Chapra Se Hain

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देवियो और सज्जनो - शुभमन गिल से मिलिए।- इंग्लैंड में दोहरा शतक लगाने वाले पहले भारतीय कप्तान। 🥶
03/07/2025

देवियो और सज्जनो - शुभमन गिल से मिलिए।

- इंग्लैंड में दोहरा शतक लगाने वाले पहले भारतीय कप्तान। 🥶

**ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान: नौशेरा का शेर, भारत का सच्चा सपूत! 🇮🇳🦁**ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान (15 जुलाई 1912 - 3 जुलाई ...
03/07/2025

**ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान: नौशेरा का शेर, भारत का सच्चा सपूत! 🇮🇳🦁**
ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान (15 जुलाई 1912 - 3 जुलाई 1948), जिन्हें "नौशेरा का शेर" के नाम से जाना जाता है, भारतीय सेना के सबसे वीर और प्रेरक सैन्य अधिकारी थे। 🏅 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में, उन्होंने 50वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाली और जम्मू-कश्मीर के नौशेरा और झांगर की रक्षा में अदम्य साहस दिखाया। 10,000 से अधिक घुसपैठियों के खिलाफ उनकी अगुआई में भारतीय सेना ने दुश्मन को करारी शिकस्त दी। 🏟️

पाकिस्तान ने उनके सिर पर 50,000 रुपये का इनाम रखा और सेना प्रमुख का पद ऑफर किया, लेकिन उस्मान ने भारत के प्रति अपनी निष्ठा चुनी। 3 जुलाई 1948 को, 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले, झांगर में दुश्मन के 25-पाउंडर गोले से वे शहीद हो गए। उनके अंतिम शब्द थे, "मैं मर रहा हूँ, लेकिन हम जिस जमीन के लिए लड़ रहे हैं, वह दुश्मन को नहीं मिलनी चाहिए।" उनकी शहादत के लिए उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 🌟

उनके अंतिम संस्कार में पंडित जवाहरलाल नेहरू, लॉर्ड माउंटबेटन और अन्य गणमान्य लोग शामिल हुए। जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में उनकी समाधि आज भी उनकी वीरता की गवाही देती है। 📍

ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत हमें धर्म और क्षेत्र से परे देशभक्ति की प्रेरणा देती है। उनकी वीरता को नमन! 🙏 उनकी वो कौन सी कहानी आपको सबसे ज्यादा प्रेरित करती है? कमेंट में शेयर करें। 👇

फिल्म "शोर" 1972 में रिलीज़ हुई, जिसका निर्देशन और प्रोडक्शन मनोज कुमार ने किया था। यह फिल्म भले ही व्यावसायिक रूप से सफ...
02/07/2025

फिल्म "शोर" 1972 में रिलीज़ हुई, जिसका निर्देशन और प्रोडक्शन मनोज कुमार ने किया था। यह फिल्म भले ही व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही, लेकिन इसके गीत बेहद लोकप्रिय हुए, जैसे "एक प्यार का नग़मा है"। मनोज कुमार ने कहानी लिखने के दौरान जया भादुरी के किरदार के लिए उन्हें ही सोचा था। जब जया ने फिल्म की कहानी सुनी, तो उन्होंने काम करने के लिए हां की, लेकिन शूटिंग के दौरान दोनों के बीच तनाव पैदा हुआ। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन का सपोर्टिंग रोल था, और उनकी मुलाकात मनोज कुमार से उनके स्ट्रगल के दिनों में हुई थी। इस फिल्म के सेट पर ही जया ने पहली बार अमिताभ को देखा और दोनों की प्रेम कहानी शुरू हुई थी। मनोज कुमार ने उन्हें "रोटी कपड़ा और मकान" में काम देने का ऑफर दिया, लेकिन तब तक अमिताभ को "ज़ंजीर" मिल गई, जो उनकी रातोंरात स्टार बनने की कहानी बन गई। "शोर" ने फिल्मफेयर में एक बेस्ट एडिटिंग अवार्ड भी जीता।

उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान और लता मंगेशकर की एक नायाब तस्वीर
02/07/2025

उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान और लता मंगेशकर की एक नायाब तस्वीर

दक्षिण अफ्रीका की अंतर्राष्ट्रीय टीम में पदार्पण करने से पहले के अपने युवा दिनों के हाशिम अमला की एक प्यारी तस्वीर
02/07/2025

दक्षिण अफ्रीका की अंतर्राष्ट्रीय टीम में पदार्पण करने से पहले के अपने युवा दिनों के हाशिम अमला की एक प्यारी तस्वीर

