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यम–नचिकेता संवाद" (Yam–Naciketa Samvad) की कथा जानना चाहते हैं, जो कठोपनिषद (Kathopanishad) में विस्तार से वर्णित है। यह...
28/09/2025

यम–नचिकेता संवाद" (Yam–Naciketa Samvad) की कथा जानना चाहते हैं, जो कठोपनिषद (Kathopanishad) में विस्तार से वर्णित है। यह उपनिषद वेदों का हिस्सा है और इसमें मृत्यु, आत्मा और मोक्ष जैसे गहन प्रश्नों पर चर्चा होती है।

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कथा का प्रारंभ

कहानी का आरम्भ होता है ऋषि वाजश्रवस से।

उन्होंने यज्ञ किया और संकल्प लिया कि यज्ञ में प्राप्त सम्पत्ति का दान करेंगे।

लेकिन वे दान में बूढ़ी, कमजोर गायें देने लगे।

उनका पुत्र नचिकेता यह देखकर चिंतित हो गया, क्योंकि दान शुद्ध और योग्य होना चाहिए था।

नचिकेता ने पिता से पूछा –
"पिताजी, आप मुझे किसको दान करेंगे?"
तीन बार पूछने पर पिता ने क्रोधित होकर कह दिया –
“तुझे मैं मृत्यु को दान करता हूँ।”

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नचिकेता यमलोक पहुँचना

पिता की आज्ञा को सत्य मानकर नचिकेता मृत्यु–लोक (यमलोक) पहुँचा।

उस समय यमराज वहाँ नहीं थे।

नचिकेता ने तीन दिन बिना अन्न–जल के प्रतीक्षा की।

यमराज लौटे तो उन्होंने तपस्वी बालक का धैर्य और सत्यनिष्ठा देखकर प्रसन्न होकर तीन वरदान देने का वचन दिया।

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तीन वरदान

1. पहला वरदान (पिता का संतोष):
नचिकेता ने माँगा –
“मेरे पिताजी का क्रोध शांत हो जाए और वे मुझे देखकर प्रसन्न हों।”
यमराज ने यह वरदान तुरंत पूरा किया।

2. दूसरा वरदान (अग्नि विद्या):
नचिकेता ने कहा –
“स्वर्ग प्राप्ति के लिए जो अग्नि–विद्या है, वह मुझे बताइए।”
यमराज ने स्वर्गीय अग्नि–यज्ञ की विधि सिखाई।
नचिकेता ने उसे याद भी कर लिया।
प्रसन्न होकर यमराज ने उस अग्नि का नाम ही “नचिकेता अग्नि” रखा।

3. तीसरा वरदान (मृत्यु का रहस्य):
नचिकेता ने सबसे गहन प्रश्न पूछा –
“मनुष्य के मरने के बाद क्या होता है? क्या आत्मा नष्ट हो जाती है या बनी रहती है?”

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यम–नचिकेता संवाद

यहाँ से उपनिषद का सबसे गूढ़ भाग शुरू होता है।

1. यमराज की परीक्षा

यमराज ने कहा –
“यह प्रश्न बड़ा कठिन है। देवताओं को भी इसका उत्तर ठीक से ज्ञात नहीं। तुम कोई और वरदान माँग लो।”
लेकिन नचिकेता अडिग रहा। उसने कहा –
“नहीं, यही ज्ञान चाहिए।”

2. यमराज का प्रलोभन

यमराज ने उसे धन, सोना, सुंदर कन्याएँ, लंबी आयु, स्वर्ग सुख आदि सब देने का प्रस्ताव रखा।
नचिकेता ने कहा –
“ये सब क्षणिक हैं। इनसे आत्मा की तृप्ति नहीं हो सकती। मुझे केवल आत्म–तत्त्व का ज्ञान चाहिए।”

3. आत्मा और मृत्यु का रहस्य

यमराज ने तब समझाया –

आत्मा अमर और अविनाशी है।

शरीर नष्ट होता है, पर आत्मा जन्म–मरण से परे है।

आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है।

जो इसे भलीभांति जान लेता है, वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।

मोक्ष (परम शांति) आत्मा की सच्ची पहचान और ब्रह्म से एकत्व से ही संभव है।

यमराज ने ज्ञान, श्रद्धा, संयम और गुरु–उपदेश के महत्व को भी बताया।

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नचिकेता की उपलब्धि

यमराज ने नचिकेता को आत्म–ज्ञान का रहस्य सिखाया।

नचिकेता इस ज्ञान को प्राप्त कर मृत्यु–भय से मुक्त हो गया।

इस प्रकार वह जीवित ही अमरत्व का अधिकारी बना।

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सारांश (संदेश)

1. सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बालक भी अमर ज्ञान पा सकता है।

2. सांसारिक सुख अस्थायी हैं, पर आत्म–ज्ञान ही शाश्वत है।

3. मृत्यु का भय केवल आत्मा की पहचान से दूर होता है।

4. गुरु–शिष्य परंपरा का महत्व स्पष्ट होता है।



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🌿 भीष्म पितामह का अंतिम उपदेश युधिष्ठिर कोप्रसंगकुरुक्षेत्र का महायुद्ध समाप्त हो चुका था। कौरव वंश का लगभग विनाश हो गया...
16/09/2025

🌿 भीष्म पितामह का अंतिम उपदेश युधिष्ठिर को

प्रसंग

कुरुक्षेत्र का महायुद्ध समाप्त हो चुका था। कौरव वंश का लगभग विनाश हो गया था। धर्मराज युधिष्ठिर को राजगद्दी मिली, लेकिन उनके हृदय में भारी पीड़ा थी। उन्हें लगता था कि इस युद्ध के कारण अनगिनत परिवार उजड़ गए और इसका कारण वह स्वयं हैं।
युधिष्ठिर का मन राजा बनने में प्रसन्न नहीं था। उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता थी।

इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें भीष्म पितामह के पास जाने को कहा, जो शरशय्या पर पड़े थे और उत्तरायण आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

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📜 भीष्म पितामह की मुख्य शिक्षाएँ

1. धर्म का महत्व

> "पुत्र युधिष्ठिर! धर्म ही इस संसार का आधार है। राजा हो या साधारण मनुष्य, धर्म के बिना किसी का कल्याण नहीं हो सकता।"

उन्होंने समझाया कि अधर्म से प्राप्त सुख तात्कालिक है, पर धर्म से जुड़ा कर्म शाश्वत है।

2. राजधर्म (न्याय और प्रजा का कल्याण)

> "राजा का पहला कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना है। वह अपने सुख-दुःख को त्यागकर प्रजा का पिता और रक्षक बनता है।"

न्याय करना

दीन-हीन की रक्षा करना

करुणा और दया से शासन करना
यही एक आदर्श राजा की पहचान है।

3. सत्य और धैर्य

> "सत्य बोलने वाले और धैर्यवान व्यक्ति को कभी हार नहीं मिलती।"

भीष्म ने कहा कि असत्य से क्षणिक लाभ तो मिल सकता है, परंतु उसका परिणाम विनाशकारी होता है।

4. दान और करुणा

> "दान करने से धन घटता नहीं, बल्कि बढ़ता है। दान देने से मनुष्य अमर हो जाता है।"

करुणा से बड़ा कोई धर्म नहीं है।

5. काम, क्रोध, लोभ पर नियंत्रण
उन्होंने कहा कि मनुष्य के तीन शत्रु हैं – काम, क्रोध और लोभ।

काम से विवेक नष्ट होता है।

क्रोध से शांति नष्ट होती है।

लोभ से धर्म नष्ट होता है।

इन पर विजय पाना ही सच्चा पुरुषार्थ है।

6. क्षमा की महिमा

> "क्षमा से बड़ा कोई धर्म नहीं। क्षमा करने वाला व्यक्ति ईश्वर के समान पूजनीय होता है।"

7. मोक्षधर्म (जीवन का सार)
भीष्म ने समझाया कि मनुष्य का शरीर नश्वर है।

अच्छे कर्म

धर्म का पालन

दान

सत्संग
यही मोक्ष का मार्ग है।

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🌺 भीष्म का आशीर्वाद

जब युधिष्ठिर ने यह सब सुना, तो उनका मन शांत हुआ।
भीष्म पितामह ने कहा –

> "धर्मराज! तुम्हें अब संपूर्ण धरती की प्रजा का पालन धर्मपूर्वक करना है। यही तुम्हारा कर्तव्य और यही तुम्हारी पूजा है।"

श्रीकृष्ण, अर्जुन और अन्य पांडव भी उस समय वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने भीष्म के इन उपदेशों को बड़े ध्यान से सुना।
इन्हीं उपदेशों को महाभारत में शान्ति पर्व और अनुशासन पर्व कहा जाता है।

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ऋषि मार्कण्डेय की विस्तृत कथाऋषि मार्कण्डेय महर्षि मृकंडु और उनकी पत्नी मरुद्वती के पुत्र थे। यह कथा मुख्य रूप से भगवान ...
15/09/2025

ऋषि मार्कण्डेय की विस्तृत कथा

ऋषि मार्कण्डेय महर्षि मृकंडु और उनकी पत्नी मरुद्वती के पुत्र थे। यह कथा मुख्य रूप से भगवान शिव से जुड़ी है और अमरत्व तथा भक्ति के महत्व को प्रकट करती है।

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1. मृकंडु ऋषि की तपस्या और वरदान

महर्षि मृकंडु संतानहीन थे। उन्होंने कठोर तपस्या कर भगवान शिव की आराधना की। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और वरदान दिया:

“तुम्हें एक ऐसा पुत्र मिलेगा जो अत्यंत गुणवान, विद्वान और धर्मनिष्ठ होगा लेकिन उसकी आयु केवल 16 वर्ष होगी।”

“या फिर तुम्हें एक लंबी आयु वाला परंतु साधारण और मूर्ख पुत्र मिलेगा।”

मृकंडु ऋषि ने पहले विकल्प को चुना। परिणामस्वरूप उन्हें मार्कण्डेय नामक तेजस्वी और ज्ञानवान पुत्र प्राप्त हुआ।

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2. बालक मार्कण्डेय की भक्ति

मार्कण्डेय बचपन से ही वेद-शास्त्रों में पारंगत, विनम्र और भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। वे प्रतिदिन शिवलिंग की उपासना करते और महादेव का स्मरण करते।

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3. 16वें वर्ष का संकट

ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, उनके 16वें जन्मदिवस का समय निकट आने लगा। मृकंडु और मरुद्वती दुःखी थे, परंतु मार्कण्डेय अडिग भक्ति में लीन रहे।

16वें वर्ष की तिथि पर यमराज (मृत्यु के देवता) उन्हें लेने आए। उस समय मार्कण्डेय शिवलिंग का आलिंगन कर भगवान का स्मरण कर रहे थे।

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4. यमराज और मार्कण्डेय का संघर्ष

यमराज ने पाश (फंदा) फेंका, जो गलती से शिवलिंग पर भी पड़ गया।
यह देख भगवान शिव क्रोधित हो उठे। वे शिवलिंग से प्रकट हुए और यमराज पर त्रिशूल चला दिया।

यमराज मूर्छित हो गए। इस घटना से तीनों लोकों में भय फैल गया क्योंकि मृत्यु का संचालन रुक गया।

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5. भगवान शिव का वरदान

देवताओं और ब्रह्माजी ने आकर प्रार्थना की। भगवान शिव ने यमराज को पुनः जीवित किया, लेकिन यह वचन दिया कि:

