bhagwat geeta

bhagwat geeta Sharing the timeless wisdom of the Bhagavad Gita in simple words. A spiritual journey to understand and uplift life.

06/05/2025

महाभारत का छठा पर्व — भीष्म पर्व — सरल भाषा में
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1. युद्ध की शुरुआत

कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं।
सूर्य देवता अपनी लालिमा फैला रहे थे।
घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों की गड़गड़ाहट, सैनिकों के हुंकारों से पूरा क्षेत्र गूंज उठा था।

युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने रथ से उतरकर भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य जैसे बड़ों के पास जाकर आशीर्वाद माँगा।
उन्होंने कहा:

> "मैं धर्मयुद्ध कर रहा हूँ, इसलिए आपसे आशीर्वाद चाहता हूँ।"

भीष्म और द्रोण ने आशीर्वाद देते हुए कहा:

> "जाओ, विजय तुम्हारी होगी, क्योंकि तुम्हारा उद्देश्य धर्म पर आधारित है।"

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2. अर्जुन का मोह

युद्ध शुरू होने से ठीक पहले अर्जुन ने जब अपनी ही कुल के बड़े-बुजुर्ग, गुरुजन और भाई-बंधु दोनों ओर देखे, तो उसका हृदय भर आया।

अर्जुन ने गांडीव नीचे रख दिया और श्रीकृष्ण से कहा:

> "हे केशव! मैं अपने ही बंधु-बांधवों को कैसे मार सकता हूँ?
मुझे राज्य, सुख या विजय नहीं चाहिए।"

उसकी आँखों में आँसू थे।
उसके हाथ काँपने लगे।
वह युद्ध करने से इंकार करने लगा।

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3. श्रीकृष्ण का गीता उपदेश

तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म का सच्चा ज्ञान दिया।

यही उपदेश आज भगवद गीता के नाम से अमर है।

कृष्ण ने कहा:

> "हे अर्जुन! तू शरीर नहीं है, आत्मा है। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है।
तू अपने स्वधर्म का पालन कर।
युद्ध धर्म का कर्तव्य है — अधर्म के विरुद्ध धर्म की स्थापना के लिए।"

उन्होंने यह भी कहा:

> "कर्म कर, फल की इच्छा मत कर।"

कृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप भी दिखाया —
जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड उनके अंदर समाया हुआ दिखाई दिया।

यह अद्भुत दर्शन देखकर अर्जुन का मोह भंग हो गया।
उसने अपना गांडीव उठाया और कहा:

> "हे माधव! अब मेरा सारा संशय दूर हो गया।
मैं आपके आदेश से युद्ध करूँगा।"

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4. युद्ध का आरंभ

शंखनाद हुआ।
भीष्म ने अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया।

पांडवों और कौरवों की सेनाएँ आमने-सामने भिड़ गईं।
चारों ओर अस्त्र-शस्त्र चलने लगे।
धरती काँपने लगी।

भीम और अर्जुन ने शत्रु दल में भारी संहार मचाया।
कौरव पक्ष में भी कर्ण, दु:शासन, अश्वत्थामा ने भयंकर युद्ध किया।

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5. भीष्म का विकराल रूप

भीष्म ने युद्ध के मैदान में प्रचंड विकराल रूप धारण कर लिया।
उन्होंने अकेले ही पांडवों की सेना के हजारों योद्धाओं का संहार कर दिया।

भीष्म के सामने कोई टिक नहीं पा रहा था।

अर्जुन, भीम, धृष्टद्युम्न, शिखंडी — सभी प्रयास करते रहे, लेकिन भीष्म को पराजित करना असंभव हो रहा था।

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6. युद्ध के नियम

युद्ध के पहले नियम तय हुए थे:

सूरज ढलने के बाद युद्ध नहीं होगा।

घायल योद्धा पर वार नहीं किया जाएगा।

निहत्थे पर हमला नहीं होगा।

लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, क्रोध और प्रतिशोध की भावना नियमों को भुला देने लगी।

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7. प्रथम दिन का युद्ध

पहले दिन कौरव सेना ने पांडव पक्ष पर भयंकर आक्रमण किया।

भीष्म के नेतृत्व में कौरवों ने पांडवों को बहुत हानि पहुँचाई।

लेकिन भीम और अर्जुन ने भी कौरव पक्ष के कई महत्त्वपूर्ण योद्धाओं को घायल कर दिया।

दिन के अंत में दोनों पक्ष भारी हानि के साथ लौटे।

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8. संजय का वर्णन

धृतराष्ट्र ने संजय से युद्ध का हाल पूछा।

संजय ने दिव्य दृष्टि से युद्ध का पूरा हाल देखा और धृतराष्ट्र को सुनाया।

संजय ने कहा:

> "हे राजन! धर्म पांडवों के पक्ष में है।
भीष्म का प्रताप अद्भुत है, लेकिन पांडव भी पराक्रमी हैं।
युद्ध में भारी संहार हो रहा है।"

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9. दिन-प्रतिदिन युद्ध की स्थिति

