24/10/2025
IPS मैडम की उस रात ऑटो वाले ने मदद की थी...जब ऑटो वाले पर मुसीबत आई — IPS मैडम खुद थाने पहुँच गई!
पुणे रेलवे स्टेशन पर रात के करीब दस बज चुके थे। प्लेटफार्म नंबर तीन पर हलचल अभी भी जारी थी। ऑटो स्टैंड पर लगभग आठ सौ दस ऑटो वाले खड़े थे। कोई पान चबा रहा था, कोई मोबाइल में व्यस्त था, तो कोई खाली सवारी का इंतजार कर रहा था। उन्हीं में से एक था गोपाल। उम्र लगभग बत्तीस साल, साधारण कपड़े पहने, हल्की दाढ़ी लिए, थके हुए चेहरे पर भी आत्मसम्मान की चमक साफ झलक रही थी। गोपाल का दिन काफी लंबा रहा था, लेकिन उसकी आंखों में नींद नहीं थी। वह परेशान था। उसके पिता अस्पताल में भर्ती थे और इलाज के लिए हर दिन के कुछ सौ रुपये उसके लिए बेहद कीमती थे।
तभी एक महिला प्लेटफार्म से बाहर आई। कंधे पर बैग, हाथ में दो थैले और एक सूटकेस जिसे वह खींचती आ रही थी। चेहरे पर थकान थी, लेकिन आंखों में आत्मविश्वास। उसने कुछ ऑटो वालों से पूछा, लेकिन बाहरी सामान देखकर सभी ने मना कर दिया। गोपाल ने एक पल के लिए देखा, फिर बिना सोचे आगे बढ़ा। "मैडम, ऑटो चाहिए? कहां जाना है?" महिला ने गर्दन घुमा कर देखा, "कात्रज जाना है। बैग थोड़े ज्यादा हैं।" गोपाल मुस्कुराया, "मैडम, यह सामान आपका नहीं। अब मेरा जिम्मा है। बैठिए आराम से।" महिला थोड़ी चौकी, फिर हल्का मुस्कुराई। ऑटो चल पड़ा।
थोड़ी देर खामोशी रही। फिर गोपाल ने पूछा, "आप पुणे में नहीं हैं क्या, मैडम?" महिला ने सिर हिलाया, "अभी पोस्टिंग आई है मेरी।" गोपाल ने फिर पूछा, "कौन सी पोस्टिंग है? अगर बुरा ना माने तो।" महिला बोली, "मैं आईपीएस हूं। ट्रेनिंग पूरी की है और पहली पोस्टिंग यही पुणे में मिली है।" गोपाल कुछ पल चुप रहा, फिर हल्के स्वर में बोला, "बहुत अच्छा। सुनकर अच्छा लगा। मेरा भी सपना था पढ़ने का, लेकिन बाबूजी बीमार हो गए थे, सब कुछ छोड़ना पड़ा।" महिला ने उसकी तरफ देखा, "आपका नाम?" "गोपाल यादव।" महिला ने जेब से मोबाइल निकाला और नंबर सेव किया, "कभी जरूरत हो तो बताइएगा, मैं यहीं शहर में हूं।" गोपाल मुस्कुरा कर बोला, "शुक्रिया मैडम। शायद किस्मत दोबारा मिलने दे।"
रात की हवा और सन्नाटा दोनों गवाह बने उस छोटी सी बातचीत के। छह महीने बीत चुके थे। गोपाल की जिंदगी अब भी वैसे ही चल रही थी, मगर बाबूजी की बीमारी ने हालात और बदतर बना दिए थे। दवाइयों का खर्च, अस्पताल की फीस और दिन भर की कमाई, सब कुछ जैसे एक ताने-बाने में उलझ गया था। उस दिन भी गोपाल स्टेशन से दो सवारी छोड़कर लौट रहा था। तभी बीच रास्ते में दो हवलदारों ने उसे रोका। "अबे, बहुत तेज चला रहा था। कागज दिखा।" गोपाल ने विनम्रता से सारे कागजात दिखा दिए—लाइसेंस, आरसी, परमिट सब कुछ। फिर भी एक हवलदार गुर्राया, "हफ्ता नहीं दिया तूने दो हफ्तों से, भूल गया क्या नियम?" गोपाल ने हाथ जोड़ लिए, "सर, बाबूजी अस्पताल में हैं, पिछले हफ्ते बहुत खर्चा हो गया, इस बार पक्का दे दूंगा।" दूसरा हवलदार बोला, "बहुत बोल रहा है यह, थप्पड़ पड़ेगा तभी समझेगा।" गोपाल कुछ कहता, इससे पहले ही एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा। ऑटो जब्त कर लिया गया। भीड़ खड़ी थी, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा। एक ईमानदार इंसान की गरिमा को यूं सरेआम रौंदा गया जैसे वह कोई गलती ही नहीं थी।
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