ कहें तो यह गलत नहीं होगा। हालाँकि पूरी पुस्तक पर शिवरानी देवी का अपने पति के...
28/06/2025

प्रेमचंद : घर में’ को एक नारीवादी दस्तावेज़ कहें तो यह गलत नहीं होगा। हालाँकि पूरी पुस्तक पर शिवरानी देवी का अपने पति के लिये एक प्रकार का आदर भाव छाया हुआ है, फिर भी वह किसी भी मायने में, तर्क या विचारों में, अपने पति से दबी हुई या कमतर नहीं मालूम देतीं। बल्कि पूरी किताब में हमें उनका ही अक्खड़, प्रेमचंद के शब्दों में “एक योद्धा स्त्री” का स्वर सुनायी देता है। इस तरह से देखा जाये तो ‘प्रेमचंद : घर में’ एक आत्मसंस्मरण भी कहला सकता है। यह पुस्तक पहली बार हिन्दुस्तानी पब्लिशिंग हाउस से 1944 में छपी। उसके शीर्षक पृष्ठ पर हिन्दुस्तानी पब्लिशिंग हाउस के ऊपर लिखा है “प्रेमचंद गृह, बाँस फाटक, बनारस” और सबसे नीचे ‘पो. बा. 67 इलाहाबाद।’ वहीं से दूसरा संस्करण 1952 में छपा। 2000 में आत्माराम एंड संस, लखनऊ से वह फिर छपा और उसके भी बाद 2005 में, रोशनाई प्रकाशन, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल से। रोशनाई प्रकाशन वाले संस्करण का प्राक्कथन शिवरानी देवी के नाती प्रबोध कुमार ने लिखा है। वे याद करते हैं कि 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के साल दो साल के अंदर, जब वे बनारस में अपनी नानी के यहाँ रहने गये, तो उन दिनों शिवरानी देवी ‘प्रेमचंद : घर में’ की पाण्डुलिपि को आखिरी रूप दे रही थीं।
—सारा राय

ज्ञानरंजन कभी-कभी अपनी कलम को कँची बना देते हैं तो कभी तेज नश्तर ! नाजुक दृश्यों या स्थितियों को उकेरना और दूसरे ही पल ब...
28/06/2025

ज्ञानरंजन कभी-कभी अपनी कलम को कँची बना देते हैं तो कभी तेज नश्तर ! नाजुक दृश्यों या स्थितियों को उकेरना और दूसरे ही पल बड़ी निर्ममता से इस तरह नश्तर घुसेड़ देना कि पाठक बिलकुल विस्मित रह जाता है। पिता एक ऐसी भी विलक्षण कहानी है। इसमें ज्ञानरंजन ने छोटे-छोटे दृश्यों को इतनी बारीकी से रचा है कि उसमें टलमल करता जीवन तरल और चाक्षुष दिखाई देता है। पिता कहानी में ऐसे विरल दृश्य इसी तरह से आते हैं। पिता के पास एक स्थाई जिद्द है। उस जिद्द की अनेक परतें हैं। उसे स्थितियों और समय ने धीरे-धीरे रचा है। उसमें तनिक भी बदलाव मुश्किल है क्योंकि उसमें गृहस्थी की ठोस चिंता है। घनघोर तंगी में कठिन मितव्ययिता की ऐसी कोशिशें कि रिक्शे के पैसे कम कराने से, बाल कटाने और कपड़े सिलवाने तक किफायती सैलून और दर्जी की दुकानों को पहले से खोज निकाला है। बिजली के बिल बचाने के उपक्रम इस तरह कि परिवार आराम से रहे, मगर उस आराम में खुद पिता शरीक नहीं हों। इस ममत्व भरे त्याग में अथाह करुणा है। बाहर से व्यवहार में तिक्त पिता के भीतर की स्निग्धता आपको अंदर से भावुक और तरल कर देती है। पके फोड़े की तरह टभकती गृहस्थी का यथार्थ पूरी कहानी को एक गहरी और उदास मार्मिकता से भर देती है।
—कर्मेंदु शिशिर

सबके कहने से पहले ही नौटियाल जी ने कहा था कि “उन्हें तो जाना ही है वहाँ तक, फिर चाहे गाड़ी में अकेले वे बैठे रहें, चाहे ...
28/06/2025