हर दिन युद्ध और अधिक उग्र होता गया।

भीष्म के प्रचंड आक्रमणों के बावजूद पांडवों ने भी साहस नहीं छोड़ा।

भीम ने अपने गदा प्रहार से अनेक कौरव सैनिकों को मार गिराया।

अर्जुन ने अपनी दिव्य अस्त्र विद्या से शत्रुओं को घेर लिया।

धृष्टद्युम्न, शिखंडी, अभिमन्यु, नकुल, सहदेव भी वीरता से लड़ते रहे।

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10. शिखंडी की भूमिका

भीष्म ने शिखंडी को युद्ध में देखा तो शस्त्र नहीं उठाए।
क्योंकि भीष्म ने प्रतिज्ञा ली थी कि वे शिखंडी पर अस्त्र नहीं चलाएंगे (क्योंकि शिखंडी स्त्री रूप से जन्मा था)।

अर्जुन ने इस अवसर का लाभ उठाया।
शिखंडी को आगे कर भीष्म पर बाणों की वर्षा की।

अर्जुन ने भीष्म पर इतने तीखे बाण चलाए कि उनका शरीर छलनी हो गया।

भीष्म रथ से गिर पड़े, लेकिन पृथ्वी पर नहीं गिरे।
उनके शरीर में इतने बाण लगे थे कि वे बाणों की शय्या (सेज) पर टिके रहे।

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11. भीष्म का पतन

भीष्म पृथ्वी पर नहीं गिरे।
उनका शरीर बाणों पर अटका रहा।

सारा युद्ध रुक गया।

भीष्म ने कहा:

> "मैं इच्छा मृत्यु वाला हूँ।
मैं तब तक प्राण नहीं छोड़ूँगा जब तक सूर्य उत्तरायण में प्रवेश नहीं करेगा।"

भीष्म ने अर्जुन से जल मांगा।
अर्जुन ने एक बाण चलाया, जिससे गंगा जल निकल आया और भीष्म के मुख में प्रवेश किया।

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12. भीष्म का उपदेश

भीष्म ने अंतिम समय में युधिष्ठिर को धर्म का गहरा उपदेश दिया।

उन्होंने कहा:

> "धर्म का पालन करो, न्याय और सत्य के मार्ग पर चलो।
क्रोध और लोभ से दूर रहो।
राज्य उसी का टिकता है जो प्रजा की भलाई के लिए कार्य करता है।"

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13. युद्ध जारी

भीष्म के गिरने से पांडवों का उत्साह बढ़ा, लेकिन युद्ध रुका नहीं।

अब द्रोणाचार्य को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया।

युद्ध और भी भयंकर होता गया।

द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह जैसी दिव्य व्यूह रचनाएँ बनानी शुरू कर दीं।
(यह चक्रव्यूह आगे चलकर अभिमन्यु की वीरगति का कारण बना।)

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14. युद्ध का बढ़ता विकराल रूप

कृष्ण की रणनीति से पांडव सेना धीरे-धीरे विजय की ओर बढ़ने लगी थी।
लेकिन अभी भी कर्ण, अश्वत्थामा, दु:शासन जैसे योद्धा कड़े प्रतिरोध कर रहे थे।

भीम ने अनेक कौरव भाइयों को मार गिराया।

अर्जुन ने कई रथियों और हाथियों को नष्ट कर दिया।

रक्त की नदियाँ बहने लगीं।
मृतकों के शव से युद्ध भूमि पट गई थी।

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05/05/2025

महाभारत का पाँचवाँ पर्व — उद्योग पर्व — सरल भाषा में

1. पांडवों का धर्मयुद्ध का संकल्प

विराट नगर में अज्ञातवास पूरा करने के बाद पांडवों ने सभा बुलाई।

अब प्रश्न था — क्या सीधे युद्ध करें या पहले शांति का प्रयास करें?

युधिष्ठिर ने कहा कि हम पहले शांति से अपना राज्य मांगेंगे।
अगर दुर्योधन मानेगा तो अच्छा, वरना युद्ध तो अंतिम रास्ता रहेगा।

इसलिए कृष्ण को शांति दूत बनाकर भेजने का निश्चय किया गया।

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2. युद्ध की संभावनाएँ

द्रौपदी ने सभा में अपनी व्यथा सुनाई — कैसे दुर्योधन ने उसे सभा में अपमानित किया था।
भीम ने प्रतिज्ञा की —
"मैं दुर्योधन की जांघें तोड़ूंगा।"
अर्जुन ने प्रतिज्ञा की —
"मैं कर्ण और अन्य कौरव वीरों का संहार करूंगा।"

पूरा माहौल युद्ध की भावना से भर उठा, लेकिन फिर भी तय हुआ कि पहले दूतावास द्वारा शांति का प्रयास होना चाहिए।

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3. कौरवों की तैयारी

इधर हस्तिनापुर में दुर्योधन भी युद्ध की तैयारी में जुट गया।

उसने सेनाएँ इकट्ठा करना शुरू कर दिया।

द्रुपद, विराट और अन्य राजा भी पांडवों के पक्ष में सेनाएँ जुटा रहे थे।

सब ओर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे।

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4. कृष्ण का प्रस्ताव

पांडवों और कौरवों दोनों ने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी।