“मार्कण्डेय सदा के लिए अमर रहेंगे और सदैव 16 वर्ष के ही दिखेंगे।”

उन्हें “चिरंजीवी” का आशीर्वाद मिला।

इस प्रकार ऋषि मार्कण्डेय मृत्यु से पार होकर अमरत्व के प्रतीक बन गए।

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6. मार्कण्डेय पुराण और उनकी महिमा

ऋषि मार्कण्डेय ने आगे चलकर मार्कण्डेय पुराण की रचना की। इसी में देवी माहात्म्य (दुर्गा सप्तशती) का वर्णन मिलता है, जिसमें देवी दुर्गा की महिमा गाई गई है।

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7. शिक्षा (महत्व)

सच्ची भक्ति और श्रद्धा मृत्यु को भी परास्त कर सकती है।

भगवान शिव अपने भक्तों की हर परिस्थिति में रक्षा करते हैं।

ज्ञान और धर्म का महत्व आयु से कहीं अधिक है।






























कामवन में चार धाम की स्थापनावृंदावन के बारह वन (द्वादश वन) में कामवन का विशेष स्थान है। जब श्रीकृष्ण अपने बाल रूप में नं...
14/09/2025

कामवन में चार धाम की स्थापना

वृंदावन के बारह वन (द्वादश वन) में कामवन का विशेष स्थान है। जब श्रीकृष्ण अपने बाल रूप में नंदबाबा और माता यशोदा के साथ यहाँ आए, तब एक प्रसंग हुआ –

एक बार नंद बाबा और यशोदा मैया ने मन में इच्छा की कि वे भी चारों धामों – बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथ पुरी और द्वारका/रामेश्वर – का दर्शन करें। परंतु वृद्धावस्था और गृहस्थ जीवन के कारण उनके लिए चारों धाम की यात्रा करना संभव नहीं था।

यह भाव जानकर श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले –
“मैय्या! बाबूजी! आप चिंतित मत होइए। आप यहीं रहकर चारों धामों का फल पा सकते हैं। मैं स्वयं आपको धामों का दर्शन कराऊँगा।”

तब उन्होंने कमवन में अपनी दिव्य शक्ति से चार धामों की प्रतिकृति प्रकट कर दी।

एक स्थान को बद्रीनाथ का स्वरूप दिया।

दूसरे को केदारनाथ।

तीसरे को जगन्नाथपुरी।

चौथे को रामेश्वर/द्वारका के रूप में प्रकट किया।

माता यशोदा और नंदबाबा ने वहीं स्नान, पूजन और दर्शन किया और उन्हें वही पुण्य फल प्राप्त हुआ जो वास्तविक चार धाम की यात्रा से मिलता है।

विशेषता

इसीलिए कमवन को “छोटा चारधाम” भी कहा जाता है।

आज भी वहाँ तीर्थयात्री जाकर इन धामों के दर्शन करते हैं और मानते हैं कि यह दर्शन करने से चारों धाम की यात्रा का पुण्य मिलता है।

👉 यह कथा यह भी बताती है कि भक्त के मन की भावना सच्ची हो तो भगवान स्वयं उनकी सुविधा अनुसार धामों का फल प्रदान कर देते हैं।

वृंदावन के बारह वन (द्वादश कानन):

1. मधुवन

कथा: यहीं पर भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना का वध किया और मदन दैत्य का संहार भी किया। यह वन अपनी मधुरता और शांति के लिए प्रसिद्ध है।

2. तालवन

कथा: यहाँ दैत्य देनुकासुर और उसके साथी गधे के रूप में रहते थे। श्रीकृष्ण और बलराम ने उनका वध कर ग्वालबालों को खजूर (ताल) फल खिलाए।

3. कुमारवन

कथा: यहाँ छोटे बालक ग्वालों के साथ कृष्ण खेला करते थे। यह वन बाल्यकाल की लीलाओं से जुड़ा है।

4. बहुलावन

कथा: यह वन एक गोपी बहुला के नाम पर है, जिसने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए थे। कृष्ण ने उसे मोक्ष दिया और यशस्विनी बना दिया।

5. काम्यवन

कथा: यह वन कामनाओं को पूर्ण करने वाला माना जाता है। यहाँ श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ अनेक रास और खेल किए। आज भी भक्त यहाँ अपनी मनोकामनाएँ पूरी करने आते हैं।

6. खदिरवन

कथा: यहाँ श्रीकृष्ण ने एक असुर व्योमासुर का वध किया था। यह वन खदिर (काठ की बबूल) वृक्षों से भरा हुआ है।

7. महावन (गोकुल)

कथा: यहीं नंद बाबा का घर था। श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव, बाल्यकाल की अनेक लीलाएँ और यमुनाजी में कालिय नाग का दमन इसी क्षेत्र में हुआ।

8. भद्रवन

कथा: यह वन भद्र वृक्षों से भरा था। यहाँ कृष्ण ने ग्वालबालों के साथ विविध लीलाएँ कीं।

9. बिल्ववन

कथा: यहाँ बेल (बिल्व) वृक्षों की भरमार थी। यह शिवजी को प्रिय स्थल है और यहाँ भगवती तुलसी के साथ रास लीलाएँ होती थीं।

10. लोहरवन

कथा: यहाँ की मिट्टी लाल (लोह) रंग की है। कथा है कि यहाँ बलरामजी ने अनेक असुरों का वध किया।

11. भांडीरवन

कथा: यहाँ एक विशाल भांडीर वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु ने बाल रूप में श्रीकृष्ण और बलराम का उपनयन संस्कार किया। यही पर राधा-कृष्ण का विवाह भी माना जाता है।

12. वृंदावन

कथा: यह श्री राधा की सखी वृंदा देवी का वन है। यहाँ श्रीकृष्ण ने रासलीला की और अनगिनत प्रेम-लीलाएँ कीं। यही सबसे प्रमुख और पावन वन है।






























