अंधभक्तों का बाप

अंधभक्तों का बाप इंसान ने भगवान बनाया
और फिर उसी भगवान को धंधा बना लिया
जो आजतक फलफूल रहा है
नही मानता ऐसे भगवान को

एक छोटे से गाँव में, राहुल नाम का एक बहुत ही जिज्ञासु और बुद्धिमान लड़का रहता था। वह हमेशा "क्यों" और "कैसे" जैसे सवाल प...
08/08/2025

एक छोटे से गाँव में, राहुल नाम का एक बहुत ही जिज्ञासु और बुद्धिमान लड़का रहता था। वह हमेशा "क्यों" और "कैसे" जैसे सवाल पूछता रहता था। जब आसमान में बिजली कड़कती थी, तो गाँव के लोग कहते थे कि यह ईश्वर का क्रोध है। लेकिन राहुल सोचता था कि ऐसा क्यों होता है? उसकी दादी, एक बहुत ही धार्मिक महिला थीं, उन्होंने उसे समझाया कि यह सब किस्मत और ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।
"बेटा, हमें सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए," उसकी दादी कहतीं। "ईश्वर जो करता है, अच्छे के लिए ही करता है।"
लेकिन राहुल को यह बात कभी समझ नहीं आती थी। एक बार, गाँव में एक भयानक बाढ़ आई। सब कुछ बह गया, सिवाय एक पुराने बरगद के पेड़ के, जिसकी जड़ें बहुत गहरी थीं। गाँव के लोगों ने इसे एक चमत्कार माना और कहा कि यह ईश्वर की कृपा है। लेकिन राहुल ने ध्यान से देखा कि उस पेड़ की जड़ें कितनी मज़बूत थीं और वह पानी के बहाव से कैसे बच गया। उसने पाया कि यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि विज्ञान का नियम था।
कुछ सालों बाद, एक वैज्ञानिक गाँव में आया। वह एक नए प्रकार की खेती के बारे में बताने आया था, जो कम पानी में भी हो सकती थी। गाँव के लोगों ने कहा, "यह सब बेकार है। अगर किस्मत में होगा, तो फसल अच्छी होगी।" लेकिन राहुल ने उस वैज्ञानिक की बात सुनी और उसके साथ काम करना शुरू किया।
गाँव के लोगों ने राहुल का मज़ाक उड़ाया। उन्होंने कहा कि वह ईश्वर पर भरोसा नहीं करता और एक दिन पछताएगा। लेकिन राहुल ने हार नहीं मानी। उसने वैज्ञानिक तरीके अपनाए और अपनी ज़मीन पर नए तरीके से खेती शुरू की।
जब अगली फसल का समय आया, तो गाँव के बाकी खेतों में कुछ भी नहीं उगा, क्योंकि बारिश नहीं हुई थी। लेकिन राहुल के खेत में हरी-भरी फसल लहलहा रही थी। गाँव के लोग हैरान थे। उन्होंने देखा कि किस्मत और ईश्वर पर भरोसा करने की बजाय, राहुल ने अपनी मेहनत और वैज्ञानिक सोच से अपनी किस्मत खुद लिखी थी।
उस दिन, गाँव वालों को यह समझ आया कि वैज्ञानिक चेतना और तर्क, किस्मत और ईश्वर पर अंधी आस्था से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली होते हैं। और राहुल, जिसने बचपन से ही 'क्यों' पूछना नहीं छोड़ा था, अब पूरे गाँव का आदर्श बन गया था।
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“ज्ञान का उजाला या पाखंड का अंधेरा?”गाँव रामपुर में एक बाबा "ज्ञानदास" का बहुत नाम था। लोग कहते थे कि वो भगवान से सीधे ब...
06/08/2025

“ज्ञान का उजाला या पाखंड का अंधेरा?”

गाँव रामपुर में एक बाबा "ज्ञानदास" का बहुत नाम था। लोग कहते थे कि वो भगवान से सीधे बात करते हैं। कोई बीमार होता, तो बाबा राख फूँककर ठीक कर देते। किसी का व्यापार नहीं चलता, तो बाबा "सिंदूर का ताबीज़" देते।

लोग अपनी मेहनत की कमाई लाकर बाबा के चरणों में डालते — कोई सोना चढ़ाता, कोई गाय, और कोई अपनी जमीन तक दान कर देता।

लेकिन एक दिन गाँव में बाहर से एक युवक आया — नाम था अर्जुन। वो पढ़ा-लिखा था, शहर में नौकरी करता था। माँ की तबीयत खराब होने पर वो गाँव लौटा था।

अर्जुन माँ को लेकर सरकारी अस्पताल गया और सही इलाज करवाया। माँ ठीक हो गईं।

जब गाँव वालों ने पूछा, "बाबा की राख क्यों नहीं ली?"

