11/04/2025
सामाजिक क्रांति के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले का समाज दर्शन
- डॉ. हंसराज सुमन
आधुनिक युग के समाज सुधारकों में महात्मा ज्योतिबा फुले का नाम अग्रणी है। उन्होंने समाज के उत्थान के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। भारत में महान समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। वे न केवल एक विचारक थे, बल्कि एक कर्मयोगी भी थे, जो सामाजिक परिवर्तन के लिए सदैव तत्पर रहते थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी निडरता और कार्य करने की तत्परता थी। वे किसी भी कार्य को करने से पहले देर नहीं करते थे और न ही किसी के दबाव में आते थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि यदि कोई कार्य सही है तो उसे करने में किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए। उनके जीवन का मूलमंत्र था - " कथनी और करनी में एकरूपता "। वे जो कहते थे, उसे स्वयं अपने जीवन में उतारते थे। उनका मानना था कि समाज की वास्तविक उन्नति शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। इसलिए उन्होंने शिक्षा के प्रसार पर विशेष बल दिया और इसीलिए उन्हें शिक्षा के द्वार खोलने वाले प्रथम भारतीय के रूप में जाना जाता है। उन्होंने शिक्षा को केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन ही नहीं माना बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे महिलाओं पर अत्याचार और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने का एक प्रभावशाली माध्यम भी समझा। उन्होंने महिलाओं और बहुजन समाज के उत्थान के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए और शिक्षा के माध्यम से उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया। महात्मा ज्योतिबा फुले ने किसानों की दयनीय स्थिति को देखकर भी बहुत दुःखी होते थे और उनके जीवन स्तर को सुधारने के लिए भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे विश्व बंधुत्व की भावना में विश्वास रखते थे और सभी मनुष्यों को एक परिवार का सदस्य मानते थे। महात्मा ज्योतिबा फुले सत्य को ही सर्वोच्च धर्म मानते थे और उनके जीवन का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते था, जिसका अर्थ है सत्य की ही विजय होती है। वे सत्य के मार्ग पर चलने वाले एक निष्ठावान व्यक्ति थे।
आज आधुनिकता, विज्ञान और तकनीकी प्रगति के युग में, महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। फुले एक दूरदर्शी विचारक थे जिनकी सोच वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित थी। उन्होंने अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और जातिवाद जैसे सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई और समाज में व्याप्त अज्ञान के अंधकार को दूर करने का प्रयास किया। फुले ने ज्ञान के भंडार को सभी के लिए सुलभ बनाने का सपना देखा और उसे साकार करने के लिए अथक प्रयास किए। वे भाग्यवाद और दैवीय शक्तियों में विश्वास नहीं रखते थे बल्कि उनका यह मानना था कि मानव जीवन का निर्माण स्वयं मनुष्य के कर्मों से होता है। उन्होंने तर्क, विवेक और वैज्ञानिक सोच को महत्व दिया और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया।
महात्मा फुले ने वैज्ञानिक विचारधारा को आधार बनाकर समाज परिवर्तन का एक व्यापक अभियान चलाया। उन्होंने मानव मुक्ति का संकल्प लिया और समाज में व्याप्त असमानता, अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने जाति-पाति, धर्म, लिंग, भाषा और क्षेत्र के आधार पर होने वाले भेदभाव का विरोध किया और सभी मनुष्यों को समान अधिकार दिलाने के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे। उन्होंने अस्पृश्यता जैसी घृणित प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास किया और दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने किसानों की दयनीय स्थिति को सुधारने के लिए भी काम किया और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया। महिलाओं की शिक्षा और उनके उत्थान के लिए फुले ने असाधारण योगदान दिया। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिलाओं के लिए स्कूल खोले और उन्हें शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया और महिलाओं को समाज में समान दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया।