भृगु ऋषि और भगवान विष्णु की कथा विस्तार से सुनाता हूँ। यह कथा मुख्यतः पद्म पुराण और कुछ अन्य पुराणों में वर्णित है और इस...
13/09/2025

भृगु ऋषि और भगवान विष्णु की कथा विस्तार से सुनाता हूँ। यह कथा मुख्यतः पद्म पुराण और कुछ अन्य पुराणों में वर्णित है और इसे “त्रिदेव परीक्षा” या “भृगु परिक्षा” भी कहा जाता है।

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कथा :

एक बार देवताओं और ऋषियों ने यह जानना चाहा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश (त्रिदेव) में से कौन सबसे बड़ा है और किसकी उपासना से अधिक फल प्राप्त होता है।

इस शंका का समाधान करने के लिए सबने महर्षि भृगु ऋषि को नियुक्त किया, ताकि वे तीनों देवों की परीक्षा लेकर बताएँ।

1. ब्रह्मा जी के पास

भृगु ऋषि पहले ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने जान-बूझकर ब्रह्मा जी का अपमान किया, प्रणाम नहीं किया।
ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए, किंतु माता सरस्वती ने उन्हें शांत कर दिया।

2. शिव जी के पास

इसके बाद वे शिव जी के पास पहुँचे। शिव जी ने उन्हें स्नेह से गले लगाना चाहा, परन्तु भृगु जी ने कहा कि आप अति तामसी हैं और मुझसे दूर रहिए।
शिव जी को बहुत क्रोध आया, वे त्रिशूल उठाने लगे, परन्तु माता पार्वती ने उन्हें शांत कर दिया।

3. विष्णु भगवान के पास

अंत में भृगु ऋषि वैकुण्ठ धाम में भगवान विष्णु के पास पहुँचे। उस समय भगवान विष्णु शेष शैया पर लक्ष्मी जी के साथ विराजमान थे।
भृगु जी ने विष्णु जी की परीक्षा के लिए उनके वक्षस्थल (सीने) पर लात मार दी।

भगवान विष्णु तुरंत उठकर ऋषि के चरण पकड़ लिए और बोले:
"ऋषिवर! आपके चरणों से मेरे वक्षस्थल को स्पर्श का सौभाग्य मिला। यदि आपके पैर में चोट लगी हो तो मैं उसे दबाकर ठीक कर दूँ।"

यह देखकर भृगु ऋषि भावविभोर हो गए। उन्हें समझ आ गया कि त्रिदेवों में विष्णु ही सबसे श्रेष्ठ हैं क्योंकि उनमें अहंकार और क्रोध का लेशमात्र भी नहीं है।

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कथा का संदेश

विष्णु भगवान को क्षमा और धैर्य का प्रतीक माना जाता है।

यह कथा सिखाती है कि सच्चा महान वही है, जो अपमान सहकर भी नम्रता और करुणा न छोड़े।

इसी कारण भक्तों के लिए विष्णु की भक्ति को परम श्रेष्ठ बताया गया है।

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09/09/2025

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🌸 गोविंद देव जी मंदिर की कथा (वृंदावन)1. मूर्ति की खोज की कथाश्रीकृष्ण के अनन्य भक्त और चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्रील र...
07/09/2025

🌸 गोविंद देव जी मंदिर की कथा (वृंदावन)

1. मूर्ति की खोज की कथा

श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त और चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्रील रूप गोस्वामी वृंदावन में तपस्या कर रहे थे।

उन्हें स्वप्न में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने आदेश दिया –
“हे रूप, मेरी विग्रह मूर्ति यमुना के तट पर एक स्थान पर छिपी हुई है। वहाँ आकर मुझे प्रकट करो और भक्तों को दर्शन दो।”

अगले दिन रूप गोस्वामी ने भक्तों के साथ मिलकर उस स्थान को खोदा।

वहाँ से अत्यंत दिव्य और मोहक गोविंद देव जी की मूर्ति प्रकट हुई।

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2. राजा मानसिंह और भव्य मंदिर का निर्माण

उस समय के महान भक्त और वीर, आमेर (जयपुर) के राजा मानसिंह प्रथम (जो अकबर के नवरत्नों में से एक थे) ने इस मूर्ति के दर्शन किए।

वे भगवान के इतने अनन्य भक्त हुए कि उन्होंने निर्णय लिया कि वे इस विग्रह के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण करेंगे।

1590 ईस्वी के लगभग उन्होंने लाल बलुआ पत्थर से सात मंज़िला विशाल मंदिर बनवाया।

यह मंदिर इतना अद्भुत था कि इसकी भव्यता देखकर अकबर भी चकित हो गए थे।

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3. मुग़ल काल का संकट

औरंगज़ेब के समय हिन्दू मंदिरों को नष्ट किया जा रहा था।

जब औरंगज़ेब को पता चला कि वृंदावन में इतना विशाल और लोकप्रिय मंदिर है, तो उसने उसे तोड़ने का आदेश दिया।

सैनिकों ने मंदिर के ऊपरी तीन मंज़िलें नष्ट कर दीं, परंतु मूर्ति को भक्तों ने पहले ही सुरक्षित कर लिया था।

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4. जयपुर में गोविंद देव जी की स्थापना

भक्तों ने मूर्ति को वृंदावन से निकालकर पहले गोपालगढ़ (राजस्थान) और फिर जयपुर पहुँचा दिया।

वहाँ आमेर (जयपुर) के महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने महल के पास ही गोविंद देव जी का मंदिर बनवाया।

आज भी वह मंदिर जयपुर के सिटी पैलेस के पास स्थित है और लाखों भक्त वहाँ प्रतिदिन दर्शन करते हैं।

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5. विशेषता और रहस्य

कहा जाता है कि इस मूर्ति का मुखमंडल स्वयं श्रीकृष्ण के मूल स्वरूप से मिलता है, क्योंकि यह मूर्ति स्वयं व्रज की गोपियों द्वारा बनाई गई थी।

