Vats Bhakti Music

Vats Bhakti Music जय श्री श्याम

20/09/2025
भगवान ने क्यों धारण किए हैं विभिन्न रूप ?जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ॥ भावार्थ : ...
12/09/2025

भगवान ने क्यों धारण किए हैं विभिन्न रूप ?

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ॥

भावार्थ : - जैसे कोई नट (खेल करने वाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है और वही-वही (जैसा वेष होता है, उसी के अनुकूल) भाव दिखलाता है, पर स्वयं वह उनमें से कोई हो नहीं जाता,॥

परब्रह्म परमात्मा की इस सृष्टि प्रपंच में विभिन्न स्वभाव के प्राणियों का निवास है । इसलिए विभिन्न स्वभाव वाले प्राणियों की विभिन्न रुचियों के अनुसार भगवान भी विभिन्न रूप में प्रकट होते हैं । किसी का चित्त भगवान के भोलेशंकर रूप में रमता है, तो किसी का शेषशायी विष्णु रूप पर मुग्ध होता है; किसी का मन श्रीकृष्ण के नटवर वेष में फंसता है, तो किसी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आकर्षित करते हैं । किसी को श्रीकृष्ण की आराधिका श्रीराधा की करुणामयी रसिकता अपनी ओर खींचती है तो किसी को जगदम्बा का दुर्गारूप सुहाता है । अत: भगवान के जिस रूप में प्रीति हो उसी रूप की आराधना करनी चाहिए ।

कैसे जाने परमात्मा का कौन-सा रूप है अपना इष्ट!!!!!!!

सनातन हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देवता माने गए हैं जिनमें पांच प्रमुख देवता—सूर्य, गणेश, गौरी, शिव और श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण, श्रीराम) की उपासना प्रमुख रूप से बतायी गयी है । कोई किसी देवता को तो कोई किसी और देवता को बड़ा बतलाता है, ऐसी स्थिति में मन में यह व्याकुलता बनी रहती है कि किसको इष्ट माना जाए ?

हृदय में जब परमात्मा के किसी रूप की लगन लग जाए, दिल में वह छवि धंस जाए, किसी की रूप माधुरी आंखों में समा जाए, किसी के लिए अत्यन्त अनुराग हो जाए, मन में उन्हें पाने की तड़फड़ाहट हो जाए तो वही हमारे आराध्य हैं—ऐसा जानना चाहिए ।

श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद जब उद्धवजी गोपियों को समझाने व्रज में आते हैं तब गोपियाँ उद्धवजी से कहती हैं–’यहां तो श्याम के सिवा और कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में तो वह छाया है । तुम्हीं बताओ, क्या किया जाय ! वह तो हृदय में गड़ गया है और रोम-रोम में ऐसा अड़ गया है कि किसी भी तरह निकल ही नहीं पाता; भीतर भी वही और बाहर भी सर्वत्र वही है।’

आराध्य के प्रति कैसी निष्ठा होनी चाहिए???

मनुष्य अनेक जन्म लेता है अत: जन्म-जन्मान्तर में जो उसके इष्ट रह चुके हैं, उनके प्रति उसके मन में विशेष प्रेम रहता है । पूर्व जन्मों की उपासना का ज्ञान स्वप्न में भगवान के दर्शन से या बार-बार चित्त के एक देव विशेष की ओर आकर्षित होने से प्राप्त हो जाता है । साधक के मन और प्राण जब परमात्मा के जिस रूप में मिल जाएं जैसे गोपियों के श्रीकृष्ण में मिल गए थे, तब उन्हें ही अपना इष्ट जानना चाहिए—

कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय ।
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।।

पूर्वजन्मों की साधना के अनुकूल ही हमें परिवार या कुल प्राप्त होता है । परिवार में माता-पिता या दादी-बाबा के द्वारा जिस देवता की उपासना की जाती रही है, उनके प्रति ही हम विशेष श्रद्धावान होते हैं । अत: माता-पिता, दादा-परदादा ने जिस व्रत का पालन किया हो या जिस देव की उपासना की हो, मनुष्य को उसी देवता और व्रत का अवलम्बन लेना चाहिए । साघक को अपने इष्ट को कभी कम या अपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उसे सदैव उन्हें सर्वेश्वर समझ कर उनकी उपासना करनी चाहिए ।

जब तुलसीदासजी की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण बने रघुनाथ!!!!!!!

