Shivanand Vani

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Shivanand Vani Its a magazine to inculcate spiritual and social upliftment of the people in the society.

It also helps to strengthen brotherhood and social binding among people

07/06/2025

एक दिन का पुण्य ही क्यूँ.......?

निर्जला एकादशी से अगले दिन एक भिखारी एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने 1 रुपये का सिक्का निकाल ककिर उसे दे दिया।

भिखारी को प्यास भी लगी थी, वो बोला बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो, गला सूखा जा रहा है।
सज्जन व्यक्ति ने गुस्से में कहा: तुम्हारे बाप के नौकर बैठे हैं क्या हम यहां, पहले पैसे, अब पानी, थोड़ी देर में रोटी मांगेगा, चल भाग यहाँ से।

भिखारी बोला: बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा। पर जहां तक मुझे याद है, कल आपने निर्जला एकादशी व्रत कथा का पाठ किया था, तथा कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे, मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था। मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है, पर आज मेरा भरम टूट गया।

कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई होगी?
मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे छमा करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।

सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।

भिखारी: बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नही, परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नही बसा सकते तो एक-दो दिन किये हुए पुण्य कार्य व्यर्थ ही हैं। *मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है।*

आपको अपनी गलती का अहसास हुआ, ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है। आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूँ, यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।

सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा: कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे-आने जाने वालों के लिये जरूर रखे रहो। उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।

जय जय श्रीराधे

कहते हैं: "हर कहानी सिर्फ शब्दों का मेल नहीं होती, बल्कि कई गहरी अनुभव और आत्मिक सीख से भरी होती है।

1. धर्म दिखावे का नहीं, व्यवहार का होना चाहिए*

निर्जला एकादशी का व्रत करना या छबील लगाना एक दिन का पुण्य है, लेकिन असली धर्म रोज़मर्रा के *व्यवहार में झलकता है।* अगर व्रत करने के बाद हम किसी प्यासे को पानी देने में भी गुस्सा दिखाएं, तो वो धर्म अधूरा रह जाता है।

2. शब्दों की मिठास ही सच्ची सेवा है*

*भोजन, पैसा और वस्त्र* बाँटना बहुत बड़ी बात नहीं है। अगर हमारे *शब्दों में नम्रता और प्रेम* नहीं है, तो हमारी सेवा अधूरी है। किसी को झिड़ककर किया गया उपकार भी अपमान सा लगता है।

3. एक भूल भी पुण्य को मिटा सकती है*

एक बुरा व्यवहार, क्रोध में निकले कुछ शब्द, हमारे द्वारा कमाए हुए पूरे *पुण्य को व्यर्थ कर सकते हैं।* इसलिए विनम्रता और संयम हमेशा बनाए रखें।

4. मानवता का धर्म सबसे ऊपर है*

किसी की जात, रूप, या हैसियत देखकर व्यवहार करना *धर्म की आत्मा के खिलाफ है।* हर इंसान एक आत्मा है, और उसकी सेवा करना सच्ची भक्ति है।

5. गलती स्वीकार करना ही सच्चा बड़प्पन है*

सेठ जी ने जब अपनी गलती मानी और सुधार किया, तो वही क्षण उनके जीवन का *पुनर्जन्म* बन गया। अपनी भूल मान लेना कायरता नहीं, *सच्चा साहस* है।

निष्कर्ष :
*"सेवा करो, लेकिन सम्मान से

03/06/2025

भक्त के भाव को रखने का मान, हनुमानजी ने दिया स्वयं प्रमाण

एक समय अयोध्या के पहुंचे हुए संत श्री रामायण कथा सुना रहे थे। रोज एक घंटा प्रवचन करते कितने ही लोग आते और आनंद विभोर होकर जाते।

साधु महाराज का नियम था रोज कथा शुरू करने से पहले "आइए हनुमंत जी बिराजिए"कहकर हनुमानजी का आहवान करते थे, फिर एक घण्टा प्रवचन करते थे। एक वकील साहब हर रोज कथा सुनने आते। वकील साहब के भक्तिभाव पर एकदिन तर्कशीलता हावी हो गई उन्हें लगा कि महाराज रोज "आइए हनुमंत बिराजिए" कहते है तो क्या हनुमानजी सचमुच आते होंगे !

अत - वकील ने महात्माजी से एक दिन पूछ ही लिया - महाराजजी आप रामायण की कथा बहुत अच्छी कहते है हमें बड़ा रस आता है परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमानजी को देते है उस पर क्या हनुमानजी सचमुच बिराजते है ?

साधु महाराज ने कहा… हाँ यह मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि रामकथा हो रही हो तो हनुमानजी अवश्य पधारते है।

वकील ने कहा - महाराज ऐसे बात नहीं बनगी। हनुमानजी यहां आते है इसका कोई सबूत दीजिए! वकील ने कहा - आप लोगों को प्रवचन सूना रहे है सो तो अच्छा है लेकिन अपने पास हनुमानजी को उपस्थिति बताकर आप अनुचित तरीके से लोगों को प्रभावित कर रहे है। आपको साबित करके दिखाना चाहिए कि

हनुमानजी आपकी कथा सुनने आते है महाराजजी ने बहुत समझाया कि भैया आस्था को किसी सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेम रस है व्यक्तिगत श्रद्घा का विषय है आप कहो तो मैं प्रवचन बंद कर दूँ या आप कथा मेंआना छोड़ दो ?