मुगल काल में थी गौ हत्या की मनाहीबाबर ने अपने बेटे हुमायूं को मरते वक्त वसीयत की थी कि 'ऐ मेरे प्यारे बेटे।इतिहास में उल...
02/07/2025

मुगल काल में थी गौ हत्या की मनाही
बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को मरते वक्त वसीयत की थी कि 'ऐ मेरे प्यारे बेटे।

इतिहास में उल्लेख मिलता है कि प्रथम मुगल बादशाह बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को मरते वक्त वसीयत की थी कि 'ऐ मेरे प्यारे बेटे। इस मुल्क के लोगों को यदि अपना बनाना हो और तुम्हें उनका दिल जीतना हो तो गौ हत्या पर रोक लगाना।

अबुल फजल ने आईने-अकबरी में लिखा है कि अकबर ने हिन्दू भावनाओं का सम्मान करते हुए गौ हत्या पर प्रतिबन्ध लगाई थी! बर्नियर ने अपने यात्रा विवरण में इस बात का जिक्र किया है कि जहांगीर के शासन काल में भी गौ हत्या पर रोक थी! कुछ मुगल बादशाहों को अगर छोड़ दे तो अधिकांश मुगल बादशाहों के समय में गौ हत्या पूरी तरह प्रतिबंधित थी।

अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने तो 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुरबानी नहीं करने का फरमान जारी किया था और यह ऐलान कर दिया था कि गौ हत्यारे के लिये मौत की सजा होगी। इसके साथ ही दक्षिण में हैदर अली और टीपू सुल्तान तथा अवध में नबाब वाजिद अली शाह के समय भी गौ हत्या प्रतिबंधित थी।

एक ऐसी हवेली जिसे मुगल काल की आखिरी इमारत माना जाता है. यह भी किसी बेगम के लिए ही बनवाई गई थी. बहादुर शाह जफर ने इसे अपन...
02/07/2025

एक ऐसी हवेली जिसे मुगल काल की आखिरी इमारत माना जाता है. यह भी किसी बेगम के लिए ही बनवाई गई थी. बहादुर शाह जफर ने इसे अपनी बेगम जीनत महल के लिए बनवाया था. शायद इसीलिए इस हवेली को जीनत महल की हवेली कहा जाता है.

भारतीय इतिहास में मुगलों का भी प्रमुख स्थान रहा है. मुगलों की बनाई तमाम इमारतें आज भी काफी चर्चा में रहती हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में बनवाई गई मुगलों की सबसे आखिरी हवेली कौन सी थी. आइए इसी बारे में जानते हैं. जीनत महल हवेली को भारत में मुगलों की आखिरी हवेली कहा जाता है. यह हवेली जीनत महल बेगम के नाम पर बनवाई गई थी. आज भी इस हवेली को जीनत महल हवेली के नाम से ही जाना जाता है.

दरअसल, इस हवेली को मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफर नेअपनी बेगम जीनत महल के लिए बनवाया था. शायद इसीलिए इस हवेली को जीनत महल की हवेली कहा जाता है. यह दिल्ली के महरौली में स्थित है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बहादुर शाह जफर और जीनत का निकाह 1840 में हुआ था और इसके सिर्फ चार साल बाद ही महरौली में इस हवेली को बनाया गया. बताया जाता है कि उस समय दिल्ली का महरौली इलाका मुगलों का गढ़ हुआ करता था.

बताया जाता है कि इस हवेली को खास तौर पर जीनत महल के लिए डिजाइन किया गया था और जब जीनत हवेली में एंट्री करती थीं, तब यहां शहनाईयां बजती थीं. पूरी हवेली मधुर संगीत की धुन में रम जाती थी. जीनत महल से मिलने खुद बहादुर शाह जफर इसी हवेली में जाया करता था. 1886 में जीनत महन की मौत हो गई. यहीं से इस हवेली के बुरे दिन शुरू हो गए.

आज किस हालत में है हवेली
बताया जाता है कि कभी खूबसूरत मल्लिका की आलीशान हवेली रही यह जीनत महल हवेली अब खंडहर में तब्दील हो चुकी है. बाद में इस हवेली पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था. इतना ही नहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक अंग्रेजों ने बाद में इस हवेली का उपयोग लोगों की लाशेंदफनाने में किया. इसके बाद इसे भूतिया हवेली भी कहा जाता था और यहां कोई नहीं जाता था. आज भी यह हवेली इसी हालत में है. अब यह पूरी तरह बंद रहती है.