कृष्ण ने दोनों पक्षों के सामने एक शर्त रखी:

एक पक्ष मेरी सेना (नारायणी सेना) को ले सकता है।

दूसरा पक्ष मुझे ले सकता है, लेकिन मैं शस्त्र नहीं उठाऊंगा।

दुर्योधन ने तुरंत कृष्ण की विशाल सेना माँग ली।
अर्जुन ने कहा — "मुझे केवल आपको चाहिए, बिना शस्त्र उठाए भी।"

कृष्ण मुस्कुराए — यह अर्जुन की महानता थी कि उसने सेना के बजाय भगवान को चुना।

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5. शांति का आखिरी प्रयास

कृष्ण दूत बनकर हस्तिनापुर पहुँचे।
उन्होंने भरी सभा में दुर्योधन से कहा:

> "हे दुर्योधन! पांडव तुमसे पूरा राज्य नहीं मांगते।
यदि तुम पाँच गांव भी उन्हें दे दो — तो वे युद्ध नहीं करेंगे।"

लेकिन दुर्योधन घमंड में भरकर बोला:

> "मैं पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा।
युद्ध अवश्य होगा!"

सभा में भीष्म, विदुर, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने दुर्योधन को समझाया,
लेकिन वह नहीं माना।

कृष्ण समझ गए कि अब युद्ध निश्चित है।

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6. दुर्योधन का अहंकार

जब कृष्ण ने शांति प्रस्ताव रखा था,
दुर्योधन ने उन्हें बंदी बनाने की योजना भी बनाई थी!

लेकिन कृष्ण ने अपने विराट रूप का दर्शन करवाया।
पूरा दरबार चमक उठा।
धरती, आकाश, देवता, राक्षस — सब एक ही शरीर में दिखाई दिए।

दुर्योधन और उसकी सेना भयभीत हो गई।

कृष्ण ने कहा —
"मैं समय हूँ। जो अन्याय के साथ चलेगा, उसका नाश निश्चित है।"

इसके बाद कृष्ण हस्तिनापुर से लौट आए।

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7. सेनाएँ तैयार

अब दोनों पक्षों ने अपनी सेनाओं को अंतिम रूप दिया।

पांडवों के पक्ष में:

द्रुपद

विराट

धृष्टद्युम्न

शिखंडी

भीम

अर्जुन

नकुल

सहदेव

अभिमन्यु

कौरवों के पक्ष में:

भीष्म

द्रोणाचार्य

कृपाचार्य

अश्वत्थामा

कर्ण

शकुनि

दु:शासन

जयद्रथ

और सौ भाइयों की सेना

लगभग अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ (करीब 40 लाख सैनिक) युद्ध के लिए एकत्रित हो चुकी थीं।

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8. पांडवों की रणनीति

युधिष्ठिर ने सेना को सात अक्षौहिणी में विभाजित किया।
प्रत्येक भाग के नायक बनाए:

धृष्टद्युम्न को प्रधान सेनापति चुना गया।

धृष्टद्युम्न ने कहा:

> "हम धर्म के लिए युद्ध करेंगे।
हमारी जीत सत्य, अहिंसा और धर्म पर आधारित होगी।"

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9. भीष्म की प्रतिज्ञा

कौरवों की सेना का सेनापति भीष्म पितामह को बनाया गया।

भीष्म ने घोषणा की:

> "जब तक मैं जीवित रहूंगा, पांडवों की विजय असंभव है।
परंतु मैं शिखंडी पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा।"

(भीष्म जानते थे कि शिखंडी वास्तव में अम्बा का पुनर्जन्म है, जिनसे उनकी पुरानी शत्रुता थी।)

यह सुनकर पांडवों को भीष्म को मारने की रणनीति सूझी।

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10. युद्ध भूमि का चयन

कुरुक्षेत्र को युद्ध भूमि चुना गया।

यह स्थान धर्मभूमि था — यानी जहाँ धर्म और न्याय की रक्षा के लिए युद्ध करना पुण्य माना जाता था।

यहीं पर महाभारत का महायुद्ध लड़ा जाना तय हुआ।

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11. अंतिम दूत

युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने फिर से शांति का प्रयास किया।

उन्होंने संजय को हस्तिनापुर भेजा ताकि एक बार और दुर्योधन को समझाया जा सके।

संजय ने कौरव दरबार में जाकर दुर्योधन से कहा:

> "यह तुम्हारा अंतिम अवसर है।
अहंकार छोड़ दो और शांति से राज्य का बँटवारा स्वीकार करो।
वरना महाविनाश निश्चित है।"

लेकिन दुर्योधन ने कहा:

> "युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं है!"