लेकिन वकील नहीं माना, कहता ही रहा कि आप कई दिनो से दावा करते आ रहे है यह बात और स्थानों पर भी कहते होगे इसलिए महाराज आपको तो साबित करना होगा कि हनुमानजी कथा सुनने आते है।

इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद होता रहा मौखिक संघर्ष बढ़ता चला गया हारकर साधु ने कहा - हनुमानजी है या नहीं उसका सबूत कल दिलाऊंगा। कल कथा शुरू हो तब प्रयोग करूंगा ?

जिस गद्दी पर मैं हनुमानजी को विराजित होने को कहता हूं आप उस गद्दी को अपने घर ले जाना कल अपने साथ उस गद्दी को लेकर आना फिर मैं कल गद्दी यहाँ रखूंगा मैं कथा से पहले हनुमानजी को बुलाऊंगा फिर आप गद्दी ऊँची करना, यदि आपने गद्दी ऊँची कर ली तो समझना कि हनुमान जी नहीं है । वकील इस कसौटी के लिए तैयार हो गया

महाराज ने कहा - हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें ? यह तो सत्य की परीक्षा है।

वकील ने कहा - मैं गद्दी ऊँची न कर सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा लूंगा। आप पराजित हो गए तो क्या करोगे ?

साधु ने कहा - मैं कथावाचन छोड़कर आपके ऑफिस का चपरासी बन जाऊंगा। अगले दिन कथापंडाल में भारी भीड़ हुई जो लोग कथा सुनने रोज नही आते थे वे भी भक्ति, प्रेम और विश्वास की परीक्षा देखने आए।

काफी भीड़ हो गई। पंडाल भर गया, श्रद्घा और विश्वास का प्रश्न जो था। साधु महाराज और वकील साहब कथा पंडाल में प्यारे गद्दी रखी गई। महात्माजी ने सजल नेत्रों से मंगलाचरण किया और फिर बोले - आइए हनुमानजी पधारिए

ऐसा बोलते ही साधुजी की आंखे सजल हो उठी। मन ही मन साधु बोले… प्रभु! आज मेरा प्रश्न नहीं बल्कि रघुकुल रीति की पंरपरा का सवाल है मैं तो एक साधारण जन हूं। मेरी भक्ति और आस्था की लाज रखना। फिर वकील साहब को निमंत्रण दिया… आइए गद्दी ऊँची कीजिए। लोगों की आँखे जम गई। वकील साहब खड़ेे हुये। उन्होंने गद्दी लेने के लिए हाथ बढ़ाया पर गद्दी को स्पर्श भी न कर सके ?

जो भी कारण हो उन्होंने तीन बार हाथ बढ़ाया किन्तु तीनों बार असफल रहे। महात्माजी देख रहे थे गद्दी को पकड़ना तो दूर वो गद्दी की छू भी न सके तीनों बार वकील साहब पसीने से तर - बतर हो गए। वह वकील साधु के चरणों में गिर पड़े और बोले -… महाराजा उठाने का मुझे मालूम नहीं पर मेरा हाथ गद्दी तक भी पहुंच नहीं सकता, अत: मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं।

मित्रों कहते है कि श्रद्घा और भक्ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्ति होती है मानों तो देव नहीं तो पत्थर। प्रभु की मूर्ति तो पाषाण की ही होती है लेकिन भक्त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है और प्रभु बिराजते है।

तुलसीदासजी कहते है - साधु चरित सुभ चरित

कषासू निरस बिसद गुनमय फल जासू

साधु का स्वभाव कपास जैसा होना चाहिए जो दूसरों के अवगुण को ढककर ज्ञान को अलख जगाए। जो ऐसा भाव प्राप्त कर ले वही साधु है श्रद्घा और विश्वास मन को शक्ति देते है संसार में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारी तर्कशक्ति से,बुद्धि को सीमा से परे है..!!

01/06/2025

🌹श्री राम नाम की महिमा🌹

लंकापति रावण के वध के बाद जब अयोध्यापति प्रभु श्री राम की कीर्ति दूर-दूर तक फैल रही थी और वह मर्यादा पुरूषोतम कहलाने लगे थे।

तब एक दिन महादेव शिव की इच्छा भी मर्यादा पुरूषोतम श्रीराम से मिलने की हुई। पार्वती जी को संग लेकर महादेव कैलाश पर्वत से उतर कर अयोध्या नगरी के रास्ते पर चल पड़े।

भगवान शिव और मां पार्वती को अयोध्या आया देखकर श्री सीताराम जी बहुत खुश हुए। माता जानकी ने उनका उचित आदर सत्कार किया और स्वयं भोजन बनाने के लिए रसोई में चली गई। इस बीच भगवान शिव ने श्री राम जी से पूछाः-"आपके सेवक हनुमानजी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।" श्री राम बोलेः- "वे बगीचे में हैं।"

शिवजी ने श्रीराम जी से बगीचे में जाने की अनुमति मांगी और पार्वती जी का हाथ थाम कर बगीचे में आ गए। बगीचे की खूबसूरती देख कर उनका मन मोहित हो गया। आम के एक घने वृक्ष के नीचे हनुमान जी दीन-दुनियां से बेखबर गहरी नींद में सोए थे और एक लय में खर्राटों से राम नाम की ध्वनि उठ रही थी।

चकित होकर शिव जी और माता पार्वती एक दूसरे की ओर देखने लगे। माता पार्वती मुस्करा उठी और वृक्ष की डालियों की ओर इशारा किया। राम नाम सुनकर पेड़ की डालियां भी झूमने लगी थी और इनके बीच से भी राम नाम उच्चारित हो रहा था।

