Rajani Kant Pramanik

Rajani Kant Pramanik Para teacher

17/09/2025

*अयुक्तस्वामिनो युक्तं युक्तं नीचस्य दूषणम्।*
*अमृतं राहवे मृत्युर्विषं शंकरभूषणम्।।*

*भावार्थ:*

*यदि योग्य व्यक्ति के पास अयोग्य वस्तु भी आ जाए तो वो भी काम की बन जाती है

लेकिन अयोग्य व्यक्ति के पास योग्य वस्तु भी चली जाए तो वह काम की नहीं रहती|

जैसे शिव ने विष पिया और वह उनके गले की शोभा बढ़ा रहा है,

लेकिन राहू अमृत पी कर भी मारा गया*

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11/09/2025

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! Manoranjan Paramanik, Kumar Jay, Praveen Kumar Yadav, Shankar Das, Sadhan Pramanick, Subodh Pramanik, Amit Paramanik

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! प्रदीप कुमार, Dipak Kumar
03/09/2025

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Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! राजन वाल्मिकी अंबेडकरवादी, Jsm Ajay Kumar, Sujoy Paramani...
27/08/2025

Shout out to my newest followers! Excited to have you onboard! राजन वाल्मिकी अंबेडकरवादी, Jsm Ajay Kumar, Sujoy Paramanik

25/08/2025

जय हो

24/08/2025

ऋषि चिंतन
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यदि आप साहसी हैं तो अपने दोषों को स्वीकार करिए!
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जो हमें हमारे "दोष" दिखा सकें, वही हमारे "सच्चे मित्र" हैं।उन्हें ही अपने मित्रों में सम्मिलित करना है चाहिए जो हमारे दोष दर्शा सकें और कुमार्ग से हटाने का साहस उत्पन्न करें। आमतौर पर होता यही है कि "चापलूसी" भाती है और "दोषों" की चर्चा करने वाला "शत्रु" लगता है।हम चोरी का धन्धा करते हों और कोई चोर कह दे, बेइमानी करते हों और कोई बेईमान कह दे तो बहुत बुरा लगता है और उससे लड़ने-मरने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसे अपनी "कायरता" ही कहना चाहिए कि वस्तुस्थिति को बताने वाले दर्पण में अपनी कुरूपता देखना हमें सहन नहीं होता और अपने अपराध का दण्ड उस दर्पण को तोड़ने के रूप में देना चाहते हैं । कई बार ऐसे तर्क प्रस्तुत करके हम अपना बचाव करते हैं कि हमीं अकेले तो नहीं हैं, दुनिया में और भी तो बहुत लोग यह कर रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं लोग रोकते ?

अपनी दुर्बलताओं के इसी बचाव के कारण हम और हमारा व्यक्तित्व सारी जिन्दगी अविकसित ही बने रहते हैं। न जाने कौन-सी दुष्प्रवृत्ति हमारे हमारे अन्दर दोषों-दुर्गुणों के रूप में पल रहे हैं।

अच्छा यही है कि हम अपने "दोषों" की समीक्षा के लिए आज और अभी आगे बढ़ चलें, ताकि अपने व्यक्तित्व के विकास में रुकावट डालने वाले सारे अवरोध भी हट जाएँ और किसी दूसरे को अपने लिए निन्दा करने का दोष भी न सहना पड़े। फिर चर्चा या निन्दा उतनी आवश्यक भी नहीं है जितना कि अपने सुधार के लिए किया गया प्रयत्न। कोई हमारी "निन्दा" करे और हम किसी की "निन्दा" करें, इससे समस्या का समाधान नहीं हो जाएगा। बुराइयों का अन्त करने के लिए सिर्फ चीख-पुकार या नारे- बाजी पर्याप्त नहीं। उसके लिए तो ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इसमें सबसे पहला और सबसे प्रभावशाली कदम यह हो सकता है कि हम अपने दोषों को "साहसपूर्वक स्वीकार करें।" यह स्वीकारोक्ति हर किसी के सामने की जाय यह जरूरी नहीं। परन्तु हमें अपनी बुराइयों को स्वयं अपने सामने मानने में, आत्मीय गुरुजनों के समक्ष स्वीकारने और परमेश्वर की समर्थ सत्ता की साक्षी में कहने में तनिक-सी भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। हम यदि ऐसा कर सकें तो हमारी आत्मा, गुरुजनों का आशीष और भगवान का अनुग्रह हमारे अपने अन्दर अपूर्व साहस को जन्म देगा। ऐसा साहस, जिसके बलबूते अपनी दुर्बलताओं को उखाड़ फेंकने के लिए वह पराक्रम-पुरुषार्थ दिखा सकेंगे जो सच्चे और बहादुर योद्धा ही दिखाया करते हैं। अपने आप से लड़ना और अपने आप को शुद्ध बना लेना बाहर की दुनिया को निर्मल-निष्पाप बना सकने की "सबसे बड़ी योग्यता" और "वीरता" की सबसे बड़ी निशानी है।

