20/09/2025
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) चुनाव हमेशा से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) और नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) के बीच सीधे मुकाबले के तौर पर देखे जाते रहे हैं। दोनों संगठनों की गहमागहमी, शोर-शराबा और चुनावी जंग अक्सर मुख्यधारा मीडिया की सुर्खियों में रहती है। लेकिन इसी शोर के बीच कुछ वैकल्पिक छात्र संगठन भी लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। इनमें सबसे अहम नाम है AISA (ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन)।
AISA, जो कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित संगठन है, अपनी राजनीति का आधार कैडर पर टिका हुआ रखता है। यह संगठन कभी भी केवल प्रचार और दिखावे पर निर्भर नहीं करता, बल्कि जमीन पर कार्य करने वाले अपने कैडर को सबसे बड़ी ताकत मानता है। यही कारण है कि बिना किसी बड़े मीडिया कवरेज और बिना किसी भव्य चुनावी प्रचार के भी इस बार AISA की उम्मीदवार अंजलि ने अध्यक्ष पद पर 5300 से ज्यादा वोट हासिल किए।
AISA जैसे संगठनों की असली ताकत उनका कैडर रहा है। छात्र राजनीति में जहां धनबल और बाहुबल का असर बढ़ता जा रहा है, वहीं AISA जैसे संगठन वैचारिक स्तर पर छात्रों को जोड़ने और लगातार सक्रिय रहने के लिए पहचाने जाते हैं। यही कैडर उन्हें अन्य दलों से अलग पहचान देता है।
लेकिन सच यह भी है कि बीते कुछ समय में ऐसे संगठनों का प्रभाव धीरे-धीरे घटा है। इसका बड़ा कारण है कि कई जगहों पर इन संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने भी पारंपरिक "कैडर पॉलिटिक्स" छोड़कर धनबल, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और विपक्षी पार्टियों से सांठ-गांठ की राजनीति पर जोर देना शुरू कर दिया है। इस बदलाव ने न सिर्फ इन संगठनों की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई है, बल्कि उनकी जमीनी पकड़ को भी कमजोर किया है।
ABVP और NSUI जहां बड़े संसाधनों और व्यापक नेटवर्क के सहारे चुनाव में उतरते हैं, वहीं AISA जैसे संगठन सीमित साधनों के बावजूद छात्रों को वैकल्पिक राजनीति का विकल्प देते हैं। भले ही ये चुनाव जीतने की दौड़ में पीछे रह जाएं, लेकिन इतने वोट हासिल कर पाना यह दिखाता है कि अब भी विश्वविद्यालयों में एक बड़ा तबका विचारधारात्मक राजनीति में भरोसा रखता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के इस चुनाव ने यह साफ किया है कि छात्र राजनीति केवल दो ध्रुवों (ABVP-NSUI) तक सीमित नहीं है। वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएँ अब भी मौजूद हैं। AISA का प्रदर्शन भले ही सीट जीतने तक न पहुँचा हो, लेकिन यह संकेत जरूर देता है कि कैडर आधारित राजनीति, यदि ईमानदारी और वैचारिक स्पष्टता से की जाए, तो उसकी प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं होगी।