श्री शिव पुराण Sri Shiv Puran

श्री शिव पुराण Sri Shiv Puran श्रीमान शिवपुराण समस्त पुराणों के भा?

【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】दूसरा अध्याय "पूर्व कथा" #रुद्र  #कथा   नारद जी बोले ;- हे पितामह ! अब आप मैना की उत्पत्ति...
05/11/2025

【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】दूसरा अध्याय "पूर्व कथा"

#रुद्र
#कथा

नारद जी बोले ;- हे पितामह ! अब आप मैना की उत्पत्ति के बारे में बताइए। साथ ही कन्याओं को दिए शाप के बारे में मुझे बताकर, मेरी शंका का समाधान कीजिए नारद जी के ये प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले - हे नारद! मेरे पुत्र दक्ष की साठ हजार पुत्रियां हुईं। जिनका विवाह कश्यपादि महर्षियों से हुआ। उनमें स्वधा नाम वाली कन्या का विवाह पितरों के साथ हुआ था। उनकी तीन पुत्रियां हुईं। वे बड़ी सौभाग्यशाली और साक्षात धर्म की मूर्ति थीं। उनमें पहली कन्या का नाम मैना, दूसरी का धन्या और तीसरी का कलावती था। ये तीनों कन्याएं पितरों की मानस पुत्रियां थीं अर्थात उनके मन से प्रकट हुई थीं। इन तीनों का जन्म माता की कोख से नहीं हुआ था। ये संपूर्ण जगत की वंदनीया हैं। इनके नामों का स्मरण और कीर्तन करके मनुष्य को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। ये तीनों सारे जगत में मनुष्य एवं देवताओं से प्रेरित होती हैं। इनको 'लोकमाताएं' नाम से भी जाना जाता है।

मुनिश्वर! एक बार मैना, धन्या और कलावती तीनों बहनें श्वेत द्वीप में • विष्णुजी के दर्शन करने के लिए गईं। वहां बहुत से लोग एकत्रित हो गए थे। उस स्थान पर मेरे पुत्र सनकादिक भी आए हुए थे। सबने विष्णुजी की बहुत स्तुति की। सभी सनकादिक को देखकर उनके स्वागत के लिए खड़े हो गए परंतु ये तीनों बहनें उनके स्वागत के लिए खड़ी नहीं हुई। उन्हें शिवजी की माया ने मोहित कर दिया था। तब इन बहनों के इस बुरे व्यवहार से वे क्रोधित हो गए और उन्होंने इन बहनों को शाप दे दिया। सनकादिक मुनि बोले कि तुम तीनों बहनों ने अभिमानवश खड़े होकर मेरा अभिवादन नहीं किया, इसलिए तुम सदैव स्वर्ग से दूर हो जाओगी और मनुष्य के रूप में ही पृथ्वी पर रहोगी। तुम तीनों मनुष्यों की ही स्त्रियां बनोगी। • तीनों साध्वी बहनों ने चकित होकर ऋषि का वचन सुना। तब अपनी भूल स्वीकार करके वे तीनों सिर झुकाकर सनकादिक मुनि के चरणों में गिर पड़ीं और उनकी अनेकों प्रकार से स्तुति करने लगीं। उन्होंने अनेकों प्रकार से क्षमायाचना की। तीनों कन्याएं, मुनिवर को प्रसन्न करने हेतु उनकी प्रार्थना करने लगीं। वे बोलीं कि हम मूर्ख हैं, जो हमने आपको प्रणाम नहीं किया। अब हम पर कृपा कर हमें स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताइए। तब

