Dharmik doot

Dharmik doot सनातन ही सत्य है

02/09/2024
31/08/2024

जब रावण ने माता सीता को छुआ ही नहीं तो फिर उनका हरण केसे हुआ | और आज तक हम लोगों को झूठ क्यू दिखाया जाता है |

31/08/2024

जब रावण ने माता सीता को छुआ ही नहीं तो फिर उनका हरण केसे हुआ | और आज तक हम लोगों को झूठ क्यू बताया जाता है

24/08/2024

*🌳 परहित का चिंतन 🌳*

एक राजा था जिसे शिल्प कला अत्यंत प्रिय थी। वह मूर्तियों की खोज में देस-परदेस जाया करता थे। इस प्रकार राजा ने कई मूर्तियाँ अपने राज महल में लाकर रखी हुई थी और स्वयं उनकी देख रेख करवाते।

सभी मूर्तियों में उन्हें तीन मूर्तियाँ जान से भी ज्यादा प्यारी थी। सभी को पता था कि राजा को उनसे अत्यंत लगाव हैं।

एक दिन जब एक सेवक इन मूर्तियों की सफाई कर रहा था तब गलती से उसके हाथों से उनमें से एक मूर्ति टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो उन्हें बहुत क्रोध आया और उन्होंने उस सेवक को तुरन्त मृत्युदण्ड दे दिया।

सजा सुनने के बाद सेवक ने तुरन्त अन्य दो मूर्तियों को भी तोड़ दिया। यह देख कर सभी को आश्चर्य हुआ।

राजा ने उस सेवक से इसका कारण पूछा,तब उस सेवक ने कहा - "महाराज !! क्षमा कीजियेगा, यह मूर्तियाँ मिट्टी की बनी हैं, अत्यंत नाजुक हैं। अमरता का वरदान लेकर तो आई नहीं हैं। आज नहीं तो कल टूट ही जाती अगर मेरे जैसे किसी प्राणी से टूट जाती तो उसे अकारण ही मृत्युदंड का भागी बनना पड़ता। मुझे तो मृत्यु दंड मिल ही चुका हैं इसलिए मैंने ही अन्य दो मूर्तियों को तोड़कर उन दो व्यक्तियों की जान बचा ली।

यह सुनकर राजा की आँखे खुली की खुली रह गई उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सेवक को सजा से मुक्त कर दिया।

सेवक ने उन्हें साँसों का मूल्य सिखाया, साथ ही सिखाया की न्यायाधीश के आसन पर बैठकर अपने निजी प्रेम के चलते छोटे से अपराध के लिए मृत्युदंड देना उस आसन का अपमान हैं। एक उच्च आसन पर बैठकर हमेशा उसका आदर करना चाहिये। राजा हो या कोई भी अगर उसे न्याय करने के लिए चुना गया हैं तो उसे न्याय के महत्व को समझना चाहिये।

मूर्ति से राजा को प्रेम था लेकिन उसके लिए सेवक को मृत्युदंड देना न्याय के विरुद्ध था। न्याय की कुर्सी पर बैठकर किसी को भी अपनी भावनाओं से दूर हट कर फैसला देना चाहिये।

राजा को समझ आ गया कि मुझसे कई गुना अच्छा तो वो यह सेवक था जिसने मृत्यु के इतना समीप होते हुए भी परहित का सोचा..!!

राजा ने सेवक से पूछा कि अकारण मृत्यु को सामने पाकर भी तुमने ईश्वर को नही कोसा, तुम निडर रहे, इस संयम, समस्वस्भाव तथा दूरदृष्टि के गुणों के वहन की युक्ति क्या है।

सेवक ने बताया कि आपके यहाँ काम करने से पहले मैं एक अमीर सेठ के यहां नौकर था। मेरा सेठ मुझसे तो बहुत खुश था लेकिन जब भी कोई कटु अनुभव होता तो वह ईश्वर को बहुत गालियाँ देता था ।

एक दिन सेठ ककड़ी खा रहा था । संयोग से वह ककड़ी कड़वी थी । सेठ ने वह ककड़ी मुझे दे दी । मैंने उसे बड़े चाव से खाया जैसे वह बहुत स्वादिष्ट हो ।

सेठ ने पूछा – “ ककड़ी तो बहुत कड़वी थी । भला तुम ऐसे कैसे खा गये ?”

