29/06/2025
सन 1850 का समय था। पुणे के एक गाँव में सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले लड़कियों के लिए स्कूल चला रहे थे। उस ज़माने में लड़कियों को पढ़ाना बहुत बड़ा "पाप" माना जाता था। समाज के ठेकेदार – पंडित, पुरोहित और ऊँची जाति के लोग – इस काम के विरोध में आग-बबूला रहते थे।
गाँव में अफवाह फैली📚📚
एक दिन गाँव में अफवाह उड़ाई गई –
"जो भी लड़की स्कूल जाएगी, वो विधवा हो जाएगी।"
"पढ़ी-लिखी औरतें पति को खा जाती हैं।"
गाँव के एक बाबा, जिनके पास लोग झाड़-फूंक कराने जाते थे, रोज़ अपनी सभा में यही बात दोहराते।
सावित्रीबाई का जवाब📓📕
एक दिन सावित्रीबाई फुले ने तय किया कि अब चुप नहीं बैठना है। वे सीधे उस बाबा की सभा में पहुँच गईं, जहाँ गाँव की बहुत-सी महिलाएँ और पुरुष इकट्ठा थे।
सावित्रीबाई ने पूछा,
"बाबा, आपने पढ़ाई की है?"
बाबा बोले, "नहीं बेटी, मेरी साधना ही मेरी विद्या है।"
सावित्रीबाई ने मुस्कराते हुए कहा –
"तब आप कैसे कह सकते हैं कि पढ़ाई करने से विधवा हो जाएँगी? क्या आपकी झाड़-फूंक में कोई किताब है? कोई तर्क है?"
बाबा गुस्से में बोले – "यह परंपरा है। औरत का धर्म रसोई और पति की सेवा है।"
सावित्रीबाई ने ज़ोर से कहा –
"अगर भगवान ने दिमाग दिया है, तो सोचने और समझने का हक़ हर लड़की को है। जो ज्ञान से डरते हैं, वे ही पाखंड फैलाते हैं!"
असर🖊️🖊️
सावित्रीबाई की बातों से वहाँ बैठे कई गरीब किसान और महिलाएँ सोच में पड़ गए। एक वृद्ध महिला उठी और बोली –
"हम भी अपनी पोती को स्कूल भेजेंगे। अब और नहीं डरेंगे।"
बाबा सभा से चुपचाप चले गए। अगले दिन स्कूल में तीन नई लड़कियाँ दाखिल हुईं।
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सावित्रीबाई फुले ने पाखंड का डटकर विरोध किया और साबित किया कि बदलाव डर से नहीं, हिम्मत से आता है।
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भारत का गौरवशाली इतिहास हर घर शिक्षा