अर्जुन बोला,
"अगर राख से बीमारी ठीक होती, तो अस्पताल क्यों बनते?"

गाँव वाले पहले चौंके, फिर धीरे-धीरे सोचने लगे। अर्जुन ने स्कूल में एक सभा बुलाई और बताया कि बाबा के पास कोई चमत्कार नहीं, बस जनता की अंधभक्ति और डर है।

कुछ लोग जागरूक हुए, कुछ नाराज़ हुए। लेकिन एक साल में बाबा का आश्रम खाली हो गया।

बाबा ने गाँव छोड़ दिया, क्योंकि अब कोई मूर्ख भक्त नहीं बचा था जो उसे “ज्ञानी” मानता।

जब तक समाज अंधभक्त रहेगा, पाखंडी बाबा और मौलवी फलते-फूलते रहेंगे। लेकिन जैसे ही शिक्षा और सवाल करने की हिम्मत आ जाती है, पाखंड का अंधेरा मिटने लगता है।

प्रकट नहीं हुए भगवान!"गाँव में हर मंगलवार को भोलू काका मंदिर जाते थे। पूजा में सबसे आगे, सबसे ज़ोर से घंटी बजाने वाले, औ...
05/08/2025

प्रकट नहीं हुए भगवान!"

गाँव में हर मंगलवार को भोलू काका मंदिर जाते थे। पूजा में सबसे आगे, सबसे ज़ोर से घंटी बजाने वाले, और सबसे ज़्यादा नारियल फोड़ने वाले वही थे। कहते थे, “जितना नारियल फोड़ोगे, उतनी जल्दी भगवान प्रकट होंगे।”

एक दिन काका ने मंदिर के पुजारी से कहा, “पंडित जी! अब तक मैं 111 नारियल फोड़ चुका हूँ। भगवान अब तक प्रकट क्यों नहीं हुए?”

पंडित जी मुस्कराए और बोले, “काका, भगवान नारियल से नहीं, नीयत से प्रकट होते हैं।”

पर भोलू काका नहीं माने। अगले दिन तो उन्होंने अपनी भक्ति सिद्ध करने के लिए मंदिर के सामने सिर भी फोड़ लिया! गाँव वाले भागे-भागे आए, पट्टी बांधी, और समझाया।

तभी गाँव का छोटा सा बच्चा पप्पू बोला, “काका! नारियल और माथा फोड़ने से अगर भगवान प्रकट होते, तो अब तक हर गली में भगवान घूमते मिलते!”

गाँव में ठहाके लग गए। काका को भी अपनी गलती समझ आई।

उस दिन के बाद भोलू काका ने नारियल की जगह, जरूरतमंद को खाना खिलाना शुरू किया, और मंदिर की सफाई करने लगे। और तभी से गाँव वाले कहते, “अब काका में ही भगवान बस गए हैं।”

ईश्वर किसी चीज को फोड़ने से नहीं, किसी का दुख बाँटने से प्रकट होते हैं। #भक्तिVsबुद्धि
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गाँव करमपुर में हर साल बड़े धूमधाम से एक धार्मिक मेले का आयोजन होता था। गाँव के सबसे बड़े ज़मींदार, भोलानाथ, हर बार मंदि...
03/08/2025

गाँव करमपुर में हर साल बड़े धूमधाम से एक धार्मिक मेले का आयोजन होता था। गाँव के सबसे बड़े ज़मींदार, भोलानाथ, हर बार मंदिर में बड़ी रकम का दान करते थे — सोने की घंटियाँ, चांदी के छत्र, और हजारों रुपयों की थाली भरकर पुजारी को देते थे। गाँव के लोग उन्हें भगवान के समान मानते थे।

लेकिन उसी गाँव में हर दिन एक बुजुर्ग महिला, गीता देवी, अपनी बीमार पोती को गोदी में लेकर मंदिर के सामने भीख मांगती थी। उसका पति चल बसा था, बेटा शहर जाकर लौट कर नहीं आया। गीता देवी की हालत देखकर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। ज़मींदार भोलानाथ भी मंदिर जाते वक्त कभी उसकी ओर आँख उठाकर नहीं देखते थे।