सनकादिक मुनि बोले ;- हे पितरो की कन्याओ! हिमालय पर्वत हिम का आधार है। तुममें सबसे बड़ी मैना हिमालय की पत्नी होगी और इसकी कन्या का नाम पार्वती होगा। दूसरी कन्या धन्या, राजा जनक की पत्नी होगी और इसके गर्भ से महालक्ष्मी के साक्षात स्वरूप देवी सीता का जन्म होगा। इसी प्रकार तीसरी पुत्री कलावती राजा वृषभानु को पति रूप में प्राप्त करेगी और राधा की माता होने का गौरव प्राप्त करेगी। तत्पश्चात मैना व हिमालय अपनी पुत्री पार्वती के वरदान से कैलाश पद को प्राप्त करेंगे। धन्या और उनके पति राजा सीरध्वज जनक देवी सीता के पुण्यस्वरूप के कारण बैकुण्ठधाम को प्राप्त करेंगे। वृषभानु और कलावती अपनी पुत्री राधा के साथ गोलोक में जाएंगे। पुण्यकर्म करने वालों को निश्चय ही सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए सदैव सत्य मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। तुम पितरों की कन्या होने के कारण स्वर्ग भोगने के योग्य हो परंतु मेरा शाप भी अवश्य फलीभूत होगा। परंतु जब तुमने मुझसे क्षमा मांगी है, तो मैं तुम्हारे शाप के असर को कुछ कम अवश्य कर दूंगा।

धरती पर अवतीर्ण होने के पश्चात तुम साधारण मनुष्यों की भांति ही रहोगी, परंतु विवाह के पश्चात जब तुम्हें संतान की प्राप्ति हो जाएगी और तुम्हारी कन्याओं को यथायोग्य वर मिल जाएंगे और उनका विवाह हो जाएगा अर्थात तुम अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर लोगी, तब भगवान श्रीहरि विष्णु के दर्शनों से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। मैना की पुत्री पार्वती कठिन तप के द्वारा शिव की प्राणवल्लभा बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता दशरथ नंदन श्रीरामचंद्र जी को पति रूप में प्राप्त करेंगी। कलावती की पुत्री राधा श्रीकृष्ण के स्नेह में बंधकर उनकी प्रिया बनेंगी। यह कहकर मुनि सनकादिक वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात पितरों की तीनों कन्याएं शाप से मुक्त होकर अपने धाम को चली गईं।

21/10/2025

Who wishes for धन should worship with LOTUS फूल Bel शत conch shells | पत्र | leaves | शिव | Shiva

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ब्रह्माजी ने कहा :- नारद! लक्ष्मी अर्थात धन की कामना करने वाले मनुष्य को कमल के फूल, बेल पत्र, शतपत्र और शंख पुष्प से भगवान शिव का पूजन करना चाहिए। शिवपुराण【श्रीरुद्र संहिता】【प्रथम खण्ड】चौदहवाँ अध्याय
Brahmaji said:- Narad! A person who wishes for Lakshmi i.e. wealth should worship GOD shiv with LOTUS flowers, BEL leaves, shata LEAVES and conch shells.

【श्रीरुद्र संहिता】【द्वितीय खण्ड】बयालीसवां अध्याय  "दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना"सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन...
21/10/2025