शिव जी इस राम नाम की धुन में मस्त मगन होकर खुद भी राम राम कहकर नाचने लगे। माता पार्वती जी ने भी अपने पति का अनुसरण किया और अपने कोमल पांव थिरकाने लगी। शिव जी और पार्वती जी के नृत्य से ऐसी झनकार उठी कि स्वर्गलोक के देवतागण भी आकर्षित होकर बगीचे में आ गए और राम नाम की धुन में सभी मस्त हो गए।

माता जानकी भोजन तैयार करके प्रतिक्षारत थीं परंतु संध्या घिरने तक भी अतिथि नहीं पधारे तब अपने देवर लक्ष्मण जी को बगीचे में भेजा। लक्ष्मण जी तो स्वयं को श्री राम का सेवक ही मानते थे, अत बगीचे में आकर जब उन्होंने धरती पर स्वर्ग का नजारा देखा तो खुद भी राम नाम की धुन में झुम उठे।

महल में माता जानकी परेशान हो रही थी की अभी तक भोजन ग्रहण करने कोई भी क्यों नहीं आया। उन्होंने श्री राम जी से कहा भोजन ठंडा हो रहा है चलिये हम ही जाकर बगीचे में से सभी को ले लाएं।

जब सीताराम जी बगीचे में गए तो वहां राम नाम की धूम मची हुई थी। हुनमान जी गहरी नींद में सोए हुए थे और उनके खर्राटों से अभी तक राम नाम निकल रहा था।

श्रीसियाराम भाव विहल हो उठे, राम जी ने हनुमान जी को नींद से जगाया और प्रेम से उनकी तरफ निहारने लगे।
हनुमान जी प्रभु को आया देख शीघ्रता से उठ खड़े हुए, नृत्य का समा भंग हो गया।

शिव जी खुले कंठ से हनुमान जी की राम भक्ति की सराहना करने लगे। हनुमान जी संकुचाए लेकिन मन ही मन खुश हो रहे थे।श्री सियाराम ने भोजन करने का आग्रह भगवान शिव जी से किया।सभी लोग महल में भोजन करने के लिए चल पड़े। माता जानकी भोजन परोसने लगी। हनुमान जी को भी श्री राम जी ने पंक्ति में बैठने का आदेश दिया। हनुमान जी बैठ तो गए पंरतु आदत ऐसी थी की राम जी के भोजन करने के उपरांत ही सभी लोग भोजन करते थे।

आज श्री राम के आदेश से पहले भोजन करना पड़ रहा था। माता जानकी हनुमान जी को भोजन परोसती जा रही थी पर हनुमान का पेट ही नहीं भर रहा था। सीता जी कुछ समय तक तो उन्हें भोजन परोसती रही फिर समझ गई इस तरह से तो हनुमान जी का पेट नहीं भरेगा।

उन्होंने तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और भोजन के साथ हनुमान जी को परोस दिया। तुलसी पत्र खाते ही हनुमान जी को संतुष्टी मिली और न
भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि आप की राम भक्ति युगों-युगों तक याद की जाएगी और आप संकट मोचन कहलाएंगे।

संकट हरै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।

28/05/2025

शंका समाधान

क्या भगवान हमारे द्वारा चढ़ाया गया भोग खाते हैं ? यदि खाते हैं , तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं हो जाती और यदि नहीं खाते हैं , तो भोग लगाने का क्या लाभ ?" - एक लड़के ने पाठ के बीच में अपने गुरु से प्रश्न किया । गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया । वे पूर्ववत् पाठ पढ़ाते रहे । उस दिन उन्होंने पाठ के अन्त में एक श्लोक पढ़ाया -
*पूर्णमदःपूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥*

पाठ पूरा होने के बाद गुरु ने सभी शिष्यों से कहा कि वे पुस्तक देखकर श्लोक कंठस्थ कर लें ।

एक घंटे बाद गुरु ने प्रश्न करने वाले शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं । उस शिष्य ने पूरा श्लोक शुद्ध-शुद्ध गुरु को सुना दिया । फिर भी गुरु ने सिर 'नहीं' में हिलाया , तो शिष्य ने कहा कि - " वे चाहें , तो पुस्तक देख लें ; श्लोक बिल्कुल शुद्ध है ।” गुरु ने पुस्तक दिखाते हुए कहा - “ श्लोक तो पुस्तक में ही है , तो तुम्हें कैसे याद हो गया ?” शिष्य कुछ नहीं कह पाया ।

गुरु ने कहा - “ पुस्तक में जो श्लोक है , वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा , तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया । उसी सूक्ष्म रूप में वह तुम्हारे मन में रहता है । इतना ही नहीं , जब तुमने इसको पढ़कर कंठस्थ कर लिया , तब भी पुस्तक के स्थूल रूप के श्लोक में कोई कमी नहीं आई । इसी प्रकार पूरे विश्व में व्याप्त परमात्मा हमारे द्वारा चढ़ाए गए निवेदन को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के वस्तु में कोई कमी नहीं होती । उसी को हम प्रसाद के रूप में स्वीकार करते हैं ।

