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29/07/2025

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नोट:-सड़क की पल पल की अपडेट जानने के लिए पेज करे

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29/07/2025

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23/07/2025

आज जब बाजार गए तो मेरी नजर एक ऐसी दुकान पर पङी जहां गुजरे जमाने मे रोनक रहती थी, सोचा आपके साथ शेयर करू वो गुजरे जमाने कि यादे, वाकई एक ज़माना था जब मोहल्ले की गलियों में वीडियो लाइब्रेरी की रौनक होती थी।👌
VCR (विडियो कैसेट रिकॉर्डर) और TV किराये पर मिलना आज भले ही कुछ लोगों को अजीब लगे, लेकिन 80s–90s के दशक में ये एक बड़ा ट्रेंड था — खासकर छोटे शहरों और कस्बों में।
📼 कैसेट किराये पर लेने का दौर।
लोग बुकिंग कराते थे, और एक-एक फिल्म के लिए लाइन लगती थी।

हर घर में VCR नहीं होता था, इसलिए उसे भी साथ किराये पर लिया जाता था।

📺 TV किराये पर
शादी-ब्याह, त्यौहार या खास मौकों पर रंगीन टीवी किराये पर लाकर पूरा मोहल्ला इकट्ठा होता था।😊

🎞️ वो दिन भी क्या दिन थे... 📼

जब मोहल्ले की गलियों में वीडियो लाइब्रेरी की रौनक होती थी।
हर नुक्कड़ पर एक दुकान होती थी जहां बड़े-बड़े पोस्टर टंगे रहते - 'राम लखन', 'हम', 'नगीना', 'त्रिदेव', 'घायल', 'शोलै', जैसी फिल्मों की वीएचएस कैसेट्स बड़ी धूमधाम से आती थीं।
🛵 लड़का VCR लेकर आता, टीवी भी किराए पर मिलता था।
फिल्म देखने के लिए मोहल्ले के 15-20 लोग एक ही कमरे में जमा हो जाते।
किसी के पास रिमोट नहीं होता, लेकिन मज़ा सबको आता।
📺 "टीवी शादी में आया है", ऐसा सुनते ही बच्चे सबसे पहले आगे वाली लाइन में बैठने की होड़ लगाते।
और कैसेट का वो रोल जब अटक जाता था – "अरे बबलू, जरा पेंसिल लाना यार!" 😄
आज वो दुकानें बंद हो गईं,
VCR धूल में खो गए,
पर दिल के एक कोने में आज भी वो "वीडियो वाले भैया" ज़िंदा हैं।
🌧️ वक्त बदल गया... मगर यादें अब भी ताज़ा हैं।

सरपंच की बेटी और OYO का दरवाज़ाबिहार के एक छोटे से गांव गंगापुर में रामप्रसाद  सरपंच था। ईमानदार, सीधा-सच्चा और गांव की ...
23/07/2025

सरपंच की बेटी और OYO का दरवाज़ा

बिहार के एक छोटे से गांव गंगापुर में रामप्रसाद सरपंच था। ईमानदार, सीधा-सच्चा और गांव की भलाई में दिन-रात लगा रहने वाला इंसान। उसकी एक ही संतान थी — रूपा। बचपन से ही रूपा तेज, सुंदर और होशियार थी। रामप्रसाद का सपना था कि उसकी बेटी पढ़-लिखकर अफसर बने, गांव का नाम रोशन करे।

गांव की कच्ची गलियों से निकलकर रूपा को शहर भेजा गया — इंटर में एडमिशन दिलवाया, होस्टल में जगह दिलवाई और जरूरत की हर चीज़ मुहैया करवाई। कई लोगों ने कहा — “सरपंच जी, लड़की है, ज़माना अच्छा नहीं है।”
लेकिन रामप्रसाद ने जवाब दिया —
“बेटियां कमजोर नहीं होतीं, बस उन्हें भरोसा चाहिए, और मैंने उसे वो दिया है।”

हर महीने पैसे भेजना, कॉल पर हालचाल लेना, रिजल्ट की चिंता करना — सब कुछ करते हुए वो बस इस उम्मीद में जी रहा था कि एक दिन उसकी बेटी शान से बोलेगी — “मैं सरपंच की नहीं, खुद की पहचान हूं।”

लेकिन किस्मत ने ऐसा तमाचा मारा कि उस भरोसे की नींव ही हिल गई।

एक दिन रामप्रसाद को गांव का ही एक लड़का संदीप मिला, जो उसी शहर में नौकरी करता था। वो थोड़ा झिझकते हुए बोला —
“चाचा, बुरा मत मानिएगा… कल मैंने रूपा दीदी को एक लड़के के साथ OYO होटल में जाते देखा। बहुत पास से देखा… शक की कोई गुंजाइश नहीं थी।”

सुनते ही रामप्रसाद के पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गई।
उसने सोचा — “नहीं, मेरी बेटी ऐसा नहीं कर सकती… जिसने इतने सपने देखे, जो मेरी इज्ज़त है, वो भला कैसे…”

लेकिन संदेह की आग ने उसे चैन से बैठने नहीं दिया। अगली सुबह वो बिना कुछ कहे शहर चला गया। वहां जाकर बेटी के कॉलेज के बाहर खड़ा हुआ — और फिर देखा…
रूपा एक लड़के के साथ हँसते हुए आ रही थी, और फिर दोनों एक टैक्सी में बैठकर OYO होटल की ओर चले गए।

रामप्रसाद ने खुद से लड़ते हुए, कांपते कदमों से होटल तक पीछा किया… और जब रिसेप्शन पर रजिस्टर में उसकी बेटी का नाम देखा —
“रूपा चौधरी - साथ में: रोहित वर्मा (बॉयफ्रेंड)”
तो उसका सीना चीर सा गया।

वो कमरे तक नहीं गया… वो चिल्लाया भी नहीं… वो बस चुपचाप वहां से निकल पड़ा। स्टेशन पर बैठकर उसने सिर्फ एक फोटो देखी — अपनी बेटी की बचपन की तस्वीर, जिसमें उसने उसकी ऊंगली पकड़ रखी थी और मुस्कुरा रही थी।

उसकी आंखों से आंसू बहते रहे, और दिल सिर्फ़ एक सवाल पूछता रहा —
“क्या मैंने उसे आज़ादी दी थी या बर्बादी का रास्ता?”

गांव लौटकर रामप्रसाद ने कुछ नहीं कहा। लोगों ने पूछा —
“कैसी रही शहर की यात्रा?”
वो सिर्फ़ मुस्कुरा कर बोला —
“बेटी बड़ी हो गई है… अब खुद के फैसले लेती है।”

लेकिन उस मुस्कान के पीछे, एक बाप का टूटा हुआ सपना छिपा था, एक भरोसे की लाश पड़ी थी।

इस युवा पीढ़ी के ऐसी हरकतों पर आपके क्या विचार हैं।

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