निर्मल-निष्पाप हृदय में ईश्वरीय विभूतियाँ पुष्पित-पल्लवित होती हैं। ऐसे ही व्यक्ति अपनी निष्कलुष भावनाओं से परमात्म-सत्ता से एकाकार होते हैं। महापुरुषों का जीवन इस बात का साक्षी है कि वे पर दोष-दर्शन के स्थान पर सतत आत्मनिरीक्षण करते रहे। अच्छा यही है कि हम अपनी त्रुटियाँ खोजें और उन्हें दूर करें। यही अपनी शक्तियों को पहचानने और उन्हें विकसित करने का राजमार्ग है!

अखंडज्योति जनवरी १९९७ पृष्ठ-२
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य

भगवान मात्र आदमी का व्यक्तित्व देखता है!**********************************मित्रो! आप सोचते होंगे कि कर्मकाण्डों से प्रभा...
24/08/2025

भगवान मात्र आदमी का व्यक्तित्व देखता है!
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मित्रो! आप सोचते होंगे कि कर्मकाण्डों से प्रभावित होकर के भगवान खिंचते हुए चले आते होगे, भगवान प्रसन्न हो जाते होगे, बात ऐसी नहीं हैं। भगवान बड़े समझदार आदमी का नाम है। भगवान बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी का नाम है, दूरदृष्टी वाले आदमी का नाम ही भगवान है। इसको हम खेल- खिलौनों से और छिटपुट मंत्रों का उच्चारण करके और चावलों को इधर से उधर फेंक करके फुसला नहीं सकते। बेटे! उसे रिझाने के लिए उसी स्तर की चीजों की जरूरत है, जिसको भगवान पसंद करता है। भगवान मनुष्य के व्यक्तित्व के अलावा कुछ और नहीं देखना चाहता। आपको क्रिया- कलाप, कर्मकाण्ड कैसा आता है, कैसा नहीं आता, भगवान के यह देखने की फुरसत नहीं है। आप वाल्मीकि की तरह से राम- राम को जगह 'मरा- मरा' कहने लगें तो भी भगवान जी को कोई शिकायत नहीं है। आप 'मरा- मरा' कहिए चाहे 'राम- राम' कहिए। नहीं, साहब! राम- राम कहने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और हूँ मरा- मरा है कहने से नाराज हो जाते हैं। 'मरा- मरा' कहने से देवी नाराज हो जाती हैं। बेटे! हमें नहीं मालूम कि 'मरा- मरा' कहने से कौन सी देवी नाराज हो जाती हैं और 'राम- राम' कहने से कौन सा भगवान प्रसन्न हो जाता है। नहीं महाराज जी! चंदन की माला घुमाने से शंकर जी प्रसन्न होते हैं और रुद्राक्ष की माला घुमाने से शंकर जी नाराज हो जाते हैं। बेटे! हमें नहीं मालूम है।

