अपना रांथी अपना गाँव

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22/09/2025




#जिंदगी_jindabad

22/09/2025

आप सभी को नवरात्रि की अनंत शुभकामनाएं। साहस, संयम और संकल्प के भक्ति-भाव से भरा यह पावन पर्व हर किसी के जीवन में नई शक्ति और नया विश्वास लेकर आए। जय माता दी!💐💐🙏🙏🎉🎉

13/07/2025

🧠 कटु सवाल:

"क्या इस बार का चुनाव पोस्ट-लाइक और स्टोरी-शेयर से जीता जाएगा, या ज़मीनी हकीकत पर बात भी होगी? जब तक घोषणा पत्र नहीं, तब तक भरोसा नहीं!"

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📜

"बिना मंज़िल के नक़्शा लेकर निकले हैं कुछ लोग,
न कोई दिशा, न कोई योजना — बस प्रचार का शोर।
सोशल मीडिया पर फोटो, वीडियो, और हवा में वादे,
पर ज़मीनी सवालों पर चुप्पी साधे बैठे हैं प्रत्याशी।

जनता अब इतनी भोली नहीं — सवाल पूछेगी, हिसाब मांगेगी।
पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार — इन पर प्राथमिकता क्या है?
बिना घोषणा पत्र के चुनाव लड़ना,
वैसे ही है जैसे अंधेरे में तीर चलाना — लगे तो चमत्कार, नहीं तो नुकसान!

नेता अब मसीहा नहीं, जवाबदेह सेवक बनाने होंगे।
अगर वाकई बदलाव की चाह है,
तो घोषणा पत्र के साथ मैदान में आओ —
वरना जनता इस बार ‘लाइक’ नहीं, ‘ना’ करेगी!"

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🔔 कॉल टू एक्शन:

अगर आप भी मानते हैं कि इस बार नेता नहीं, नीति चुनी जानी चाहिए —
तो कमेन्ट करें: #घोषणा_पत्र_जरूरी_है
और शेयर करें इस पोस्ट को —
ताकि हर प्रत्याशी को जनता की आवाज़ सुनाई दे।

13/07/2025

मनरेगा बजट में संतुलन: दूरस्थ क्षेत्रों के साथ न्याय क्यों आवश्यक है?

नमस्कार साथियों,
गाँव के विकास और ग्रामीणों की आजीविका के लिए मनरेगा एक महत्वपूर्ण योजना है। यह न केवल काम का साधन है, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी है। लेकिन विडंबना यह है कि इस योजना के बजट वितरण में समानता के नाम पर गहरी असमानता छिपी हुई है, जो विशेषकर हमारे दूरस्थ और अति दुर्गम क्षेत्रों के लिए अत्यंत अन्यायपूर्ण है।

हमारे गाँव में कई क्षेत्र ऐसे हैं जो मुख्य सड़क से काफी दूरी पर स्थित हैं, जैसे –
🔹 सेलमा, गैर, दायर, खोरी, रूती, घोरड्या, लेखरांथी, सीमार, बोरागांव, कुरखेती, दुआ
🔹 पंचायत घर के आसपास के वे सभी क्षेत्र जो सड़क से कटे हुए हैं
🔹 और कुछ अत्यंत दुर्गम क्षेत्र जैसे – ढूंगाभरन, बकरग्वार, दूवा

इन क्षेत्रों में निर्माण सामग्री पहुँचाना, मजदूरों का आवागमन, और किसी भी कार्य को अंजाम देना सामान्य क्षेत्रों की तुलना में कई गुना कठिन और महंगा है। फिर भी इन्हें मनरेगा के बजट में वही धनराशि मिलती है जो दोबाट जैसे सड़क से सटे और सुविधाजनक स्थानों को मिलती है।

क्या यह न्याय संगत है?
क्या यह योजना अपने उद्देश्य को पूरा कर पा रही है जब दूरस्थ क्षेत्रों का सारा बजट केवल ढुलाई में ही समाप्त हो जाता है?
क्या वहां रहने वाले हमारे भाई-बहनों को समान अवसर और सुविधाएँ मिल रही हैं?