इस हवेली के आसपास के ही इलाके में कुतुबमीनार, बख्तियार काकी की दरगाह, योगमाया मंदिर जैसे दिल्ली के कई पर्यटक स्थल मौजूद हैं

शाहरुख खान के दोनों बेटे आर्यन खान और अबराम खान, बिल्कुल किंग खान की हमशक्ल लग रहे हैं। देखने से ऐसा लगता है कि मानो शाह...
02/07/2025

शाहरुख खान के दोनों बेटे आर्यन खान और अबराम खान, बिल्कुल किंग खान की हमशक्ल लग रहे हैं। देखने से ऐसा लगता है कि मानो शाहरुख खान की बचपन की तस्वीर हो।

ये कोई बंगला नहीं, भारत की पहली मस्जिद है, मस्जिद-ए-नबवी से है महज़ 7 साल छोटीदुनियाभर में एक से बढ़कर एक मस्जिदें हैं, ...
02/07/2025

ये कोई बंगला नहीं, भारत की पहली मस्जिद है, मस्जिद-ए-नबवी से है महज़ 7 साल छोटी

दुनियाभर में एक से बढ़कर एक मस्जिदें हैं, कुछ अपने पुरानेपन तो कुछ शान की वजह से सुर्खियों में बनी रहती हैं लेकिन आज हम आपको जिस मस्जिद के बारे में बताने जा रहे हैं वो कई मायनों में अहम मानी जाती है. केरल के त्रिशूर जिले में मौजूद चेरामन मस्जिद को जब पहली नजर में देखते हैं तो ऐसा लगता है, जैसे ये कोई शानदार बंगला हो. लेकिन जब हम इस मस्जिद के बारे में पढ़ते हैं तो इसकी सच्चाई लोगों को हैरान कर देती है.

मस्जिद-ए-नबवी की 7 बरस छोटी:
कहा जाता है कि केरल में मौजूद यह मस्जिद उम्र के मामले में मदीना की मस्जिद-ए-नबवी से महज़ 7 बरस छोटी है. मस्जिद-ए-नबवी 622 ईसवी में बनी थी तो केरल की चेरामन मस्जिद 629 में. इसलिए, इसे भारत की पहली मस्जिद और उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी मस्जिद माना जाता है. यह मस्जिद उस समय की केरल वास्तुकला पर बनाई गई थी. इस मस्जिद को काबुल से संबंध रखने वाले फारसी गुलाम हजरत मालिक बिन दीनार (रह.) ने चेरामन पेरुमल के कहने पर बनवाई थी.

कौन थे चेरामन पेरुमल?
मस्जिद बनवाने का आदेश देने वाले चेरामन पेरुमल राजा थे. वो एक बार मक्का के सफर गए थे. वहां पहुंचकर उन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया था और अपना नाम ताजुद्दीन रखा था. साथ ही जेद्दा के राजा की बहन से शादी कर ली थी. वहां से लौटने के बाद ताजुद्दीन ने यह मस्जिद बनवाई थी. इस मस्जिद को लेकर कहा जाता है कि यह भारत की पहली जामा मस्जिद थी और हिंदुस्तान में पहली बार जुमा की नमाज़ भी इसी मस्जिद में पढ़ी गई थी.

ग्यासुद्दीन बलबन दिल्ली की सल्तनत (बादशाहत) वाले मामलुक खानदान के नौवें सुल्तान थे। असल में उनका नाम बहादुर दीन था और वो...
02/07/2025

ग्यासुद्दीन बलबन दिल्ली की सल्तनत (बादशाहत) वाले मामलुक खानदान के नौवें सुल्तान थे। असल में उनका नाम बहादुर दीन था और वो इल्बारी तुर्क थे। जवानी के दिनों में उन्हें मंगोलों ने पकड़ लिया था और गुलाम बनाकर बेच दिया था। लेकिन किस्मत ने पलटी खाई और वो आगे चलकर ताकतवर बन गए और आखिरी शम्सी सुल्तान, नसीरुद्दीन महमूद के वज़ीर (सलाहकार) बन गए। नसीरुद्दीन की मौत के बाद, बलबन खुद को दिल्ली के सुल्तान के तौर पर गद्दी पर बैठ गए।

बलबन का राज कई सैन्य जीतों से भरा हुआ था। उन्होंने मंगोलों के हमलों को रोका, बंगाल को वापस लिया और मेवात और अवध के इलाकों में हुए विद्रोहों को कुचल दिया। उन्होंने फौज और दीवान (सरकारी विभाग) को भी दुरुस्त किया।

बलबन सख्त मिज़ाज़ (स्वभाव) वाले बादशाह थे, जो अपनी प्रजा से पूरी वफादारी की उम्मीद रखते थे। उन्होंने जासूसी का एक बेहतरीन बंदोबस्त किया और अपने अमीरों को किसी भी गलती पर सख्त सज़ा दी। उन्होंने दिल्ली दरबार में फारसी रिवाज भी डाले, मसलन बादशाह के सामने सजदा करना और उनके पैर छूना।