मित्रो! आप क्या समझते हैं कि शंकर जी इतने बेअकल और इतने नासमझ हैं कि चंदन की माला से तो खुश हो जाएँ और रुद्राक्ष की माला से नाराज हो जाएँ। ऐसा तो बच्चे करते हैं। आप उसे सफेद रंग का गुब्बारा दे दें तो बच्चा नाराज हो सकता है और कह सकता है कि हम तो गुलाबी रंग का लेंगे, सफेद रंग का नहीं लेंगे और शंकर जी किस चीज की माला पहनेंगे, चंदन की या रुद्राक्ष की? नहीं साहब! हम तो रुद्राक्ष की पहनेंगे, चंदन की नहीं पहन सकते। बच्चे की तबियत जैसी भगवान शंकर की होगी, ये नहीं हो सकता, जैसा कि आपका ख्याल है, लेकिन अगर आप यह मानते है कि शंकर भगवान बच्चे नहीं हैं, शंकर भगवान कोई बुजुर्ग हैं तब फिर आपको दूसरी तरह से विचार करना होगा। तब आपको मालाओं की परख करने की अपेक्षा, शंकर जी को प्रसन्न करने की अपेक्षा तथा उस दुकानदार के दरवाजे पर नाक रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्यों साहब! रुद्राक्ष की माला असली है कि नकली है ?? क्या मतलब है आपका? यह मतलब है कि असली रुद्राक्ष को माला है तो शंकर जी प्रसन्न हो सकते है और अगर नकली होगी तो नाराज हो सकते हैं। आहा......! तो यह चक्कर हैं, यह मामला है? शंकर जी असली रुद्राक्ष से प्रसन्न हो जाते हैं और नकली से नाराज हो जाते हैं।

बेअक्ल आदमी यह समझता है कि मालाओं की शक्लें देख करके, उनकी पहचान करके शंकर जी की प्रसन्नता और नाराजगी टिकी हुई है तो ऐसा बिलकुल नहीं है। शंकर जी को आप मिट्टी की गोलियों से बनी हुई मालाओं से जप लें तो भी शंकर जी उतना ही चमत्कार दिखा सकते हैं, जितने कि मिट्टी के बने हुए द्रोणाचार्य ने चमत्कार दिखाए थे। यह सारे का सारा भावनाओं का खेल है, श्रद्धा का खेल है, मान्यताओं वह खेल है। यह लकड़ी का खेल नहीं है। तांबे के पात्र में पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? स्टील का पंचपात्र लगा दो तो कैसा हो सकता है? बेटे! मिट्टी का भी बना ले और अगर तेरे पास कोई पंचपात्र न हो तो हथेली में पानी रखकर पी लिया कर, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महाराज जी! ये तो कर्मकाण्डों का, विधि- विधानों का सवाल है? है तो सही बेटे! कर्मकाण्डों का, विधि- विधानों का सारा का सारा ढाँचा या स्वरूप आपको सावधान रखने, सतर्कता बरतने, जागरूकता रखने, नियमों का पालन करने के लिए बनाया गया है। इसलिए इसका स्वरूप तो है सही और वह रहना चाहिए ताकि आदमी को अटेन्शन रहने का, सावधान रहने का, जागरूक रहने वा, विधि और व्यवस्था के साथ काम करने का, अनुशासन के नियमों का पालन करने का ध्यान बना रहे। अन्यथा छोले- पोले आदमी सारा काम बिगाड़ देंगे। इसलिए अनुशासन कायम रखने के लिए शास्त्रकारों ने जो मर्यादाएँ बना दी हैं, उनका रक्षण होना चाहिए। उनका मैं हिमायती हूँ, विरोधी नहीं हूँ, लेकिन अगर आप यह समझते हों कि इनके द्वारा ही हमारा उद्देश्य पूरा हो सकता है तो ऐसा नहीं हो सकता।

24/08/2025

*👉 विषय:- ईश्वर की सर्वव्यापकता।***

🤔 कई शंका करते हैं कि ईश्वर सब जगह नहीं हो सकता
यदि ईश्वर सब जगह है तो क्या वह मल मूत्र में, 🐷 सूअर, 🐶 कुत्ते, 🎭 चौर-डाकू में भी है? फिर तो ईश्वर भी गंदा, मेला हो जाएगा। यह उनकी शंका है।