सबके कहने से पहले ही नौटियाल जी ने कहा था कि “उन्हें तो जाना ही है वहाँ तक, फिर चाहे गाड़ी में अकेले वे बैठे रहें, चाहे चार लोग और । पेट्रोल तो उतना ही लगेगा। फिर हफ्ते-भर की सब बात है।” उनके इस तर्क से सब खुश हो गये। इसी तर्क पर न्यौछावर होकर वर्मा जी ने तुरन्त सबको चाय पिलवायी।
आठ बजे घर से निकलो तो सवा आठ-आठ बीस तक नौटियाल जी के यहाँ पहुँच जाओ। फिर वहाँ से पन्द्रह किलोमीटर दूर, बीच में रायपुर गाँव की टूटी-फूटी सड़क पार करते अपने गन्तव्य तक पहुँचना है। मेरी अपनी स्कूटी पर ऐसा सफर तय तो किया जा सकता था, पर सब कह रहे हैं कि ‘बगड़वाल मैडम, हमारे साथ ही चलिये।’ फिर ये लोग कलीग हैं हमारे। सुख-दुःख के मित्र-बन्धु यही हैं। आखिर इनके साथ चलने में कैसा संकोच । पर संकोच तो है भई। मन में न जाने कैसा कैसा डर-सा है।
मुझे कार में आगे की सीट पर सादर बैठाया गया है। हालाँकि मैं थोड़ा घबरा रही थी, पर आगे की सीट पर अकेले सादर बैठा दिये जाने से अब पहले से बेहतर लग रहा है। ड्राइवर की सीट पर स्वयं नौटियाल जी बैठे हैं। पीछे तीनों कलीग हैं। तीनों ही मुझसे सीनियर। अगर इनमें से कोई आकर धप्प से आगे बैठ जाता तो मुझे पीछे ही बैठना पड़ता। जैसा कि एक मिनट को मुझे लगा भी था। जैसे ही नौटियाल जी ने गाड़ी निकाली, वर्मा जी दौड़कर आगे बैठ गये। मैं कहने को थी कि वर्मा जी कृपया पीछे बैठने का कष्ट आज उठायें, पर मुझसे पहले ही बाकी दोनों तड़प उठे- “वर्मा जी, आपके लिये यहाँ हम इन्तजार कर रहे हैं।
—इसी पुस्तक से

निराला अपनी ‘वीणावादिनी’ को भी तब ऐसी ‘देवी सरस्वती’ में परिणत कर देते हैं जो ऋतुओं की देवी हैं। ग्राम्य जीवन और भारतीय ...
27/06/2025

निराला अपनी ‘वीणावादिनी’ को भी तब ऐसी ‘देवी सरस्वती’ में परिणत कर देते हैं जो ऋतुओं की देवी हैं। ग्राम्य जीवन और भारतीय किसान पर ऋतुओं के प्रभाव की यह कविता कला की देवी सरस्वती के परम्परित रूप को विस्तार देकर सृजन की देवी के रूप में चित्रित करती है। सरस्वती का सम्बन्ध वसन्त ऋतु से है और वसन्त नवता की नव-सर्जना की ऋतु है। भारतीय किसान का सम्पूर्ण जीवन इन ऋतुओं से ही संचालित होता है। निराला किसान को एक बड़ा सर्जक मानते हैं जो अपने श्रम और समर्पण से सृष्टि के लिए अन्न का सृजन करता है इसलिए सरस्वती को कवि ग्रामीण-जीवन की देवी के रूप में रूपान्तरित कर देता है। निराला की कविता किसानों से गहरी आत्मीयता के बगैर सम्भव नहीं थी। उन्होंने किसानों को केन्द्र में रखकर जो कविताएं लिखीं। उन कविताओं की हिन्दी में प्रायः बहुत चर्चा नहीं होती जबकि वे कविताएं बेहद महत्वपूर्ण हैं। निराला की ऐसी ही तमाम कविताएं मसलन ‘कुत्ता भौंकने लगा’, ‘झींगुर डटकर बोला’, ‘डिप्टी साहब आए’ तथा ‘महगू महंगा रहा’ जैसी कविताएं तत्कालीन किसान-जीवन, निराला की प्रगतिशील चेतना और हिन्दी कविता की एक बड़ी उपलब्धि की तरह हैं।
—विवेक निराला

