11/09/2025
डॉ. हेडगेवार : 'राष्ट्र की ‘आत्मा-चेतना’ के पुरोहित
बीसवीं शताब्दी का भारत केवल अंग्रेजी पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा न था, वह सांस्कृतिक विस्मृति और सामाजिक विखंडन की वेदना से भी व्याकुल था। अंग्रेजी शासन की शक्ति केवल तोप और तलवार पर नहीं, बल्कि भारतीय समाज की आत्महीनता पर टिकी थी। मानो भारत की आत्मा गहरी नींद में सोई हो, स्मृतियों का सरोवर सूख चुका हो और संस्कारों का सूर्य धुंध में ढंक गया हो। ऐसे अंधकारमय समय में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार (1889-1940) का प्रादुर्भाव हुआ। वे केवल स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी नहीं थे, बल्कि राष्ट्र की चेतना जगाने वाले पुरोहित थे। उन्होंने सोई हुई आत्मा को जगाया, सांस्कृतिक दीपक जलाया और यह संदेश दिया कि भारत की स्वतंत्रता केवल सत्ता परिवर्तन से नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति और स्वत्व की पुनर्प्रतिष्ठा से पूर्ण होगी।
-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य : विकृतियां और विभाजन
बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत पराधीन भी था और पराजित -मन भी। शिक्षा से संस्कार टूटा, समाज से सहकार छूटा। जाति-जंजाल और प्रांत-प्रपंच ने जन-जीवन को जकड़ लिया। अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति से इन दरारों को और गहरा किया। बंगाल विभाजन (1905) और मोरले-मिंटो सुधार (1909) इसके ज्वलंत प्रमाण बने। स्वतंत्रता की ज्वाला बार-बार भड़की। 1857 की रणध्वनि, जलियांवाला का रक्त-स्नान, असहयोग का आंदोलन पर हर बार संगठनहीनता और आत्मविश्वास की शैथिल्य ने उसे बुझा दिया।
इतिहासकार जेम्स कज़िन्स ने ठीक ही कहा कि "भारत की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी असंगठित जनता और आत्मविश्वास की कमी है।"
डॉ. हेडगेवार ने इस दुर्बलता पर प्रहार करने का प्रण लिया और बिखरी चेतना को संगठित संकल्प की शृंखला में बांधने का बीड़ा उठाया।
-जीवन-यात्रा और प्रेरणाएं
डॉ. हेडगेवार ने जब यह निश्चय किया कि राष्ट्र की सबसे बड़ी दुर्बलता संगठनहीनता और आत्महीनता पर प्रहार करना है, तो यह विचार अचानक नहीं उपजा था। यह उनके जीवन के विविध अनुभवों और संघर्षों से उपजा हुआ निष्कर्ष था। विद्यालय के दिनों से ही वे अन्याय के सामने झुकने वाले नहीं थे। 'वंदे मातरम' के उद्घोष पर जब दंड मिला, तब भी उन्होंने सिर झुकाने के बजाय ऊंचा रखा। यही साहस आगे चलकर उनकी जीवन-दृष्टि बना।
बंग-भंग की घटना ने उनके भीतर स्वदेशी चेतना का संचार किया, जबकि लोकमान्य तिलक के शब्द "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" उनके लिए प्रेरणा का शंखनाद थे। युवावस्था में कलकत्ता की धरती पर, चिकित्सा की पढ़ाई के साथ-साथ, वे क्रांतिकारी समितियों से जुड़े। अनुशीलन समिति के अनुशासन और कार्यशैली ने उन्हें यह गहरी शिक्षा दी कि केवल क्षणिक विद्रोह राष्ट्र को मुक्त नहीं कर सकता। स्थायी मुक्ति के लिए चरित्रवान और संगठित समाज चाहिए।
इन अनुभवों ने उनके भीतर यह विश्वास दृढ़ किया कि स्वतंत्रता का प्रश्न मात्र राजनीतिक नहीं है, यह सांस्कृतिक और सामाजिक प्रश्न भी है। उन्होंने देखा कि आंदोलनों की ज्वाला भड़कती है, पर समाज का विखंडन और संगठनहीनता उसे शीघ्र ही राख बना देते हैं। इसलिए उन्होंने समाज को संस्कारित करने, संगठनबद्ध करने और राष्ट्र की सुप्त चेतना को जागृत करने को
अपने जीवन का ध्येय ठहराया।
-कांग्रेस आंदोलन और उसकी सीमाएं