👊 समाधान - जब हम चुम्बक के टुकड़े को मल में, गन्दगी में, डालते हैं तो चुम्बक का लोहा गंदा होता है, उसकी आकर्षण शक्ति गंदी नहीं होती। 🏞 पृथ्वी पर मल मूत्र गंदगी डालने से 🏞 पृथ्वी गंदी होती है, गुरुत्व बल गंदा नहीं होता। बिजली के तार पर गंदगी लगने से तार गन्दा होता है, कंरट नहीं इत्यादि उदाहरण से पता चलता है कि जिसका आकार है वह गंदा होता है, क्यों कि ईश्वर निराकार है इसलिए वह गंदा नहीं होगा। आत्मा शरीर में रहती है जहां गन्दगी है फिर तो आत्मा सदा गंदी ही रहेगी, कभी मोक्ष नहीं होगा? क्योंकि ईश्वर निराकार है, शरीर से रहित है, नस नाडियों से रहित है वह तो मल-मूत्र के अन्दर बाहर सब जगह है। सदा पवित्र है, निर्विकार है इसलिए सब जगह होता हुआ भी गंदा नहीं होता। 🌅 सूर्य की किरणें गंदगी पर पड़ने के बाद भी गंदी नहीं होती।

शंका :- ईश्‍वर है तो दिखाई क्‍यों नहीं देता ?
ईश्‍वर एक दिव्‍य चेतन शक्‍ति है । इस संसार में ऐसी अनेक शक्‍तियां है जिनको हम देख नहीं सकते । हम उन शक्‍तियों को केवल महसूस कर सकते हैं उन शक्‍तियों को न तो आंख से देखा जा सकता है और न ही उनकी फोटो या चित्र बनाया जा सकता है । जैसे
• सूरज की गर्मी को केवल महसूस किया जा सकता है हम उस गर्मी को पकड़ नहीं सकते ।
• सदियों में ठंड को केवल महसूस किया जा सकता है आप उस ठंडक को पकड़ नहीं सकते ।
• भूख एक शक्‍ति है, भूख को आप महसूस कर सकते हैं, पकड़ या देख नहीं सकते । न ही उसकी मूर्ति या फोटो बना सकते हैं
• कानों से आवाज को केवल सुन सकते हैं, आप देख नहीं सकते न ही उसकी मूर्ति या फोटो बना सकते हैं
• दूध में घी रहता है, परंतु दिखाई नहीं देता ।
• पुष्‍प में सुगंध होती है, परंतु दिखाई नहीं देती ।
• मल-मूत्र में दुर्गंध होती है, परंतु दिखाई नहीं देती ।
• वायु हमारे चारों ओर है परंतु दिखाई नहीं देती ।
• तिल, सरसों, मूंगफली आदि में तेल होता है, परंतु वह बीज में दिखाई नहीं देता । एक नन्‍हें से बीज में वट-वृक्ष समाया रहता है, रंग बिंरंगे फल पत्‍ती समाई रहती है परंतु वे बीज में किसी भी प्रकार दिखाई नहीं देते ।
• लकड़ी में आग छिपी रहती है परंतु बिना जले दिखाई नहीं देती
• किसी भी मनुष्‍य या प्राणी को चोट लगने पर उसे बहुत पीड़ा होती है । वह पीड़ा केवल उसी को अनुभव होती है, अन्‍य किसी को नहीं । साथ वह वह कष्‍ट या पीड़ा अन्‍य किसी को दिखाई नहीं देती ।
• मनुष्‍य के मन में हर्ष, शोक चिंता, क्रोध ईर्ष्‍या, द्वेष उत्‍साह, प्रेम, त्‍याग, स्‍वार्थ, आदि अनेक भाव एवं विचार समाए रहते हैं परंतु वे किसी को भी दिखाए नहीं देते ।
