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B K SIR Jai mata sarswati

09/02/2025

Sri mad ramayan

गांव की रातें!शाम होते ही नानी लालटेन में तेल भरती और शीशा साफ करके लालटेन जलाकर छज्जे से लटकती टेढ़ी सरिया में लटका देत...
26/09/2024

गांव की रातें!
शाम होते ही नानी लालटेन में तेल भरती और शीशा साफ करके लालटेन जलाकर छज्जे से लटकती टेढ़ी सरिया में लटका देती थी जिससे ओसारा और दुआर पर उजाला हो जाता था। घर गांव से बाहर होने के नाते जलती लालटेन काफी दूर से ही नजर आती थी इसलिए नानी सोते समय भी उसे बुझाती नही थी बस उसकी बत्ती कम करके उजाला कम कर देती थी।
घर के डेउढ़ी की चौखट पर मिट्टी के तेल का दीया जलाकर आंचल से गोड लग कर रखा जाता और एक दीया रसोई घर में जलाकर लकड़ी की बनी डीयूठी पर रख दी जाती और उसके उजाले में भोजन बनता था।
दिन ढलते ही हम बच्चे छत पर जाने के लिए उतावले होने लगते थे। लेकिन बड़ी मिन्नतों के बाद छत पर जाने की अनुमति मिलती थी।छत पर जाने के लिए सीढ़ी नही बनी थी बल्कि बांस की बनी सीढ़ी लगाई गई थी उस पर चढ़कर फिर छत पर जाते थे। हम तो शैतान बच्चे थे बांस की सीढ़ी तो भी ठीक है हम तो घर के पिछली दीवार से जोड़कर नया कमरा बनाने के लिए जो आधी ईंट छोड़ी जाती है उस आधी ईंट पर पैर रखकर और उसे ही पकड़कर बिल्ली जैसे छत पर चुपके से चढ़ जाते थे।
छत पर एक एक करके सारे बच्चे इकट्ठे होते और फिर कभी अंताक्षरी, कभी कौवा उड़ जैसे खेल खेले जाते।
भोजन करने के बाद वही कथरी बिछाकर सोते।
रात में बहती ठंडी पुरवाई बयार जब घर के बगल में बोरिंग के पास लगे रातरानी फूलों की खुश्बू का झोंका लेकर आती तो लगता कि मानों सपनों की दुनियां में हैं।
चांदनी रात में , पुरवाई बयार हो उस पर रात रानी, बेला फूलों की खुश्बू हो तो मन कितना भी खिन्न हो प्रसन्न हो जाए। खैर तब मन कहां खिन्न होते थे। टेंशन, डिप्रेशन को कौन जानता था।
रात में सोने से पहले हम तारे गिनते, तारों की पहचान करते। छोटी छोटी सैकड़ों की झुंड में दिपावली की जलती बुझती लड़ियों की तरह जो हैं वो कचपचिया हैं, चार तारे मिलकर चारपाई बनाएं हैं और तीन उनकी पूंछ बने हैं ये हन्नी हन्ना हैं, इनसे थोड़ा दूर एक अकेला तारा टिमटिमा रहा है वो राजा है, लाल रंग की रोशनी वाला मंगल तारा है, सबसे बड़ा तारा बिफई (बृहस्पति) है, बीच में डगर बनी है तो मां कहती थी कि ये आकाश गंगा है,कोई तारा टूटा तो कहते थे कि किसी की आत्मा निकली हैं।
कुछ यूं हमारी तारों को लेकर जानकारी होती थी।
रात के अंधेरे में हम दूर खड़े पेड़ों में भी तमाम पशु पक्षी की आकृति की कल्पना किया करते थे।
यही सब करते न जाने कब नीद के आगोश में समा जाते थे। सुबह जब सूर्य की रोशनी पड़ने लगती थी, मक्खियां भिनभिनाने लगती थी तब कहीं जाकर नीद खुलती थी तब छत से कथरी गुदड़ी समेट कर नीचे उतर कर आते थे।

सच में वो कितने अच्छे दिन थे।

अब तो नर्म गद्दे, एसी, कूलर, पंखा सब है बस नींद नही होती है।
(नीरज कुमार)

