24/10/2024
कांग्रेस की इस हार को क्या नाम दूं
हरियाणा में कांग्रेस हार चुकी है। हुड्डा खेमा गहरी निराशा में हैं। समझ नहीं पा रहे आखिर हुआ क्या? बीजेपी की भी समझ में नहीं आ रहा है, वह कैसे जीत गए। यह सच बात है। कयोंकि हर सर्वे में बीजेपी को सत्ता से बाहर दिखाया जा रहा था।
कुछ भी हो, एक बात तो साफ है, इस चुनाव परिणाम की गूंज काफी समय तक सुनी जाएगी।
यह चुनाव कई मायनों में अलग रहा। मसलन जीतने की उम्मीद लगाने वाले हार गए। हार की अाशंका से निराश में बैठे अचानक जीत गए। यह सब कुछ तो दिखाई पड़ रहा है। इस सब से परे जो दिखायी नहीं दे रहा है, या जिसे देखा नहीं जा रहा है, वह यह है कि कुलदीप बिश्नोई के बेटे भव्य बिश्नोई हार गए हैं। अभय चौटाला भी चुनाव हार गए। यह ऐसे गढ़ है जिनका टूटना इस बात की ओर इशारा करता है कि हरियाणा की राजनीति बदल रही है।
एक ऐसे दौर में जब असमय बरसात ने धान उत्पादक किसानों को काफी नुकसान पहुंचाया है। खेतों में धान की फसल बिछ गई। जिसकी कटाई के लिए किसानों को दोगुणा से भी ज्यादा दाम चुकाना पड़ रहा है।
वह किसान जब मंडियों में धान लेकर जा रहा है तो धान बिक नहीं रही। यह चुनाव का समय था। मतदान के दिन पांच अक्टूबर को भी बड़ी संख्या में धान उत्पादक किसान धान बेचने के लिए मंडियों में धक्के खा रहे थे।
लेकिन कांग्रेस, इनेलो, जेजेपी और आम आदमी पार्टी किसानों के इस मुद्दे को टच ही नहीं कर पाई।
मेन स्ट्रिम मीडिया में यह खबर गायब थी। गायब हुई या कराई गई, यह अलग मसला है। सही बात यह है कि क्यों कांग्रेस ने इससे मुद्दा नहीं बनाया।
क्या यह मुद्दा नहीं बनना चाहिए था।
यूं भी हरियाणा का मीडिया भी प्रदेश की राजनीति की तरह कई धड़ों में बंटता नजर आ रहा है। एक सत्ता पक्ष दूसरा विपक्ष। विपक्षी मीडिया जिसमें सोशल मीडिया ज्यादा है, वह भी किसी न किसी स्तर पर एक समुदाय विशेष की राजनीति को ही प्रमोट करता नजर आ रहा है।
जितना वह बोलते रहे, कांग्रेस के उतने ही वोट कम होते गए। परिणाम सामने हैं।
विपक्षी मीडिया के साथियों को समाज की नब्ज तो समझनी ही होगी, इसके साथ बदलाव के आवश्यक तत्व क्या है? इस पर भी मंथन करना होगा। इसके लिए उन्हें राजनीति के साथ साथ समाज शास्त्र और इतिहास को समझना होगा।
समझना होगा कि आप यदि विरोध में बहुत ज्यादा खड़े होते है तो दूसरा पक्ष एकजुट हो जाता है। वहीं हुआ इस बार। आप विरोध का सुर बुलंद करते रहे। मतदाता एकजुट होते चले गए।
परिणाम आपके सामने हैं।
यह चुनाव बहुत ही सुनियोजित तरीके से हार और जीत पर आकर टांग दिया गया। जबकि होना तो यह चाहिए था कि यह चुनाव मुद्दों पर होता। लेकिन नहीं। इसके लिए मेन स्ट्रिम आफ स्ट्रिम और कांग्रेस पूरी तरह से जिम्मेदार है।