इस प्रकार संसार में अनेक अनेक बातें ऐसी हैं जिन्‍हें केवल महसूस किया जा सकता है उनकी न तो फोटो बनाई जा सकती है और न ही उनकी मूर्ति या चित्र । इसी तरह परमपिता एक दिव्‍य चेतन शक्‍ति है । वह शक्‍ति इस संसार में ठीक उसी तरह व्‍याप्‍त है जैसे इस ब्रह्मांड में वायु फैली हुई है । जैसे हवा को हम पकड़ नहीं सकते, छू नहीं सकते, देख नहीं सकते, केवल महसूस कर सकते हैं । इस संसार में यदि कोई हमसे कहें कि उदाहरण देकर समझाएं कि परमात्‍मा के जैसे कौन सी वस्‍तु है तो वह होगी निर्वात अर्थात् वैक्‍यूम (vacuum) जैसे वैक्‍यूम को देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, कानों से सुन नहीं सकते, हाथों से पकड़ नहीं सकते, सूंघ नहीं सकते । ठीक उसी तरह उस दिव्‍य शक्‍ति को न तो पकड़ा जा सकता है, न ही सुना जा सकता है, न ही देखा जा सकता है, न ही सूंघा जा सकता है लेकिन हां उस परमात्‍मा को मनुष्‍य अपने हृदय में केवल महसूस कर सकता है । लेकिन कब । तब जब हम कोई भी शुभ कार्य करते हैं जैसे किसी को दान देते हैं या किसी भूख से तड़पते व्‍यक्‍ति को भोजन कराते हैं या किसी प्राणी को जो प्‍यास से तड़प रहा हो और हम उसे पानी देते हैं और उसकी खुशी के आनंद में हम भी आनंदित होते हैं तो हमें एक सुख विशेष की अनुभूति होती है । वहीं परमात्‍मा का आनंद है । जब भी हम कोई शुभ कार्य करते हैं तो मन में आनंद, खुशी, हर्ष उल्‍लास, उत्‍साह आता है । वह परमात्‍मा का आदेश होता है ।और जब भी हम कोई गलत काम करते हैं या करने का सोचते हैं, या प्रयास करते हैं तो अंदर से घबराहट, डर, शंका, भय, लज्‍जा आदि है । तब परमात्‍मा हमें रोक रहें होते हैं कि रुको यह गलत काम मत करो यही आत्‍मा की आवाज ही परमात्‍मा की आवाज होती है । यदि हम आत्‍मा की आवाज को सुनकर कोई भी कार्य करते हैं तो आत्‍मिक शांति की प्राप्‍ति होती है । वहीं परमात्‍मा के आनंद का स्रोत है । परमात्‍मा हमें हर समय अंदर से प्रेरणाएं देते रहते हैं कि ‘यह करो’ ‘यह मत करो’ । हमें केवल इस आवाज को ही समझना होता है । जो इस आवाज को अच्‍छी प्रकार से सुनकर कोई कार्य करता है उसे निश्‍चित रुप से सफलता के साथ साथ आत्‍मिक आनंद की भी प्राप्‍ति होती है । वहीं आत्‍मा का आनंद ही परमात्‍मा का आशीर्वाद है । उपरोक्‍त कथनों से स्‍पष्‍ट है कि परमात्‍मा एक चेतन और दिव्‍य शक्‍ति है । वह परमात्‍मा सबके अंदर उसी तरह समाया रहता है जैसे दूध के अंदर घी और लकड़ी में आग समाई रहती है । इसी लिए कहा जाता है कि परमात्‍मा कण- कण में समाया हुआ है । आंखों से न दिखने के बावजूद भी परमात्‍मा हमारे हर कर्म को हर समय देखता रहता है क्‍योंकि वह शक्‍ति चेतन है और हमें दिशा –निर्देश देता रहता है, किंतु हम अभागे उसकी आवाज (दिशा-निर्देश) को अनसुना करके अशुभ कार्यों में लगे रहते हैं जिसके कारण अपना पाप कर्माश्‍य बढ़ाते हैं और दुख को प्राप्‍त होते हैं ।

17/08/2025

जय सियाराम

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