20/03/2024

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15/11/2023

दिन जब ढलना शुरू हो जाता था लगभग ढाई तीन बजे तक घर के सारे काम बर्तन धोने, झाड़ू लगाकर रसोई साफ करने, चूल्हे पर खाना बनता था तो लकड़ी उपले की व्यवस्था करने के बाद, हाथ मुँह धोकर, सुंदर सी चुटिया बनाकर, सुंदर मुखड़े को थोड़ा और संवार कर, हाथ में सिकाहुली, मौनी लेकर, रंग बिरंगी ओढ़नीया लहराती सखियो की टोली झुण्ड बनाकर खेतों की तरफ निकला करती थी।
सिकाहुली, मौनी के साथ साथ धनिया पत्ती, हरी मिर्च, लहसुन वाला तीखा चटपटा नमक अपने साथ ले जाना नहीं भूलती थी।
खेतों में पहुंचकर पहले चुनाव करती थी कि किस खेत में बढ़िया बथुआ है उसी खेत में पसरा जाय।
किसी को सिर्फ दाल में डालकर सगपहिता बनाना है इसलिए थोड़ा सा बथुआ चाहिए, किसी का आज सरसों का साग बनाने का प्लान है इसलिए उसमें मिलाने के लिए ज्यादा बथुआ चाहिए, कोई शाम को साग, सुबह दाल भी बनाएगा और सब में बथुआ डालना है इसलिए उसे ज्यादा बथुआ चाहिए।
सब सखियां अपनी अपनी मौनी भरने के बाद एक दूसरे की बथुआ खोटने और सरसों उखाड़ने में मदद करती थी ताकि सब एक साथ खाली हो सके।
बथुआ का काम निपटाने के बाद राह में पड़ने वाले चना, मटर के खेत पर धावा बोला जाता था। चने की खट्टी खट्टी अमलोनी वाली कोमल पत्तियाँ, मटर की कुछ मिठास ली हुई पत्तियाँ खोट खोटकर (तोड़ कर ) भर गाल खाते थे साथ में तीखा नमक मुँह में डालकर चटखारे लिए जाते थे। मुँह भर कर एक बार चने का साग खाने को एक गाल साग खाना कहते थे।
मन भरकर चने, मटर का साग खाकर गन्ने की खेत की तरफ निकलते थे। बढ़िया बढ़िया गन्ना चुनकर तोड़कर उसका गेंड (पत्तियाँ ) वही खेत में भनना कर (गोल गोल घुमा कर ) फेंक दिया करते थे। वही चकरोट(कच्ची पगडंडी वाली सड़क ) में बैठकर गन्ना चूस कर घर की राह लेते थे।
गांव के नजदीक वाले खेतों में गांव के लोगों की गृहवाटिका जिसे हमारी अरई बिरवा कहते है होता था। इस गृह वाटिका में सर्दियों में खाई जाने वाली सब प्रकार की सब्जियाँ उगाई जाती है।
इन खेतों में से मूली उखाड़कर वही घास पर रगड़ कर, कुछ अपने कपड़े में पोछकर मिट्टी साफ कर ली जाती थी और फिर उस मूली का काम भी तमाम किया जाता था। फूलगोभी में से कुछ टुकड़े तोड़ कर उदरस्थ होते थे, मटर की फलियाँ हो या शलगम, गाजर हो सब का स्वाद लेते हुए ये टोली दिन छिपने तक घर वापस आती थी।
हमारे समय में मोमो बर्गर खाकर शाम की भूख नहीं मिटाई जाती थी बल्कि खेतों की तरफ निकलने पर न जाने कितनी चीजे खाने को मिल जाती थी। खेत से ही तोड़कर एक दम ताज़ा खाने का स्वाद अप्रितम होता था और स्वास्थ्यवर्धक कितना होता था आप सब समझ ही सकते है।
अब तो शहरों में बस गए है दो दिन का बासी बथुआ खरीदकर लाते है कभी साग बन गया तो कभी सगपहिता बनी।
बचपन में पूरी सर्दियों में हम सबके घरों में दोनों समय साग और सगपाहिता वाली दाल ही बनाई खाई जाती थी।
रात की बनी सगपाहिता वाली दाल और भात को सुबह सानकर कड़ाही में तड़का लगा कर गर्म कर दिया जाता था। जब कड़ाही में एक परत खाना चिपक जाता था तब उसे खुर्च खुर्च कर खाते थे यही हमारा नाश्ता यही हमारा खाना होता था जिसे खाकर बस्ता उठाकर स्कूल भागा करते थे।

आप सबने ऐसा जीवन जिया है या देखा है तो अवश्य बताये

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16/10/2023

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21/09/2023

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