महात्मा फुले के सामाजिक सुधार के विचार आज के युग में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनके विचार आज भी हमें प्रेरणा देते हैं और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ लड़ने का हौसला प्रदान करते हैं। उनका मानना था कि शिक्षा ही समाज परिवर्तन का सबसे शक्तिशाली हथियार है। इसलिए उन्होंने शिक्षा के प्रसार पर विशेष जोर दिया, खासकर बालिका शिक्षा पर। उन्होंने कहा था कि - " ज्ञान के बिना बुद्धि भ्रमित होती है और बुद्धि के बिना चरित्र का विकास नहीं हो सकता "। महात्मा ज्योतिबा फुले के योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा, विशेष रूप से बालिका शिक्षा के प्रसार में उनके अमूल्य योगदान के लिए। उनके विचार और कार्य आज भी हमें प्रेरित करते हैं और एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उनका जीवन और दर्शन हमें सिखाता है कि समाज में बदलाव लाने के लिए हमें निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए और कभी हार नहीं माननी चाहिए।
ज्योतिबा फुले ने समाज के विभिन्न पहलुओं, जैसे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गहन चिंतन किया। उन्होंने समाज में व्याप्त जातिवाद, वर्गवाद और आर्थिक विषमता को अपनी पैनी नजरों से देखा और उसे दूर करने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने देखा कि समाज कुछ वर्गों में विभाजित है, जिनमें से कुछ उच्च वर्ग के लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से शक्तिशाली हैं और वे निचले वर्ग के लोगों का शोषण कर रहे हैं। इस शोषण से मुक्ति दिलाने और एक वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए ज्योतिबा फुले ने सामाजिक क्रांति का आह्वान किया। इसीलिए उन्हें ‘ सामाजिक क्रांति का अग्रदूत ’ कहा जाता है। उनके अनुसार सामाजिक क्रांति के लिए तीन मुख्य बातें आवश्यक हैं, पहली - शोषित और उपेक्षित वर्ग के लोगों को उनके शोषण और पराधीनता का एहसास कराना और उनके मन में इसके प्रति आक्रोश पैदा करना। दूसरी - उनमें आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव की भावना जागृत करना ताकि वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकें। तीसरी - विभिन्न जातियों और वर्गों में बंटे लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार करना ताकि वे एकजुट होकर समाज के उत्थान के लिए कार्य कर सकें। महात्मा ज्योतिबा फुले का मानना था कि जब तक समाज के सभी वर्ग एक साथ मिलकर काम नहीं करेंगे, तब तक समाज का विकास संभव नहीं है।
महात्मा ज्योतिबा फुले, एक ऐसे दूरदर्शी समाज सुधारक थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन दीन-दलितों, शोषितों और वंचितों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। वे भली-भांति जानते थे कि जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति तक ज्ञान का प्रकाश नहीं पहुँचता, तब तक न तो शोषण का विरोध संभव है, न भेदभाव मिट सकता है और न ही अंधविश्वास की जकड़न से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए उन्होंने शिक्षा को ही समाज के उत्थान का मूल मंत्र माना और उपेक्षित, वंचित वर्ग के लिए शिक्षा के द्वार खोलकर उन्हें ज्ञान की अलख जगाई। उनके इस प्रयास ने आधुनिक युग के समाज को एक नई दिशा प्रदान की, एक नया आयाम दिया। बहुजन समाज को जागृत कर, उन्हें अपनी आवाज उठाने का साहस और शक्ति प्रदान करने का श्रेय निसंदेह महात्मा फुले को ही जाता है। कल्पना कीजिए, यदि ज्योतिबा फुले का अवतरण न हुआ होता तो क्या आज हम समाज में जो परिवर्तन, जो जागरूकता देख रहे हैं, वह संभव हो पाती ? शायद नहीं। यहीं पर फुले की आवश्यकता, उनकी दूरदर्शिता और उनकी प्रासंगिकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