बलबन का दौर दिल्ली सल्तनत के लिए आपसी मेल-जोल और खुशहाली का वक्त था। लेकिन उनकी सख्ती की वजह से रईसों में भी गुस्सा पनप गया, जिसने आगे चलकर इस खानदान को कमज़ोर कर दिया।

बहादुर शाह ज़फर (1837-1857) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 का प...
02/07/2025

बहादुर शाह ज़फर (1837-1857) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया।
क्रांति में असफल होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा(म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई।

बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर, 1775 में हुआ था। उनके पिता अकबर शाह द्वितीय और मां लालबाई थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद जफर 18 सितंबर, 1837 में मुगल बादशाह बने। यह दीगर बात थी कि उस समय तक दिल्ली की सल्तनत बेहद कमजोर हो गई थी और मुगल बादशाह नाममात्र के सम्राट रह गये थे।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता - संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ज़फर को भारी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। उनके पुत्रों और प्रपौत्रों को ब्रिटिश अधिकारियों ने सरेआम गोलियों से भून डाला। यही नहीं, उन्हें बंदी बनाकर रंगून ले जाया गया, जहां उन्होंने सात नवंबर, 1862 में एक बंदी के रूप में दम तोड़ा। उन्हें रंगून में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफनाया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह ज़फर दरगाह के नाम से जाना जाता है। आज भी कोई देशप्रेमी व्यक्ति जब बर्मा (म्यंमार) की यात्रा करता है तो वह ज़फर के मजार पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि देना नहीं भूलता। लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह ज़फर पार्क कर दिया गया है।

1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी। अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय सैनिकों की बगावत को देख बहादुर शाह ज़फर का भी गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला। भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी।

शुरुआती क्रांति मे परिणाम हिंदुस्तानी योद्धाओं के पक्ष में रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों के छल-कपट के चलते प्रथम स्वाधीनता संग्राम का रुख बदल गया। और अंग्रेज़ क्रांति को दबाने में कामयाब हो गए। सम्राट बहादुर शाह ज़फर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली और पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया।

अंग्रेजों ने ज़ुल्म की सभी हदें पार कर दी थी। जब सम्राट बहादुर शाह ज़फर को भूख लगी तो अंग्रेजों ने उनके बेटों के सिर काटकर थाली में परोसकर उनके सामने रख दिए। उन्होंने मूंछों पर ताव देकर और दाढ़ी पर हाथ फेरकर अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिन्दुस्तान के बेटे देश के लिए सर कुर्बान करके अपने बाप के पास इसी अंदाज़ में आया करते हैं।

#ऐतिहासिक #इतिहास

जब चंगेज खान ने बुखारा की घेराबंदी की, तब उसने एक बार में ही शहर को नहीं रौंद डाला था बल्की उसने एक तरकीब अपनाई, उसने बु...
02/07/2025

जब चंगेज खान ने बुखारा की घेराबंदी की, तब उसने एक बार में ही शहर को नहीं रौंद डाला था बल्की उसने एक तरकीब अपनाई, उसने बुखारा शहर के लोगो के नाम एक खत लिखा: "वह लोग जो हमारा साथ देंगे उनकी जान बख़्श दी जाएगी।" ये खबर सुनकर बुखारा शहर के लोग दो हिस्सों में बट गए थे। इनमे से एक गिरोह ने चंगेज खान की बात मानने से इनकार कर दिया, जबकि दूसरा चंगेज़ खान की बात से सहमत हो गया।

इसके बाद चंगेज खान ने अपने साथ हुए लोगो को खबर पहुंचाई की "अगर वह लोग उसके मुख़ालिफ़ हुए लोगो से लड़ने में उसकी मदद करते हैं तो हम आपका शहर आपको सौंप देंगे।"

ये खबर सुनकर उन लोगो ने चंगेज़ खान के आदेश का पालन किया और बुखारा शहर में अपने ही लोगों के बीच भयंकर जंग छिड़ गई। आखिर में, "चंगेज खान के समर्थकों" की जीत हुई।

लेकिन जीतने वाले गिरोह के होश तब उड़ गए जब चंगेज़ खान की फौज ने उनपर हमला बोल दिया और उनका क़त्ल ए आम शुरू कर दिया। और फिर चंगेज खान ने ये शब्द कहे: "अगर ये लोग सच्चे और वफादार होते, तो उन्होंने हमारे लिए अपने भाइयों को धोखा नहीं दिया होता, जबकि हम उनके लिए अजनबी थे"

अरब इतिहासकार इब्न अल-अथिर (1160-1234)

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