जोहार झारखंड

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11/07/2025

#जोहार_झारखंड

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29/05/2025

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 #जिरहुल :-बहुत से औषधिय गुणों से भरा है यह फूल का पौधा ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••...
07/04/2025

#जिरहुल :-बहुत से औषधिय गुणों से भरा है यह फूल का पौधा
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QIndigofera cassioides
सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच बसे हाट बाजार में फूलों की भाजी भी आकर्षण का केंद्र रहती है। फूल की भाजी को अन्य प्रदेशों में जिरहुल की भाजी के नाम से जाना जाता है।

जिरहुल फूलों की भाजी जिले के आदिवासी इलाकों के हाट बाजारों में जमकर बिकती है। मुझे आज भी याद है कि पहली बार इस भाजी का स्वाद झारखंड के महली आदिवासी घर में लिया था और तब से लेकर आज तक, जहां भी जिरहुल पकते देख लूं, थम जाता हूं। जिरहुल दरअसल पहाड़ों, बंजर इलाकों में उगता है और सर्दियों के जाते जाते इसपर गुलाबी रंग के छोटे छोटे फूल निकल आते हैं।

आदिवासी इन फूलों को बड़ी मशक्कत से बटोर लाते हैं और बड़े शौक से इसे पकाया जाता है। कच्चा चबाए जाने पर ये फूल कसैले स्वाद लिए समझ आते हैं लेकिन पानी में उबालकर, इसे छानकर पानी अलग कर लिया जाए और फिर भाजी को तड़का दिया जाए तो स्वाद निखरकर आता है।

जानकारों के मुताबिक अलग अलग इलाको मे इस भाजी का असली मजा रोस्टेड झिंगा और केकड़े के साथ आता है लेकिन आप इसे मक्के की रोटी और भात के साथ मजे से खा सकते हैं। हमारे सतपुड़ा बेल्ट में इसे जारोल या जिरोला के नाम से जाना जाता है। झारखंडी आदिवासी इसे जिरहुल के नाम से पहचानते हैं, कई इलाकों में इसे खिलबीरी भी कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम इंडिगोफेरा पलचेल्ला है।

जिरहुल के औषधिय गुण

आदिवासी दमा के रोगियों को जिरहुल की भाजी खाने की सलाह देते हैं। इन फूलों को कुचलकर बालों में जड़ों तक लगाने से बालों की ग्रोथ बढ़ने लगती है। ये सब्जी स्वाद के साथ साथ एंटीऑक्सीडेंट गुणों की भरमार लिए होती है। कई सारे माइक्रो और मैक्रो न्यूट्रिएंट्स पाए जाने की वजह से बच्चों में कुपोषण को दूर करने में ये कारगर साबित हो सकती है।आदिवासी और देहाती विरासत के खानपान विलुप्त हो रहे हैं। इन खानपान की विलुप्ति के साथ पारंपरिक इलाजों के तौर तरीके भी क्षीण होते जा रहे हैं।

क्या आपने भी जिरहुल के फूलों का सेवन किया है यदि हाँ तो अपने अनुभव मुझसे अवश्य साझा करें।

 #महुआ : एक कल्पवृक्ष जो इंसान समेत पृथ्वी के अन्य प्राणियों के लिए सबसे ज्यादा  फायदेमंद हैं! #आवाज_एक_पहल■■■■■■■■■■■■■...
07/04/2025

#महुआ : एक कल्पवृक्ष जो इंसान समेत पृथ्वी के अन्य प्राणियों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं!
#आवाज_एक_पहल
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#महुआ के फूल , सुंदर, और मीठी सुंगंध वाले , जब पुष्पित होते हैं तो वातावरण में नशीली खुशबू छा जाती है।

मधुक अर्थात महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी का फल होने के कारण यह जंगली हो गया, और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के शहरी लोग इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं।

पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे-फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता,पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।