महात्मा ज्योतिबा फुले के समय में समाज अज्ञानता के अंधकार में डूबा हुआ था। लोक जागृति का अभाव था, शिक्षा का प्रसार न के बराबर था। अशिक्षा के कारण निम्न वर्ग भटका हुआ था, दारिद्र्य की चपेट में आकर टूट चुका था और व्यसनों का शिकार होकर अपना जीवन बर्बाद कर रहा था। फुले जी इस दयनीय स्थिति को भली-भांति समझते थे। वे जानते थे कि यदि यही स्थिति रही तो इन वर्गों की दुर्दशा और भी भयावह हो जाएगी। इसलिए उन्होंने इन्हें जागृत करने, सही मार्ग दिखाने और उनके जीवन में एक नई रोशनी भरने का बीड़ा उठाया। ज्योतिबा फुले शूद्रातिशूद्र वर्ग को मद्यपान जैसी बुरी आदतों से दूर रहने की प्रेरणा देते थे। वे उन्हें समझाते थे कि मद्यपान में जो धन व्यर्थ गंवाते हो, उससे कोई उत्तम ग्रंथ खरीदो। ग्रंथ ही सच्चा गुरु है, ज्ञान का भंडार है। ग्रंथों के सहारे तुम अपने और अपने बच्चों के विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हो। ग्रंथों से मित्रता करो, उनका मनन करो। इससे तुम्हारा मन-मस्तिष्क समृद्ध होगा, तुम्हें सही-गलत का ज्ञान होगा, तुम अपने ऊपर नियंत्रण रख पाओगे और जीवन के सही मार्ग पर चल पाओगे। जो ग्रंथ तुम खरीदोगे, उसका गहन चिंतन-मनन करो, स्वयं का विश्लेषण करो। विचारों में ही व्यक्ति, समाज और दुनिया को बदलने की शक्ति होती है। फुले जी ने शिक्षा के माध्यम से पिछड़े वर्ग को नए विचार देकर, उन्हें जागृत कर उनके जीवन में एक नई क्रांति लाना चाहते थे। इसीलिए वे शिक्षा के महत्व को बार-बार रेखांकित करते थे।
वर्तमान में बहुजन समाज शिक्षित हो रहा है लेकिन यह प्रमाण अभी भी बहुत कम है। इसी कारण आज भी बहुजन समाज अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और शोषण का शिकार है। धार्मिक क्षेत्र में आज भी उनका मानसिक शोषण किया जाता है। इन सभी समस्याओं का समाधान फुले के विचारों में छिपा है। उन्होंने शिक्षा के द्वार खोलकर लोगों को एक नई दृष्टि दी है जिससे वे अपना भला-बुरा खुद पहचान सकें। फुले जी बहुजन समाज के लिए अंग्रेजी शिक्षा की भी मांग करते थे क्योंकि वे जानते थे कि आधुनिक युग में आगे बढ़ने के लिए, प्रगति करने के लिए वह सब कुछ आना चाहिए जो इस प्रतिस्पर्धा के युग में जरूरी है। महात्मा ज्योतिबा फुले जी ने समाज में व्याप्त कुरीतियों, विशेषकर मूर्तिपूजा, पुरोहितवाद और तीर्थयात्रा का खंडन किया। उनके अनुसार, ईश्वर की सच्ची भक्ति हृदय से होती है, बाहरी आडंबरों से नहीं। वे मानते थे कि ईश्वर से जुड़ने के लिए किसी मध्यस्थ, पंडे या पुरोहित की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक यात्रा स्वयं तय कर सकता है और ईश्वर से सीधा संवाद स्थापित कर सकता है। फुले जी का मानना था कि धार्मिक कर्मकांडों का अधिकार किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी धार्मिक विधियाँ स्वयं करने का अधिकार है। वे आजीवन मानव मुक्ति की लड़ाई लड़ते रहे जिसमें उन्होंने धार्मिक गुलामी से समाज की मुक्ति को सर्वोपरि माना। उनका मानना था कि धर्म के नाम पर लोगों का शोषण और उन्हें गुमराह करना सबसे बड़ा पाप है। वे धर्म को मानवता की सेवा का माध्यम मानते थे, न कि शोषण और उत्पीड़न का। फुले जी ने धर्म के ठेकेदारों, जो धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करते हैं। उन्हें कड़ी चेतावनी दी और आह्वान किया कि वे आम जनता का शोषण बंद करें। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि धर्म के नाम पर जो अधर्म फैलाया जा रहा है, उसे तुरंत रोका जाए। समाज में न्याय और समानता स्थापित करने के लिए उन्होंने सभी के साथ समान व्यवहार करने पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक पाखंड और आडंबरों का विरोध किया और सच्ची धार्मिकता पर जोर दिया। इस संबंध में, फुले जी ने अपनी रचनाओं में लिखा है कि सच्चा धर्म मानवता की सेवा में है, न कि दिखावे और आडंबरों में। वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति को नैतिक और आध्यात्मिक रूप से ऊँचा उठाता है लेकिन जब धर्म ही शोषण का कारण बन जाए तो उसका त्याग कर देना चाहिए। उन्होंने लोगों को धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त होने और तर्कशीलता अपनाने का आह्वान किया।