डॉ. हेडगेवार जब राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हुए, तो उन्होंने अपनी युवावस्था की ऊर्जा कांग्रेस के मंच से झोंक दी। असहयोग आंदोलन (1920) में उनकी भूमिका इतनी प्रभावशाली थी कि नागपुर में कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान उन्होंने स्वयंसेवकों का एक अनुशासित दस्ता तैयार किया। उस समय ही उनकी संगठन क्षमता सबके सामने प्रकट हुई। आंदोलन में भाग लेने के कारण वे जेल गए, किंतु जेल की कालकोठरी उनके लिए केवल कारावास नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अखाड़ा बनी। वहां उन्होंने गहराई से अनुभव किया कि कांग्रेस की रणनीति में दीर्घकालिक सोच और स्थायी संगठन का अभाव है।
उनके सामने कांग्रेस आंदोलन की सीमाएं स्पष्ट थीं। पहला, ये आंदोलन प्रायः अंग्रेजों की किसी नीति या दमन के प्रतिकार में शुरू होते और धीरे-धीरे शिथिल पड़ जाते। दूसरा, इनकी ऊर्जा नेतृत्व पर अत्यधिक निर्भर रहती थी। जनता का उत्साह नेताओं के आह्वान तक सीमित होकर क्षणिक लहर बन जाता। तीसरा, इन आंदोलनों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आत्मा नहीं थी। वे केवल सत्ता परिवर्तन पर केंद्रित रहते, समाज परिवर्तन की गहराई तक नहीं उतरते।
डॉ. हेडगेवार ने यह भी देखा कि कांग्रेस आंदोलनों में अक्सर रणनीति की एकरूपता नहीं होती। कभी असहयोग, कभी रचनात्मक कार्यक्रम, कभी आंदोलन वापस लेना, इन सबने जनता के मन में असमंजस पैदा किया। जनता आंदोलन के समय सड़कों पर उमड़ती, किंतु जब नेतृत्व पीछे हटता तो वही जनता भ्रम और निराशा में डूब जाती। ऐसे में अंग्रेजों का शासन डगमगाने के बजाय और कठोर होता गया।
यही कारण था कि हेडगेवार के भीतर यह विचार और दृढ़ होता गया कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजनीतिक नहीं हो सकती। यदि समाज चरित्रवान और संगठित न बने तो कोई भी आंदोलन दीर्घजीवी नहीं हो सकता। वे मानते थे कि केवल अंग्रेजों को हटाना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उस मानसिकता और आत्महीनता को भी हटाना होगा जो गुलामी को जन्म देती है। उनके शब्दों में "कांग्रेस की लड़ाई सत्ता परिवर्तन की है, हमारी लड़ाई समाज परिवर्तन की है।"
इस चिंतन ने उन्हें एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा कर दिया। कांग्रेस के आंदोलनों की सीमाओं ने उनके भीतर यह संकल्प और भी प्रबल किया कि अब समय आ गया है कि समाज की चेतना को जड़ से बदलने के लिए एक नया, अनुशासित और सांस्कृतिक संगठन खड़ा किया जाए। ऐसा संगठन जो क्षणिक आंदोलन नहीं, बल्कि स्थायी राष्ट्र-जागरण का आधार बने।
*राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : आत्मा-चेतना का जागरण*
सन 1925 की विजयादशमी इस निश्चय की प्रत्यक्ष साक्षी बनी। जिस दिन धर्म की विजय और अधर्म के पतन का स्मरण होता है, उसी पावन अवसर पर नागपुर की भूमि पर डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। यह केवल एक संगठन नहीं था, बल्कि राष्ट्र-आराधना का एक अनुष्ठान, आत्मा-जागरण का एक यज्ञ था।
शाखा उसकी आत्मा बनी। खुले मैदान में प्रतिदिन लगने वाली साधारण-सी प्रतीत होने वाली शाखा वस्तुतः एक जीवंत प्रयोगशाला थी, जहां खेलों के माध्यम से शरीर सबल होता, व्यायाम से मन संयमित होता और प्रार्थना से आत्मा संस्कारित होती। ध्वज-प्रणाम मात्र झंडे का सम्मान नहीं था, बल्कि राष्ट्रदेव की वंदना थी। शाखा की प्रार्थना
*"नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे,*
*त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्"*
के प्रत्येक शब्द में मातृभूमि के प्रति समर्पण और राष्ट्र के प्रति जीवन-अर्पण का संकल्प निहित था।