यह केवल कुछ टोकों या मोहल्लों की बात नहीं, बल्कि सम्पूर्ण गाँव के लिए सोचने का विषय है।
👉 अगर हमारे जन प्रतिनिधि इस विषय को सही मंच पर उठाएँ, तो यह संभव है कि मनरेगा के बजट का वितरण क्षेत्र की कठिनाई और दूरी के आधार पर तय किया जाए।
👉 दुर्गम क्षेत्रों के लिए अतिरिक्त सहायता या विशेष बजट प्रावधान लागू किए जाएँ, ताकि वहाँ भी निर्माण कार्य गुणवत्तापूर्ण हो सके और रोजगार के अवसरों का वास्तविक लाभ मिल सके।

इसलिए अब समय है जागरूकता और पहल का।
यह आवाज सिर्फ शिकायत नहीं, सुधार की मांग है।
जनप्रतिनिधियों से निवेदन है कि इस विषय को प्राथमिकता में लाएं और मनरेगा को हर टोके के लिए न्यायपूर्ण और सार्थक योजना बनाएं।

– एक जागरूक ग्रामीण नागरिक, जो सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे गाँव के लिए सोचता है।

11/07/2025

"टिकट की ताक पर टिके लोग"

पंचायती चुनाव आ गए हैं, और साथ ही आ गया है कुछ लोगों का “सेवा भाव” का जागना, जो अचानक से उन्हें अपने गांव, मोहल्ले और क्षेत्र की याद दिला देता है। कुछ लोग खुद को योग्य समझकर मैदान में उतरते हैं — यह अच्छा संकेत है, लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक भी। लेकिन कुछ तो ऐसे भी हैं जो सिर्फ इसलिए टिकट ले आते हैं कि शायद कोई उन्हें "बिठा" देगा, कुछ खर्चा-पानी भी आ जाएगा और बाद में देखा जाएगा।

आज राजनीति में योग्यताओं से ज़्यादा “जुगाड़” और “गुटबाजी” की बोली लग रही है। कहीं जाति का कार्ड खेला जा रहा है, कहीं पैसों का खेल चल रहा है और कहीं ईश्वर को भी राजनीति में खींच लाने की कवायद हो रही है — "देवबल" बनाम "धनबल"।

यही वजह है कि कई बार सचमुच कर्मठ, ईमानदार और जमीनी कार्य करने वाले लोग या तो हतोत्साहित हो जाते हैं, या फिर उन्हीं की बिरादरी उन्हें किनारे कर देती है। गुटबाजी और अवसरवादिता के इस खेल में हम अक्सर अपना सबसे उपयुक्त उम्मीदवार खो बैठते हैं।

आज नाम वापसी का अंतिम दिन है — देखना यह है कि कौन अपने मूल्यों पर खरा उतरता है, और कौन सौदेबाज़ी की मंडी में बिक जाता है। यह समय है निर्णय का — क्या हम उस व्यक्ति को चुनेंगे जो वादों से पहले मुद्दों की बात करता है? या फिर उस चेहरे को जो अपने पीछे बड़ी गाड़ियों, झूठी भीड़ और दिखावटी समर्थन लेकर आता है?

चुनाव लड़ना है तो मुद्दों पर लड़िए — शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, स्वरोजगार, महिला सशक्तिकरण और युवाओं के भविष्य जैसे सवालों पर बात करिए। हार और जीत लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन बिना मुद्दों के लड़ी गई लड़ाई केवल दिखावा होती है।

अंततः, याद रखिए — जो सच्चा है, उसकी आवाज़ देर-सवेर जरूर जनता तक पहुँचेगी। और जो जनता की सेवा के लिए आया है, उसे जनता कभी अनसुना नहीं करती।

"राजनीति को सेवा का माध्यम बनाइए, सौदेबाज़ी का बाजार नहीं।"
👍

"वो स्कूल के दिन – जब अनुशासन और संस्कार ही पहचान थे"एक समय था जब सरकारी विद्यालय केवल शिक्षा के नहीं, बल्कि संस्कारों क...
11/07/2025

"वो स्कूल के दिन – जब अनुशासन और संस्कार ही पहचान थे"

एक समय था जब सरकारी विद्यालय केवल शिक्षा के नहीं, बल्कि संस्कारों के मंदिर माने जाते थे। उस समय की बात ही कुछ और थी। विद्यालय के गेट से भीतर प्रवेश करते ही एक अलग ही दुनिया शुरू हो जाती थी – अनुशासन, मर्यादा, सम्मान और भय – ये चार स्तंभ छात्र जीवन के आधार हुआ करते थे।