एक दिन गाँव में एक नया शिक्षक आया — नाम था आनंद। पढ़ा-लिखा, व्यवहार में सरल और सोच में क्रांतिकारी। उसने देखा कि मंदिर की दीवारें चांदी से चमक रही थीं, लेकिन मंदिर के बाहर इंसान भूखे मर रहे थे।

आनंद ने स्कूल में बच्चों को एक पाठ पढ़ाया — "दान किसे और कैसे देना चाहिए?" उसने वही बात दोहराई जो इस तस्वीर में लिखी है:

"धर्मस्थलों में दान देने से पहले अपने कमजोर रिश्तेदार तथा समाज को सहारा दो।"

धीरे-धीरे गाँव वालों की सोच बदलने लगी। कुछ लोग गीता देवी के लिए राशन लाने लगे, कुछ ने उसकी पोती का इलाज करवाया। मंदिर का पुजारी भी यह देखकर भावुक हो गया और अगले प्रवचन में बोला:

"भगवान मूर्ति में नहीं, उस भूखे में है जो बाहर बैठा है। अगर भक्ति करनी है तो सबसे पहले उस इंसान की सेवा करो जो ज़रूरतमंद है।"

भोलानाथ को पहली बार आत्मग्लानि हुई। अगले दिन उन्होंने मंदिर को देने के लिए रखे दान का आधा हिस्सा गाँव के ज़रूरतमंदों में बाँट दिया — किसी के घर इलाज पहुंचा, किसी के बच्चों की स्कूल फीस भरी गई, और गीता देवी को एक छोटा सा घर और सम्मान भरा जीवन मिल गया।

गाँव के लोग कहते हैं, उस दिन करमपुर में भगवान सच में प्रकट हुए — लेकिन मंदिर में नहीं, इंसानियत के उस रूप में जो अब हर गली में नजर आने लगी।

"मूर्ति नहीं, ममता में ईश्वर है। दान वहाँ करो जहाँ इंसानियत भूखी है।"
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रामू एक छोटे से गांव में रहने वाला 22 साल का युवा था। गाँव के ज़्यादातर लड़कों की तरह वो भी 10वीं के बाद स्कूल छोड़ चुका...
01/08/2025

रामू एक छोटे से गांव में रहने वाला 22 साल का युवा था। गाँव के ज़्यादातर लड़कों की तरह वो भी 10वीं के बाद स्कूल छोड़ चुका था। उसके दिन मंदिर में सेवा, गाँव में धार्मिक जुलूस, और काँवड़ यात्रा में ही बीतते थे। पढ़ाई उसे 'पंडितों का काम' लगती थी। जब कोई कहता – "कुछ पढ़-लिख लो", तो उसका जवाब होता –
"भोले बाबा की सेवा कर रहा हूँ, इससे बड़ा धर्म और क्या?"

हर साल सावन में वह बड़े गर्व से काँवड़ उठाता, घंटों पैदल चलता, रास्ते में नारे लगाता – "हर हर महादेव!"

पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, उसके चेहरे पर सवाल भी गहराने लगे।

भोलू, उसका ही दोस्त, जो उसी के साथ पढ़ता था, अब शहर में बैंक में क्लर्क था। महीने की पक्की तनख्वाह, एसी ऑफिस, और सम्मानित जीवन।

एक दिन रामू ने उससे पूछा –
"भाई, तू तो बाबा को छोड़कर पढ़ने चला गया, फिर भी इतना आगे निकल गया?"

भोलू मुस्कराया और बोला –
"रामू, भगवान ने हमें दिमाग दिया है, सोचने के लिए। उनकी असली पूजा है—अपने परिवार को गरीबी से बाहर निकालना, समाज में बदलाव लाना, और खुद को शिक्षित बनाना।"

रामू की आँखें डबडबा गईं। उसे याद आया—उसकी माँ खेतों में मजदूरी करती है, बहन की शादी रुक गई है, और खुद उसके पास नौकरी तो क्या, कोई हुनर भी नहीं।

उसी साल उसने काँवड़ नहीं उठाई।

उसने गाँव के लाइब्रेरी में दाखिला लिया। हाथ में किताब थी, सिर पर टोपी नहीं, और मन में संकल्प था—अब काँवड़ नहीं, कलम उठानी है।

आस्था अच्छी है, पर अंधभक्ति नहीं।
धर्म ज़रूरी है, पर शिक्षा सबसे पहली जिम्मेदारी।
#शिक्षा_सबसे_पहले
#कांवड़_नहीं_कलम
#अंधभक्ति_से_आजादी
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#सच्ची_भक्ति_शिक्षा_है
#हरहरमहादेव_पर_हो_संवेदना
#भक्तिनहीं_भविष्यचाहिए
#पढ़ोगे_तो_बढ़ोगे
#सोच_बदलो_देश_बदलेगा
#धर्म_में_शांति_हो_पाखंड_नहीं

