31/10/2025
रात के ग्यारह बज चुके थे। पूरा घर गहरी नींद में था, बस रसोई से आती धीमी सी छन-छन की आवाज़ उस सन्नाटे को तोड़ रही थी। टेबल पर आधी भरी थाली रखी थी—सब्ज़ी ठंडी हो चुकी थी, रोटी सख्त, और उसके पास बैठी अनाया चुपचाप थाली को देख रही थी। उसकी आँखों में नींद नहीं, बस थकावट और नमी थी। दरवाज़े के पार से किसी ने झाँका—पर उसे देखने वाला कोई नहीं था…
सुबह के पाँच बजते ही घर के बाकी लोग करवटें बदल रहे थे, और अनाया रसोई में झाड़ू लगा रही थी। गैस पर दूध चढ़ चुका था, सास के लिए चाय बन रही थी, बच्चों के टिफ़िन में आलू पराठे जा रहे थे, और पति रोहन का शर्ट प्रेस हो रहा था।
“इतनी देर क्यों लगा दी, माँ जी की चाय ठंडी हो गई!”
सास के ये शब्द रोज़ की तरह कानों में पड़े। अनाया ने कुछ नहीं कहा। बस सिर झुकाकर दोबारा चाय बनाई, जैसे उसने अपनी जुबान भी किसी अलमारी में बंद कर दी हो।
रोहन ऑफिस जाते वक्त बस इतना बोला,
“कपड़े ठीक से रख देना, मीटिंग है, देर हो जाएगी।”
ना “अलविदा” कहा, ना “ध्यान रखना”।
बस चाबियाँ टेबल पर पटक दीं और निकल गया।
दोपहर तक पूरे घर की सूरत चमक रही थी, बस वह खुद फीकी पड़ गई थी।
सास अपने कमर दर्द का रोना रो रही थीं, ससुर टीवी पर समाचार देख रहे थे, बच्चे स्कूल में थे—और वह खुद को दीवारों में टांग चुकी थी।
थकान उसकी उँगलियों में उतर आई थी, पर फिर भी उसने सबके खाने की तैयारी की।
जब खुद खाने बैठी तो सब्ज़ी ठंडी और रोटी सूख चुकी थी।
उसी वक्त दरवाज़े की घंटी बजी।
पड़ोसन माधवी दीदी थीं।
“अरे अनाया, तू तो दिनभर काम में घुसी रहती है! कभी अपने लिए भी वक्त निकाल लिया कर।”
अनाया ने मुस्कुराने की कोशिश की—वो वही मुस्कान थी जो चेहरे पर होती है पर दिल में नहीं।
“समय... मेरे हिस्से में बस झाड़ू और बर्तन लिखे हैं दीदी,”
उसने धीरे से कहा।
शाम को जब बच्चे लौटे, तो उनके लिए दूध, स्नैक्स, और होमवर्क का पहाड़ तैयार था।
रोहन आया तो फोन पर किसी से हँस रहा था।
“आज ऑफिस में बहुत काम था?”
अनाया ने पूछा।
वह बोला, “हाँ, थक गया हूँ।”
और सीधा टीवी ऑन कर दिया।
अनाया कुछ कहना चाहती थी, कि — “मैं भी थक गई हूँ, रोहन”,
पर उसने होंठों को चुप करा दिया।
क्योंकि उसे मालूम था —
उसके थकने का हक़ इस घर में किसी ने दिया ही नहीं।
रात गहराने लगी।
बच्चे सो चुके थे, सास-ससुर अपने कमरों में।
अनाया अभी भी रसोई में थी। गैस बंद कर रही थी, सिंक साफ़ कर रही थी, अगले दिन की सब्ज़ी काट रही थी।
अचानक उसका सिर चकराया। उसने दीवार का सहारा लिया।
गला सूख गया था, आँखें भारी हो गईं।
वो कुर्सी पर बैठ गई — और पता ही नहीं चला, कब उसकी आँख लग गई।
रात के करीब 2 बजे रोहन की नींद खुली।
रसोई की लाइट जल रही थी।
वह झुँझलाया—“यह अभी तक क्या कर रही है?”