वर्दी का अनुशासन
उस दौर की वर्दी में एक विशेष गरिमा होती थी। छात्र गहरी आसमानी कमीज और खाकी पैंट पहनते थे, जबकि छात्राएँ आसमानी रंग का सूट और सफेद सलवार में सुसज्जित होती थीं। हर सोमवार को प्रार्थना सभा के समय अगर कोई बच्चा बिना प्रेस की हुई यूनिफॉर्म में या बिना बेल्ट-जूते के दिखाई दे जाए, तो उसे पूरे विद्यालय के सामने खड़ा कर दिया जाता था – ये शर्मिंदगी आगे से अनुशासित रहने के लिए काफी होती थी।

शिक्षकों का भय नहीं, सम्मान था
शिक्षकों का रुतबा इतना था कि दूर से उनकी परछाई भी दिख जाए, तो बच्चे गलत काम करना तुरंत बंद कर देते। न मोबाइल था, न स्मार्ट क्लास, पर शिक्षक की एक घूरती नज़र ही कक्षा को शांत कर देती थी। जो जितनी गलती करता, उतनी धुनाई मिलती, और उसे जीवनभर याद रहती। पर उस डांट और मार में भी शिक्षक का प्रेम छिपा होता था, जो हमें आज भी याद आता है – और जिसके कारण आज भी किसी शिक्षक से मिलने पर सिर अपने आप झुक जाता है।

अभिभावकों का विश्वास
उस समय अभिभावक अपने बच्चों की शिकायत सुनने के बजाय पहले शिक्षक की बात मानते थे। शिक्षक को पूरा अधिकार होता था बच्चों को सही राह दिखाने का – चाहे वह डांट से हो या दंड से। आज के समय में भले ही यह सब गलत समझा जाता हो, पर उस दौर में यही छात्रों को मजबूत बनाता था।

छात्र जीवन – अनुशासन और नैतिकता की पाठशाला
उस समय बच्चों में अच्छा-बुरा समझने की क्षमता अधिक होती थी। अगर गलती हो भी जाए, तो मन में ग्लानि होती थी। चोरी, झूठ, अपशब्द – ये सब सिर्फ डर से नहीं, बल्कि संस्कारों से दूर रहते थे। कक्षा में बैठना, पंक्ति में चलना, वरिष्ठों का सम्मान करना, विद्यालय की संपत्ति की रक्षा करना – यह सब हम सीखे थे बिना किसी "वैल्यू एजुकेशन" के पाठ के।

90 के दशक की बात ही कुछ और थी
जो लोग 90 के दशक में जन्मे हैं, उन्होंने उस "ट्रांज़िशन पीरियड" को जिया है जहाँ ब्लैकबोर्ड और चॉक से लेकर व्हाइटबोर्ड और मार्कर तक का सफर देखा, जहां अनुशासन से लेकर अधिकारों की लड़ाई तक की शुरुआत महसूस की। पर उस समय के मूल्यों, आदर्शों और जीवनशैली की बात करें तो वह छात्र जीवन आज भी एक मिसाल है।

निष्कर्ष:
आज भले ही तकनीक, सुविधाएं और शिक्षा पद्धति बदल गई हों, पर वह दौर जब शिक्षक माता-पिता से कम नहीं होते थे, जब स्कूल केवल किताबों का घर नहीं, बल्कि जीवन जीने की पाठशाला होती थी – वह समय कुछ खास था। वह छात्र जीवन केवल किताबों और परीक्षा तक सीमित नहीं था, बल्कि जीवन को सहेजने और संवारने की नींव रखता था। उस काल को याद करते हुए बस इतना ही कह सकते हैं –
"किताबों में नहीं, यादों में बसता है वो विद्यालयी जीवन।"

10/07/2025

"नेता वही जो घोषणा करे, जनता वही जो जवाब माँगे!"

आदरणीय ग्रामीण भाइयों और बहनों,
पंचायती चुनाव का बिगुल बज चुका है। चौपालों से लेकर गलियों तक चर्चाएँ गर्म हैं। उम्मीदवार घर-घर दस्तक दे रहे हैं। लेकिन इस बार ज़रा ठहरिए... सोचिए... और सवाल कीजिए!

