20/11/2025
हमीं तक रह गया किस्सा हमारा।
किसी ने ख़त नहीं खोला हमारा।
पढाई चल रही है जिन्दगी की,
अभी उतरा नहीं बस्ता हमारा।
मुआ'फी और इतनी सी ख़ता' पर,
सजा से काम चल जाता हमारा।
किसी को फिर भी मंहगे लग रहे थे,
फ़क़त सासों का ख़र्चा था हमारा।
यहीं तक इस शिकायत को न समझो,
खुदा तक जाएगा झगड़ा हमारा।
तरफदारी नहीं कर पाए दिल की,
अकेला पड़ गया बन्दा हमारा।
तआरुफ़ क्या करा आए किसी से,
उसी के साथ है साया हमारा।
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इक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम ने।
पहले यार बनाया फिर समझाया हम ने।
ख़ुद भी आख़िर-कार उन्ही वा'दों से बहले,
जिन से सारी दुनिया को बहलाया हम ने।
भीड़ ने यूँ ही रहबर मान लिया है वर्ना,
अपने अलावा किस को घर पहुँचाया हम ने?
मौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोली,
ऐसा मरने का माहौल बनाया हम ने।
घर से निकले चौक गए फिर पार्क में बैठे,
तन्हाई को जगह जगह बिखराया हम ने।
इन लम्हों में किस की शिरकत? कैसी शिरकत?
उसे बुला कर अपना काम बढ़ाया हम ने।
दुनिया के कच्चे रंगों का रोना रोया,
फिर दुनिया पर अपना रंग जमाया हम ने।
जब 'शारिक' पहचान गए मंज़िल की हक़ीक़त,
फिर रस्ते को रस्ते भर उलझाया हम ने।
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आया नही हूं रुकने यहां रात भर को मैं।
कम हो ज़रा नशा तो चला जाऊं घर को मैं।
दिल ही नही हुआ कि कभी उससे मिलने जाऊं,
खाली तो हर घड़ी था मुलाक़ात भर को मैं।
मुमकिन है अब की बार कड़ा हो मुकाबला,
इक बार फिर से छेड़ के आऊं भंवर को मैं।
लोगो से नाम ले के तेरा, पूछ लूं पता,
वैसे भी कौन सा हूं यहां उम्र भर को मैं।
इतना भी इंतजार किया तो बहुत किया,
आते हैं आप साथ कि निकलूं सफर को मैं?
जाने से कोई फ़र्क ही उसके नही पड़ा,
क्या क्या समझ रहा था बिछड़ने के डर को मैं?
किसका है इंतज़ार कि तकता हूं आजतक,
दुनिया से आने वाली हर इक रहगुजर को मैं।
कहने को एक संग भी मुझको नहीं लगा,
अब तक बचा रहा हूं मगर अपने सर को मैं।
अखबार सामने के बदलते रहे मगर,
पढ़ता रहा हूं एक पुरानी खबर को मैं।
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ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो।
वो साथ है तो ज़रा हमारी ख़ुशी तो देखो।
बहुत हसीं रात है मगर तुम तो सो रहे हो,
निकल के कमरे से इक नज़र चाँदनी तो देखो।
जगह जगह सील के ये धब्बे, ये सर्द बिस्तर,
हमारे कमरे से धूप की बे-रुख़ी तो देखो।
दमक रहा हूँ अभी तलक उस के ध्यान से मैं,
बुझे हुए इक ख़याल की रौशनी तो देखो।
ये आख़िरी वक़्त और ये बे-हिसी जहाँ की,
अरे मिरा सर्द हाथ छू कर कोई तो देखो।
अभी बहुत रंग हैं जो तुम ने नहीं छुए हैं,
कभी यहाँ आ के गाँव की ज़िंदगी तो देखो।
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शोहरत है तो ये मुश्किल है।
जुर्म ताअर्रुफ में शामिल है।
जैसे कोई शर्त लगी हो,
हम में कौन बड़ा बुजदिल है?
तुझ से पेंच पड़ा तो जाना,
दुख देना कितना मुश्किल है।
हम मेहमानों से मतलब क्या?