संजय लौटकर युधिष्ठिर को सब बताया।
पांडवों ने युद्ध की तैयारियाँ पूरी कर लीं।

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12. कर्ण का अभिशाप और सच्चाई

कृष्ण ने कर्ण से भी व्यक्तिगत रूप से मिलकर उसे पांडवों का भाई होने का रहस्य बताया।

कृष्ण ने कहा:

> "तुम कुन्ती पुत्र हो। तुम्हारा जन्म पांडवों से पहले हुआ।
तुम्हारा धर्म है पांडवों का साथ देना।"

लेकिन कर्ण ने मना कर दिया।
उसने कहा:

> "मैंने जीवनभर दुर्योधन का साथ दिया है।
अब युद्ध में भी मैं उसका साथ दूँगा, चाहे मृत्यु ही क्यों न मिले।"

कृष्ण कर्ण की निष्ठा देखकर भावुक हो गए।
उन्होंने कर्ण को आशीर्वाद दिया।

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13. धर्म और अधर्म की युद्धभूमि

दोनों ओर से विशाल सेना कुरुक्षेत्र में एकत्र हो गई थी।

शंख बज उठे।

घोड़े हिनहिनाने लगे।
रथों की गड़गड़ाहट से पृथ्वी काँप उठी।
आकाश घोषित हो गया — धर्म और अधर्म के बीच महासंग्राम अब आरंभ होने को था।

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14. गीता का जन्म निकट

इसी कुरुक्षेत्र की भूमि पर — युद्ध शुरू होने से ठीक पहले — अर्जुन को मोह हुआ।
वह अपने संबंधियों को देखकर विचलित हो गया।

वह युद्ध छोड़ने को तैयार हो गया।

तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया —
जो आज भी संसार के सबसे महान ग्रंथों में से एक है।

लेकिन वह प्रसंग अगले (भीष्म पर्व) में विस्तार से आता है।

महाभारत का तीसरा पर्व — वनपर्व — सरल भाषा में ---1. वनवास की शुरुआतजब पांडव जुए में सब कुछ हार गए,तो उन्हें बारह वर्ष का...
03/05/2025

महाभारत का तीसरा पर्व — वनपर्व — सरल भाषा में
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1. वनवास की शुरुआत

जब पांडव जुए में सब कुछ हार गए,
तो उन्हें बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भुगतना पड़ा।

द्रौपदी ने खुले दरबार में अपमान सहा था,
इसलिए उनके हृदय में अपार पीड़ा थी।

पांडव भारी मन से अपने सुंदर महलों को छोड़कर जंगल की ओर चल पड़े।

हस्तिनापुर के नागरिक भी उनका साथ देना चाहते थे,
लेकिन युधिष्ठिर ने सबको लौटने का आदेश दिया।

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2. विदुर का संदेश

विदुर पांडवों से मिलने आए।

उन्होंने कहा, "यह समय सहनशीलता का है।
धैर्य और धर्म का पालन करना ही तुम्हारी शक्ति है।"

विदुर ने भविष्यवाणी भी की —
"एक दिन तुम्हारा समय अवश्य आएगा।"

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3. ऋषियों का आशीर्वाद

पांडवों ने वनवास के दौरान कई ऋषियों का सान्निध्य प्राप्त किया।

ऋषि व्यास ने आकर उन्हें समझाया कि वनवास केवल दुःख नहीं है,
यह तपस्या, ज्ञान और भविष्य की विजय की तैयारी है।

व्यास ने उन्हें अनेक पवित्र कथाएँ भी सुनाईं।

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4. अर्जुन का दिव्यास्त्र प्राप्त करना

श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने सोचा कि यदि भविष्य में महायुद्ध हुआ,
तो उसे दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता होगी।

व्यासजी की मदद से अर्जुन ने हिमालय की ओर प्रस्थान किया।

उन्होंने वहाँ तपस्या की और इंद्रदेव को प्रसन्न किया।

इंद्र ने अर्जुन को स्वर्ग बुलाया और वहाँ उसे दिव्य अस्त्र,
गांडीव धनुष और अन्य चमत्कारी शक्तियाँ प्रदान कीं।

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5. कीचक का अत्याचार

वनवास के दौरान पांडव विराट नगर भी पहुँचे।

वहाँ कीचक नामक बलशाली सेनापति ने द्रौपदी (जो वहाँ दासी के वेश में थी) पर बुरी दृष्टि डाली।

द्रौपदी ने भीम से सहायता मांगी।

भीम ने रात को कीचक को अकेले में पकड़कर पीस डाला।

कीचक की मृत्यु से विराट नगर में हाहाकार मच गया।

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6. द्रौपदी का धैर्य और संघर्ष

द्रौपदी वनवास में भी अपमान और पीड़ा झेलती रही।

लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी।
उसने युधिष्ठिर से बार-बार पूछा कि कब वे अपने अपमान का बदला लेंगे।

युधिष्ठिर धैर्यपूर्वक उसे समझाते रहे —
"समय आने पर ही युद्ध होगा। अधर्म के नाश में देर हो सकती है, पर अंधकार सदा के लिए नहीं रहता।"

