
04/09/2025
उस एक सवाल ने बदल दिया सबकुछ
"तुम्हें कितनी बार कहा है, मेरे तैयार होने से पहले नाश्ता टेबल पर होना चाहिए! 25 साल हो गए हमारी शादी को, फिर भी मुझे हर बार एक ही बात क्यों दोहरानी पड़ती है, माया?"
विक्रम गीला तौलिया कुर्सी पर फेंकते हुए गरज पड़ा।
माया ने चुपचाप सिर झुका लिया।
यह पहली बार नहीं था। महीने में कई बार ऐसा तूफ़ान उठता था और वह खामोश रहकर सब सह लेती थी।
पहले-पहले उसने विरोध किया था, पर धीरे-धीरे उसने खुद को बदल लिया। अब विक्रम की डांट, ताने और गुस्सा—सब उसके लिए बस शोर थे, जिन पर ध्यान देना छोड़ दिया था।
विवाह के शुरुआती सालों में उसने कोशिश की थी कि विक्रम सुधरे, लेकिन वक्त के साथ उसे एहसास हुआ कि बदलाव केवल किताबों और फिल्मों में होता है। असल जीवन में उसने बस अपनी आवाज़ खो दी।
फिर भी वह सब सहती रही—अपने बूढ़े माता-पिता को बोझ न बनाना चाहती थी और अपनी बेटी की खातिर इस रिश्ते को निभाती रही।
आर्या, उनकी बेटी, अब बड़ी हो चुकी थी। पढ़ाई पूरी कर चुकी थी और उसके लिए रिश्ते आने लगे थे।
एक शाम विक्रम ने बेटी से कहा—
"आर्या, इस बार जो रिश्ता आया है, बहुत अच्छा है। लड़का पढ़ा-लिखा है, बड़ी नौकरी करता है, परिवार भी अच्छा है। ऐसे रिश्ते बार-बार नहीं मिलते। इस बार मना मत करना।"
आर्या ने डरते-डरते बोलना शुरू किया—
"पापा, मुझे अभी शादी नहीं करनी। मैं नौकरी करना चाहती हूं, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं।"
विक्रम हंसते हुए बोला—
"तो उसमें दिक्कत क्या है? लड़के से मैंने पूछ लिया है, वो तुम्हें नौकरी करने देगा।"
आर्या की आँखों में आग चमकी—
"मेरी नौकरी उसके देने या ना देने पर क्यों निर्भर करेगी, पापा?"
विक्रम का चेहरा कस गया—
"तुम्हें किसी भी चीज़ की कमी नहीं होगी वहां। मना मत करना। बहुत खुश रहोगी।"
आर्या ने गहरी सांस ली और कहा—
"क्या मैं उतनी ही खुश रहूंगी, जितनी मम्मी इस घर में खुश हैं?"
यह सुनकर कमरे में सन्नाटा छा गया।
विक्रम की आंखें चौड़ी हो गईं—
"तुम्हारी ज़ुबान आज कुछ ज़्यादा नहीं चल रही?"
पर आर्या रुकने वाली नहीं थी।
"पापा, मैं शादी ही नहीं करना चाहती क्योंकि अगर मेरा पति आपके जैसा निकला तो? अगर उसने मेरी हर छोटी-बड़ी गलती पर मुझे नीचा दिखाया तो? अगर उसने मुझे मायके जाने की धमकी दी तो? अगर उसने मुझे सिर्फ गुस्से का थैला समझा तो? मुझे आपके जैसा पति नहीं चाहिए।"
विक्रम का चेहरा लाल था, पर उसकी आवाज़ गुम हो चुकी थी।
आर्या की बातें तीर की तरह उसके दिल को चीर रही थीं।
आर्या ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा—
"पापा, सिर्फ एक सवाल का जवाब दीजिए—क्या आप चाहेंगे कि मेरा पति आपके जैसा हो? अगर हां, तो आज ही मेरी शादी तय कर दीजिए। और अगर नहीं, तो मुझे अपने सपनों के लिए जीने दीजिए।"
विक्रम की आंखें डबडबा गईं। उसके पास कोई जवाब नहीं था।
वह चुपचाप कमरे से बाहर चला गया। पहली बार उसे अपनी गलती का बोझ महसूस हुआ।
अगले ही दिन से विक्रम में बदलाव आने लगा।
माया सालों बाद चौंक गई जब उसने पति को बिना वजह डांटे हुए, शांत बैठा देखा।
उसे लगा—"काश, मेरे पास भी उतनी हिम्मत होती जितनी आर्या ने दिखाई।"
समय बीता।
आर्या नौकरी में सफल हुई और तीन साल बाद जब उसका रिश्ता तय हुआ, विदाई के वक्त विक्रम ने कांपती आवाज़ में कहा—
"बेटी, तू हमेशा खुश रहना… क्योंकि तेरा पति तेरे पिता जैसा नहीं होगा।"
यह सुनकर माया और आर्या की आंखें छलक पड़ीं।
संदेश
हमारे समाज में औरत को देवी कहा जाता है, पर असल में उसे आज़ादी, इज्ज़त और बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता।
औरत का असली घर मायका है या ससुराल? शायद कोई नहीं।
उसका असली घर वही होगा, जहां उसे बिना डरे अपनी बात कहने और जीने का हक़ मिले