महुआ के पेड़ों के नीचे पडे मोती के दाने टप-टप चूते हैं सुबह देर तक, इन्हें भी सूरज के चढ़ने का इन्तजार रहता है। जो फूल कूंची में अधखिले रह जाते है, रात उन्हें सेती है, दूसरे दिन उनकी बारी होती है। पूरे पेड़ को निहारिये एक भी पत्ता नहीं, सिर्फ टंगे हुए, गिरते हुए फूल। दोपहर और शाम को विश्राम की मुद्रा में हर आने-जाने वाले पर निगाह रखते हैं। कुछ इतने सुकुमार होते हैं कि कूंची में ही सूख जाते हैं, वे सूखकर ही गिरते हैं, उनकी मिठास मधु का पूर्ण आभाष देती है। जब वृक्ष के सारे फूल धरती को अर्पित हो जाते हैं तब ग्रीष्म के सूरज को चुनौती देती लाल-लाल कोपलों से महुआ, अपना तन और सिर ढकता है। कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता है। नवीन पत्तों की छाया गर्मी की लुआर को धता बताती है। फूल तो झर गये लेकिन वृक्ष का दान अभी शेष है। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बन गए। परिपक्व होने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर बीजी को सुखाकर इसका तेल बनाते है। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। ऐंड़ी की विबाई, चमडे की पनही को कोमल करने देह में लगाने से लेकर खाने के काम आता है। गांव की लाठी कभी इसी तेल को पीकर मजबूत और सुन्दर साथी बनती थी, जिसे सदा संग रखने की नसीहत कवि देते थे।

महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी-कभी पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि,त्यौहारों में इसकी बनी मौहरी (पूड़ी) सप्ताह तक कोमल और सुस्वाद बनी रहती है। मात्र आम के आचार के साथ इसे लेकर पूर्ण भोजन की तृप्ति प्राप्त होती है। इस महुए के फूल के आटे का कतरा सिंघाडे के फूल को फीका करता है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल भुने तिल को मिलाकर, दोनों को कूटकर बडे लड्डू जैसे लाटा बनाकर रख लेने से वर्षान्त के दिनों में पानी के जून में, नाश्ते के रूप में लेने से जोतइया की सारी थकान एक लाटा और दो लोटा पानी, दूर कर देता है। लाटा को काड़ी में छिलका रहित झूने चने के साथ कांड़कर चूरन बना कर सुबह एक छटांक चूरन और एक गिलास मट्ठा पीकर ताउम्र पेट की बीमारियों को दफा किया जा सकता है।

संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन नहीं बन सकते। व्रत त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती है। ईसका वृक्ष भले सख्त हो फूल और फल तो अत्यंत कोमल हैं।
जब आपने नारियल जैसे सख्त फल को अपना लिया है तो महुए ने भला कैसा गुनाह किया है। अपनाईये खाईये और खिलाईये !

क्योंकि
महुआ का पेड़ वात (गैस), पित्त और कफ (बलगम) को शांत करता है, वीर्य व धातु को बढ़ाता और पुष्ट करता है, फोड़ों के घाव और थकावट को दूर करता है, यह पेट में वायु के विकारों को कम करता है, इसका फूल भारी शीतल और दिल के लिए लाभकारी होता है तथा गर्मी और जलन को रोकता है। यह खून की खराबी, प्यास, सांस के रोग, टी.बी., कमजोरी, नामर्दी (नपुंसकता), खांसी, बवासीर, अनियमित मासिक-धर्म, वातशूल (पेट की पीड़ा के साथ भोजन का न पचना) गैस के विकार, स्तनों में दूध का अधिक आना, फोड़े-फुंसी तथा लो-ब्लडप्रेशर आदि रोगों को दूर करता है।

©लवकुश
आवाज एक पहल

28/02/2025

शानदार जबरजस्त जिंदाबाद,नगाड़ा बजाने के यूनिक स्टाईल ❤️👌

25/02/2025

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया "झुमुर बिनंदिनी 2025" का भव्य उद्घाटन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "झुमुर बिनंदिनी 2025" महोत्सव में शिरकत की, जो एक भव्य सांस्कृतिक आयोजन था। इस ऐतिहासिक कार्यक्रम में 8,000 कलाकारों ने अपनी मनमोहक प्रस्तुति से झुमुर नृत्य की शानदार झलक पेश की।

हमारी पहचान गुलाब फुल से नहीं हमारी पहचान पलास फूल से है...🌿🌳💚♥️
18/02/2025

हमारी पहचान गुलाब फुल से नहीं हमारी पहचान पलास फूल से है...🌿🌳💚♥️

पलाश की रंग में रंगीन अब अपना झारखंड🌺🌺सर्दी की विदाई के साथ ही प्रकृति का सौंदर्य धीरे-धीरे बदलने लगता है। ठंडी रातों मे...
15/02/2025