शिष्य को उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था ।

30/04/2025

मूल्यांकन

“मैं तुझसे श्रेष्ठ हूँ “ को लेकर दी शिष्यों में झगड़ा हो रहा था ।झगड़ा बढ़ने लगा तो एक सेवक दौड़कर गुरु जी के पास गया और बोला, गुरु जी वहाँ दो शिष्यों में झगड़ा हो रहा है । गुरु जी वहाँ से उठकर गए और उन दोनों शिष्यों से बोले, “क्या हुआ “? तुम दोनों किस बात पर उतना झगड़ रहे हो? पहला शिष्य बोला- गुरु जी मैं इससे अधिक श्रेष्ठ हूँ, मेरे कमान से निकला हर तीर निशाने पर जा कर लगता है ।
दूसरा शिष्य बोला कि मैं इससे अधिक श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मेरा भला एक ही बार में चार पेड़ों को चीर देता है । गुरु जी बोले- ठीक है में तुम दोनों की परीक्षा लेता हूँ, जिसने वह पास कर ली वही श्रेष्ठ है । उन्होंने दोनों के शस्त्र बदल दिए और बोले, “ अब तुम अचूक निशाना लगाओ और तुम एक भाले से चार पेड़ चीर कर दिखाओ । दोनों शिष्य फेल हो गए । un दोनों को देख कर गुरु जी बोले “ बेटा, इस संसार में हर व्यक्ति अपने आप में श्रेष्ठ है । इसलिए हमें कभी खुद को किसी से श्रेष्ठ नहीं आंकना चाहिए क्योंकि जो तुम कर सकते हो ऐसा दूसरा नहीं कर सकता है। और जो दूसरा कर सकता है वह तुम नहीं कर सकते । महत्त्व दोनों का ही है ।
शिष्यों को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन दोनों ने गुरु जी से क्षमा माँगी ।

27/04/2025

भगवान की आरती करने का सही तरीका

कोई भी पूजा भगवान की आरती के बाद ही संपन्न मानी जाती है. स्कंद पुराण के अनुसार आरती मुख्य रूप से सात प्रकार की होती है.
1. मंगला आरती- सुबह जल्दी की जाने वाली आरती.
2. पूजा आरती- पूजा के दौरान की जाने वाली आरती.
3. श्रृंगार आरती- भगवान के श्रृंगार के बाद की जाने वाली आरती.
4. भोग आरती- जब भगवान को भोग अर्पित किया जाता है, तब ये आरती की जाती है.
5. धूप आरती- धूप दिखाने के बाद की जाने वाली आरती.
6. संध्या आरती- शाम के समय की जाने वाली आरती.
7. शयन आरती- रात में सोने से पहले की जाने वाली आरती.

हिंदू धर्म में पूजा-पाठ का विशेष महत्व है. मान्यताओं के अनुसार, नियमित रूप से पूजा करने से घर में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहती है. वहीं, कोई भी पूजा भगवान की आरती के बाद संपन्न मानी जाती है. यानी पूजा में देवी-देवताओं की आरती करना आवश्यक माना गया है और बिना आरती के पूजा अधूरी होती है.

आरती करने का तरीका
आरती हमेशा श्रद्धा और भक्ति भाव से करनी चाहिए. वहीं, भाव से अलग आरती करने के 4 मुख्य नियम हैं. ये नियम कुछ इस प्रकार हैं-
1. आरती की शुरुआत भगवान के चरणों से करें और चरणों में आरती की थाल को चार बार घुमाएं. ये खुद को परमात्मा के चरणों में समर्पित करने की ओर इशारा होता है.
2. इसके बाद आरती की थाली को भगवान की नाभि के पास दो बार घुमाएं. माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का जन्म भगवान विष्णु की नाभि से हुआ था, ऐसे में भगवान के चरणों में नमन करने के बाद नाभि का पूजन किया जाता है.
3. इसके बाद आरती की थाल को भगवान के मुखमंडल के सामने एक बार घुमाएं.
4. आखिर में दीये को भगवान के पूरे शरीर पर सात बार घुमाते हुए आरती करें.
इस तरह कुल 14 बार आरती घुमाने से चौदह भुवनों तक आपकी भक्ति पहुंचती है.
स्कंद पुराण के अनुसार आरती के नियम
स्कंद पुराण में भी आरती के कुछ विशेष नियम बताए गए हैं. इसमें पंच प्रदीप का प्रयोग किया जाता है ।
पंच प्रदीप के लिए गाय के दूध से बने घी में डूबी हुई रुई की 5 बत्तियों का दीपक जलाएं. इसे पंच प्रदीप कहा जाता है.
श्रद्धा और भक्ति
यदि कोई व्यक्ति मंत्र और पूजा विधि नहीं जानता, लेकिन श्रद्धापूर्वक आरती करता है, तो उसकी पूजा भी स्वीकार होती है.
आरती करते समय ध्यान रखने योग्य बातें
• आरती हमेशा खड़े होकर करें- आरती के दौरान खड़े रहना शुभ माना जाता है.
• थोड़ा झुककर आरती करें- इसे भक्ति का प्रतीक माना जाता है.
• आरती की थाली सही धातु की हो- तांबे, पीतल या चांदी की थाली में आरती करें.
• थाली में पूजा सामग्री रखें- गंगाजल, कुमकुम, चावल, चंदन, अगरबत्ती, फूल और भोग में फल या मिठाई रखें.
ध्यान रखें कि आरती पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसे सही विधि से करने से न केवल पूजा पूरी होती है, बल्कि मन को शांति भी मिलती है. माना जाता है कि श्रद्धा और भक्ति से की गई आरती भगवान तक अवश्य पहुंचती है और भक्तों को उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है.

