09/08/2025
भारत का इतिहास जितना गौरवशाली है उतना ही वह कुछ अंधेरे अध्यायों का भी साक्षी रहा है। सती प्रथा उन्हीं काले अध्यायों में से एक है। एक ऐसी क्रूर परंपरा, जिसमें पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को भी अग्नि की भेंट चढ़ा दिया जाता था। इसे ‘सहमरण’ कहा जाता था पर इसकी वास्तविकता भय और अमानवीयता से भरी थी।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ और यात्रावृत्त बताते हैं कि इस ‘अनुष्ठान’ को निभाने के लिए विधवा को पहले नशे में मदहोश किया जाता था। भांग, धतूरा या अन्य नशे वाले पेय पिलाए जाते थे ताकि वह प्रतिरोध न कर सके। फिर श्मशान की ओर जाते समय कभी वह हँसती, कभी रोती, तो कभी ज़मीन पर लेट जाती। यह नशे और मानसिक पीड़ा का मिला-जुला असर होता था। चिता पर बैठाने के बाद बांस की मचिया से उसे दबा दिया जाता था क्योंकि भय था कि वह जलन सहन न कर पाए और भागने की कोशिश करे।
इसके साथ ही ढोल-नगाड़े, शंख और करताल बजाकर इतना शोर किया जाता कि उसकी चीख, आर्तनाद और विनती कोई न सुन सके। चिता पर घी और राल डालकर धुएँ का गुबार उठाया जाता ताकि दृश्य अस्पष्ट रहे और माहौल धार्मिक आडंबर में डूबा दिखे। यह सब ‘धर्म’ के नाम पर होता था जबकि असल में यह स्त्री के अधिकार, उसकी इच्छा और उसके जीवन के प्रति घोर अन्याय था।
सती प्रथा पर कानूनी रोक 1829 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के आदेश से लगी पर यह सामाजिक मानसिकता से तुरंत समाप्त नहीं हुई। कई स्थानों पर यह प्रथा छुपकर जारी रही। ऐसे समय में महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने इसे खुलकर चुनौती दी। उन्होंने वेदों के आधार पर स्पष्ट कहा कि सती प्रथा का धर्म में कोई स्थान नहीं है। उन्होंने समाज को समझाया कि नारी का जीवन उतना ही मूल्यवान है जितना पुरुष का और उसे अपने जीवन का अधिकार है।
महर्षि दयानंद का योगदान केवल धार्मिक व्याख्या तक सीमित नहीं था उन्होंने स्त्री शिक्षा, पुनर्विवाह और समान अधिकारों की वकालत की। वे जानते थे कि किसी भी समाज की प्रगति नारी की स्वतंत्रता और सम्मान पर निर्भर है।
आज जब हम सती प्रथा को अतीत की बर्बर परंपरा मानकर देखते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले सुधारक ही वह रोशनी थे जिन्होंने अंधकार को चीरकर रास्ता बनाया। महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे महान व्यक्तित्व की यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी कि हम आज भी किसी भी रूप में स्त्री के साथ होने वाले अन्याय और भेदभाव को सहन न करें।
क्योंकि सभ्यता का असली पैमाना यही है। हम अपने समाज में सबसे कमजोर और असहाय के साथ कैसा व्यवहार करते हैं।
स्रोत (Sources):
1. Lata Mani – Contentious Traditions: The Debate on Sati in Colonial India (University of California Press, 1998)
2. John Stratton Hawley & Donna Marie Wulff (Eds.) – Sati: Historical and Phenomenological Essays (University of Chicago Press, 1994)
3. Bengal Sati Regulation, 1829 – Official Gazette, Governor-General of India
4. William Bentinck Papers – British Library, India Office Records
5. Satyarth Prakash – महर्षि दयानंद सरस्वती, अध्याय 4 एवं 11
6. Bengal District Gazetteers – Colonial archives on customs and practices
7. Dharma Kumar & Tapan Raychaudhuri (Eds.) – The Cambridge Economic History of India, Vol. 2 (CUP, 1983)