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7. भीम का गंधर्व युद्ध

वनवास के दौरान एक बार एक गंधर्व ने पांडवों का रास्ता रोका।

भीम ने अकेले उस गंधर्व से युद्ध किया और उसे पराजित कर दिया।

गंधर्व ने क्षमा माँगी और पांडवों को आशीर्वाद दिया।

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8. द्रौपदी का श्रीकृष्ण से संवाद

द्रौपदी एक बार बहुत दुखी हुई और श्रीकृष्ण का स्मरण किया।

कृष्ण वन में आए और द्रौपदी को आश्वासन दिया।

उन्होंने कहा —
"जो अन्याय आज हुआ है, उसका प्रतिशोध अवश्य लिया जाएगा।
अधर्म का अंत निश्चित है।"

यह सुनकर द्रौपदी को बहुत सांत्वना मिली।

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9. यक्ष प्रश्न

वनवास के समय एक बहुत प्रसिद्ध घटना घटी — यक्ष प्रश्न।

एक दिन पांडवों को प्यास लगी।

नकुल, सहदेव, अर्जुन, भीम — सभी पानी लेने गए लेकिन एक अदृश्य यक्ष ने उन्हें रोका।

उसने प्रश्न पूछे — यदि बिना उत्तर दिए पानी पिया तो मृत्यु निश्चित।

चारों भाइयों ने प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया और मूर्छित हो गए।

युधिष्ठिर अंत में पहुँचे।

यक्ष ने गहरे और धर्म से जुड़े प्रश्न पूछे, जिनका युधिष्ठिर ने अत्यंत बुद्धिमानी से उत्तर दिया।

उदाहरण के लिए:

यक्ष: जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?

युधिष्ठिर: प्रतिदिन लोग दूसरों को मरते देखते हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे अमर हैं — यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।

यक्ष प्रसन्न हुआ और पांडवों को जीवनदान दिया।

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10. धौम्य ऋषि का मार्गदर्शन

धौम्य ऋषि हमेशा पांडवों के साथ रहे।

उन्होंने पांडवों को धैर्य, तपस्या, व्रत और यज्ञों का महत्व समझाया।

उन्होंने बताया कि धर्म का पालन ही मनुष्य की सबसे बड़ी जीत है।

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11. वनवास में शिक्षा और साधना

पांडवों ने वनवास को केवल दुख भोगने का समय नहीं बनाया।
उन्होंने:

वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया।

अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता बढ़ाई।

विभिन्न तपस्वी ऋषियों से आशीर्वाद और ज्ञान प्राप्त किया।

अपने भीतर धैर्य, क्षमा और तपस्या के गुण

02/05/2025

सभापर्व — महाभारत का दूसरा पर्व — सरल भाषा में
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1. सभापर्व का आरंभ

जब पांडवों ने खांडवप्रस्थ (इंद्रप्रस्थ) में अपना राज्य स्थापित कर लिया,
तो उन्होंने एक भव्य सभा का निर्माण किया।
यह सभा विश्वकर्मा ने बनाई थी और माया दानव ने भी इसे सजाया था।
यह सभा इतनी सुंदर थी कि पृथ्वी पर ऐसी कोई दूसरी नहीं थी।

युधिष्ठिर ने इस सभा में राजाओं की सभा लगानी शुरू की।
यहाँ न्याय, धर्म और कर्तव्य से जुड़े बड़े-बड़े निर्णय लिए जाने लगे।

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2. श्रीकृष्ण का आगमन

इसी बीच द्वारका से श्रीकृष्ण भी पांडवों से मिलने आए।
कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि उन्होंने समुद्र को खोदकर द्वारका बसाई है।
यहाँ वे यादवों के साथ निवास कर रहे हैं।

कृष्ण ने पांडवों को सलाह दी कि अब समय आ गया है कि युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करें,
जिससे उन्हें सारे आर्यावर्त (भारतवर्ष) के सम्राट के रूप में स्थापित किया जाए।

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3. राजसूय यज्ञ की योजना

राजसूय यज्ञ का आयोजन कोई छोटी बात नहीं थी।
इसके लिए सभी दिशाओं में दूत भेजने थे।
राजाओं को या तो सहमत करना था या युद्ध करके उन्हें वश में करना था।

युधिष्ठिर ने भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को चारों दिशाओं में भेजा।

भीम ने पूर्व दिशा में विजय प्राप्त की।

अर्जुन ने उत्तर दिशा के शक्तिशाली राजाओं को हराया।

नकुल ने पश्चिम दिशा में कई राज्यों को जीता।

सहदेव ने दक्षिण दिशा में राजाओं को वश में किया।

इस तरह पृथ्वी के अधिकतर राजा युधिष्ठिर के अधीन हो गए।

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4. जरासंध वध की योजना

लेकिन एक समस्या रह गई थी — मगध का राजा जरासंध।

जरासंध बहुत बलशाली था और यदुवंशियों का शत्रु था।
जब तक जरासंध जीवित रहता, युधिष्ठिर का सम्राट बनना संभव नहीं था।

कृष्ण ने भीम और अर्जुन के साथ योजना बनाई।
तीनों ब्राह्मण का वेश धारण करके मगध पहुँचे।