18/04/2025

"तू" और "मैं

"तू" और "मैं" का "हम" बनना अध्यात्म की गहराई से जुड़ा हुआ विषय है। इसे समझने के लिए तीन पहलुओं को देखना ज़रूरी है— (1) 'तू' और 'मैं' क्या हैं? (2) 'हम' बनने का अर्थ क्या है? और (3) इसकी प्रक्रिया क्या है?
1. 'तू' और 'मैं' का अर्थ
'मैं' अहंकार (Ego) का प्रतीक है, जो खुद को एक अलग अस्तित्व के रूप में देखता है। 'तू' बाहरी दुनिया या किसी अन्य व्यक्ति का प्रतीक हो सकता है, लेकिन गहरे अर्थ में यह परमात्मा (Ultimate Reality) भी हो सकता है। जब हम 'मैं' में रहते हैं, तो द्वैत (duality) बना रहता है—एक अलग-अलग अस्तित्व की भावना। अध्यात्म हमें इस द्वैत से परे जाने को कहता है।
2. 'हम' बनने का अर्थ
'हम' बनने का मतलब है एकता (oneness) की अनुभूति। जब 'मैं' और 'तू' की सीमाएँ मिट जाती हैं, तब केवल एकता बचती है। इसे अद्वैत (non-duality) या आत्मबोध (Self-realization) कहा जाता है, जहाँ व्यक्ति खुद को संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एक अनुभव करता है। 'हम' बनने का मतलब है भेद-भाव का मिटना, प्रेम की पराकाष्ठा, और आत्मा की उच्चतम स्थिति में प्रवेश।
3. 'हम' बनने की प्रक्रिया (क्रिया)
“तू' और 'मैं' के 'हम' बनने के लिए निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ अपनाई जा सकती हैं—
1. ध्यान (Meditation) – जब ध्यान में अहंकार विलीन होता है, तब व्यक्ति 'मैं' से 'हम' की ओर बढ़ता है।
2. समर्पण (Surrender) – जब हम अपनी व्यक्तिगत पहचान (ego) छोड़कर ईश्वर या प्रेम के प्रति समर्पित होते हैं, तब 'हम' बनने की प्रक्रिया शुरू होती है।
3. साक्षी भाव (Witnessing Consciousness) – स्वयं को एक अलग व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की एक धारा के रूप में देखना।
4. सेवा (Selfless Service) – जब हम बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की भलाई के लिए काम करते हैं, तब 'हम' बनने की भावना उत्पन्न होती है।
5. प्रेम और करुणा (Love & Compassion) – जब प्रेम और करुणा हमारी चेतना का मूल बन जाती हैं, तब 'हम' की अनुभूति होती है।
'हम' बनने से क्या होता है?
द्वैत का अंत होता है और व्यक्ति शांति, आनंद और प्रेम के उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है।
भय, क्रोध, ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।
व्यक्ति संपूर्णता (wholeness) का अनुभव करता है और उसकी चेतना ब्रह्मांड से एक हो जाती है।
मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है क्योंकि 'मैं' का अहंकार मिट जाता है, और केवल शाश्वत अस्तित्व शेष रहता है।
निष्कर्ष : अध्यात्म हमें 'मैं' से ऊपर उठकर 'हम' बनने की यात्रा सिखाता है। यह यात्रा भीतर की यात्रा है—जहाँ द्वैत समाप्त होकर एकता का अनुभव होता है। ध्यान, समर्पण, प्रेम और सेवा के माध्यम से हम इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। यही आत्मबोध (Self-realization) और मोक्ष (Liberation) का मार्ग है।

10/04/2025

Hanuman and Ramayana

When Valmiki completed his Ramayana, Narada wasn't impressed. 'It is good, but Hanuman's is better', he said.

'Hanuman has written the Ramayana too?!' Valmiki didn't like this at all and wondered whose Ramayana was better. So he set out to find Hanuman.

In Kadalivana, a grove of plantains, he found Ramayana inscribed on seven broad leaves of a plantain tree. He read it and found it to be perfect. The most exquisite choice of grammar and vocabulary, meter and melody. He couldn't help himself. He started to cry.

'Is it so bad?' asked Hanuman
'No, it is so good', said Valmiki
'Then why are you crying?' asked Hanuman.

'Because after reading your Ramayana, no one will read my Ramayana,' replied Valmiki.

Hearing this Hanuman simply tore up the seven leaves, stating, "Now no one will ever read Hanuman's Ramayana.'"

Valmiki was shocked to see this action of Hanuman and asked him why he did this?

Hanuman said, 'You need your Ramayana more than I need mine. You wrote your Ramayana so that the world remembers Valmiki; I wrote my Ramayana so that I remember Ram.'

At that moment, Valmiki realized how he had been consumed by the desire for validation through his work. He had not used the work to liberate himself from the fear of invalidation. He had not appreciated the essence of Ram's tale to unknot his mind. His Ramayana was a product of ambition; but Hanuman's Ramayana was a product of pure devotion & affection.

That's why Hanuman's Ramayana sounded so much better. That is when Valmiki realized that "Greater than Ram...is the name of Ram!"

There are people like Hanuman who don't want to be famous. They just do their jobs and fulfill their purpose.

There are many unsung "Hanumans" in our life too, our spouse, mother, father, friends, let's remember them and be grateful to them.

In this world, where everyone is highlighting his work and seeking validation, let us just do our karma and be happy...!!!

10/04/2025

*Sunday Story*

*Hanuman’d Ramayana*

When Valmiki completed his Ramayana, Narada wasn't impressed. 'It is good, but Hanuman's is better', he said.

'Hanuman has written the Ramayana too?!' Valmiki didn't like this at all and wondered whose Ramayana was better. So he set out to find Hanuman.

In Kadalivana, a grove of plantains, he found Ramayana inscribed on seven broad leaves of a plantain tree. He read it and found it to be perfect. The most exquisite choice of grammar and vocabulary, meter and melody. He couldn't help himself. He started to cry.

'Is it so bad?' asked Hanuman
'No, it is so good', said Valmiki
'Then why are you crying?' asked Hanuman.

'Because after reading your Ramayana, no one will read my Ramayana,' replied Valmiki.