वो जाने जिस की महफिल है।
रात कोई जंगल है जिसमें,
मैं हूं और मेरा क़ातिल है।
किसे खबर है पांव के नीचे,
कब रस्ता है कब मंज़िल है?
अनजाना सा खड़ा हूं जिसमें,
ये मेरी अपनी महफिल है।
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कुछ एक तरफ़ ध्यान ज़्यादा है किसी का।
लगता है कि दिल टूटने वाला है किसी का।
पहले भी हुआ इश्क़ कई बार तो क्या है?
बस याद ये रखना कि ये पहला है किसी का।
इक वक़्त था यारों में घिरे रहते थे हर दम,
अब बोलना अच्छा नहीं लगता है किसी का।
कल दूसरा रूठा था कोई ऐसी ख़ता पर,
अब तेरी जगह नाम पुकारा है किसी का।
उठते हुए बिस्तर से बहुत डरने लगा हूँ,
हर काम मेरा काम बढ़ाता है किसी का।
इक और भी शारिक़ अभी करना है हमें जुर्म,
अब अपनी जगह नाम भी लेना है किसी का।
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ज़ब्त का हिसाब किताब
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ज़ब्त को सोच कर ख़र्च करता हूँ मैं
हर किसी पर नहीं
हर जगह पर नहीं
इसलिए मेरी आँखें कभी ख़ुश्क होती नहीं
ऐसा लगता है हर बात पर जैसे रोने को तैयार बैठा हूँ मैं
दोस्तों से हुई बदज़बानी पे भी
दुःख भरी दूसरों की कहानी पे भी
इसलिए यूँ कि मैं ज़ब्त को ख़र्च करना नहीं चाहता
छोटी मोटी किसी बात पर भी
हाँ मगर ! बड़े वाक़ये जब हुए
यहाँ तक कि जब मेरे घर से जनाज़े उठे
तब किसी ने मेरी आँख में एक आँसू भी देखा नहीं
कोई ये सोचता है अगर कि उसने मुझे अपने ग़म में रुला कर बड़ा मारका कोई सर कर लिया है
तो पागल है वो।
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ज़रा सी बात पर घबराने वाले,
अ'जब हमको मिले समझाने वाले।
हमें तो रात भर को चाहिए लोग,
कहाँ हैं बात को उलझाने वाले?
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ज़माना ही अगर इतना बुरा था।
तो वो थोड़ा बुरा भी क्या बुरा था।
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उस धोके ने तोड़ दिया है इतना मुझको।
अब कुछ भी समझा लेती है दुनिया मुझको।
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मुआफ़ी और इतनी सी ख़ता पर?
सज़ा से काम चल जाता हमारा।
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ख़याली इश्क़ मत करना कि इसमें,
बिछड़ने की सहूलत भी नहीं है।
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तभी मैं मश्वरा करता हूँ सबसे,
जब अपने दिल की करना चाहता हूँ।
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सुलाना तो नही आसान बीमारों को लेकिन,
हवा करना तो आता है हवा करता रहूंगा।
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सज़ाएं पूरी करके लोग घर जाते रहेंगें,
मैं फाटक पर खड़ा क़ैदी रिहा करता रहूँगा।
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कहा था बे सबब देखोगे अपनो के जनाज़े,
जिये जाने की ज़िद करना समझदारी नहीं है।
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सितम ये था कि मैं उस का बदल भी,
उसी से मिलता जुलता ढूंढता था।
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कौन था वो जिसने ये हाल किया है मेरा?
किसको इतनी आसानी से हासिल था मैं?
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हासिल करके तुझको अब शर्मिंदा सा हूँ,
था इक वक़्त के सच मुच तेरे क़ाबिल था मैं।
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इक रात की तकलीफ़ ने समझा दिया हमको,
ख़िदमत से बड़ा कोई दिखावा नहीं होता।
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सबके कहने पे बहुत हौसला करते हैं तो हम,
हद से हद उसके बराबर से गुज़र जाते हैं।
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जो सुनके पीठ थपकते वो यार ख़्वाब हुए,
गुनाह सिर्फ़ छुपाने के रह गए मेरे।
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अचानक हड़बड़ा कर नींद से मैं जाग उट्ठा हूँ,
पुराना वाक़िआ' है जिस पे हैरत अब हुई है।
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तुमसे बढ़कर कौन दुनिया में मेरे नज़दीक है?