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5. भीम और जरासंध का युद्ध

मगध में कृष्ण ने जरासंध को चुनौती दी कि वह भीमसेन के साथ मल्लयुद्ध करे।

जरासंध और भीम का युद्ध लगातार 13 दिन तक चला।
अंत में कृष्ण ने संकेत दिया कि जरासंध का वध कैसे किया जा सकता है —
उसका शरीर दो भागों में फाड़ना चाहिए।

भीम ने जरासंध के शरीर को फाड़कर उसे मार डाला।

मगध पर उसका पुत्र सहदेव राजा बना और युधिष्ठिर का सहयोगी बन गया।

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6. राजसूय यज्ञ का आयोजन

अब युधिष्ठिर ने बिना किसी विरोध के राजसूय यज्ञ की तैयारी शुरू की।

श्रीकृष्ण ने यज्ञ का प्रमुख संचालन किया।
भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर और अन्य बड़े-बड़े योद्धा व ऋषि उपस्थित हुए।

यज्ञ में हजारों ब्राह्मणों को भोजन कराया गया और दान दिया गया।

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7. श्रीकृष्ण की अग्रपूजा

राजसूय यज्ञ में यह परंपरा थी कि सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति को प्रथम पूजा (अग्रपूजा) दी जाए।

भीष्म ने प्रस्ताव रखा कि इस संसार में श्रीकृष्ण से बड़ा कोई नहीं है।
वे धर्म, पराक्रम, ज्ञान और दया में सर्वोच्च हैं।

सभी ने सहमति दी और श्रीकृष्ण की अग्रपूजा की गई।

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8. शिशुपाल का अपमान और वध

लेकिन शिशुपाल — जो श्रीकृष्ण का चचेरा भाई और द्वेषी था —
उसने सभा में श्रीकृष्ण को अपशब्द कहे।

श्रीकृष्ण ने पहले उसे 100 अपशब्द बोलने तक क्षमा करने का वचन दिया था।
जब शिशुपाल ने सीमा पार कर दी, तो श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया।

शिशुपाल का प्राण भगवान में लीन हो गया क्योंकि वह निरंतर कृष्ण का स्मरण करता था,
चाहे द्वेष से ही क्यों न हो।

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9. दुर्योधन का जलन

यज्ञ समाप्ति के बाद, सभी पांडवों का सम्मान बहुत बढ़ गया।

दुर्योधन ने सभा भवन में पांडवों की समृद्धि देखी।
वहाँ माया से बने फर्श और जलाशयों को देखकर दुर्योधन ठगा सा रह गया।

वह एक स्थान पर काँच का फर्श देखकर उसे जलाशय समझ बैठा और उसमें गिर पड़ा।

द्रौपदी और अन्य दरबारी हँस पड़े।

द्रौपदी ने मजाक में कहा —
"अंधे का पुत्र भी अंधा होता है।"

यह वाक्य दुर्योधन के हृदय में आग की तरह धधक उठा।

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10. दुर्योधन का षड्यंत्र

अपमान से व्याकुल होकर दुर्योधन हस्तिनापुर लौट आया।

वह अपने पिता धृतराष्ट्र से मिला और उसे बताया कि पांडव अब बहुत शक्तिशाली हो चुके हैं।

दुर्योधन ने शकुनि के साथ मिलकर योजना बनाई कि वे पांडवों को छल से हराएँगे,
क्योंकि युद्ध में उनसे जीतना कठिन था।

योजना बनी कि पांडवों को जुए के खेल में फँसाया जाए।

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11. धृतराष्ट्र की स्वीकृति

धृतराष्ट्र, जो अपने पुत्र दुर्योधन से अत्यधिक स्नेह करता था,
उसने भी इस योजना को अनदेखा कर दिया।

वह जानता था कि यह छल है, लेकिन पुत्र मोह में वह सही निर्णय नहीं ले सका।

सभा का आयोजन हुआ और युधिष्ठिर को आमंत्रण भेजा गया।

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12. जुए की तैयारी

युधिष्ठिर को सभा में बुलाया गया।

पांडव जानते थे कि जुआ अनर्थकारी होता है, लेकिन क्षत्रिय धर्म के अनुसार बुलावे को अस्वीकार करना भी अनुचित था।

युधिष्ठिर ने स्वीकार कर लिया।

लेकिन वह नहीं जानता था कि दुर्योधन की ओर से शकुनि खेल रहा होगा, जो माहिर कपटी खिलाड़ी था।

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13. जुए का आरंभ

जुए का खेल शुरू हुआ।

शकुनि ने अपनी चालाकी से पांडवों को हारना शुरू कर दिया।

पहले तो युधिष्ठिर ने धन-दौलत दाँव पर लगाई — और हार गए।

फिर राज्य, सेना, रत्न, महल, सब कुछ हार गए।

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14. पांडवों की हार

एक-एक करके युधिष्ठिर ने अपने भाई भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को दाँव पर लगाया — और हार गए।