इस ग्रंथ का साहित्य के इतिहास से बहुत घनिष्ठ संबंध है, अतः उचित समझ पड़ता है कि इस स्थान पर, केवल दिग्दर्शन की तरह, उसका...
26/06/2025

इस ग्रंथ का साहित्य के इतिहास से बहुत घनिष्ठ संबंध है, अतः उचित समझ पड़ता है कि इस स्थान पर, केवल दिग्दर्शन की तरह, उसका भी थोड़ा-सा सारांश दिया जाय। बंगाल और दक्षिण को छोड़कर प्रायः समस्त भारतवर्ष की मातृभाषा हिंदी है। इसके कवि सभी जगह हुए हैं, और सभी स्थानों पर इसका मान रहा है। कवि की पदवी भी इतनी ऊंची है कि मनुष्य महाराजाधिराज होने पर भी कवि होने में अपना गौरव समझता है। जापान के महाराज मत्सुहितो मिकाडो भी राजकाज से समय निकालकर नित्य कुछ कविता करते थे। महाराजाओं की कवि बनने की लालसा से हिंदी साहित्य का बड़ा उपकार हुआ, और हो रहा है। कविता करनेवाले कुछ तो ऐसे होते हैं, जो शौकिया, बचे हुए समय में, करते हैं, पर अपना प्रधान कार्य मुख्य रूप से किया करते हैं। ऐसे लोग संसार के सभ्य देशों में बहुत हैं; पर यथेष्ट उत्साह रहने पर भी ये लोग परमोत्कर्ष काव्य-रचना नहीं कर पाते। दूसरे प्रकार के मनुष्य वे होते हैं, जो व्यापार मानकर कविता करते हैं, यही उनकी जीविका का साधन है। ऐसे लोगों के लिए कविता ही सब कुछ है, और वे लोग बहुत अधिक काम कर सकते हैं। पर उनकी जीविका के दो ही उपाय हो सकते हैं, अर्थातु या तो वे अपने ग्रंथों की बिक्री से गुजर करें, या किसी राजा-महाराजा का आश्रय लें। जब तक भारत में प्रेस न थे, तब तक ग्रंथों की बिक्री से जीविका चलना सर्वथा असंभव था! परंतु आज प्रेस के होने पर भी जीविका इस प्रकार नहीं चल पाती, क्योंकि भारत में इतने शिक्षित मनुष्य नहीं हैं कि किसी उत्कृष्ट ग्रंथ की भी इतनी प्रतियाँ बिक जाएँ कि कवि की गुजर-बसर उसी के लाभ से हो सके। इंगलैंड में विद्या का प्रचार बहुत दिनों से यथेष्ट है; पर वहाँ भी ऐसा समय थोड़े ही दिनों से आया है कि कविगण
अपनी जीविका के लिए अपनी ग्रंथों की विक्री पर ही भरोसा कर सकें। ऐसी दशा में, धनिकों के आश्रित होकर काव्य-रचना करने के सिवा, निर्धन कवियों के लिए कोई और उपाय न पहले था, और न अब है।
—मिश्रबंधु

इस संग्रह में आप को चार स्वाद मिलेंगे। पहला वह जो आजकल बंबईया फिल्मों में लिखा जा रहा है। नए शब्द, नई स्पीड के साथ आपको ...
25/06/2025

इस संग्रह में आप को चार स्वाद मिलेंगे। पहला वह जो आजकल बंबईया फिल्मों में लिखा जा रहा है। नए शब्द, नई स्पीड के साथ आपको कुछ अच्छा फील देंगे।
दूसरा स्वाद वह है जो आपको कुछ चखा चखा सा लगेगा। जो कुछ भी पहले अच्छा आपने सुना है, उन्हीं कुछ शब्दों को लेकर नए अंदाज़ में आगे बढ़ते हुये आज के दौर में कुछ नया कहने की कोशिश है। उम्मीद है आप को स्वादिष्ट लगेगा। इस भाग को हमने नाम ‘सिलसिला’ दिया है।
—नीतीश्वर कुमार