मान्यता है कि यह विग्रह श्रीकृष्ण के स्वयंभू स्वरूपों में से एक है।

जयपुर का गोविंद देव जी मंदिर आज भी राजस्थान के सबसे जीवंत मंदिरों में गिना जाता है – जहाँ आरती और भोग भगवान को वास्तविक रूप से जीवित मानकर ही किए जाते हैं।

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🌸 संक्षेप में

वृंदावन: मूर्ति का प्रकट होना → राजा मानसिंह द्वारा भव्य मंदिर का निर्माण।

मुग़ल काल: मंदिर आंशिक रूप से तोड़ा गया, मूर्ति सुरक्षित हटा ली गई।

जयपुर: सवाई जयसिंह ने नई स्थापना की → आज भी वहाँ प्रत्यक्ष स्वरूप में भगवान श्रीकृष्ण भक्तों को दर्शन देते हैं।

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👉 यही कारण है कि भक्त कहते हैं –
“गोविंद देव जी जयपुर में हैं, लेकिन उनका हृदय और आभास आज भी वृंदावन में बसता है।”






























श्रीकृष्ण और उनके गुरु संदीपन मुनि की कथा---कथाश्रीकृष्ण और बलराम बचपन से ही नंदगाँव और गोकुल में अपनी लीलाएँ करते रहे। ...
05/09/2025

श्रीकृष्ण और उनके गुरु संदीपन मुनि की कथा

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कथा

श्रीकृष्ण और बलराम बचपन से ही नंदगाँव और गोकुल में अपनी लीलाएँ करते रहे। जब वे थोड़े बड़े हुए तो उन्हें शिक्षा लेने के लिए उज्जैन भेजा गया। वहाँ उनके गुरु संदीपन मुनि थे।

श्रीकृष्ण और बलराम ने अल्प समय में ही वेद, उपनिषद, राजनीति, धनुर्वेद, शास्त्र, और सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उनकी स्मरणशक्ति और बुद्धि इतनी तीव्र थी कि कुछ ही दिनों में उन्होंने सबकुछ सीख लिया।

गुरु दक्षिणा का समय

विद्या प्राप्त करने के बाद परंपरा के अनुसार शिष्यों को अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देनी होती थी। श्रीकृष्ण और बलराम ने विनम्रता से संदीपन मुनि से कहा –
"गुरुदेव! हमें बताइए कि हम कौन-सी गुरु दक्षिणा अर्पित करें?"

संदीपन मुनि और उनकी पत्नी दुखी थे क्योंकि उनका पुत्र समुद्र में डूब गया था और मृत्यु को प्राप्त हो गया था। उन्होंने कृष्ण-बलराम से कहा –
"यदि वास्तव में तुम हमारी दक्षिणा देना चाहते हो तो हमें अपना पुत्र वापस चाहिए।"

श्रीकृष्ण का वचन

श्रीकृष्ण और बलराम ने यह सुनकर प्रणाम किया और वचन दिया –
"गुरुदेव! आपके पुत्र को जीवित करना ही हमारी गुरु दक्षिणा होगी।"

समुद्र से संवाद

दोनों भाई समुद्र के तट पर पहुँचे। श्रीकृष्ण ने समुद्र देव से कहा –
"हमारे गुरु का पुत्र तुम्हारे जल में डूबा था। उसे हमें वापस दो।"

समुद्र देव ने बताया –
"वह बालक मेरे पास नहीं है। उसे एक दैत्य पाञ्चजन्य (शंख रूपी दैत्य) निगल गया है।"

दैत्य का वध और शंख की प्राप्ति

श्रीकृष्ण ने उस दैत्य को मार डाला, लेकिन जब उसका पेट चीरकर देखा तो बालक वहाँ नहीं मिला। केवल एक विशाल शंख निकला।
वही शंख आगे चलकर पाञ्चजन्य शंख कहलाया, जिसे भगवान कृष्ण ने अपने दिव्य आयुधों में रखा।

यमराज से मुलाकात

इसके बाद श्रीकृष्ण और बलराम ने यमलोक की यात्रा की। उन्होंने यमराज से आग्रह किया –
"हे धर्मराज! हमारे गुरु का पुत्र हमें वापस चाहिए। यह हमारी गुरु दक्षिणा है।"

यमराज ने भगवान की इच्छा को स्वीकार किया और उस बालक को जीवित करके श्रीकृष्ण और बलराम को सौंप दिया।

गुरु का आशीर्वाद

श्रीकृष्ण और बलराम ने उस बालक को अपने गुरु संदीपन मुनि और उनकी पत्नी को सौंप दिया। अपने पुत्र को जीवित देखकर उनके आनंद की सीमा नहीं रही। उन्होंने दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया और कहा –
"आज तुमने सच्ची गुरु भक्ति और दक्षिणा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। संसार तुम्हें सदैव स्मरण करेगा।"

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संदेश

यह कथा बताती है कि शिष्य का पहला धर्म अपने गुरु की आज्ञा का पालन करना है।

श्रीकृष्ण ने यह दिखाया कि केवल ज्ञान प्राप्त करना ही नहीं बल्कि गुरु के प्रति समर्पण और सेवा भी आवश्यक है।

यह कथा हमें गुरु भक्ति, करुणा और वचन-पालन की महत्ता सिखाती है।






























🌸 श्री सांवरिया सेठ मंदिर, चित्तौड़गढ़ की कथा विस्तार से 🌸राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित श्री सांवरिया सेठ मंदि...
05/09/2025