Hearing this Hanuman simply tore up the seven leaves, stating, "Now no one will ever read Hanuman's Ramayana.'"

Valmiki was shocked to see this action of Hanuman and asked him why he did this?

Hanuman said, 'You need your Ramayana more than I need mine. You wrote your Ramayana so that the world remembers Valmiki; I wrote my Ramayana so that I remember Ram.'

At that moment, Valmiki realized how he had been consumed by the desire for validation through his work. He had not used the work to liberate himself from the fear of invalidation. He had not appreciated the essence of Ram's tale to unknot his mind. His Ramayana was a product of ambition; but Hanuman's Ramayana was a product of pure devotion & affection.

That's why Hanuman's Ramayana sounded so much better. That is when Valmiki realized that "Greater than Ram...is the name of Ram!"

There are people like Hanuman who don't want to be famous. They just do their jobs and fulfill their purpose.

There are many unsung "Hanumans" in our life too, our spouse, mother, father, friends, let's remember them and be grateful to them.

In this world, where everyone is highlighting his work and seeking validation, let us just do our karma and be happy...!!!

16/02/2025

*सुंदरकांड में एक प्रसंग अवश्य पढ़ें !*

*“मैं न होता, तो क्या होता?”*

“अशोक वाटिका" में *जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर, सीता माँ को मारने के लिए दौड़ पड़ा, तब हनुमान जी को लगा, कि इसकी तलवार छीन कर, इसका सर काट लेना चाहिये! किन्तु, अगले ही क्षण, उन्हों ने देखा
मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया ! यह देखकर वे गदगद हो गये! वे सोचने लगे, यदि मैं आगे बड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि *यदि मै न होता, तो सीता जी को कौन बचाता?

बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मैं न होता, तो क्या होता ? परन्तु ये क्या हुआ?
सीताजी को बचाने का कार्य प्रभु ने रावण की पत्नी को ही सौंप दिया! तब हनुमान जी समझ गये, कि प्रभु जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं!*

आगे चलकर जब "त्रिजटा" ने कहा कि "लंका में बंदर आया हुआ है, और वह लंका जलायेगा!" तो हनुमान जी बड़ी चिंता मे पड़ गये, कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है ,और त्रिजटा कह रही है कि उन्होंने स्वप्न में देखा है, एक वानर ने लंका जलाई है! अब उन्हें क्या करना चाहिए? *जो प्रभु इच्छा!*

जब रावण के सैनिक तलवार लेकर हनुमान जी को मारने के लिये दौड़े, तो हनुमान ने अपने को बचाने के लिए तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब "विभीषण" ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो हनुमान जी समझ गये कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया है!*

आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा, पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर, घी डालकर, आग लगाई जाये, तो हनुमान जी सोचने लगे कि लंका वाली त्रिजटा की बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मै कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता, और कहां आग ढूंढता? पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया! जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !

इसलिये *सदैव याद रखें,* कि *संसार में जो हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान* है! हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं! इसीलिये *कभी भी ये भ्रम न पालें* कि... मै न होता, तो क्या होता ?

*ना मैं श्रेष्ठ हूँ,*
*ना ही मैं ख़ास_हूँ,*
*मैं तो बस छोटा सा,*
*भगवान का दास हूँ॥

14/02/2025

कर्म भोगने ही पड़ेंगे इस जन्म या अगले जन्म

एक राजा बड़ा धर्मात्मा, न्यायकारी और परमेश्वर का भक्त था। उसने ठाकुरजी का मंदिर बनवाया और एक ब्राह्मण को उसका पुजारी नियुक्त किया । वह ब्राह्मण बड़ा सदाचारी, धर्मात्मा और संतोषी था। वह राजा से कभी कोई याचना नहीं करता था, राजा भी उसके स्वभाव पर बहुत प्रसन्न था। उसे राजा के मंदिर में पूजा करते हुए बीस वर्ष गुजर गये। उसने कभी भी राजा से किसी प्रकार का कोई प्रश्न नहीं किया ।

राजा के यहाँ एक लड़का पैदा हुआ। राजा ने उसे पढ़ा लिखाकर विद्वान बनाया और बड़ा होने पर उसकी शादी एक सुंदर राजकन्या के साथ करा दी। शादी करके जिस दिन राजकन्या को अपने राजमहल में लाये उस रात्रि में राजकुमारी को नींद न आयी । वह इधर-उधर घूमने लगी जब अपने पति के पलंग के पास आयी तो क्या देखती है कि हीरे जवाहरात जड़ित मूठेवाली एक तलवार पड़ी है ।

जब उस राजकन्या ने देखने के लिए वह तलवार म्यान में से बाहर निकाली, तब तीक्ष्ण धारवाली और बिजली के समान प्रकाशवाली तलवार देखकर वह डर गयी व डर के मारे उसके हाथ से तलवार गिर पड़ी और राजकुमार की गर्दन पर जा लगी । राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया ।

राजकन्या पति के मरने का बहुत शोक करने लगी । उसने परमेश्वर से प्रार्थना की कि 'हे प्रभु ! मुझसे अचानक यह पाप कैसे हो गया ? पति की मृत्यु मेरे ही हाथों हो गयी । आप तो जानते ही हैं, परंतु सभा में मैं सत्य न कहूँगी क्योंकि इससे मेरे माता-पिता और सास-ससुर को कलंक लगेगा तथा इस बात पर कोई विश्वास भी न करेगा ।'

प्रातःकाल में जब पुजारी कुएँ पर स्नान करने आया तो राजकन्या ने उसको देखकर विलाप करना शुरु किया और इस प्रकार कहने लगीः "मेरे पति को कोई मार गया ।" लोग इकट्ठे हो गये और राजा साहब आकर पूछने लगेः "किसने मारा है ?"