तो मैने कहा – “ सेठ जी आप मेरे मालिक है । रोज ही स्वादिष्ट भोजन देते है । अगर एक दिन कुछ कड़वा भी दे दिए तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है।"

राजा जी इसी प्रकार अगर ईश्वर ने इतनी सुख–सम्पदाएँ दी है, और कभी कोई कटु अनुदान दे भी दे तो उसकी सद्भावना पर संदेह करना ठीक नहीं ।जन्म,जीवनयापन तथा मृत्यु सब उसी की देन है।

असल में यदि हम समझ सके तो जीवन में जो कुछ भी होता है, सब ईश्वर की दया ही है । ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए ही करता है..!! यदि सुख दुख को ईश्वर का प्रसाद समझकर संयम से ग्रहण करें तथा हर समय परिहित का चिंतन करे।

21/08/2024

*🍁 त्याग का सम्मान 🍁*

एक समय की बात है। एक नगर में एक कंजूस राजेश नामक व्यक्ति रहता था।

उसकी कंजूसी सर्वप्रसिद्ध थी। वह खाने, पहनने तक में भी कंजूस था।

एक बात उसके घर से एक कटोरी गुम हो गई। इसी कटोरी के दुःख में राजेश ने 3 दिन तक कुछ न खाया। परिवार के सभी सदस्य उसकी कंजूसी से दुखी थे।

मोहल्ले में उसकी कोई इज्जत न थी, क्योंकि वह किसी भी सामाजिक कार्य में दान नहीं करता था।

एक बार उस राजेश के पड़ोस में धार्मिक कथा का आयोजन हुआ। वेदमंत्रों व् उपनिषदों पर आधारित कथा हो रही थी। राजेश को सद्बुद्धि आई तो वह भी कथा सुनने के लिए सत्संग में पहुँच गया।

वेद के सिद्धांतों को सुनकर उसको भी रस आने लगा क्योंकि वैदिक सिद्धान्त व्यावहारिक व् वास्तविकता पर आधारित एवं सत्य-असत्य का बोध कराने वाले होते है।

कंजूस को ओर रस आने लगा। उसकी कोई कदर न करता फिर भी वह प्रतिदिन कथा में आने लगा।

कथा के समाप्त होते ही वह सबसे पहले शंका पूछता। इस तरह उसकी रूचि बढती गई।

वैदिक कथा के अंत में लंगर का आयोजन था इसलिए कथावाचक ने इसकी सूचना दी कि कल लंगर होगा। इसके लिए जो श्रद्धा से कुछ भी लाना चाहे या दान करना चाहे तो कर सकता है।

अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सभी लोग कुछ न कुछ लाए। कंजूस के हृदय में जो श्रद्धा पैदा हुई वह भी एक गठरी बांध सर पर रखकर लाया।

भीड़ काफी थी। कंजूस को देखकर उसे कोई भी आगे नहीं बढ़ने देता। इस प्रकार सभी दान देकर यथास्थान बैठ गए।

अब कंजूस की बारी आई तो सभी लोग उसे देख रहे थे। कंजूस को विद्वान की ओर बढ़ता देख सभी को हंसी आ गई क्योंकि सभी को मालूम था कि यह महाकंजूस है।

उसकी गठरी को देख लोग तरह-तरह के अनुमान लगाते ओर हँसते, लेकिन कंजूस को इसकी परवाह न थी।

कंजूस ने आगे बढ़कर विद्वान ब्राह्मण को प्रणाम किया। जो गठरी अपने साथ लाया था, उसे उसके चरणों में रखकर खोला तो सभी लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई।

कंजूस के जीवन की जो भी अमूल्य संपत्ति गहने, जेवर, हीरे-जवाहरात आदि थे उसने सब कुछ को दान कर दिया।

उठकर वह यथास्थान जाने लगा तो विद्वान ने कहा, “यजमान! आप वहाँ नहीं, यहाँ बैठिये।”

कंजूस बोला, “पंडित जी! यह मेरा आदर नहीं है, यह तो मेरे धन का आदर है, अन्यथा मैं तो रोज आता था और यही पर बैठता था, तब मुझे कोई न पूछता था।”

ब्राह्मण बोला, “नहीं, यजमान! यह आपके धन का आदर नहीं है, बल्कि आपके महान त्याग (दान) का आदर है।

यह धन तो थोड़ी देर पहले आपके पास ही था, तब इतना आदर-सम्मान नहीं था जितना की अब आपके त्याग (दान) में है इसलिए आप आज से एक सम्मानित व्यक्ति बन गए है।