【श्रीरुद्र संहिता】【द्वितीय खण्ड】बयालीसवां अध्याय "दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना"
सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कर्मों के फलों की प्राप्ति होती है।
Narrated told the description of the MOST wonderful and divine character of Sati. This story is going to provide enjoyment and salvation. This EXCELLENT account chronicle certainly DEFINITELY fulfills ALL the wishes. In this way, a knowledgeable WISE person who reads and listens to THIS character becomes free from sins. He attains fame, heaven and longevity. The person who reads this story with devotion, He gets receives the fruits of ALL his good deeds.
#दक्ष
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ब्रह्माजी कहते हैं ;- नारद मुनि! इस प्रकार श्रीहरि, मेरे, देवताओं और ऋषि-मुनियों की स्तुति से भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए। वे हम सबको कृपादृष्टि से देखते हुए बोले प्रजापति दक्ष! मैं तुम सभी पर प्रसन्न हूं। मेरा अस्तित्व सबसे अलग है। मैं स्वतंत्र ईश्वर हूं। फिर भी मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन ही रहता हूं। चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य ही मेरा भजन करते हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। परंतु ज्ञानी को ही मेरा खास सान्निध्य प्राप्त होता है। उसे मेरा ही स्वरूप माना जाता है। वेदों को जानने वाले परम ज्ञानी ही मेरे स्वरूप को जानकर मुझे समझ सकते हैं। जो मनुष्य कर्मों के अधीन रहते हैं, वे मेरे स्वरूप को नहीं पा सकते। इसलिए तुम ज्ञान को जानकर शुद्ध हृदय एवं बुद्धि से मेरा स्मरण कर उत्तम कर्म करो। हे दक्ष! मैं ही ब्रह्मा और विष्णु का रक्षक हूं। मैं ही आत्मा हूं। मैंने ही इस संसार की सृष्टि की है। मैं ही संसार का पालनकर्ता हूं। मैं ही दुष्टों का नाश करने के लिए संहारक बन उनका विनाश करता हूं। बुद्धिहीन मनुष्य, जो कि सदैव सांसारिक बंधनों और मोह-माया में फंसे रहते हैं, कभी भी मेरा साक्षात्कार नहीं कर सकते। मेरे भक्त सदैव मेरे ही स्वरूप का चिंतन और ध्यान करते हैं।

हम तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव एक ही हैं। जो मनुष्य हमें अलग न मानकर हमारा एक ही स्वरूप मानता है, उसे सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है परंतु जो अज्ञानी मनुष्य हम तीनों को अलग-अलग मानकर हममें भेदभाव करते हैं, वे नरक के भागी होते हैं। हे प्रजापति दक्ष! यदि कोई श्रीहरि का परम भक्त मेरी निंदा या आलोचना करेगा या मेरा भक्त होकर ब्रह्मा और विष्णु का अपमान करेगा, उसे निश्चय ही मेरे कोप का भागी होना पड़ेगा। तुम्हें दिए गए सभी शाप उसको लग जाएंगे।

भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा श्रेष्ठ विद्वानों को हर्ष हुआ तथा दक्ष भी प्रभु की आज्ञा मानकर अपने परिवार सहित शिवजी की भक्ति में मग्न हो गया। सब देवता भी महादेव जी का ही गुणगान करने लगे। वे शिवभक्ति में लीन हो गए और उनके भजनों को गाने लगे। इस प्रकार जिसने जिस प्रकार से भगवान शिव की स्तुति और आराधना की, भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उसे ऐसा ही वरदान प्रदान दिया। तत्पश्चात, भक्तवत्सल भगवान शंकर जी से आज्ञा लेकर प्रजापति दक्ष ने अपना यज्ञ पुनः आरंभ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी का भाग दिया। सब देवताओं को भी उचित भाग दिया गया। यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्ष ने सामर्थ्य के अनुसार दान दिया। महादेव जी का गुणगान करते हुए दक्ष ने यज्ञ के सभी कर्मों को भक्तिपूर्वक संपन्न किया। इस प्रकार सभी देवताओं, मुनियों और ऋत्विजों के सहयोग से दक्ष का यज्ञ सानंद संपन्न हुआ।

तत्पश्चात सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने महादेव जी के यश का गान किया और अपने-अपने निवास की ओर चले गए। वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी शिवजी से आज्ञा मांगकर वहां से प्रस्थान किया। तब मैं और विष्णुजी भी शिव वंदना करते हुए अपने-अपने लोक को चल दिए। दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की और शिवजी को बहुत सम्मान दिया। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने गणों को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चल दिए।

कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी को अपनी प्रिय पत्नी देवी सती की याद आने लगी । महादेव जी ने वहां उपस्थित गणों से उनके बारे में अनेक बातें कीं। वे उनको याद करके व्याकुल हो गए। हे नारद! मैंने तुम्हें सती के परम अद्भुत और दिव्य चरित्र का वर्णन सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कर्मों के फलों की प्राप्ति होती है।

