11/07/2025
"वो स्कूल के दिन – जब अनुशासन और संस्कार ही पहचान थे"
एक समय था जब सरकारी विद्यालय केवल शिक्षा के नहीं, बल्कि संस्कारों के मंदिर माने जाते थे। उस समय की बात ही कुछ और थी। विद्यालय के गेट से भीतर प्रवेश करते ही एक अलग ही दुनिया शुरू हो जाती थी – अनुशासन, मर्यादा, सम्मान और भय – ये चार स्तंभ छात्र जीवन के आधार हुआ करते थे।
वर्दी का अनुशासन
उस दौर की वर्दी में एक विशेष गरिमा होती थी। छात्र गहरी आसमानी कमीज और खाकी पैंट पहनते थे, जबकि छात्राएँ आसमानी रंग का सूट और सफेद सलवार में सुसज्जित होती थीं। हर सोमवार को प्रार्थना सभा के समय अगर कोई बच्चा बिना प्रेस की हुई यूनिफॉर्म में या बिना बेल्ट-जूते के दिखाई दे जाए, तो उसे पूरे विद्यालय के सामने खड़ा कर दिया जाता था – ये शर्मिंदगी आगे से अनुशासित रहने के लिए काफी होती थी।
शिक्षकों का भय नहीं, सम्मान था
शिक्षकों का रुतबा इतना था कि दूर से उनकी परछाई भी दिख जाए, तो बच्चे गलत काम करना तुरंत बंद कर देते। न मोबाइल था, न स्मार्ट क्लास, पर शिक्षक की एक घूरती नज़र ही कक्षा को शांत कर देती थी। जो जितनी गलती करता, उतनी धुनाई मिलती, और उसे जीवनभर याद रहती। पर उस डांट और मार में भी शिक्षक का प्रेम छिपा होता था, जो हमें आज भी याद आता है – और जिसके कारण आज भी किसी शिक्षक से मिलने पर सिर अपने आप झुक जाता है।
अभिभावकों का विश्वास
उस समय अभिभावक अपने बच्चों की शिकायत सुनने के बजाय पहले शिक्षक की बात मानते थे। शिक्षक को पूरा अधिकार होता था बच्चों को सही राह दिखाने का – चाहे वह डांट से हो या दंड से। आज के समय में भले ही यह सब गलत समझा जाता हो, पर उस दौर में यही छात्रों को मजबूत बनाता था।
छात्र जीवन – अनुशासन और नैतिकता की पाठशाला
उस समय बच्चों में अच्छा-बुरा समझने की क्षमता अधिक होती थी। अगर गलती हो भी जाए, तो मन में ग्लानि होती थी। चोरी, झूठ, अपशब्द – ये सब सिर्फ डर से नहीं, बल्कि संस्कारों से दूर रहते थे। कक्षा में बैठना, पंक्ति में चलना, वरिष्ठों का सम्मान करना, विद्यालय की संपत्ति की रक्षा करना – यह सब हम सीखे थे बिना किसी "वैल्यू एजुकेशन" के पाठ के।
90 के दशक की बात ही कुछ और थी
जो लोग 90 के दशक में जन्मे हैं, उन्होंने उस "ट्रांज़िशन पीरियड" को जिया है जहाँ ब्लैकबोर्ड और चॉक से लेकर व्हाइटबोर्ड और मार्कर तक का सफर देखा, जहां अनुशासन से लेकर अधिकारों की लड़ाई तक की शुरुआत महसूस की। पर उस समय के मूल्यों, आदर्शों और जीवनशैली की बात करें तो वह छात्र जीवन आज भी एक मिसाल है।
निष्कर्ष:
आज भले ही तकनीक, सुविधाएं और शिक्षा पद्धति बदल गई हों, पर वह दौर जब शिक्षक माता-पिता से कम नहीं होते थे, जब स्कूल केवल किताबों का घर नहीं, बल्कि जीवन जीने की पाठशाला होती थी – वह समय कुछ खास था। वह छात्र जीवन केवल किताबों और परीक्षा तक सीमित नहीं था, बल्कि जीवन को सहेजने और संवारने की नींव रखता था। उस काल को याद करते हुए बस इतना ही कह सकते हैं –
"किताबों में नहीं, यादों में बसता है वो विद्यालयी जीवन।"