महात्मा ज्योतिबा फुले, एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक और विचारक थे, जिनका दृढ़ विश्वास था कि समाज की वास्तविक प्रगति तभी संभव है जब उसके आधे हिस्से, यानी महिलाओं का उत्थान हो। उनका मानना था कि महिलाओं की शिक्षा ही समाज की उन्नति की कुंजी है। इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी, सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर महिला शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किया। उनके अथक प्रयासों और समर्पण के कारण उन्हें भारत में नारी शिक्षा के अग्रदूत के रूप में सम्मानित किया जाता है। सन् 1848 में उन्होंने पुणे, महाराष्ट्र में भारत का पहला बालिका विद्यालय स्थापित किया, जिसने महिला शिक्षा के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा। इस क्रांतिकारी कदम ने न केवल महिलाओं को शिक्षा के द्वार खोले, बल्कि समाज की रूढ़िवादी सोच को भी चुनौती दी। उनकी पत्नी, सावित्रीबाई फुले, को प्रथम भारतीय हिंदू महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर महिलाओं को शिक्षित करने और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए अथक परिश्रम किया।
ज्योतिबा फुले का मानना था कि शिक्षित माताएँ ही एक शिक्षित और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकती हैं। माँ, परिवार की पहली गुरु होती है और बच्चों के चरित्र निर्माण में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। एक शिक्षित माँ अपने बच्चों को न केवल पढ़ना-लिखना सिखाती है, बल्कि उन्हें अच्छे संस्कार, नैतिक मूल्य और समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए भी प्रेरित करती है। यह एक दुःखद सच्चाई है कि जहाँ शहरों में तेजी से विकास और परिवर्तन हो रहा है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी महिलाएँ शिक्षा से वंचित हैं। ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के अथक प्रयासों ने न केवल महिलाओं को शिक्षा के अवसर प्रदान किए, बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनका योगदान भारतीय समाज के लिए अमूल्य है और उनकी विरासत आज भी हमें प्रेरित करती है ।
ज्योतिबा फुले एक दूरदर्शी समाज सुधारक थे जिन्होंने किसानों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और उनके उत्थान के लिए संघर्ष किया। उन्होंने न केवल महाराष्ट्र में बल्कि पूरे भारत में कृषि सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया। उनका मानना था कि किसानों के श्रम से उत्पन्न अन्न ही समाज की नींव है। फुले ने स्पष्ट रूप से कहा कि - किसान के पसीने से सिंचित अन्न ही समाज के अस्तित्व का आधार है। उन्होंने हिन्दू समाज में किसानों की दयनीय स्थिति पर प्रकाश डाला, जहाँ उन्हें निम्न वर्ग या शूद्र की संज्ञा दी जाती थी और उच्च वर्ग द्वारा उनका शोषण और अपमान किया जाता था। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अंग्रेजों के शासन से पहले किसानों की जो दशा थी, वह आज भी बदस्तूर जारी है, इसलिए किसानों के हितों की रक्षा के लिए एक क्रांति आवश्यक है। ज्योतिबा फुले ने किसानों की गरीबी के तीन प्रमुख कारणों की पहचान की - कृषि पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव, पंडे-पुरोहित, महाजन और शासक वर्ग द्वारा उनका शोषण, और कृषि उत्पादन प्रणाली का पिछड़ापन। उन्होंने इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकार को कई सुझाव दिए, जैसे भूमि सुधार, सिंचाई के लिए बाँधों का निर्माण, जोत की सीमा निर्धारित करना, कुओं का निर्माण और शूद्र किसानों को प्रोत्साहन देना।
उन्होंने किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने, उन्नत किस्म के बीज, आधुनिक हल और कृषि उपकरण प्रदान करने की भी वकालत की। साथ ही, उन्होंने किसानों के बच्चों को उच्च शिक्षा तक निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया ताकि वे गरीबी के चक्र से बाहर निकल सकें और अपने जीवन में सुधार ला सकें। महात्मा फुले का दृढ़ विश्वास था कि किसानों की समृद्धि ही समाज, संस्कृति और देश की समृद्धि की आधारशिला है। उन्होंने किसानों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने, उनकी बुनियादी आवश्यकताओं को प्राथमिकता देने, और कृषि सुधारों पर अधिकतम व्यय करने की आवश्यकता पर बल दिया। उनका मानना था कि किसानों की भलाई में ही देश की भलाई निहित है और उनके उत्थान के बिना देश का विकास संभव नहीं है। उन्होंने किसानों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए उन्हें नए कृषि तकनीकों से परिचित कराने और उन्हें बाजार तक पहुँच दिलाने की भी बात कही। उन्होंने कहा कि किसानों को उनके उत्पादों का उचित मूल्य मिलना चाहिए और बिचौलियों के शोषण से उन्हें बचाना चाहिए। ज्योतिबा फुले ने किसानों को संगठित होने और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए भी प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि जब तक किसान एकजुट नहीं होंगे, तब तक उनकी स्थिति में सुधार नहीं आ सकता। उन्होंने किसानों को शिक्षित बनाने पर भी जोर दिया ताकि वे अपने हक और अधिकारों के बारे में जागरूक हो सकें और शोषण से बच सकें।