फिर, उसने स्वयं को भी दाँव पर लगा दिया — और हार गए।

आखिर में, उन्होंने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया — और फिर हार गए।

यह अत्यंत अपमानजनक और पीड़ादायक स्थिति थी।

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15. द्रौपदी का अपमान

दुर्योधन ने द्रौपदी को सभा में बुलवाया।
जब वह नहीं आई, तो दु:शासन उसे घसीटता हुआ लाया।

सभा में भरे दरबार में दु:शासन ने द्रौपदी को अपमानित करने का प्रयास किया।

द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को पुकारा और श्रीकृष्ण ने उनकी लाज बचाई —
उनका चीर बढ़ता चला गया।

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16. सभा का मौन अपराध

भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, विदुर जैसे बड़े-बड़े धर्मज्ञ भी उस समय मौन रहे।
धर्मराज युधिष्ठिर भी चुप थे क्योंकि वे स्वयं को हार चुके थे।

द्रौपदी ने प्रश्न किया: "जो स्वयं हार चुका हो, क्या वह किसी और को दाँव पर लगा सकता है?"

लेकिन उत्तर में केवल मौन मिला।

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17. क्रोध और प्रतिज्ञा

भीम ने प्रतिज्ञा ली कि वह दु:शासन का वध करेगा और उसके रक्त से द्रौपदी के केश धोएगा।

अर्जुन ने शपथ ली कि जो कोई द्रौपदी का अपमान करेगा, उसे अपने बाणों से भून देगा।

द्रौपदी ने भी संकल्प लिया कि जब तक अपमान का बदला नहीं होगा, वह केश नहीं बाँधेगी।

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18. पुनः जुआ और वनवास

सभा ने यह निर्णय लिया कि एक और जुआ खेला जाए।

इस बार शर्त यह थी: यदि पांडव हारें तो उन्हें 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास करना होगा।

शकुनि ने फिर छल से पांडवों को हरा दिया।

पांडवों को वनवास जाना पड़ा।

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19. सभापर्व का अंत

पांडवों ने अपने सिर उठाकर अपमान झेला।
द्रौपदी भी उनके साथ वन के लिए चलीं।

कौरवों ने अपना अधर्मपूर्ण कार्य सफल होता देखा।

लेकिन महाभारत की भूमि पर अब धर्म और अधर्म का युद्ध अनिवार्य हो गया था।

01/05/2025

महाभारत का आदिपर्व (भाग-2) — सरल भाषा में
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14. युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ

इंद्रप्रस्थ के राजा बनकर पांडवों ने चारों दिशाओं में विजय यात्राएँ कीं।
भीम ने पूर्व दिशा में, अर्जुन ने उत्तर दिशा में, नकुल और सहदेव ने दक्षिण और पश्चिम दिशा में राजाओं को पराजित किया।
सभी ने युधिष्ठिर को कर देना स्वीकार किया।

तब युधिष्ठिर ने एक बड़ा यज्ञ करने का निश्चय किया —
जिसे कहते हैं "राजसूय यज्ञ"।

राजसूय यज्ञ वह होता है जिसमें राजा पूरे पृथ्वी के सम्राट के रूप में स्वयं को स्थापित करता है।

इस यज्ञ के लिए श्रीकृष्ण भी आए।
यज्ञ में श्रीकृष्ण को सबसे पहले पूज्य (अग्रपूजा) माना गया, जिससे दुर्योधन को बहुत जलन हुई।

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15. दुर्योधन का अपमान

यज्ञ समाप्ति के बाद एक सभा में, दुर्योधन ने माया से बने सुंदर महल में प्रवेश किया।
वहाँ के फर्श कांच जैसे चमकदार थे।
दुर्योधन उसे पानी समझकर गिर पड़ा, जिससे सभी दरबारी हँसने लगे।

द्रौपदी ने भी दुर्योधन का मजाक उड़ाया —
कहा कि "अंधे का पुत्र अंधा ही होता है।"

यह बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह चुभ गई।
उसने तभी प्रतिज्ञा कर ली कि वह पांडवों को अपमानित करेगा।

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16. शकुनि की चाल और जुए का खेल

दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि के साथ मिलकर एक योजना बनाई।
उन्होंने युधिष्ठिर को जुए के खेल में आमंत्रित किया।

युधिष्ठिर ने पहले मना किया, लेकिन क्षत्रिय धर्म के अनुसार न्यौते को ठुकराना उचित नहीं था,
इसलिए वह खेलने बैठ गए।

जुए में शकुनि ने कपट से काम लिया।
वह दुर्योधन की ओर से खेलता रहा और पांडवों को एक के बाद एक हारता गया।

युधिष्ठिर ने अपना राजपाट, अपने भाई, और यहाँ तक कि स्वयं को भी दांव पर लगा दिया।

अंत में, उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया — और हार गए।

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17. द्रौपदी का अपमान

जीत के बाद दुर्योधन ने द्रौपदी को सभा में बुलवाया।
द्रौपदी ने प्रश्न किया कि जब युधिष्ठिर स्वयं को हार चुके थे, तो वह कैसे उन्हें दांव पर लगा सकते हैं?