क्योंकि इस बार भी कुछ लोग फिर से वही घिसे-पिटे मुद्दों के सहारे मैदान में हैं — जातिवाद, पक्षपात, क्षेत्रवाद, और सम्भावनाओं का झूठा प्रचार। न नीयत साफ़, न उद्देश्य स्पष्ट!
ये वही लोग हैं जो कहते हैं – “फलां ने कुछ नहीं किया”
पर ख़ुद कभी यह नहीं बताते कि करना क्या है?

❌ न कोई घोषणा पत्र,

❌ न कोई विकास का खाका,

❌ न शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की बात!

सिर्फ़ एक ही उम्मीद — "हमें वोट दो!"

लेकिन अब जनता गूंगी-बहरी नहीं है।
अब हम सिर्फ़ चेहरा नहीं, चरित्र भी देखेंगे।
अब हम भावनाओं से नहीं, घोषणाओं और उनके आधार से मतदान करेंगे।

🤔 सवाल उठाइए:

बिना घोषणा पत्र के हम कैसे जानें कि ये उम्मीदवार गाँव के लिए क्या सोचता है?

अगर पहले कुछ नहीं किया, तो अब क्या करेगा?

क्या जाति या पार्टी से गाँव की सड़क बनेगी? स्कूल सुधरेगा?

जनता की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मतदान नहीं, बल्कि समझदारी से मतदान है।
जिस तरह कोई दुकान से बिना रसीद के सामान नहीं खरीदते, वैसे ही बिना घोषणा पत्र के नेता को क्यों चुनें?

इसलिए साथियों,
इस चुनाव में वही व्यक्ति चुना जाए जो लिखित में अपने वादे दे, ताकि कल उसे जवाबदेह बनाया जा सके।

👉 "घोषणा पत्र दो, तब वोट लो!"
👉 "गाँव को बाँटने नहीं, जोड़ने वाला चाहिए!"
👉 "न जातिवाद, न झूठी बात — चाहिए विकास की सौगात!"

इस बार गाँव के हित में सोचिए,
और सोचकर एक जिम्मेदार नेतृत्व चुनिए!

आपका मत – आपकी शक्ति – आपके गाँव का भविष्य!

10/07/2025

"विकास नहीं, बोतल और नोट का भरोसा!"

बरसों से हम पंचायती चुनाव में एक ही तमाशा देखते आ रहे हैं — विकास की बातें कम, और बोतलों व रुपयों की बारिश ज़्यादा। कुछ तथाकथित "नेता" जनता की सेवा नहीं, सिर्फ़ कुर्सी की सेवा करने आते हैं। हाथ में बोतल, जेब में नोट, और ज़ुबान पर झूठा वादा।

क्या यही है हमारे गाँव का भविष्य?
क्या यही है नेतृत्व का असली चेहरा?

शराब बाँटकर वोट खरीदने वाले सोचते हैं कि गांववालों की आत्मा इतनी सस्ती है कि उसे एक रात की मदहोशी या कुछ रुपयों में खरीदा जा सकता है। पर क्या ये सौदा सिर्फ वोट का होता है? नहीं... यह सौदा होता है हमारे गांव के स्कूलों का, बेजान पड़े अस्पतालों का, टूटे हुए रास्तों का, और आशाओं से भरे सपनों का।

जब रुपयों से वोट खरीदे जाते हैं, तब आने वाले पांच सालों के लिए आपके अधिकार गिरवी रख दिए जाते हैं।

🍶 शराब की बोतल खत्म हो जाएगी,
💵 रुपये खर्च हो जाएंगे,
लेकिन ✍ जिनके हाथों में आपने मतदान किया है,
वे आपकी तक़दीर का फ़ैसला करेंगे।

अब फैसला आपके हाथ में है —
"एक रात का लालच या पाँच साल का विकास?"