॥ श्रीरुद्र संहिता द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

13/10/2025

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【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】इकतालीसवाँ अध्याय  "मंडप वर्णन व देवताओं का भय" #मंडप #देवता ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रे...
13/10/2025

【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】इकतालीसवाँ अध्याय "मंडप वर्णन व देवताओं का भय"

#मंडप
#देवता

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तुम भी भगवान शिव की बारात में सहर्ष शामिल हुए थे। भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णु से सलाह करके सबसे पहले तुमको हिमालय के पास भेजा, वहां पहुंचकर तुमने विश्वकर्मा के बनाए दिव्य और अनोखे मंडप को देखा तो बहुत आश्चर्यचकित रह गए। विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवताओं की मूर्तियों को देखकर यह कह पाना कठिन था कि ये असली हैं या नकली। वहां रत्नों से जड़े हुए लाखों कलश रखे थे। बड़े-बड़े केलों के खंभों से मण्डप सजा हुआ था।

तुम्हें वहां आया देखकर शैलराज हिमालय ने तुमसे पूछा कि देवर्षि क्या भगवान शिव बारात के साथ आ गए हैं? तब तुम्हें साथ लेकर हिमालय के पुत्र मैनाक आदि तुम्हारे साथ बारात की अगवानी के लिए आए। तब मैंने और विष्णुजी ने भी तुमसे वहां के समाचार के बारे में पूछा। हमने तुमसे यह भी पूछा कि शैलराज हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से करने के इच्छुक हैं या नहीं? कहीं उन्होंने अपना इरादा बदल तो नहीं दिया है। यह प्रश्न सुनकर आप मुझे विष्णुजी और देवराज इंद्र को एकांत स्थान पर ले गए और वहां जाकर तुमने वहां के बारे में बताना शुरू किया। तुमने कहा कि हे देवताओ। शैलराज हिमालय ने शिल्पी विश्वकर्मा से एक ऐसे मंडप की रचना करवाई है जिसमें आप सब देवताओं के जीते-जागते चित्र लगे हुए हैं। उन्हें देखकर मैं तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठा था। इसे देखकर मुझे यह लगता है कि गिरिराज आप सब लोगों को मोहित करना चाहते हैं। यह सुनकर देवराज इंद्र भय के मारे कापने लगे और बोले- हे लक्ष्मीपति विष्णुजी ! मैंने त्वष्टा के पुत्र को मार दिया था। कहीं उसी का बदला लेने के लिए मुझ पर विपत्ति न आ जाए। मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं मैं वहां जाकर मारा न जाऊं।

तब इंद्र के वचन सुनकर श्रीहरि विष्णु बोले कि ;- इंद्र! मुझे भी यही लगता है कि वह मूर्ख हिमालय हमसे बदला लेना चाहता है क्योंकि मेरी आज्ञा से ही तुमने पर्वतों के पंखों को काट दिया था। शायद यह बात आज तक उन्हें याद है और वे हम सब पर विजय पाना चाहते हैं, परंतु हमें डरना नहीं चाहिए। हमारे साथ तो स्वयं महादेव जी हैं, भला फिर हमें कैसा भय? हमें इस प्रकार गुप-चुप बातें करते देखकर भगवान शिव ने लौकिक गति से हमसे बात की और पूछा- हे देवताओं! क्या बात है? मुझे स्पष्ट बता दो। शैलराज हिमालय मुझसे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह करना चाहते हैं या नहीं? इस प्रकार यहां व्यर्थ बातें करते रहने से भला क्या लाभ?

भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर नारद तुम बोले ;- हे देवाधिदेव! शिवजी। गिरिजानंदिनी पार्वती से आपका विवाह तो निश्चित है। उसमें भला कोई विघ्न-बाधा कैसे आ सकती है? तभी तो शैलराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को मेरे साथ बारात की अगवानी के लिए यहां भेजा है। मेरी चिंता का कारण दूसरा है।

प्रभु! आपने मुझे हिमालय के यहां बारात के आगमन की सूचना देने के लिए भेजा था। जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए मंडप को देखा। शैलराज हिमालय ने देवताओं को मोहित करने के लिए एक अद्भुत और दिव्य मंडप की रचना कराई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे सब इतने जीवंत हैं कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हुए बगैर नहीं रह सकता। उन चित्रों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि वे अभी बोल पड़ेंगे। प्रभु ! उस मंडप में श्रीहरि, ब्रह्माजी, देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित अनेक जानवरों और पशु-पक्षियों के सुंदर व लुभावने चित्र बनाए गए हैं। यही नहीं, मंडप में आपकी और मेरी भी प्रतिमूर्ति बनी है, जिन्हें देखकर मुझे यह लगा कि आप सब लोग यहां न होकर वहीं हिमालय नगरी में पहुंच गए हैं।

नारद! तुम्हारी बातें सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और देवताओं से बोले ;- आप सभी को भय की कोई आवश्यकता नहीं है। शैलराज हिमालय अपनी प्रिय पुत्री पार्वती हमें समर्पित कर रहे हैं। इसलिए उनकी माया हमारा क्या बिगाड़ सकती है? आप अपने भय को त्यागकर हिमालय नगरी की ओर प्रस्थान कीजिए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी बाराती भयमुक्त होकर उत्साह और प्रसन्नता के साथ पुनः नाचते-गाते शिव बारात में चल दिए। शैलराज हिमालय के पुत्र मैनाक आगे-आगे चल रहे थे और बाकी सभी उनका अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार बारात हिमालयपुरी जा पहुंची।

23/08/2025

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【श्रीरुद्र संहिता】【द्वितीय खण्ड】तीसवां अध्याय  "सती द्वारा योगाग्नि से शरीर को भस्म करना" #सती  #योग   ब्रह्माजी से श्री...
23/08/2025

【श्रीरुद्र संहिता】【द्वितीय खण्ड】तीसवां अध्याय "सती द्वारा योगाग्नि से शरीर को भस्म करना"

#सती
#योग

ब्रह्माजी से श्री नारद जी ने पूछा ;- हे पितामह ! जब सती जी ऐसा कहकर मौन हो गईं त वहां क्या हुआ? देवी सती ने आगे क्या किया? इस प्रकार नारद जी ने अनेक प्रश्न पूछ डाले और ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे आगे की कथा सविस्तार सुनाएं। यह सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए, और प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे

हे नारद! मौन होकर देवी सती अपने पति भगवान शिव का स्मरण करने लगीं। उनका स्मरण करने के बाद उनका क्रोधित मन शांत हो गया। तब शांत मनोभाव से शिवजी का चिंतन करती हुई देवी सती पृथ्वी पर उत्तर की ओर मुख करके बैठ गईं। तत्पश्चात विधिपूर्वक जल से आचमन करके उन्होंने वस्त्र ओढ़ लिया। फिर पवित्र भाव से उन्होंने अपनी दोनों आंखें मूंद लीं और पुनः शिवजी का चिंतन करने लगीं। सती ने प्राणायाम से प्राण और अपान को एकरूप करके नाभि में स्थित कर लिया। सांसों को संयत कर नाभिचक्र के ऊपर हृदय में स्थापित कर लिया। सती ने अपने शरीर में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि को स्थापित कर लिया। तब उनका शरीर योग मार्ग में स्थित हो गया। उनके हृदय में शिवजी विद्यमान थे। यही वह समय था जब उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। उनका शरीर यज्ञ की पवित्र योगाग्नि में गिरा और पल भर में ही भस्म हो गया। वहां उपस्थित मनुष्यों सहित देवताओं ने जब यह देखा कि देवी सती भस्म हो गई हैं, तो आकाश और भूमि पर हाहाकार मच गया। यह हाहाकार सभी को भयभीत कर रहा था। सभी लोग कह रहे थे कि किस दुष्ट के दुर्व्यवहार के कारण भगवान शिव पत्नी सती अपनी देह का त्याग कर दिया । तो कुछ लोग दक्ष की दुष्टता को धिक्कार रहे थे, जिसके व्यवहार से दुखी होकर देवी सती ने यह कदम उठाया था। सभी सत्पुरुष उनका सम्मान करते थे। उनका हृदय असहिष्णु था। उन्होंने ऐसी महान देवी और उनके पति करुणानिधान भगवान शिव का अनादर और निंदा करने वाले दक्ष को भी कोसा। सभी कह रहे थे कि दक्ष ने अपनी ही पुत्री को प्राण त्यागने के लिए मजबूर किया है। इसलिए दक्ष अवश्य ही महा नरक में जाएगा और पूरे संसार में उसका अपयश होगा।