लेकिन दुर्योधन ने दुष्टतापूर्वक द्रौपदी को सभा में घसीटने का आदेश दिया।
दु:शासन ने द्रौपदी के बाल पकड़कर उसे सभा में खींचा और उसे अपमानित किया।

द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को पुकारा।
कृष्ण ने चमत्कार से उनकी लाज बचाई —
जैसे-जैसे दु:शासन उनका चीर खींचता गया, वैसे-वैसे द्रौपदी का वस्त्र बढ़ता गया।

सभा में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे वृद्ध और धर्मज्ञ लोग भी यह अन्याय देखकर मौन रहे।
यह घटना धर्म और सत्य के पतन की शुरुआत थी।

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18. पांडवों का वनवास और अज्ञातवास

सभा में भारी अपमान के बाद, द्रौपदी ने प्रतिज्ञा ली कि जब तक दुष्टों का नाश नहीं होगा, वह बाल खोलकर नहीं बैठेगी।

सभा ने निर्णय लिया कि पांडवों को 13 वर्षों का वनवास झेलना होगा —
जिसमें अंतिम 1 वर्ष अज्ञातवास (गुप्त रूप में) होना चाहिए।

यदि अज्ञातवास में उन्हें पहचान लिया गया, तो पुनः 12 वर्ष का वनवास होगा।

पांडव वन की ओर चले गए, द्रौपदी भी उनके साथ गई।

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19. वनवास के कठिन दिन

वन में पांडवों ने अत्यंत कठिन जीवन बिताया।
भीम ने अपने बल से कई राक्षसों का वध किया,
अर्जुन ने तपस्या करके दिव्यास्त्र प्राप्त किए।
नकुल और सहदेव ने आयुर्वेद और पशुपालन में दक्षता प्राप्त की।

द्रौपदी ने भी अनेक कष्ट झेले, लेकिन कभी हार नहीं मानी।

एक दिन पांडवों को श्रीकृष्ण से मिलकर संबल मिला।
कृष्ण ने वचन दिया कि उचित समय पर वे न्याय दिलाएँगे।

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20. अर्जुन की दिव्यास्त्र प्राप्ति

अर्जुन को इंद्रलोक जाने का आदेश मिला।
अर्जुन ने तपस्या की और भगवान शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त किया।
फिर इंद्रलोक जाकर दिव्यास्त्र सीखे।

इंद्रलोक में उर्वशी नामक अप्सरा ने अर्जुन को रिझाने की कोशिश की,
लेकिन अर्जुन ने उसे माता समान सम्मान दिया।
उर्वशी ने क्रोधित होकर अर्जुन को एक वर्ष तक नपुंसक रहने का श्राप दे दिया,
जो बाद में अज्ञातवास में काम आया।

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21. यक्ष प्रश्न

वनवास के दौरान एक दिन भीम, नकुल, सहदेव एक सुंदर झील पर पहुँचे,
जहाँ एक यक्ष ने पहरेदारी कर रखी थी।

उन्होंने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिए बिना जल पीया और मूर्छित हो गए।
अंत में युधिष्ठिर आए।

यक्ष ने उनसे धर्म, ज्ञान, नीति से जुड़े गहरे प्रश्न पूछे।
युधिष्ठिर ने सभी प्रश्नों का सही उत्तर दिया।

यक्ष वास्तव में यमराज थे — उनके पिता।
उन्होंने प्रसन्न होकर सभी भाइयों को जीवनदान दिया।

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22. अज्ञातवास का समय

13वें वर्ष में पांडवों ने विराटनगर में अज्ञातवास किया।

युधिष्ठिर ने राजा विराट के यहाँ कंक नामक पासे के खिलाड़ी का रूप धारण किया।

भीम ने बलवंत रसोइए बनकर काम किया।

अर्जुन ने ब्रहनल्ला बनकर उत्तरा को नृत्य सिखाया।

नकुल ने अस्तबल की देखरेख की।

सहदेव ने गौशाला का प्रबंधन किया।

द्रौपदी ने महारानी सुदेष्णा की दासी के रूप में कार्य किया।

इस तरह उन्होंने पहचान छुपाकर एक वर्ष सफलतापूर्वक व्यतीत किया।

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23. विराट युद्ध

दुर्योधन को शक हुआ कि पांडव विराटनगर में छुपे हैं।

उसने राजा विराट की गायें चुराने की योजना बनाई।

विराट के पुत्र उत्तर ने अर्जुन (ब्रहनल्ला) के साथ युद्ध किया।
अर्जुन ने शत्रुओं का संहार किया और पहचान न खुलने दी।

अज्ञातवास पूरा हुआ।

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24. युद्ध की तैयारी

अब पांडवों ने अपना राज्य लौटाने की माँग की।

कृष्ण ने शांति दूत बनकर कौरवों के दरबार में गए,
लेकिन दुर्योधन ने एक इंच भी भूमि देने से मना कर दिया।

अंततः महाभारत का महायुद्ध अनिवार्य हो गया।

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