
10/06/2025
रिश्ते अक्सर दिखते सरल हैं, लेकिन भीतर से वे एक बहुत ही महीन, मुलायम धागे की तरह होते हैं—जो जुड़ता भी है, उलझता भी है, और टूट भी सकता है अगर ज़रा भी खिंचाव ज़्यादा हो जाए। यह धागा भावनाओं से बुना होता है, विश्वास से रंगा होता है, और उम्मीद की गर्माहट में नरमाया होता है। मगर दुर्भाग्य से हम अक्सर रिश्तों की ताक़त को तभी महसूस करते हैं जब वह धागा टूटने लगता है, और उँगलियों से फिसलती जा रही उसकी गर्माहट चुभन बन जाती है।
रिश्ते एकदम साफ पानी की तरह भी होते हैं—पारदर्शी, लेकिन भीतर बहती गहराइयों से भरे हुए। हम जब पानी को देखते हैं, हमें उसका चेहरा दिखता है, पर उसकी तह में क्या है, वह तब तक समझ नहीं आता जब तक हम उस पार उतर कर न देखें। रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं, उनका असली रूप तब दिखता है जब हम सतह से नीचे झाँकने का साहस करते हैं। मगर सच यह भी है कि साफ पानी बहुत कुछ छिपा लेता है—कभी उदासी, कभी डर, कभी एक अनकहा 'शायद'।
छोटी चिड़िया की तरह होते हैं रिश्ते। उन्हें उड़ने देना पड़ता है। जबरन पकड़ने की कोशिश करो तो वे हाथ से फिसल जाते हैं, डरते हैं, भागते हैं। लेकिन अगर उन्हें भरोसे का एक सुरक्षित घोंसला मिले, तो वे लौट कर ज़रूर आते हैं। रिश्तों को बाँध कर नहीं रखा जा सकता। उन्हें खुला आसमान चाहिए, जहाँ वे खुद तय कर सकें कि लौटना है या उड़ जाना है। यह डरावना है—लेकिन यही रिश्ता है। डर और विश्वास का एक साथ होना।
कभी-कभी रिश्ते उस नादान बच्चे जैसे होते हैं जो बिना शर्त, बिना तर्क बस प्यार करता है। वह नहीं पूछता कि 'क्यों' और 'कब तक'। वह बस साथ रहना चाहता है, हाथ पकड़ना चाहता है, मुस्कराहट के पीछे छिपे आंसू समझना चाहता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, यह बच्चा भीतर कहीं खो जाता है। हम प्यार में गणना करने लगते हैं—कितना दिया, कितना पाया। और वहीँ से रिश्तों में दरारें पड़ने लगती हैं।
रिश्तों को बचाना एक कला नहीं, एक साधना है। वह किसी उपाय से नहीं, बल्कि समझ से होता है। हमें यह समझना होता है कि कभी-कभी सामने वाला भी थका होता है, टूटा होता है, और ज़रूरत होती है कि हम उसे बिना कोई सवाल पूछे थाम लें। कभी-कभी रिश्ते को बचाने का मतलब होता है—कुछ न कहना, बस होना। वहाँ रहना जहाँ दूसरा व्यक्ति गिरे बिना खुद को फिर से समेट सके।
रिश्ते किसी परिभाषा में नहीं बाँधे जा सकते। वे सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं—उन मौकों पर जब कोई चुप रहकर भी सब कह देता है, जब एक हाथ पकड़ना सौ शब्दों से ज़्यादा अर्थ देता है, जब कोई बिना मांगे पास बैठ जाता है बस इसलिए कि आपको अकेलापन न लगे।
शायद इसी को कहते हैं रिश्ता—नज़ाकत का, गहराई का, और मौन का मिलाजुला संगीत।
वहाँ जहाँ हम एक-दूसरे को बाँधते नहीं, बस थाम लेते हैं।