दूसरी ओर, देवी सती के साथ पधारे सभी शिवगणों ने जब यह दृश्य देखा तो उनके क्रोध की कोई सीमा न रही । वे तुरंत अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिए दौड़े। वे साठ हजार पार्षदगण क्रोध से चिल्ला रहे थे और अपने को ही धिक्कार रहे थे कि यहां उपस्थित होते हुए भी हम अपनी माता देवी सती की रक्षा नहीं कर पाए। उनमें से कई पार्षदों ने तो स्वयं अपने शरीर का त्याग कर दिया। बचे हुए सभी शिवगण दक्ष को मारने के लिए बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे थे। जब ऋषि भृगु ने उन्हें आक्रमण के लिए आगे बढ़ते हुए देखा तो उन्होंने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिए यजुर्मंत्र पढ़कर दक्षिणाग्नि में

आहुति दे दी। आहुति के प्रभाव के फलस्वरूप यज्ञकुण्ड में से ऋभु नामक अनेक देवता, जो प्रबल वीर थे, वहां प्रकट हो गए। ऋभु नामक सहस्रों देवताओं और शिवगणों में भयानक युद्ध होने लगा। वे देवता ब्रह्मतेज से संपन्न थे। उन्होंने शिवगणों को मारकर तुरंत भगा दिया। इससे वहां यज्ञ में और अशांति फैल गई। सभी देवता और मुनि भगवान विष्णु से इस विघ्न को टालने की प्रार्थना करने लगे। देवी सती का भस्म हो जाना और भगवान शिव के गणों को मारकर वहां से भगाए जाने का परिणाम सोचकर सभी देवता और ऋषि विचलित थे। हे नारद! इस प्रकार दक्ष के उस महायज्ञोत्सव में बहुत बड़ा उत्पात मच गया था और सब ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी। सभी भावी परिणाम की आशंका से भयभीत दिखाई दे रहे थे।

28/07/2025

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【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】चालीसवाँ अध्याय  "भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान" #शिव #बारात  ब्रह्माजी ...
22/07/2025

【श्रीरुद्र संहिता】【तृतीय खण्ड】चालीसवाँ अध्याय "भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान"

#शिव
#बारात

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान शिव ने कुछ गणों को वहीं रुकने का आदेश देते हुए नंदीश्वर सहित सभी गणों को हिमालयपुरी चलने की आज्ञा दी। उसी समय गणों के स्वामी शंखकर्ण करोड़ों गण साथ लेकर चल दिए। फिर भगवान शिव की आज्ञा पाकर गणेश्वर, शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुंदुभ, कपाल, संदारक, कंदुक, कुण्डक, विष्टंभ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चंद्रतापन, काल, कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ, कोकिल, सुमंत्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण, अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन, तालकेतु, षण्मुख, चैत्र, स्वयंप्रभु, लकुलीश लोकांतक, दीप्तात्मा, दैन्यांतक, भृंगिरिटि, देवदेवप्रिय, अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य गणों को साथ लेकर चल पड़े। नंदीश्वर एवं गणराज भी अपने-अपने गणों को ले क्षेत्रपाल और भैरव के साथ उत्साहपूर्वक चल दिए। उन सभी गणों के सिर पर जटा, मस्तक पर चंद्रमा और गले में नील चिह्न था । शिवजी ने रुद्राक्ष के आभूषण धारण किए हुए थे। शरीर पर भस्म शोभायमान थी। सभी गणों ने हार, कुंडल, केयूर तथा मुकुट पहने हुए थे। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ महादेव अपने लाखों-करोड़ों शिवगणों तथा मुझे, श्रीहरि और अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर धूमधाम से हिमालय नगरी की ओर चल दिए।