👉 इस बार सोच-समझकर चुनिए —
वह नहीं जो आपको खरीदने आए,
बल्कि वह जो आपके साथ खड़ा रहे।

गाँव बदलना है, तो नीयत पहचानो, चेहरे नहीं।
नेता नहीं, नेतृत्व चुनो — ईमानदार, विचारशील और कर्मठ।

🙏
– एक जागरूक ग्रामीण की कलम से

बरसात में आपदाएं टालना संभव नहीं, पर उनके नुक़सान को कम करना जरूर संभव है। अतिसंवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर समय रहते क...
10/07/2025

बरसात में आपदाएं टालना संभव नहीं, पर उनके नुक़सान को कम करना जरूर संभव है। अतिसंवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर समय रहते कदम उठाना जरूरी है। क्षेत्रीय नेतृत्व और वार्ड सदस्यों को चाहिए कि वे सजग हों, ताकि आपदा नहीं अवसर बन सके सतर्कता।

08/07/2025

ग्रामसभा के सम्मानित नागरिकों से एक सवाल...!

जब लोकतंत्र का पर्व आता है, तो गाँव की सड़कों से लेकर चौपालों तक चर्चा होती है—“अबकी बार कौन?”

लेकिन इस बार सवाल सीधा है, स्पष्ट है, और आपके विवेक पर निर्भर है...

👉 क्या आप ऐसे पुराने खिलाड़ियों के साथ हैं, जिनकी राजनीति फिल्डिंग बिठाने तक सीमित रह गई है, या फिर उन नए चेहरों के साथ जो भले अनुभवहीन हैं, लेकिन बदलाव की ईमानदार चाहत रखते हैं?

👉 क्या आपका रुझान गाँव में रहने वालों की तरफ है, जो हर सुख-दुख में साथ होते हैं, या फिर उन बाहरी चेहरों की तरफ, जो चुनाव के मौसम में गाँव की याद करते हैं?

👉 क्या आप उन शिक्षित उम्मीदवारों के साथ हैं, जिनकी डिग्री है लेकिन दृष्टिकोण में कमी है? या फिर उस प्रत्याशी के साथ जो कम पढ़ा हो लेकिन ज़मीन से जुड़ा हो और समस्या का समाधान जानता हो?

👉 क्या आप उन चेहरों के पीछे हैं, जो सालों से पद पर रहकर भी गाँव की तस्वीर नहीं बदल पाए, या फिर उस मेहनतकश प्रत्याशी की तरफ हैं, जो गाँव को बदलने की ठान चुका है?

गाँव के सामने आज फैसला है—
चेहरा चुनना है या चरित्र?
भाषण सुनना है या समाधान देखना है?
पुराना राग दोहराना है या नए सुर छेड़ने हैं?

फैसला आपके हाथ में है, लेकिन सवाल पूछना ज़रूरी है—
🗣️ क्या आप एक बार फिर सिर्फ नाम के पीछे जाएँगे या काम की तरफ बढ़ेंगे?
🗣️ क्या आप विकास को वोट देंगे या फिर जात-पात, रिश्ता-नाता देखकर?

🙏 यह लेख न किसी के पक्ष में है, न विपक्ष में। बस आपको सोचने के लिए मजबूर करता है...
ग्रामसभा का भविष्य किसके हाथ में सुरक्षित रहेगा—यह निर्णय आपका है।

अबकी बार सोच-समझकर, क्योंकि प्रधान वही बने जो गाँव को भी आगे ले जाए और गाँववालों को भी।

#ग्रामसभाRanthi #विकासVsवादा #नयाVsपुराना #गाँवकीआवाज़ #सोचिएफिरवोटकीजिए

**हमारी गाँव की संस्कृति और प्रकृति से जुड़ाव**हमारे गाँव की संस्कृति हमें प्रकृति से जोड़ना सिखाती है। प्रकृति ही सबकुछ...
22/06/2024

**हमारी गाँव की संस्कृति और प्रकृति से जुड़ाव**

हमारे गाँव की संस्कृति हमें प्रकृति से जोड़ना सिखाती है। प्रकृति ही सबकुछ है, और पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से हमारा जीवन उत्पन्न होता है और अंततः इन्हीं में विलीन हो जाता है। हमारी संस्कृति, परंपराएँ और विरासत हमें सदैव प्रकृति से जुड़े रहने की प्रेरणा देती हैं।

हर फसल को हम अपने इष्टदेव को अर्पित करते हैं, उसके बाद ही उसका दैनिक उपयोग करते हैं। यह रिवाज न केवल धार्मिक आस्था को प्रकट करता है बल्कि यह भी सिखाता है कि हम प्रकृति की उपहारों का सम्मान और आभार व्यक्त करें। यह भावना लोगों को प्रकृति से गहरे रूप से जोड़ती है, जिससे वे उसकी महत्ता को समझते हैं और उसकी रक्षा के प्रति जागरूक रहते हैं।