🌸 श्री सांवरिया सेठ मंदिर, चित्तौड़गढ़ की कथा विस्तार से 🌸

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ ज़िले में स्थित श्री सांवरिया सेठ मंदिर भक्तों की आस्था का अद्भुत केंद्र है। इसे "राजस्थान का शिरडी" भी कहा जाता है। यहाँ विराजमान श्रीकृष्ण जी सांवरिया स्वरूप में सेठ के रूप में पूजे जाते हैं। अब मैं आपको इसकी पूरी कथा सुनाता हूँ—

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🪔 मूल कथा – प्रतिमा का प्रकट होना

बहुत समय पहले, मेवाड़ क्षेत्र में मीराबाई की पूजा की मूर्ति (श्रीकृष्ण की श्यामसुंदर मूर्ति) धरोही नदी के पास भूमि में दबा दी गई थी। कालांतर में यह मूर्ति वहीं छिपी रही।

फिर 1840 ईस्वी (लगभग 19वीं शताब्दी में), भगवान स्वयं भक्तों को स्वप्न में दर्शन देकर प्रकट होने का आदेश दिए।
🌿 कहा जाता है कि तीन गाँवों के किसान – भादेर, मंदर और भादेसर – को एक ही रात स्वप्न में भगवान ने संकेत दिया कि वे आकर उन्हें धरती से निकालें।

जब अगले दिन लोगों ने खुदाई की, तो वहाँ से श्यामवर्णीय सांवरिया स्वरूप में भगवान कृष्ण की मनमोहक मूर्ति प्रकट हुई।
मूर्ति इतनी दिव्य और मोहक थी कि लोगों ने उन्हें "सांवरिया सेठ" के नाम से पुकारना शुरू कर दिया।

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🏛️ मंदिर का निर्माण और विकास

प्रारंभ में मूर्ति को पास के एक छोटे मंदिर में विराजमान किया गया।

बाद में भक्तों की बढ़ती श्रद्धा देखकर एक विशाल और भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया।

आज यह मंदिर भगवान कृष्ण के प्रमुख धामों में गिना जाता है।

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💰 सांवरिया सेठ – दानी व्यापारी

भक्तगण मानते हैं कि सांवरिया सेठ धन-संपत्ति और समृद्धि के दाता हैं।
लोग यहाँ पर चिट्ठियाँ लिखकर, तिजोरी में रखकर अपनी मनोकामनाएँ माँगते हैं।

व्यापारी वर्ग उन्हें अपना "सेठ" मानकर यहाँ व्यापारिक बही-खाते की पूजा करते हैं।

श्रद्धालु यहाँ रुपये, गहने, और अन्य चढ़ावा अर्पित करते हैं।

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🌸 मंदिर की विशेषता

1. यहाँ का वातावरण श्यामबाबा के दरबार जैसा लगता है।

2. नित्य झाँकी और भजन-कीर्तन से मंदिर गूंजता रहता है।

3. यहाँ हर साल जन्माष्टमी और अन्य कृष्ण उत्सव भव्य रूप से मनाए जाते हैं।

4. यह मंदिर राजस्थान का तीसरा प्रमुख कृष्ण धाम माना जाता है (पहले – नाथद्वारा श्रीनाथजी, दूसरे – खाटूश्यामजी)।

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🙏 आस्था और विश्वास

भक्त मानते हैं कि सांवरिया सेठ हर मनोकामना पूरी करते हैं।

यहाँ दर्शन मात्र से ही जीवन में धन, सुख और शांति का आशीर्वाद मिलता है।

व्यापारी वर्ग ही नहीं, बल्कि गरीब, मजदूर और किसान तक इस मंदिर में आकर अपने कष्ट हल होते हुए अनुभव करते हैं।

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✨ इस प्रकार श्री सांवरिया सेठ मंदिर, चित्तौड़गढ़ भक्तों के लिए आशा, समृद्धि और भक्ति का प्रतीक है।






























स्वामी हरिदास जी और बाँके बिहारी जी की प्रकट होने की अद्भुत कथा---स्वामी हरिदास जी का जीवन परिचयस्वामी हरिदास जी का जन्म...
05/09/2025

स्वामी हरिदास जी और बाँके बिहारी जी की प्रकट होने की अद्भुत कथा

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स्वामी हरिदास जी का जीवन परिचय

स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत् 1536 (सन् 1479 ई.) में राजपूताने के ब्रज क्षेत्र के गाँव हरसिंगपुर (वर्तमान में अलीगढ़ के पास) हुआ।
वे नित्यानंद वंशी थे और गुरु परम्परा से आचार्य श्री अलीगढी जी के शिष्य थे। उनका जीवन पूर्णत: भक्ति, साधना और संत-संगति में व्यतीत हुआ।

स्वामी जी वैष्णव संप्रदाय के महान साधक, निर्गुण-सगुण समन्वयक, तथा अद्भुत भक्त कवि थे। उनकी रचनाएँ "हरिदासी संप्रदाय" का आधार मानी जाती हैं।

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भक्ति साधना और वृंदावन आगमन

स्वामी हरिदास जी बचपन से ही भक्ति में लीन रहते थे। उनके कीर्तन और पदों में ऐसी मधुरता थी कि जो सुनता वही भावविभोर हो जाता।
वे अंततः वृंदावन आए और निधिवन को अपना स्थायी तपोभूमि बना लिया। यहीं वे राधा-कृष्ण की अनन्य उपासना में लीन रहने लगे।

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बाँके बिहारी जी का प्राकट्य

एक दिन, स्वामी हरिदास जी अपने शिष्यों और भक्तों के साथ निधिवन में भजन कर रहे थे।
उनका स्वर अत्यंत मधुर और हृदय को छू लेने वाला था।
कहा जाता है कि उनके भजनों से स्वयं राधा रानी और श्रीकृष्ण जी इतने प्रसन्न हुए कि वे प्रत्यक्ष वहाँ प्रकट हो गए।

