
01/10/2025
टीटी ने बिना बूढ़े यात्री का टिकट खुद दिया और सीट दी , कुछ साल बाद एक चिट्ठी आयी उसने सब कुछ बदल दिया
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लखनऊ का चारबाग स्टेशन, जहां हर दिन हजारों यात्री आते-जाते हैं। इसी भीड़ में एक साधारण सा इंसान था – अशोक। रेलवे में टीटी, उम्र 35 साल, नीली वर्दी में हर रोज ट्रेनों में टिकट चेक करता, यात्रियों की समस्याएँ सुलझाता और उनकी मदद करता। उसके चेहरे पर ड्यूटी की थकान थी, लेकिन आँखों में हमेशा मदद की चमक रहती थी।
अशोक का सपना
अशोक का परिवार लखनऊ के बाहरी इलाके आलमबाग में एक छोटे से घर में रहता था। उसकी पत्नी सरिता एक स्कूल में चपरासी थी, और उनका 10 साल का बेटा रोहन पढ़ाई में बहुत तेज था। अशोक का सपना था कि रोहन एक दिन बड़ा अफसर बने और वह अपने गाँव बाराबंकी में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोले। मगर उसकी तनख्वाह इतनी कम थी कि रोहन की फीस और घर का खर्च मुश्किल से पूरा होता था। फिर भी अशोक हमेशा कहता, “जब तक मेरे पास मेहनत है, मेरे रोहन का भविष्य सुनहरा होगा।”
एक रात, एक अनजान यात्री
जुलाई की एक उमस भरी रात थी। लखनऊ-दिल्ली एक्सप्रेस चारबाग स्टेशन से रवाना होने वाली थी। ट्रेन में भीड़ थी, हर डिब्बे में यात्रियों की धक्कामुक्की चल रही थी। अशोक अपनी ड्यूटी पर था और स्लीपर कोच में टिकट चेक कर रहा था। तभी उसकी नजर एक डिब्बे में बर्थ के पास खड़े एक यात्री पर पड़ी, जिसकी उम्र लगभग 50 साल थी। उसके कपड़े साधारण थे, चेहरा थकान से भरा था, और वह पसीने से तर था।
अशोक ने मुस्कुराकर उससे टिकट मांगा। यात्री ने सिर झुकाया, “साहब, मेरे पास टिकट नहीं है। मुझे दिल्ली जाना बहुत जरूरी है। मेरी बेटी दिल्ली के अस्पताल में है। मेरे पास पैसे नहीं थे टिकट लेने के लिए।” अशोक ने उसकी आंखों में गहरी बेचैनी देखी। उसने अपनी जेब में हाथ डाला, जहाँ रोहन की फीस के पैसे रखे थे। लेकिन सुरेंद्र की हालत देखकर अशोक ने अपनी सीट उसे दे दी, अपने पैसे से उसका टिकट बनवाया, पानी की बोतल और कुछ बिस्किट दिए।
सुरेंद्र की आँखें नम हो गईं, “साहब, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूलूँगा। मेरा पता नोट कर लीजिए, मैं आपके पैसे जरूर लौटाऊँगा।” अशोक ने हँसकर कहा, “कोई बात नहीं सुरेंद्र जी, आप अपनी बेटी के पास पहुँचो, यही मेरे लिए काफी है।”
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