वह कहने लगीः "मैं जानती तो नहीं कि कौन था । परंतु उसे ठाकुरजी के मंदिर में जाते देखा था" राजा समेत सब लोग ठाकुरजी के मंदिर में आये तो ब्राह्मण को पूजा करते हुए देखा ।
उन्होंने उसको पकड़ लिया और पूछाः "तूने राजकुमार को क्यों मारा ?"
ब्राह्मण ने कहाः "मैंने राजकुमार को नहीं मारा । मैंने तो उनका राजमहल भी नहीं देखा है । इसमें ईश्वर साक्षी हैं। बिना देखे किसी पर अपराध का दोष लगाना ठीक नहीं ।"

ब्राह्मण की तो कोई बात ही नहीं सुनता था। कोई कुछ कहता था तो कोई कुछ.... राजा के दिल में बार-बार विचार आता था कि यह ब्राह्मण निर्दोष है परंतु बहुतों के कहने पर राजा ने ब्राह्मण से कहाः,

"मैं तुम्हें प्राणदण्ड तो नहीं देता लेकिन जिस हाथ से तुमने मेरे पुत्र को तलवार से मारा है, तेरा वह हाथ काटने का आदेश देता हूँ ।"

ऐसा कहकर राजा ने उसका हाथ कटवा दिया । इस पर ब्राह्मण बड़ा दुःखी हुआ और राजा को अधर्मी जान उस देश को छोड़कर विदेश में चला गया । वहाँ वह खोज करने लगा कि कोई विद्वान ज्योतिषी मिले तो बिना किसी अपराध के हाथ कटने का कारण उससे पूछूँ ।

किसी ने उसे बताया कि काशी में एक विद्वान ज्योतिषी रहते हैं। तब वह उनके घर पर पहुँचा । ज्योतिषी कहीं बाहर गये थे, उसने उनकी धर्मपत्नी से पूछाः "माताजी ! आपके पति ज्योतिषीजी महाराज कहाँ गये हैं ?"

तब उस स्त्री ने अपने मुख से अयोग्य, असह्य दुर्वचन कहे, जिनको सुनकर वह ब्राह्मण हैरान हुआ और मन ही मन कहने लगा कि "मैं तो अपना हाथ कटने का कारण पूछने आया था, परंतु अब इनका ही हाल पहले पूछूँगा ।"

इतने में ज्योतिषी आ गये। घर में प्रवेश करते ही ब्राह्मणी ने अनेक दुर्वचन कहकर उनका तिरस्कार किया । परंतु ज्योतिषीजी चुप रहे और अपनी स्त्री को कुछ भी नहीं कहा। तदनंतर वे अपनी गद्दी पर आ बैठे । ब्राह्मण को देखकर ज्योतिषी ने उनसे कहाः "कहिये, ब्राह्मण देवता ! कैसे आना हुआ ?"

"आया तो था अपने बारे में पूछने के लिए परंतु पहले आप अपना हाल बताइये कि आपकी पत्नी अपनी जुबान से आपका इतना तिरस्कार क्यों करती है ? जो किसी से भी नहीं सहा जाता और आप सहन कर लेते हैं, इसका कारण है ?"

"यह मेरी स्त्री नहीं, मेरा कर्म है । दुनिया में जिसको भी देखते हो अर्थात् भाई, पुत्र, शिष्य, पिता, गुरु, सम्बंधी - जो कुछ भी है, सब अपना कर्म ही है । यह स्त्री नहीं, मेरा किया हुआ कर्म ही है, और यह भोगे बिना कटेगा नहीं।

'अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ-अशुभ कर्म है, वह अवश्य ही भोगना पड़ता है । बिना भोगे तो सैंकड़ों-करोड़ों कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं टल सकता ।' इसलिए मैं अपने कर्म खुशी से भोग रहा हूँ और अपनी स्त्री की ताड़ना भी नहीं करता, ताकि आगे इस कर्म का फल न भोगना पड़े ।"

"महाराज ! आपने क्या कर्म किया था ?"

"सुनिये, पूर्वजन्म में मैं कौआ था और मेरी स्त्री गधी थी। इसकी पीठ पर फोड़ा था, फोड़े की पीड़ा से यह बड़ी दुःखी थी और कमजोर भी हो गयी थी, फोड़े में कीड़े पड़ गये जिन्हें खाने के लिये मैं इसके फोड़े में चोंच मारकर खा लेता । इससे जब दर्द के कारण यह कूदती थी आखिर त्रस्त होकर यह गाँव से दस-बारह मील दूर जंगल में चली गयी । वहाँ भी इसे देखते ही मैं इसकी पीठ पर जोर-से चोंच मारी तो मेरी चोंच इसकी हड्डी में चुभ गयी । इस पर इसने अनेक प्रयास किये, फिर भी चोंच न छूटी । मैंने भी चोंच निकालने का बड़ा प्रयत्न किया मगर न निकली । 'पानी के भय से ही यह दुष्ट मुझे छोड़ेगा ।' ऐसा सोचकर यह गंगाजी में प्रवेश कर गयी परंतु वहाँ भी मैं अपनी चोंच निकाल न पाया। आखिर में यह बड़े प्रवाह में प्रवेश कर गयी । गंगा का प्रवाह तेज होने के कारण हम दोनों बह गये और बीच में ही मर गये। तब गंगा जी के प्रभाव से यह तो ब्राह्मणी बनी और मैं बड़ा भारी ज्योतिषी बना । अब वही मेरी स्त्री हुई । जो कुछ दिनों और अपने मुख से गाली निकालकर मुझे दुःख देगी, लेकिन मैंने चोंच इसको दर्द पहुंचाने के लिये नहीं मारी थी, अतः इसकी समझ भी ठीक होगी और मैं भी अपने पूर्वकर्मों का फल समझकर सहन करता रहूँगा, इसका दोष नहीं मानता क्योंकि यह किये हुए कर्मों का ही फल है । इसलिए मैं शांत रहता हूँ और प्रतिक्षा में हूँ कि कभी तो इसका स्वभाव अच्छा होगा !! अब अपना प्रश्न पूछो ? "