जिम्मेदारी की यदि बातचीत की जाए तो हुड्डा को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। हुड्डा स्वयं भी इससे इंकार नहीं करेंगे। क्योंकि टिकट से लेकर मुद्दों तक हर जगह हुड्डा की चली।
इस बात को बोलने में कतई गुरेज नहीं है कि हरियाणा में कांग्रेस नहीं बल्कि हुड्डा भी हार गए हैं। प्रदेश के मतदाता ने हुड्डा और कांग्रेस दोनो को खारिज कर दिया।
हुड्डा को इस पर बैठ कर सोचना होगा।
कहना गलत नहीं होगा कि हरियाणा में कांग्रेस ही हुड्डा और हुड्डा ही कांग्रेस नजर आ रही थी। इसके पीछे एक कई कारण है। हुड्डा ने खुद को कांग्रेस में मजबूत दिखाने के लिए एक एक कर अपने विरोधियों को साइड लाइन कर दिया। इसमें रणदीप सिंह सुरजेवाला और कुमारी शैलजा बड़ा उदाहरण है। किरण चौधरी कांग्रेस छोड़ चुकी है।
पूरे चुनाव में कांग्रेस में सिर्फ हुड्डा ही नजर आ रहे थे। विनेश फोगाट को कांग्रेस ने टिकट दिया,लेकिन चुनाव प्रचार का चेहरा ही नहीं बनाया। क्यों, जबकि वह बड़ा चेहरा साबित हो सकती थी। रणदीप सिंह सुरजेवाला, चौधरी बीरेंद्र सिंह कुमारी शैलजा जैसे चेहरे चुनाव प्रचार से गायब ही रहे।
बीरेंद्र चौधरी को लेकर भी हुड्डा की उहोपोह की स्थिति बनी रही। कायदे से होना तो यह चाहिए था कि चौधरी बीरेंद्र सिंह के पूर्व सांसद बेटे बृजेंद्र सिंह को हिसार से लोकसभ का चुनाव लड़ाया जाता।
लेकिन यहां जेपी को चुनाव लड़ाया गया। बृजेंद्र सिंह कांग्रेस का नया और बड़ा चेहरा साबित हो सकते हैं। पर क्योंकि भुपेंद्र सिंह हुड्डा अपने सांसद बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा से आगे सोचते ही नहीं। परिणाम सामने हैं।
इस चुनाव में सबसे बुरी यदि किसी के साथ हुई है तो वह है चौधरी बीरेंद्र सिंह और पूर्व सांसद बृजेंद्र सिंह। जो कि उचाना से हार गए हैं।
दरअसल इस पूरे चुनाव में कांग्रेस की रणनीति पहले ही दिन से गड़बड़ा चुकी थी। टिकट बंटवारे में देरी, फिर किस गुट को कितने टिकट मिले। कौन गुट किस पर भारी पड़ रहा है, जैसे मुद्दे भारी पड़ते चले गए। मीडिया ने इस चर्चाओं को और ज्यादा बल दिया। स्वयं कांग्रेसी भी इस तरह की चर्चाओं के मजे लेते रहे। एक भी सीनियर कांग्रेसी ने कभी भी मीडिया में यह बयान नहीं दिया कि इससे इतर दूसरे मुद्दें भी है। उन पर बातचीत कर ली जाए।
और फिर बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस में मामला सीएम पद की खींचतान में आ गया। कांग्रेस खुद की जीत के प्रति आश्वस्त थी। लिहाजा उन्हें भी लगा कि बात तो सीएम पद की ही होनी चाहिए।
यही वह चूक थी जो कांग्रेस को भारी पड़ गई। रही सही कसर सांसद कुमारी सैलजा के खिलाफ जातिवादी टिप्पणी करके पूरी कर दी। सैलजा एक सप्ताह तक चुनाव प्रचार से दूर ही रही।
एससी समुदाय इस तरह की टिप्पणी से कांग्रेस से दूर होता चला गया। लेकिन जीत के प्रति आश्वस्त भूपेंद्र सिंह हुड्डा खिसक रहे वोटर को देख ही नहीं पा रहे थे।