स्त्री-प्रतिवाद का स्वर अनुराधा जी की कविताओं में अनेक तरह से व्यक्त हुआ है। कभी सीता और द्रौपदी के माध्यम से, कभी “उन्न...
25/06/2025

स्त्री-प्रतिवाद का स्वर अनुराधा जी की कविताओं में अनेक तरह से व्यक्त हुआ है। कभी सीता और द्रौपदी के माध्यम से, कभी “उन्नाव की जली, दिल्ली में मरी/हैदराबाद की जली, कठुआ में” जैसे सन्दर्भों के माध्यम से, कभी ‘अजन्मी बेटियाँ’ के माध्यम से। एक ठेठ हिन्दुस्तानी औरत का चेहरा लक्ष्मी बुआ का है जो रात-दिन मोबाईल, टी.वी., कम्प्यूटर में लगे रहने वाले अपने बेटे-बहु-बच्चों के बीच नितान्त उपेक्षित अकेलेपन से आजिज़ आकर भगवान से बस उठा लेने की प्रार्थना करती रहती है, वही कोविड में लॉकडाउन के दौरान सबके विपत्तिग्रस्त हो जाने पर जीवन के संग्राम में एक दम डट जाती है और भगवान से अपने परिवार के साथ-साथ अपनी ज़िन्दगी की भी दुआ करती है- “मैं जाना नहीं चाहती।” सुख सुविधाओं की, इत्मीनान की ज़िन्दगी जीने वाला वर्ग गरीबों को, खट कर खाने वाले मेहनतकशों को एक अभिशाप की तरह, एक समस्या की तरह देखता है, उसको सहसा लॉकडाउन के दौरान ऑन-लाइन डिबेट के बीच ‘भारत’ ने सूरत से, बम्बई से जेठ की लू और तपन में तपती सड़क पर सैकड़ों मील पैदल चलकर अपने गाँवों की ओर आते मज़दूरों को दिखाकर कहा- “यही मैं हूँ। मैं तो इन्हीं से हूँ ये मेरी रीढ़ हैं/मेरा दिल धड़कता है इन्हीं में/ जिन्हें अन्तहीन उपेक्षा मिली है।” तसलीमा नसरीन को सम्बोधित कविताएँ भी स्त्री-प्रतिवाद के स्वर को बल देती हैं।
—अवधेश प्रधान

‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ में नलिन जी, साहित्येतिहास के परंपरा निर्धारण में भारतीय बनाम पाश्चात्य परंपराओं का विशद् विवे...
24/06/2025

‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ में नलिन जी, साहित्येतिहास के परंपरा निर्धारण में भारतीय बनाम पाश्चात्य परंपराओं का विशद् विवेचन करते हैं और यह दिखाते हैं कि भारत में साहित्येतिहास की परंपरा पहले से विद्यमान रही है। कथा (आख्यान) और इतिहास के संबंध से वे प्राचीन भारतीय कथा परंपराओं में पालि, प्राकृत और अपभ्रंश में पाई जाने वाली कथाओं की वाचिक परंपरा के सहारे साहित्येतिहास की परंपरा को रेखांकित करते हैं। इस संबंध में वे जैनाचार्य जिनसेन, प्राकृत के उद्योतन सूरि, अपभ्रंश के पुष्पदंत आदि का उल्लेख करते हैं। नलिन जी विचार-दृष्टियों के आधार पर साहित्य की परम्पराओं का वर्गीकरण करते हुए पाँच धाराओं- भौतिकवाद, यथार्थता (यथार्थवाद), मानववाद, मानवतावाद और धार्मिकता का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार “आधुनिक हिन्दी साहित्य को ये पाँच सदानीरा धाराएँ सिंचित कर रही हैं।” साहित्य में टी. एस. इलियट के विचार-दर्शन को मानने और महत्व देने वाले नलिन जी भौतिकवाद, यथार्थवाद, मानववाद, मानवतावाद जैसी धाराओं का उल्लेख करने के साथ ही ‘धार्मिकता’ को पाँचवीं धारा के रूप में रखते हैं। यह संभवतः हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में एक नयी धारा की पहचान कराना और उसके महत्व पर बल देना है। पर, इस धारा के भविष्य को लेकर नलिन जी आश्वस्ति ज़ाहिर नहीं करते।
—विनोद तिवारी
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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