पलाश की रंग में रंगीन अब अपना झारखंड🌺🌺
सर्दी की विदाई के साथ ही प्रकृति का सौंदर्य धीरे-धीरे बदलने लगता है। ठंडी रातों में अब हल्की गर्माहट घुलने लगी है और सुबहें एक नई ताजगी का एहसास दिलाने लगी हैं। यह संकेत है कि बसंत ऋतु ने दस्तक दे दी है। झारखंड के पहाड़ों, जंगलों, और मैदानों में इस मौसम का एक अलग ही आकर्षण होता है, खासकर जब पलाश के फूल खिलने लगते हैं।🌺

झारखंड की मिट्टी में जैसे ही बसंत का स्पर्श होता है, वैसे ही पूरा प्रदेश रंगों के त्योहार में डूब जाता है। सुखी प्रकृति में जब 'आग का पलाश' खिलता है, तो ऐसा लगता है मानो जंगलों में लाल-नारंगी रंग की ज्वाला भड़क उठी हो। यह नजारा इतना अद्भुत होता है कि इसे देखने के लिए पर्यटक, फोटोग्राफर और प्रकृति प्रेमी दूर-दूर से खिंचे चले आते हैं। पलाश के फूलों से सजे पेड़ और उनके नीचे बिछी लाल-नारंगी पंखुड़ियों की चादर एक स्वर्गिक दृश्य प्रस्तुत करती है।🌺

# # # पलाश के फूलों का महोत्सव

फरवरी और मार्च का महीना झारखंड में पलाश के फूलों का महीना होता है। इन महीनों में झारखंड के खेत, पहाड़, जंगल और नदियों के किनारे पलाश के फूलों से भर जाते हैं। इस मौसम में चारों ओर लाल, नारंगी और पीले रंगों का शानदार मेला सा लग जाता है।🌺

पलाश के फूलों की यह बहार सिर्फ आंखों को ही नहीं, बल्कि आत्मा को भी सुकून देती है। झारखंड के जंगलों में इसे देखकर ऐसा लगता है मानो प्रकृति ने होली खेलने की तैयारी कर ली हो। पलाश के फूल न केवल देखने में सुंदर होते हैं, बल्कि इनका उपयोग कई पारंपरिक कार्यों में भी किया जाता है। यह फूल आदिवासी समुदाय के लिए विशेष महत्व रखते हैं। इनसे रंग बनाए जाते हैं, जो होली के अवसर पर प्राकृतिक रंगों के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं।🌺

झारखंड के प्रसिद्ध स्थान, जहाँ खिलता है पलाश

झारखंड में कई स्थान हैं, जहाँ बसंत में पलाश की सुंदरता देखने लायक होती है। इनमें नेतरहाट, दलमा हिल्स, बेतला नेशनल पार्क, हजारीबाग वाइल्डलाइफ सेंचुरी, पारसनाथ हिल्स और पलामू के जंगल प्रमुख हैं। इन क्षेत्रों में पलाश के फूलों से ढके पेड़ पूरे परिदृश्य को एक जादुई रूप दे देते हैं।🌺

नेतरहाट, जिसे "झारखंड का स्वर्ग" कहा जाता है, वहाँ की घाटियों में पलाश की आग की लपटें देखने लायक होती हैं। बेतला नेशनल पार्क में जब बाघों और अन्य वन्य जीवों के साथ ये फूल नजर आते हैं, तो यह दृश्य एक अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है।

आदिवासी संस्कृति में पलाश का महत्व

झारखंड के आदिवासी समाज में पलाश का विशेष महत्व है। इसे 'टेसू' या 'फ्लेम ऑफ द फॉरेस्ट' भी कहा जाता है। यह न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि लोकगीतों, लोकनृत्यों और परंपराओं में भी अपनी खास जगह रखता है। आदिवासी समाज में इसे पवित्र माना जाता है और कई धार्मिक अनुष्ठानों में इसका उपयोग किया जाता है।

झारखंड की यह रंगीन छटा हर किसी के दिल को छू लेती है। यह केवल एक प्राकृतिक दृश्य नहीं, बल्कि जीवन और ऊर्जा का प्रतीक है। पलाश के इन रंगों में झारखंड की आत्मा बसती है।

#हुल_जोहार ✊
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