इस प्रकार, हमारी संस्कृति और परंपराएँ हमें सिखाती हैं कि प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करना आवश्यक है, क्योंकि वही हमारे अस्तित्व का मूल आधार है।

कुमाऊँ संस्कृति के संदर्भ में, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं में भुकोर एक संगीत वाद्ययंत्र के रूप में महत्वपूर्ण स्थान र...
19/06/2024

कुमाऊँ संस्कृति के संदर्भ में, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं में भुकोर एक संगीत वाद्ययंत्र के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके महत्व को उजागर करने वाले कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

# # # सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व:
1. **देवताओं का आह्वान:** धार्मिक समारोहों और त्यौहारों के दौरान देवताओं का आह्वान करने के लिए भुकोर का उपयोग किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसकी अनूठी ध्वनि देवी-देवताओं का ध्यान आकर्षित करती है, और उन्हें अनुष्ठानों में भाग लेने के लिए आमंत्रित करती है।
2. **कृपा का प्रतीक:** भुकोर बजाना अक्सर किसी देवता की उपस्थिति और कृपा को इंगित करने के साथ जुड़ा होता है। यह समुदाय के लिए आशीर्वाद और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए ईश्वर से संवाद करने का एक माध्यम है।
3. **चयनित कलाकार:** परंपरागत रूप से, भुकोर को एक चयनित व्यक्ति द्वारा बजाया जाता है, अक्सर ऐसा व्यक्ति जिसे वाद्ययंत्र और उससे जुड़े अनुष्ठानों की गहरी समझ होती है। आध्यात्मिक प्रथाओं में अपनी भूमिका के कारण यह व्यक्ति समुदाय में एक सम्मानित स्थान रखता है।

# # # सांस्कृतिक संरक्षण:
1. **ज्ञान का हस्तांतरण:** भुकोर बजाने का कौशल और इससे जुड़ी रस्में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं, जो कुमाऊँ की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करती हैं। ज्ञान का यह हस्तांतरण सुनिश्चित करता है कि पारंपरिक प्रथाएँ फलती-फूलती रहें।
2. **सांस्कृतिक पहचान:** भुकोर कुमाऊँ की पहचान का प्रतीक है। इसकी ध्वनि और इससे जुड़ी रस्में इस क्षेत्र के लिए अद्वितीय हैं, जो कुमाऊँ की सांस्कृतिक प्रथाओं को अन्य क्षेत्रों से अलग करती हैं।
# # # सामाजिक एकता:
1. **सामुदायिक समारोह:** त्योहारों और धार्मिक समारोहों के दौरान भुकोर बजाने से समुदाय एक साथ आता है। यह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में एकता और सामूहिक भागीदारी की भावना को बढ़ावा देता है।
2. **उत्सव और त्यौहार:** भुकोर कई स्थानीय त्योहारों और समारोहों का एक केंद्रीय तत्व है, जो उत्सव के माहौल को बढ़ाता है और सामुदायिक अनुभव को बढ़ाता है।

# # # चुनौतियाँ और संरक्षण के प्रयास:
1. **आधुनिकीकरण:** कई पारंपरिक प्रथाओं की तरह, भुकोर के उपयोग को आधुनिकीकरण और बदलते सामाजिक गतिशीलता से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। समकालीन समाज में इसकी प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के लिए प्रयासों की आवश्यकता है।
2. **दस्तावेजीकरण और प्रचार:** इस सांस्कृतिक प्रथा को संरक्षित करने के लिए, दस्तावेज़ीकरण और प्रचार की आवश्यकता है। इसमें संगीत को रिकॉर्ड करना, अनुष्ठानों का दस्तावेजीकरण करना और सांस्कृतिक कार्यक्रमों और शैक्षिक पहलों के माध्यम से वाद्य यंत्र को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।

# # # निष्कर्ष:
एक संगीत वाद्ययंत्र के रूप में भुकोर कुमाऊँ क्षेत्र के सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका महत्व संगीत से परे आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों को शामिल करता है। कुमाऊँ की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने के लिए इस परंपरा को संरक्षित और बढ़ावा देना आवश्यक है।

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