शिक्षा :- मनुष्य को कमाना भी चाहिए और दान भी अवश्य देना चाहिए। इससे उसे समाज में सम्मान और इष्टलोक तथा परलोक में पुण्य मिलता है।

20/08/2024

*🌳 चोरी का दंड 🌳*

*एक समय कांचीपुर नामक गांव में वज्र नाम का एक चोर रहता था।*
*चोर नाम के भांति ही वज्र ह्रदय का था। उसे जिसका जो मिलता चुरा लेता। उसे तनिक भी दया नहीं आती थी कि उस सामान के स्वामी को कितना कष्ट होगा !*
*वह चुराए हुए धन को सिपाहियों के भय से जंगल में जमीन के अंदर छुपा देता था !*
*एक रात विरदत्त नाम के लकड़हारे ने ये घटना देख ली। और चोर के जाने के पश्चात जमीन खोद कर उसके चुराए हुए धन का दसवां हिस्सा निकाल लिया और गड्ढे को पहले की भांति ढक दिया।*
*लकड़हारा इतनी चालाकी से सामान निकलता की चोर को इस चोरी का पता ही नहीं चल पता था।*

*एक दिन लकड़हारा अपनी पत्नी को धन देते हुए बोला, कि तुम रोज धन माँगा करती थी, लो आज पर्याप्त धन इक्कठा हो गया है।*
*उसकी पत्नी ने कहा, जो धन अपने परिश्रम से उपार्जित न किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है। इसलिए इस धन को जनता की भलाई में लगा दीजिये।*
*विरदत्त को भी ये बात जच गयी ! इसलिए उसने इस धन से एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया जिसका पानी कभी भी नहीं सूखता था।*
*लेकिन इसमें सीढ़िया लगनी रह गयी थी और सारे पैसे समाप्त हो गये थे।*
*तो वह फिर से छिपकर चोर का अनुसरण करने लगा की वह धन कहा छुपाता है। इसके बाद फिर उससे दसवां हिस्सा निकाल कर तालाब का काम पूरा करवाया !*
*तथा उसने भगवान शंकर और भगवान विष्णु के भव्य मंदिर बनवाए। बंजर जमीन पर खेत बनवाये और गरीबों में वितरित कर दिया।*
*गरीबों ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम द्विजवर्मा रखा ।*
*जब द्विजवर्मा की मृत्यु हुई तब एक ओर से यमदूत आये और एक ओर से भगवान शंकर के गण आये। उनमे आपस में विवाद होने लगा इसी बीच वहां नारद जी पधारे।*
*नारद जी ने उनको समझाया, आप विवाद न करें इस लकड़हारे ने चोरी के धन से परोपकार के कामों को कराया है...*
*इसलिए जब तक यह कुमार्ग से अर्जित धन का प्रायश्चित नहीं कर लेता तब तक वायु रूप में अंतरिक्ष में विचरण करता रहेगा।*
*नारद जी की बात सुनकर सभी दूत वापस लौट गए तथा द्विजवर्मा बारह वर्षों तक प्रेत बनकर घूमता रहा।*
*नारद जी ने लकड़हारे की पत्नी से कहा, तुम ने अपने पति को सदमार्ग दिखाया इसलिए तुम ब्रम्ह्लोक जाओगी।*
*लेकिन लकड़हारे की पत्नी अपने पति के दुःख से दुखी थी। वह देवर्षि से बोली, जब तक मेरे पति को देह नहीं मिलती तब तक मैं यही रहूंगी।*

*जो गति मेरे पति की हुई वही गति मैं भी चाहती हूँ !*
*ये बातें सुनकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बताया की तुम अपने पति की मुक्ति के लिए शिव की आराधना करो।*
*उसने अपने पति की मुक्ति के लिए अथक मेहनत से भगवान शिव की आराधना की।*
*इससे उसके पति के चोरी का सारा पाप धूल गया। फिर दोनों पति पत्नी को उत्तम लोक मिला।*
*इस पौराणिक सत्य कथा का निष्कर्ष यही है की कोई भला काम करने का अच्छा फल जरूर मिलता है लेकिन कोई भला काम करने के लिए कभी किसी गलत काम का सहारा नही लेना चाहिए...*
*अन्यथा उस गलत काम का भी दंड जिंदा रहते या मरने के बाद जरूर भुगतना पड़ता है !*

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19/08/2024

🕉 सत्यनारायण भगवान कौन है | 🔱यह किन का रूप है 🕉👇👇
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https://youtu.be/4gEVt4eU3KE?si=gTz0VfPrXuKZHeBP
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17/08/2024

Jai shree Ram

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