शिवजी के आभूषणों के रूप में अनेक सर्प उनकी शोभा बढ़ा रहे थे और वे अपने नंदी बैल पर सवार होकर पार्वती जी को ब्याहने के लिए चल दिए। इस समय चंडी देवी महादेव जी की बहन बनकर खूब नृत्य करती हुई उस बारात के साथ हो चलीं। चंडी देवी ने सांपों को आभूषणों की तरह पहना हुआ था और वे प्रेत पर बैठी हुई थीं तथा उनके मस्तक पर सोने से भरा कलश था, जो कि दिव्य प्रभापुंज-सा प्रकाशित हो रहा था। उनकी यह मुद्रा देखकर शत्रु डर के मारे कांप रहे थे। करोड़ों भूत-प्रेत उस बारात की शोभा बढ़ा रहे थे। चारों दिशाओं में डमरुओं, भेरियों और शंखों के स्वर गूंज रहे थे। उनकी ध्वनि मंगलकारी थी जो विघ्नों को दूर करने वाली थी ।

श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं और शिवगणों के बीच में अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर चल रहे थे। उनके सिर के ऊपर सोने का छत्र था। चमर ढुलाए जा रहे थे। मैं भी वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ शोभायमान होकर चल रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र भी ऐरावत हाथी पर आभूषणों से सज धजकर बारात की शोभा में चार चांद लगा रहे थे। भक्तवत्सल भगवान शिव की बारात में अनेक ऋषि-मुनि और साधु-संत भी अपने दिव्य तेज से प्रकाशित होकर चल रहे थे। देवाधिदेव महादेव जी का शुभ विवाह देखने के लिए शाकिनी, यातुधान, बैताल, ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण, तुम्बुरु, नारद, हा हा और हू हू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी प्रसन्न मन से नाचते-गाते उनके साथ हो लिए। इस विवाह में शामिल होने में स्त्रियां भी पीछे न थीं। सभी जगत्माताएं, देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और सभी देवांगनाएं और देवपत्नियां तथा देवमाताएं भी खुशी-खुशी शंकर जी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बारात के साथ ही लीं। वेद, शास्त्र, सिद्ध और महर्षि जिसे धर्म का स्वरूप मानते हैं, जो स्फटिक के समान श्वेत व उज्ज्वल है, वह सुंदर बैल नंदी भगवान शिव का वाहन है।

शिवजी नंदी पर आरूढ़ होकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। भगवान शिव की यह छवि बड़ी मनोहारी थी। वे सज-धजकर समस्त देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, भूत-प्रेतों, माताओं के सान्निध्य में अपनी विशाल बारात के साथ अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का पाणिग्रहण करने के लिए सानंद होकर अपने ससुर गिरिराज हिमालय की नगरी की ओर पग बढ़ा रहे थे। वे सब मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए हिमालय के भवन की तरफ बढ़े जा रहे थे। हिमालय की तरफ बढ़ते समय उनके ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बारात का वह दृश्य बहुत ही मनोहारी लग रहा था। चारों दिशाओं में शहनाइयां बज रही थीं और मंगल गान गुंज रहे थे । उस बारात का अनुपम दृश्य सभी पापों का नाश करने वाला तथा सच्ची आत्मिक शांति प्रदान करने वाला था ।

Address

1st Block, S.T. Bed Extension, Cauvery Colony, Viveknagar Post, Koramangala,
Koramangala
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