इक तुम्हीं तो हो कि जिसका दिल दुखा सकता हूँ मैं।
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बड़े बीमार का छोटा सा शिकवा,
मेरी चादर नहीं बदली अभी तक।
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वो समझा ही कहां इस मर्तबे को,
मै उस को दुख में शामिल कर रहा था।
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अगर बर्दाश्त भी करलो तो क्या है?
तमाशा रोज़ तो करते नहीं हम।
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कभी सोचे तो इस पहलू से कोई,
किसी की बात क्यूं सुनते नहीं हम?
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तेरी तरह नहीं आसान वापसी मेरी,
मैं रास्तों को समझता हुआ नहीं आया।
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पहले भी हुआ इश्क़ कई बार तो क्या है?
बस याद ये रखना कि ये पहला है किसी का।
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उठते हुए बिस्तर से बहुत डरने लगा हूँ,
हर काम मेरा काम बढ़ाता है किसी का।
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एक महबूब तो मिले ऐसा,
बस जो मेरा ही दिल दुखाता हो।
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बड़ी संजीदगी के साथ स्टेशन पे उतरे,
वही लड़के जो रस्ते भर तमाशा कर रहे थे।
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झिझकता हूँ उसे इल्ज़ाम देते,
कोई उम्मीद अब भी रोकती है।
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उसकी टीस नहीं जाती है सारी उम्र,
पहला धोका पहला धोका होता है।
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सफ़र हांलांकि तेरे साथ अच्छा चल रहा है,
बराबर से मगर इक और रस्ता चल रहा है।
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बोल जाता हूँ फिर ये सोचता हूँ,
क्या मेरा बोलना ज़रूरी था?
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आँख सब देखती समझती थी,
दिल मगर किसकी बात सुनता था।
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ख़ुद से वो कौन से शिकवे हैं कि जाते ही नहीं?
अपने जैसों पे यक़ी क्यों नहीं आता है मुझे?
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लेकिन जो हुआ दिल से न जायेगा हमारे,
मिलते तो रहेंगे अभी पहले की तरह हम।
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अजब है अंदाज़े बन्दगी भी,
कि हम कहीं और सफ़ कहीं है।
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तुम नहीं जानते एक तरफ़ा मोहब्बत की मेहरूमियाँ,
तुमने देखा नहीं अपनी नज़रों से ख़ुद को छुपाना मेरा।
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हम ने इस बार तो मना लिया है,
अब ये ख़तरा नहीं उठाइएगा।
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रात थी जब तुम्हारा शहर आया,
फिर भी खिड़की तो मैंने खोल ही ली।
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सारी दुनिया से लड़े जिस के लिए,
एक दिन उस से भी झगड़ा कर लिया।
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इक रात की तकलीफ़ ने समझा दिया हमको,
ख़िदमत से बड़ा कोई दिखावा नहीं होता।
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मिरी नज़रें भी हैं अब आसमाँ पर,
कोई महव-ए-दुआ अच्छा लगा है।
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मुमकिन ही न थी ख़ुद से शनासाई यहाँ तक,
ले आया मुझे मेरा तमाशाई यहाँ तक।
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वो सफ़र बचपन के अब तक याद आते हैं मुझे,
सुब्ह जाना हो कहीं तो रात भर सोते न थे।
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कब तलक सूरज निकलने का करूं मैं इंतज़ार?
नींद पूरी हो गई तो रात ढलनी चाहिए।
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चांद छू लेने की हद तक पास था;
रात का फिर भी बहुत एहसास था।
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खूब भटके तुम्हारी यादों में,
रात में रास्ते भी खाली थे।
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अगर इतनी ही गहरी थी उदासी,
तो फिर वो रात मरने के लिए थी।
~ शारिक़ कैफ़ी, बरेली (उत्तर प्रदेश)
(जन्म : 02.11.1961)
Shariq Kaifi
#शारिक़_कैफ़ी