महात्मा ज्योतिबा फुले एक ऐसा नाम जो भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित है। वे एक ऐसे दूरदर्शी विचारक, समाज सुधारक और मानवतावादी थे जिनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। फुले जी ने अपने जीवन काल में समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वास और जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक निर्भीक संघर्ष किया। उनके विचारों का केंद्र बिंदु मानवता थी। वे मानते थे कि सभी मनुष्य समान हैं और किसी को भी जाति, धर्म, लिंग या किसी अन्य आधार पर भेदभाव का शिकार नहीं होना चाहिए। फुले जी ने ब्राह्मणी व्यवस्था की कड़ी आलोचना की और इसे आम आदमी के शोषण का कारण बताया। उनका मानना था कि इस व्यवस्था ने विभिन्न षड्यंत्रों के माध्यम से आम जनता का शोषण किया है और इसे सुधारने का अवसर दिया जाना चाहिए। यही सच्ची मानवता है, जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाती है। वे सभी धर्मों के प्रति बंधुत्व का भाव रखते थे और मानते थे कि हमारा आचरण सभी के साथ भाईचारे जैसा होना चाहिए।
आज के समय में जब जाति, धर्म, वर्ण, राज्य और राष्ट्र के नाम पर झगड़े और हिंसा बढ़ रही है, मानवीय मूल्य क्षीण होते जा रहे हैं, ऐसे में महात्मा फुले के विचारों की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। आधुनिक विज्ञान युग में तर्क और विज्ञान का महत्व बढ़ रहा है, ऐसे में महात्मा फुले की वैज्ञानिक विचारधारा हमें सही मार्ग दिखाती है। महात्मा फुले एक प्रखर वैज्ञानिक विचारधारा के व्यक्ति थे। उन्होंने अज्ञानता के अंधकार से बहुजन समाज को मुक्त करने का प्रयास किया, शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ जागरूकता का आंदोलन चलाया। उन्होंने विश्व का ज्ञान भंडार सभी के लिए खोल दिया और दैव एवं भाग्य जैसी कल्पनाओं को अर्थहीन बताया। वे समाज में फैली अंधश्रद्धा को जड़ से मिटाना चाहते थे। उनका मानना था कि अंधविश्वास और रूढ़िवादिता समाज की प्रगति में बाधक हैं।
अंततः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि महात्मा फुले ने अपने वैज्ञानिक विचारों के आधार पर समाजिक परिवर्तन का अभियान चलाया। उन्होंने मानव मुक्ति का संकल्प लिया और अपने महान सामाज सुधारों माध्यम से बहुजन समाज को एक नई दिशा दी। उनके विचार आज के युग में अधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी समाज में कई ऐसी कुरीतियाँ और असमानताएँ विद्यमान हैं जिनके विरुद्ध संघर्ष करना आवश्यक है। महात्मा फुले का जीवन और उनके विचार भारत की उपेक्षित और पीड़ित जातियों के उत्थान के लिए हमेशा प्रेरित करते रहेंगे। उनसे प्रेरित होकर आज की बहुजन जातियों को समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए और एक समता मूलक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। महात्मा फुले का मानना था कि शिक्षा ही सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार है। इसलिए उन्होंने महिलाओं और दलितों की शिक्षा के लिए विशेष प्रयास किए। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया और उनके साथ मिलकर बालिकाओं के लिए स्कूल खोले। वे कहते थे कि जब तक महिलाएँ शिक्षित नहीं होंगी, तब तक समाज का विकास संभव नहीं है। महात्मा फुले ने समाज के उपेक्षित, पीड़ित और दलित समाज के लिए जो कार्य किया उसी का परिणाम है कि आज की दलित जातियों के चिंतन में परिवर्तन देखने को मिलता है। वे सच्चे अर्थों में एक युग पुरुष थे जिन्होंने अपने विचारों से समाज को एक नई दिशा दी ।
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री अरबिंदो कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर है ।