06/07/2025
।। संन्यास ।।
आचार्य शंकर कहते हैं- ब्राह्मण सम्पूर्ण कर्म तथा देव-पितृ-मनुष्य लोक सम्बन्धी यज्ञोपवीत आदि को छोड़कर, चूंकि इन्ही के द्वारा देव-पितृ-ऋषि सम्बन्धी कर्म किये जाते हैं। देव-कर्म में यज्ञोपवीत बायें कन्धे पर, ऋषि-कर्म में कण्ठीवत् और पितृ-कर्म में दायें कन्धे पर यज्ञोपवीत होता है। यज्ञोवीत को त्याग करके परमहंस परिव्राजक भाव को प्राप्त होकर भिक्षा वृत्ति से निर्वाह करते हैं। विविदिशा संन्यासी तो दण्ड आदि चिन्हों को धारण करते हैं तथा विद्वत् संन्यासी दण्ड आदि चिन्हों से रहित होते हैं।
स्मृतियों में कहा है-
"तस्मादलिङ्गो धर्मज्ञोऽव्यक्त लिङ्गोऽव्यक्ताचार:।
अथ परिव्राड् विवर्ण वासा मुण्डोऽपरिग्रह:।।"
इसलिए धर्मज्ञ विद्वान् संन्यास की पहचान दण्ड तथा आचार से रहित हो तथा गुप्त आचार वाला हो। संन्यास के अनन्तर परिव्राजक संन्यासी बिना रङ्ग के वस्त्र धारण करे, मुण्डन करवावे तथा परिग्रह (संग्रह) न करे, शिखा सहित केशों को कटवा कर यज्ञोपवीत को विसर्जित कर दे।
भगवती श्रुति तो "भिक्षा करते हैं"- ऐसा कहती है, इसमें वर्तमान काल लट् लकार की क्रिया का प्रयोग किया गया है। इसीलिए यह प्रशंसा मात्र है, विधि-वचन नहीं। आचार्य की बात को सुनकर पूर्वपक्षी कहता है-
श्रुति-स्मृति यज्ञोपवीत का साधनों सहित त्याग की आज्ञा नहीं देती, क्योंकि उपनयन के अनन्तर वेदाध्ययन करे-करवाये, यज्ञ करे-करवाये, संन्यास में वेद विहित है अर्थात् वेद का त्याग न करे-
"वेद संन्यासनाच्छूद्रस्तस्माद्वेदं न संन्यसेत्। स्वाध्याय एवोत्सृज्यमानोवाचं [आपस्तम्ब:] ब्रह्मोज्झं वेद निन्दा च कौट साक्ष्यं सुहृद वध:। गर्हितानन्नाद्ययोर्जग्धि: सुरापान समानिषट्।"
ब्राह्मण वेद का त्याग न करे, इसका त्याग करने से वह शूद्र हो जाता है। वाणी का त्याग करने वाले को स्वाध्याय करना चाहिए। वेद का त्याग, वेद की निन्दा, झूठी गवाही, मित्र की उपासना, अतिथि सेवा, हवन, जप, कर्म, भोजन में, आचमन में, स्वाध्याय में यज्ञोपवीत होना चाहिए।
संन्यासियों के धर्म में भी गुरुओं की सेवा, स्वाध्याय, भिक्षा, आचमन आदि कर्म पाये जाते हैं, यज्ञोपवीत गुरुओं की सेवा का अंग होने से त्याज्य नहीं है, यद्यपि तीनों चेष्टाएं विद्यमान है।
इसीलिए पुत्रादि इच्छाओं का त्याग करना चाहिए, किन्तु वेद-विहित कर्मों का, शिखा- यज्ञोपवीत आदि का त्याग उचित नहीं। इनका त्याग क़रने से निन्दनीय कर्म के आचरण में प्रवृत्ति होगी तथा न त्यागने योग्य यज्ञोपवीत आदि का त्याग महान अपराध है, अतः संन्यासियों को इनका त्याग नहीं करना चाहिए, इनका त्याग वेद-विरुद्ध है, अज्ञान से इनका त्याग किया जाता है।
पूर्वपक्षी की बात सुनकर अब आचार्य शंकर समाधान करते हैं कि- ऐसी बात नहीं है।
"यज्ञोपवीतं वेदांश्च सर्वतद्वर्जयेद्यति:।"
यज्ञोपवीत तथा वेद का यति त्याग कर दें।
सम्पूर्ण उपनिषदें ज्ञान परक हैं। आत्मदर्शन करना चाहिए। इसके लिये आत्मा के सम्बन्ध में सुनना, विचार करना तथा निदिध्यासन करना चाहिए। वह आत्मा साक्षात् अपरोक्ष, सर्वान्तर, भूख-प्यास आदि संसारी धर्मों से रहित है, उसका अनुभव करना चाहिए।
सम्पूर्ण उपनिषदों का यही तात्पर्य है, इसमें प्रशंसा यथार्थ है। इसके विपरीत आत्मा को इन धर्मों से युक्त मानना अज्ञान अथवा अविद्या है।
"अन्योऽसावन्योहमस्मीति। न स वेद। मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति। य इहनानेवपश्यति। एकदैवानुद्रष्टव्यम्। एकमेवाद्वितीयम् तत्त्वमसि इत्यादि श्रुतिभ्य:।"
️मैं और हूँ, परमात्मा और है अथवा इष्टदेव और है- इस भेदबुद्धि से उपासना करने वाला देवताओं का पशु है। जो परमतत्त्व को नहीं जानता, जो एक ब्रह्म में अनेकत्त्व देखता है, वह जन्म-मरण से नहीं छूटता।
अतः, "एकमात्र ब्रह्म को ही देखना चाहिए।" "एक अद्वितीय ब्रह्म ही है।", "वही ब्रह्म तुम हो"- इत्यादि श्रुतियों से सिद्ध है। इस प्रकार के श्रुतियों के सैंकड़ो वचन एक ब्रह्म को सत्य तथा जगत् को मिथ्या सिद्ध करते हैं, जीवात्मा के एकत्त्व का प्रतिपादन करते हैं।
अन्धकार और प्रकाश के समान विरोध होने से विद्या- अविद्या एक पुरुष में एक ही साथ नहीं रह सकती; इसीलिए आत्मवेत्ता को अविद्या में अधिकार नहीं है। क्रिया-कारक फल में भेद होने से वह बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त करता है; इसीलिए श्रुति ने निन्दा की है।
सम्पूर्ण क्रियाएं, साधन तथा फल अविद्या विषयक होने से त्याज्य है; इसीलिए यज्ञोपवीतादि साधनों से सिद्ध होने वाले, अविद्या से होने वाले कर्म तथा ऐषणाओं का त्याग करके संन्यास लेने की विधि है।
।। जय जय सियाराम ।।
Mahayogi Muni Baba❤️ ❤️ ❤️ 🙏
#भरोसा 🙏🙏♥️ #बजरंगबली
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Dua Lipa - ACTRESS
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