अपने आराध्य को श्रेष्ठ मानना और ईश्वर के अन्य रूपों को छोटा समझना, उनकी निन्दा करना सही नही है । क्योंकि सभी रूप उस एक परब्रह्म परमात्मा के ही हैं । जब मन में अपने आराध्य के प्रति सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण होता है तो परमात्मा के हर रूप में अपने इष्ट के ही दर्शन होते हैं ।

एक बार तुलसीदासजी श्रीधाम वृन्दावन में संध्या के समय भक्तमाल के रचियता श्रीनाभाजी आदि वैष्णवों के साथ ‘ज्ञानगुदड़ी’ नामक स्थान पर मदनमोहनजी के दर्शन कर रहे थे । तब परशुराम नाम के पुजारी ने तुलसीदासजी पर कटाक्ष करते हुए कहा—

अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय ।
इष्टविहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय ।।

अर्थात् सभी को अपने इष्ट को नमन करना चाहिए । दूसरों के इष्ट को नमन करना तो निगुरा यानी बिना गुरु के होने के समान है ।

गोस्वामीजी के मन में श्रीराम और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण गोस्वामीजी ने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से प्रार्थना करते हुए कहा—‘हे प्रभु ! हे रामजी ! मैं जानता हूँ कि आप ही राम हो, आप ही कृष्ण हो । आज की आपकी मुरली लिए हुए छवि अत्यन्त मनमोहक है लेकिन आज आपके भक्त के मन में भेद आ गया है । आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी, यह मस्तक आपके सामने तभी नवेगा जब आप हाथ में धनुष बाण ले लोगे ।’

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ ।।

भक्त के मन की बात मदनमोहनजी जान गए और फिर उनकी मुरली और लकुटी छिप गई और हाथ में धनुष और बाण आ गया । कहाँ तो श्रीकृष्ण गोपियों और श्रीराधा के साथ बांसुरी लेके खड़े होते हैं लेकिन आज भक्त की पुकार पर श्रीकृष्ण हाथ में धनुषबाण लिए साक्षात् रघुनाथ बन गए ।

मुरली लकुट दुराय के, धरयो धनुष सर हाथ ।
तुलसी रुचि लखि दास की, कृष्ण भये रघुनाथ ।।
कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ ।
अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ ।।

यह है भक्त और इष्ट का अलौकिक सम्बन्ध !

जो लोग अपने इष्ट की उपासना करते हैं तथा दूसरों के इष्ट को तुच्छ मानकर उसका तिरस्कार करते हैं, वास्तव में वह अपने ही इष्ट का तिरस्कार करते हैं क्योंकि किसी भी देवता की निन्दा करने का अधिकार किसी को नहीं है । जहां भावना छोटी और संकीर्ण होती है वहां फल भी छोटा होता है और जहां भावना महान होती है वहां फल भी महान होता है ।

एक पिता के दो पुत्र थे । उन्होंने अपने पिता के दोनों पैरों की सेवा बांट रखी थी । एक दिन जब वे दोनों अपने-अपने हिस्से के पैरों की सेवा कर रहे थे तब संयोग से एक पैर दूसरे पैर से जा लगा । उस पैर की सेवा करने वाले लड़के ने दूसरे के पैर पर घूंसा जमा दिया । दूसरे लड़के ने अपने पैर को मार खाते देखकर दूसरे के पैर पर घूंसा मार दिया । इस तरह वे दोनों क्रोध में पिता के पैरों को पीटने लगे । पैरों में चोट लगने पर पिता ने उनकी मूर्खता पर अफसोस करते हुए कहा—‘जिसे तुम दोनों सेवा समझते हो वह वास्तव में सेवा नहीं थी वह तो तुम दोनों ने द्वेषवश अपनी मूर्खता से पिता का अनिष्ट ही किया है ।

ॐ श्री श्याम देवाय नमः
जय श्री श्याम जी

Radhey Shyam Vats
Radhey Shyam Vats

Vats Bhakti Music

09/09/2025

09/09/2025

खाटु जाने से पहले प्रेमी क्या सोचता था - प्रिया प्राची ठाकुर - कला भवन - एकादशी किर्तन

Priya Prachi Thakur




Address

Delhi

Website

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Vats Bhakti Music posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Share

Category