✨ उस समय दोनों ने अपनी दिव्य झलक सभी भक्तों को दी।

श्रीकृष्ण अपनी बाँसुरी बजाते हुए,

और राधारानी उनके साथ खड़ी होकर,

इतनी अद्भुत छवि प्रकट हुई कि भक्तजन भावविभोर होकर नतमस्तक हो गए।

स्वामी हरिदास जी ने विनयपूर्वक कहा –
“हे ठाकुर, आप अब सदा इसी ब्रजभूमि में विराजमान होकर भक्तों को दर्शन दीजिए।”

उनकी प्रार्थना स्वीकार कर श्री राधा-कृष्ण ने एकाकार रूप धारण किया और उस दिव्य स्वरूप को "बाँके बिहारी जी" के नाम से वहीं निधिवन में प्रकट कर दिया।

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बाँके बिहारी जी का स्वरूप

श्री बाँके बिहारी जी का स्वरूप राधा और कृष्ण के संयुक्त रूप का प्रतीक है।

उनका नाम भी इसी से बना –

"बाँके" = तीन तिरछे (त्रिभंग मुद्रा में खड़े श्रीकृष्ण)

"बिहारी" = विहार करने वाले (राधा संग ब्रजविहारी)।

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मंदिर की स्थापना

प्रकट होने के बाद, उस दिव्य विग्रह की स्थापना निधिवन में ही की गई।
बाद में 1864 ई. में जयपुर के राजा स्वामी जयसिंह के वंशजों और भक्तों ने निधिवन से मूर्ति को वर्तमान बाँके बिहारी मंदिर (वृंदावन) में प्रतिष्ठित किया।

आज यह मंदिर विश्वविख्यात है और श्रीकृष्ण भक्तों की सर्वोच्च तीर्थस्थली माना जाता है।

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विशेषताएँ

1. बाँके बिहारी जी की मूर्ति के दर्शन बहुत ही विशेष ढंग से होते हैं।

मूर्ति के आगे परदे को बार-बार खोला और बंद किया जाता है, क्योंकि माना जाता है कि ठाकुर जी की छवि इतनी आकर्षक है कि भक्त उसमें खोकर समाधि में चले जाएँ।

2. यहाँ मंगल आरती नहीं होती, क्योंकि मान्यता है कि बिहारी जी सुबह देर से उठते हैं (जैसे नंदलाल)।

3. ठाकुर जी का श्रृंगार, भोग और सेवा ऋतु और अवसर के अनुसार बदलता है।

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✨ इस प्रकार स्वामी हरिदास जी के भजन और भक्ति ने ही हमें "श्री बाँके बिहारी जी" का सजीव, चमत्कारिक और अद्भुत स्वरूप प्रदान किया।






























🌸 माता अनसूया और दत्तात्रेय जी की कथाअनसूया माता का विवाह अत्रि ऋषि के साथ हुआ था। माता अनसूया अपने पतिव्रत धर्म और तपस्...
05/09/2025

🌸 माता अनसूया और दत्तात्रेय जी की कथा

अनसूया माता का विवाह अत्रि ऋषि के साथ हुआ था। माता अनसूया अपने पतिव्रत धर्म और तपस्या के लिए संपूर्ण ब्रह्मांड में प्रसिद्ध थीं। उनका पतिव्रत इतना अद्भुत था कि तीनों लोकों में उनकी महिमा गाई जाती थी।

🔱 देवियों की परीक्षा

देवराज इंद्र और कुछ देवताओं की पत्नियाँ माता अनसूया के पतिव्रत से ईर्ष्या करने लगीं। उन्होंने अपने पतियों से कहा कि अनसूया का अभिमान तोड़ना आवश्यक है। इस पर ब्रह्मा जी, विष्णु जी और महादेव जी ने माता अनसूया की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

तीनों देव एक साथ भिक्षुक रूप में अत्रि ऋषि के आश्रम पहुँचे और माता अनसूया से भिक्षा माँगी। परंतु उन्होंने शर्त रखी कि ―
👉 "माँ, हमें भोजन नग्न अवस्था में ही परोसना होगा।"

यह सुनकर माता के सामने धर्म-संकट उत्पन्न हुआ। एक ओर पतिव्रता धर्म और दूसरी ओर अतिथि धर्म।

🌺 माता की महिमा

माता अनसूया ने अपने तपोबल और पतिव्रता शक्ति से उन तीनों को नवजात शिशु में परिवर्तित कर दिया और फिर उन्हें स्नान कराकर, वस्त्र पहनाकर, प्रेमपूर्वक भोजन कराया।

अत्रि ऋषि के लौटने पर माता ने सब बताया। तब तीनों देव अपनी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और माता अनसूया को आशीर्वाद दिया।

🌟 दत्तात्रेय अवतार

तीनों देवों की सम्मिलित शक्ति से माता की कोख से एक दिव्य बालक का जन्म हुआ –

ब्रह्मा का अंश (चंद्र),

विष्णु का अंश (दुर्वासा),

और महेश का अंश (दत्तात्रेय)।

इन्हें दत्तात्रेय जी कहा गया – “दत्त” अर्थात दान में दिया हुआ, और “अत्रेय” अर्थात अत्रि का पुत्र।

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🕉️ दत्तात्रेय जी और उनके 24 गुरु

दत्तात्रेय जी संन्यास व ध्यान के महान आचार्य माने जाते हैं। उन्होंने संसार की हर वस्तु, जीव-जंतु और परिस्थिति से ज्ञान प्राप्त कर 24 गुरु बनाए। यह शिक्षा हमें बताती है कि संसार ही एक विद्यालय है और हर वस्तु हमें कुछ सिखाती है।