ब्राह्मण ने अपना सब समाचार सुनाया और पूछाः "अधर्मी पापी राजा ने मुझ निरपराध का हाथ क्यों कटवाया ?"

ज्योतिषीः "राजा ने आपका हाथ नहीं कटवाया, आपके कर्म ने ही आपका हाथ कटवाया है ।"

"किस प्रकार ?"

"पूर्वजन्म में आप एक तपस्वी थे और राजकन्या गौ थी तथा राजकुमार कसाई था । वह कसाई जब गौ को मारने लगा, तब गौ बेचारी जान बचाकर आपके सामने से जंगल में भाग गयी । पीछे से कसाई आया और आप से पूछा कि "इधर कोई गाय तो नहीं गई है ?"

आपने जिस तरफ गौ गयी थी, उस तरफ आपने हाथ से इशारा किया तो उस कसाई ने जाकर गौ को मार डाला । इतने में जंगल से शेर आया और गौ एवं कसाई दोनों को खा गया । कसाई को राजकुमार और गौ को राजकन्या का जन्म मिला एवं पूर्वजन्म के किये हुए उस कर्म ने एक रात्रि के लिए उन दोनों को इकट्ठा किया । क्योंकि कसाई ने गौ को हंसिये से मारा था, इसी कारण राजकन्या के हाथों अनायास ही तलवार गिरने से राजकुमार का सिर कट गया और वह मर गया। इस तरह अपना फल देकर कर्म निवृत्त हो गया । तुमने जो हाथ का इशारा रूप कर्म किया था, उस पापकर्म ने तुम्हारा हाथ कटवा दिया है । इसमें तुम्हारा ही दोष है किसी अन्य का नहीं, ऐसा निश्चय कर सुखपूर्वक रहो ।"

*कितना सहज है ज्ञानयुक्त जीवन ! यदि हम इस कर्म सिद्धान्त को मान लें और जान लें तो पूर्वकृत घोर से घोर कर्म का फल भोगते हुए भी हम दुःखी नहीं होंगे, बल्कि अपने चित्त की समता बनाये रखने में सफल होंगे ।

11/02/2025

..
कुम्भ स्नान
━•────────
कुम्भ स्नान चल रहा था. घाट पर भारी भीड़ लग रही थी. शिव-पार्वती आकाश से गुजरे. पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा.
आशुतोष ने कहा ~ कुम्भ पर्व पर स्नान करने वाले स्वर्ग जाते हैं. उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है.

पार्वती का कौतूहल तो
शान्त हो गया, लेकिन
नया सन्देह उत्पन्न हुआ ... इतने लोग स्वर्ग कहाँ पहुँच पाते हैं ? पार्वती ने अपना सन्देह प्रकट किया
और समाधान चाहा.

भगवान शिव बोले ~
शरीर को गीला करना एक बात है, लेकिन ...मन की मलिनता धोने वाला स्नान जरूरी है. मन को धोने वाले ही स्वर्ग जाते हैं. वैसे लोग जो होंगे ... उन्हीं को स्वर्ग मिलेगा.

पार्वती का सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया. वे बोलीं ~ यह कैसे पता चले, कि ... किसने शरीर धोया, और किसने मन संजोया ? यह कार्य से जाना जाता है.
शिवजी ने इस उत्तर से भी
समाधान न होते देखकर ...
प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया.

मार्ग में शिव एक कुरूप कोढ़ी बनकर बैठ गये. पार्वती को और भी सुन्दर सजा दिया. स्नानार्थियों की भीड़
उन्हें देखने के लिए रुकती.
अनमेल स्थिति के बारे में
पूछताछ करती.पार्वती जी ... रटाया हुआ विवरण सुनाती रहतीं.
यह कोढ़ी मेरा पति है. गंगा स्नान की इच्छा से आए हैं. गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ. बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम दोनों यहाँ बैठे हैं.

अधिकाँश दर्शकों की नीयत
डिगती दिखती. वे सुन्दरी को प्रलोभन देते, और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते. पार्वती अचम्भित हुई.भला ऐसे भी लोग स्नान को आते हैं क्या ?
निराशा बढ़ती गई. संध्या हो चली, तभी एक उदारचेता आए. विवरण सुना, तो आँखों में आँसू आ गये. सहायता का प्रस्ताव किया, और कोढ़ी को कंधे पर लादकर तट तक पहुँचाया. जो सत्तू साथ में था, उसमें से उन दोनों को भी खिलाया. साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा ~ आप जैसी देवियाँ ही इस धरती की स्तम्भ हैं. धन्य हैं आप, जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं.

प्रयोजन पूरा हुआ. शिव-पार्वती कैलाश की ओर चल दिये. रास्ते में कहा ~ पार्वती ! इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया. स्नान का महात्म्य तो सही है, पर उसके साथ मन को धोने की भी शर्त लगी है.

पार्वती समझ गई, कि स्नान महात्म्य सही होते हुए भी,
क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं ?

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