डॉ. हेडगेवार का विश्वास था कि राष्ट्र केवल भूमि-खंड नहीं, अपितु एक जीवंत पुरुष, एक चैतन्य आत्मा है। यदि उसकी आत्मा दुर्बल है तो स्वतंत्रता क्षणभंगुर है। यदि उसकी आत्मा प्रबल है तो कोई शक्ति उसे पराधीन नहीं कर सकती। इसी कारण वे कहते थे कि "सच्चा स्वराज तभी संभव है, जब प्रत्येक भारतीय के हृदय में राष्ट्र पहले और स्वयं बाद में हो।"
प्रारंभ में संघ की शाखाएं अल्पसंख्या में थीं, स्वयंसेवक भी गिने-चुने थे किंतु डॉ. हेडगेवार का विश्वास अडिग था। वे कहा करते थे कि "मुठ्ठी भर संगठित लोग भी पूरे समाज में चेतना का संचार कर सकते हैं।" वास्तव में यही सत्य सिद्ध हुआ। उनकी बोई हुई शाखाएं आगे चलकर विशाल वटवृक्ष में परिणत हुईं, जिसने भारत की सांस्कृतिक आत्मा को पुनः आलोकित किया।
इस प्रकार संघ की स्थापना केवल एक संगठन का प्रारंभ नहीं थी, बल्कि वह क्षण था जब भारत की निद्रित आत्मा के भीतर जागरण का शंखनाद हुआ।
डॉ. हेडगेवार को केवल संगठनकर्ता या संस्थापक के रूप में देखना पर्याप्त नहीं है। वे उस पुरोहित-पुरुष की तरह थे, जो राष्ट्रदेव की वेदी पर संस्कार और संगठन की आहुति चढ़ा रहे थे।
-विचारधारा : संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा
डॉ. हेडगेवार के लिए राष्ट्र कोई निर्जीव भू-नक्शा या केवल सत्ता का उपकरण नहीं था। उनके चिंतन में राष्ट्र एक जीवंत पुरुष था, जिसका तन यह भूभाग है, जिसकी धमनियां गंगा-यमुना-सरस्वती की धाराएं हैं, जिसके प्राण उसकी संस्कृति है और जिसकी आत्मा उसका सनातन धर्म है। उनका मानना था कि यदि भूमि स्वतंत्र हो जाए, पर संस्कृति दुर्बल हो जाए, तो वह स्वतंत्रता केवल खोल रह जाएगी, आत्मा का सार उसमें शेष न रहेगा।
भारतीयता का मूलाधार उनके लिए हिंदू संस्कृति थी। यह संस्कृति किसी जातीय आग्रह की उपज नहीं, बल्कि सहिष्णुता, समरसता और आत्मीयता का विराट विस्तार थी। उपनिषद का वाक्य 'एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' उनके लिए सांस्कृतिक एकता का मंत्र था। गीता का कर्मयोग उन्हें अनुशासन और कर्तव्य का मार्ग दिखाता था। रामायण और महाभारत की कथाएं उनके लिए नीति और धर्म का आलोक बनती थीं। इस संस्कृति में विविधता थी, पर विभाजन नहीं अनेकता थी, पर विखंडन नहीं।
इसी सांस्कृतिक चेतना पर आधारित होकर उन्होंने राष्ट्रवाद की परिभाषा दी "जो इस भूमि को मातृभूमि मानता है और इस संस्कृति को अपनी संस्कृति, वही हिंदू है।"
यह परिभाषा संकीर्ण नहीं, समावेशी थी। इसमें किसी का बहिष्कार नहीं, बल्कि प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए स्थान था जो इस भूमि को अपनी माता और इस संस्कृति को अपनी आत्मा मानता है।
डॉ. हेडगेवार का यह दृष्टिकोण सिद्धांत भर नहीं, बल्कि साधना था। वे कहते थे कि राजनीति की चमक क्षणिक है, पर संस्कृति का आलोक चिरंतन है। यदि समाज संस्कृति से जुड़ेगा, तो संगठन सुदृढ़ होगा और स्वतंत्रता स्थायी होगी।
इसी कारण संघ की शाखाएं राजनीति की बहस का मंच नहीं बनीं, बल्कि संस्कृति की साधना का केंद्र बनीं। वहां खेलों के द्वारा शरीर सबल बनता, प्रार्थना से मन अनुशासित होता और ध्वज-प्रणाम से राष्ट्रदेव को वंदन मिलता। वहां सत्ता नहीं, संस्कार की साधना थी। पद की नहीं, परंपरा की प्रतिष्ठा थी।
यही कारण था कि संघ की शाखाएं प्रतिदिन यह संदेश देती थीं कि "संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा है। जब यह आत्मा जाग्रत होती है, तब पराधीनता की बेड़ियां स्वयं टूट जाती हैं और जब यह आत्मा सुप्त हो जाती है, तब स्वतंत्रता भी दासता में बदल जाती है।"
*समकालीन प्रतिक्रियाएं और अंग्रेजी दृष्टिकोण*
डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व और उनका संगठन केवल भारत वासियों को ही नहीं, बल्कि उनके समकालीन नेताओं और अंग्रेज शासकों को भी गहराई से प्रभावित करता था। उनकी स्पष्टता, अनुशासनप्रियता और संगठन-शक्ति ने मित्रों के बीच सम्मान और शत्रुओं के बीच आशंका दोनों उत्पन्न की।
महात्मा गांधी ने उनके जीवन को 'एक साधक का जीवन' कहा। विनायक दामोदर सावरकर ने उन्हें 'राष्ट्रीय संगठन का महर्षि' बताया। तत्कालीन कई कांग्रेसी नेता भी उनकी संगठनात्मक दक्षता से प्रभावित थे, यद्यपि उनकी राह अलग थी।
अंग्रेज शासक संघ को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उन्हें भय था कि यह साधारण प्रतीत होने वाला संगठन आने वाले समय में उनकी सत्ता के लिए गंभीर चुनौती बनेगा। 1930 के दशक की सीआईडी रिपोर्टों में लिखा गया कि "संघ की शाखाएं अनुशासन और नियमितता के साथ चलती हैं। यदि यह संगठन इसी प्रकार बढ़ता रहा तो भविष्य में यह अंग्रेजी राज के लिए सबसे बड़ा संकट बन जाएगा।"
एक ब्रिटिश अधिकारी ने टिप्पणी की थी कि "हेडगेवार का संगठन भले ही प्रत्यक्ष राजनीति में न हो, पर उसका राष्ट्रवादी स्वरूप किसी भी राजनीतिक दल से कहीं अधिक गहरा और स्थायी है।"
ये प्रतिक्रियाएं इस सत्य को स्पष्ट करती हैं कि हेडगेवार का प्रयास केवल संगठन खड़ा करना नहीं था, बल्कि एक ऐसी आत्मा-चेतना जगाना था, जो आने वाले समय में स्वतंत्रता के संघर्ष को गहराई और स्थायित्व प्रदान करे। मित्रों ने इसे साधना माना, विरोधियों ने इसे खतरा समझा पर दोनों ने इसे गंभीर शक्ति अवश्य स्वीकारा।
डॉ. हेडगेवार का मूल विश्वास था कि राष्ट्रनिर्माण राजनीति से नहीं, चरित्र निर्माण से होता है। उनका कहना था कि शासन परिवर्तन से पहले समाज परिवर्तन आवश्यक है। अनुशासन और संगठन ही स्वतंत्रता का संरक्षण कर सकते हैं। इसीलिए शाखा में प्रार्थना, खेल और व्यायाम केवल शारीरिक गतिविधियां नहीं थीं, बल्कि राष्ट्रधर्म की साधना थीं। हेडगेवार का पूरा जीवन इस विचार का मूर्त रूप था कि यदि समाज चरित्रवान और संगठित होगा, तो कोई शक्ति उसे पराधीन नहीं रख सकती।
भारत आज राजनीतिक रूप से स्वतंत्र है, किंतु सांस्कृतिक चुनौतियां अभी भी शेष हैं। पश्चिमी भोगवाद और उपभोक्तावाद की आंधी, सांप्रदायिक कट्टरता, जातिवादी राजनीति और सांस्कृतिक विस्मृति राष्ट्र के सामने गंभीर प्रश्न खड़े करती हैं। ऐसे समय में डॉ. हेडगेवार का संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है। वे स्मरण कराते हैं कि भारत का भविष्य राजनीति नहीं, बल्कि संस्कृति तय करेगी। यदि समाज अपनी आत्मा और परंपरा से कट जाएगा, तो स्वतंत्रता केवल खोखला ढांचा बन जाएगी।
*राष्ट्र-ऋषि की विरासत*
सन 1940 में डॉ. हेडगेवार ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया, किंतु उनके विचार आज भी अमर ज्योति बनकर राष्ट्र-पथ को आलोकित कर रहे हैं। वे केवल संगठन के संस्थापक नहीं थे, बल्कि उस ऋषि परंपरा के साधक थे, जिन्होंने युगों से भारत की आत्मा को जागृत करने का कार्य किया।
वे राष्ट्रदेव के ऋत्विक थे, जिन्होंने संगठन की वेदी पर संस्कारों की आहुति चढ़ाई। वे स्वत्व-जागरण के महामंत्री थे, जिन्होंने बिखरे जन-मन को अनुशासन और आत्मगौरव के सूत्र में पिरोया। वे केवल हेडगेवार नहीं, बल्कि हृदयों को हेतुभाव से जोड़ने वाले, हिंदुत्व की चेतना को हृदय-गर्भ से जगाने वाले 'राष्ट्र-ऋषि' थे।
उनकी विरासत हमें यह स्मरण कराती है कि स्वतंत्रता का सार केवल सत्ता-परिवर्तन में नहीं, बल्कि आत्मा-चेतना के जागरण में है। जब समाज संगठित और संस्कारित होता है, तभी स्वतंत्रता स्थायी बनती है। यही जागरण भारत को अमर करता है, यही आत्मबल उसे अजेय बनाता है, और यही स्वत्व उसे आत्मनिर्भर और आत्मगौरव से सम्पन्न करता है। 🚩