24 गुरु और उनसे प्राप्त शिक्षा

1. पृथ्वी (धरणी) – सहनशीलता और क्षमा।

2. वायु (हवा) – सबके बीच रहते हुए भी आसक्त न होना।

3. आकाश (आसमान) – सबको स्थान देना, पर स्वयं निराकार रहना।

4. जल (नदी/सागर) – शुद्धता और शांति।

5. अग्नि (अग्नि देव) – तपस्या और पवित्रता।

6. चंद्रमा – घटने-बढ़ने पर भी शीतलता बनाए रखना।

7. सूर्य – तेज और ऊर्जा का दान करना।

8. कबूतर (पक्षी) – मोह बंधन से विनाश का ज्ञान।

9. अजगर (साँप) – संतोष और जो मिले उसी में प्रसन्न रहना।

10. समुद्र (सागर) – गंभीरता और मर्यादा।

11. पतंगा (कीट) – विषयासक्ति का विनाशकारी परिणाम।

12. मधुमक्खी (भ्रमर) – अधिक संग्रह से हानि।

13. गज (हाथी) – कामवासनाओं से विनाश।

14. मृग (हिरण) – संगीत/मोह में फँसने से बचना।

15. मीन (मछली) – जिह्वा (स्वाद) की वासना बंधन का कारण है।

16. पिंगला नामक वैश्या – आशा छोड़ने से शांति मिलती है।

17. बालक (शिशु) – निश्छलता और चिंता रहित जीवन।

18. कन्या (कुमारी) – एकांत और संयम का महत्व।

19. धनुर्धर (शिकारी) – एकाग्रता।

20. साँप (सर्प) – कम संसर्ग, स्वावलंबन, और अपनी कुटी में न रहना।

21. मकड़ी (जाला बनाने वाली) – सृष्टि का रहस्य, ईश्वर से उत्पत्ति और उसी में लय।

22. भौंरा (मधुचर) – संग्रह की बजाय आज में जीना।

23. भिक्षुक (साधु) – संतोष और समता।

24. कुम्हार (घड़ा बनाने वाला) – धैर्य और धीरे-धीरे साधना करना।

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✨ सार

माता अनसूया ने पतिव्रता की शक्ति से देवों को भी पराजित कर दिया और दत्तात्रेय जी का अवतार हुआ।
दत्तात्रेय जी ने हमें यह शिक्षा दी कि संसार का प्रत्येक जीव और तत्व हमारा गुरु हो सकता है। यदि हम सजग हैं तो हर वस्तु से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

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बालकृष्ण और फल बेचने वाली चंदलिन (फलवाली) की लीला---📖 कथाएक दिन नंदबाबा के आँगन में एक फल बेचने वाली चंदलिन (गरीब स्त्री...
05/09/2025

बालकृष्ण और फल बेचने वाली चंदलिन (फलवाली) की लीला

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📖 कथा

एक दिन नंदबाबा के आँगन में एक फल बेचने वाली चंदलिन (गरीब स्त्री) आई।
वह ऊँची आवाज़ में पुकार रही थी –
"फल लो… फल लो… मीठे-रसाले फल लो…"

छोटे-से नटखट बालकृष्ण उसकी आवाज़ सुनकर बाहर आए।
उनके छोटे हाथों में अनाज के कुछ दाने थे।

👉 वह अनाज के दाने अपनी छोटी-सी अंजलि (हथेली) में लेकर फलवाली के पास दौड़ते हुए गए और बोले –
"मैय्या… मुझे फल चाहिए… यह लो दाना!"

लेकिन उनके छोटे-छोटे हाथों से अनाज के दाने रास्ते में गिर गए। जब तक वे फलवाली तक पहुँचे, तब तक उनकी हथेली लगभग खाली हो चुकी थी।

फलवाली ने देखा – सामने तो साक्षात नंदलाल खड़े हैं, उनके चेहरे पर अद्भुत मोहक मुस्कान और आँखों में करुणा का सागर।
वह उनकी भोली सूरत देखकर भाव-विभोर हो गई।

उसने सोचा –
"ये तो वही मुरलीधर हैं… ब्रह्मांड के मालिक… और ये मुझे अपनी मुट्ठी के कुछ दाने दे रहे हैं।"

उसने प्रेमवश उनके खाली हाथों को थाम लिया और बोली –
"लाल! तेरे लिए तो ये सारे फल भी न्योछावर हैं।"

उसने अपनी टोकरी से खूब सारे फल श्रीकृष्ण की गोद में डाल दिए।

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🌼 चमत्कार

जब फलवाली अपने घर लौटी और अपनी खाली टोकरी को देखा, तो चमत्कार हो चुका था –
👉 उसके सारे फल सोने-रत्नों से बदल चुके थे।

वह विस्मित होकर रो पड़ी और समझ गई कि यह किसी सामान्य बालक का कार्य नहीं, बल्कि साक्षात श्रीकृष्ण की कृपा है।

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✨ इस लीला का भावार्थ

1. भक्ति और प्रेम ही सबसे बड़ा दान है
फलवाली ने श्रीकृष्ण को अपने फल बिना किसी स्वार्थ के दिए। उसी निस्वार्थ भाव के कारण उसे अपार संपत्ति प्राप्त हुई।

2. भगवान का आदान-प्रदान अनोखा है
श्रीकृष्ण ने उसे मुट्ठीभर अनाज दिए और बदले में उसे अमूल्य धन दे दिया। संदेश है कि जो भक्त थोड़ा-सा भी श्रद्धा व प्रेम से भगवान को अर्पित करता है, उसे भगवान अनंत गुणा लौटाते हैं।

3. सच्चे प्रेम की पहचान
फलवाली ने न धन देखा, न दाना, बल्कि केवल कृष्ण का बाल रूप और उनकी भक्ति देखी। यही उसका सबसे बड़ा सौभाग्य बना।

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🌺 निष्कर्ष
बालकृष्ण और फलवाली चंदलिन की यह कथा सिखाती है कि –
👉 भगवान को पाने के लिए कोई बड़ी चीज़ अर्पित करना जरूरी नहीं, बल्कि भक्ति और निस्वार्थ प्रेम ही पर्याप्त है।

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