सोशल मीडिया में कांग्रेस और हुड्डा की जयजयकार के नारे लग रहे थे।
नतीजा कांग्रेस का ग्राफ तेजी से डाउन आना शुरू हो गया। भाजपा जहां पर्ची खर्ची खत्म करने की बात कर रही थी, असंध के पूर्व कांग्रेसी विधायक और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शमशेर सिंह गोगी नौकरियों में हिस्सेदारी जैसी हलकी बातों में व्यस्त थे।
वह इलाका जो जाट व सरकार बहुल है, वह वहां किसान आंदोलन की बात उठाने की बजाय यदि इस तरह की हलकी बातें करेंगे तो फिर जीत कैसे होगी? खुद भुपेंद्र सिंह हुड्डा उन मुद्दों को उठा नहीं पाए, जो जनता के मुद्दे थे।
किसान आंदोलन, आंदोलन में किसानों की मौत, एमएसपी, अग्नीवीर योजना, पोर्टल सिस्टम, प्रापर्टी आइडी, फैमिली आईडी जैसे मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाने से चूक गए।
कांग्रेस के ज्यादातर उम्मदीवार जनता के बीच में सक्रिय ही नहीं थे। कालका से प्रदीप चौधरी पिछली बार चुनाव जीते,लेकिन एक बार भी वह जनता के बीच नजर नहीं आए। चौधरी निर्मल सिंह भले ही चुनाव जीत गए हो, लेकिन अंबाला शहर में उनकी उपस्थिति न के बराबर रही। अंबाला छावनी में चित्रासरवारा कांग्रेस के लिए मजबूत उम्मीदवार हो सकती थी। लेकिन उनका टिकट काट दिया गया। वह जनता के बीच में रहने वाली नेता है। परिणाम सामने हैं। आजाद चुनाव लड़ते हुए भी उन्होंने विज को कड़ी टक्कर दी है। करनाल में सुमिता सिंह एक बार भी जनता के बीच में नजर नहीं आई। इसके इतर सरदार त्रिलोचन सिंह हमेशा कांग्रेस का झंडा बुलंद किए हुए थे। लेकिन उन्हें इस बार टिकट नहीं दिया गया। घरौंडा में वीरेंद्र रादौर कुछ भीतरघात तो कुछ अपनी निष्क्रियता की वजह से चुनाव हार गए। दस साल में वह घरौंडा में विपक्ष के तौर पर कहा खड़े थे, यह उन्हें सोचना होगा?
कांग्रेस के रणनीतिकार सोच रहे थे कि जनता तंग है, वह बीजेपी को वोट नहीं देगी, विकल्प बचा कौन कांग्रेस। लेकिन यह रणनीति और सोच दोनो गलत है। जब तक कांग्रेस के पास स्पष्ट रणनीति और स्पष्ट मुद्दे नहीं होंगे, तब तक कांग्रेस जीत के बारे में सोच भी नहीं सकते।
और इस सब से पहले कांग्रेस को चाहिए कि वह अपना संगठन खड़ा करें। चुनाव के दौरान बीजेपी के पास जहां पन्ना प्रमुख थे, वहीं कांग्रेस प्रत्याशियों के पास वर्कर नाम की कोई प्राणी नहीं था।
इस वजह से चुनाव में काम करने के लिए या तो उन्होंने किराए पर लोगों को जुटाया या फिर उनके अपने लोग थे, जो काम कर रहे थे। बीजेपी से टूट कर जो लोग कांग्रेस में आए, वह सिर्फ बैठ कर खेल देखते रहे। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ नहीं किया। क्योंकि बीजेपी छोड़ कांग्रेस के खेमे में आने से उनका रोष लगभग खत्म सा हो गया था।
लेकिन राजनीति और बदलाव के मनोविज्ञान को समझने वाले जातने हैं रोष खत्म तो खेल खत्म। कांग्रेस के साथ यही हुआ।
नमस्कार
मैं मनोज ठाकुर