वो वहाँ गया तो देखा — अनाया सिर झुकाए बैठी है, बिल्कुल स्थिर।
“अरे अनाया, सो गई क्या?”
कोई जवाब नहीं।
वो पास गया, उसका कंधा हिलाया—
शरीर ठंडा था।
रोहन के हाथ से पानी का गिलास गिर पड़ा।
वो घबरा गया, चिल्लाया—“माँ! माँ!”
पूरा घर दौड़ा आया।
डॉक्टर बुलाया गया, पर देर हो चुकी थी।
डॉक्टर ने बस इतना कहा,
“शरीर पूरी तरह थक चुका था… शायद कई दिनों से बुखार में थी, पर आराम नहीं किया।”
रोहन के कानों में जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो।
वो बड़बड़ाने लगा —
“पर उसने तो कभी कहा ही नहीं कि वो बीमार है…”
डॉक्टर ने गहरी साँस ली,
“कहने के लिए सुनने वाला भी तो चाहिए था।”
सुबह सूरज निकला, पर उस घर में सन्नाटा था।
रसोई की मेज़ पर वही आधी खाई हुई थाली रखी थी —
ठंडी, सूनी और खामोश।
सास अब चाय बनाते हुए रो रही थीं,
“कभी सोचा ही नहीं था कि वो इतना कुछ झेल रही थी…”
बच्चे स्कूल से लौटकर पूछ रहे थे,
“माँ कहाँ है?”
रोहन बस चुप था।
उसने उस थाली को देखा,
जहाँ अब किसी के हाथ की रोटी नहीं रखी जाएगी।
दिन बीतते गए।
रसोई अब साफ़ रहती थी, पर उसमें वो खुशबू नहीं थी जो अनाया के हाथों से आती थी।
घर चल रहा था, मगर जीवन रुक गया था।
एक शाम, जब रोहन ऑफिस से लौटा, तो उसे अलमारी में एक डायरी मिली।
उस पर लिखा था —
“मेरी खामोशियाँ”
उसने खोला —
पहला पन्ना पढ़ते ही आँसू बह निकले।
“आज बुखार है, पर काम तो फिर भी करना है।
अगर मैं रुक गई तो ये घर रुक जाएगा।
कोई पूछेगा क्या कि मैं ठीक हूँ? शायद नहीं...
मैं बस एक ‘सिस्टम’ बन गई हूँ,
जो सुबह शुरू होता है और रात को टूट जाता है।”
अगले पन्ने पर लिखा था —
“मुझे डर है कि किसी दिन मैं गिर जाऊँगी,
और कोई ध्यान नहीं देगा।
शायद उन्हें तब एहसास होगा कि
घर सिर्फ दीवारों से नहीं,
एक औरत की साँसों से चलता है।”
डायरी की आख़िरी लाइन पर रोहन रुक गया।
“अगर कभी मेरी जगह कोई और आए,
तो उससे यह ज़रूर पूछ लेना —
‘थक गई क्या?’
बस यही शब्द किसी का जीना आसान कर सकते हैं।”
रोहन के हाथ काँप रहे थे।
वह रोया — पहली बार, शायद सच्चे मन से।
उसने खुद से वादा किया कि अब किसी और औरत को उस खामोशी का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा।
उस दिन के बाद उसने रसोई की लाइट के नीचे वो थाली संभालकर रख दी —
याद दिलाने के लिए कि एक औरत की मेहनत कभी हल्की नहीं होती,
भले ही उसकी आवाज़ कोई सुन न पाए।
अंत:
हर घर में एक “अनाया” होती है —
जो सबका ध्यान रखती है, मगर खुद भुला दी जाती है।
वो बोलती नहीं, पर उसके हाथ, उसकी आँखें और उसकी थकान रोज़ चीखती हैं।
कभी उसके पास बैठकर बस इतना पूछ लेना —
“थक गई क्या?”
क्योंकि यही सवाल किसी की जान बचा सकता है।
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