सच का बोझ"एक छोटे से गांव भीखापुर में एक पढ़ा-लिखा नौजवान रहता था — नाम था विजय। वह गांव का पहला लड़का था जिसने शहर जाकर...
31/07/2025

सच का बोझ"

एक छोटे से गांव भीखापुर में एक पढ़ा-लिखा नौजवान रहता था — नाम था विजय। वह गांव का पहला लड़का था जिसने शहर जाकर पत्रकारिता की पढ़ाई की थी। गांव लौटते ही उसने एक छोटा सा समाचार-पत्र निकाला — “जनवाणी”।

शुरुआत में लोग उत्साहित थे। गांव की छोटी-बड़ी बातें उसमें छपतीं। लेकिन एक दिन विजय ने गांव के प्रधान के भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ कर दिया। उसने दस्तावेजों सहित सबूत के साथ लिखा कि कैसे प्रधान ने गरीबों के लिए आने वाला राशन बेच दिया था।

इसके बाद गांव में तूफान आ गया। विजय को धमकियां मिलने लगीं। दोस्त दूर होने लगे। मां ने भी डरकर कहा, “बेटा, ये सब छोड़ दो... अपनी नौकरी बचाओ।”

विजय कुछ समय चुप रहा। डर और घबराहट से उसकी रातें बेचैन रहने लगीं। एक दिन उसने अपने कमरे की दीवार पर डॉ. अंबेडकर का वही पोस्टर देखा —
"जब सच लिखने और बोलने में घबराहट महसूस हो, तो समझ लेना गुलामी की तरफ कदम बढ़ा रहे हो!"

ये शब्द उसके भीतर आग की तरह उतर गए।
विजय ने तय कर लिया — “अगर डर के आगे चुप रहूंगा, तो मैं भी उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाऊंगा जो अन्याय को पालती है।”

अगले दिन जनवाणी में उसने और भी सच्चाइयां उजागर कीं। अब गांव के गरीब, दलित, किसान उसके साथ खड़े होने लगे। धीरे-धीरे विजय का साहस गांव में बदलाव लाने लगा। प्रधान को हटाया गया और ईमानदार लोगों की नई पंचायत बनी।

सच बोलना आसान नहीं होता, लेकिन वही पहला कदम होता है आज़ादी की ओर। जो डर के कारण चुप हो जाते हैं, वे अनजाने में गुलामी को स्वीकार कर लेते हैं।
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"धर्म की सूई"नन्हा आरव अभी इस दुनिया में आया ही था। वह मुस्कुरा नहीं रहा था, लेकिन रो भी नहीं रहा था। वह शांत था—एकदम शू...
29/07/2025

"धर्म की सूई"

नन्हा आरव अभी इस दुनिया में आया ही था। वह मुस्कुरा नहीं रहा था, लेकिन रो भी नहीं रहा था। वह शांत था—एकदम शून्य, एकदम खाली, जैसे कोई रंग न हो, कोई भाषा न हो, कोई पहचान न हो।

लेकिन दुनिया को यह सन्नाटा मंज़ूर नहीं था।

आरव को गोद में लेते ही एक के बाद एक लोग आए। किसी के हाथ में त्रिशूल था, किसी के हाथ में क्रॉस, कोई चांद-सितारे लिए था, तो कोई सितारे की छह भुजाओं वाला चिन्ह।

"ये हमारा है!" — सब चिल्ला उठे।

कोई उसके कान में मंत्र फूंकने लगा, कोई उसका नाम रखने को लड़ने लगा, कोई उसे अपना झंडा थमाने को आतुर था।

फिर एक-एक कर उन्होंने सुई निकाली।
हर सुई में "धर्म" का इंजेक्शन था—परंपरा, रीति-रिवाज़, घृणा, डर, और स्वामित्व की भावना से भरा।

आरव ने ज़ोर से रोना शुरू किया।

वो नहीं जानता था कि क्रॉस क्या होता है, चाँद-सितारा किसे कहते हैं, या त्रिशूल की धार किसके लिए है।
लेकिन उसकी रूह ने महसूस कर लिया था—यह सब उसके लिए नहीं है, यह सब दुनिया की लड़ाई है जो अब उसकी नसों में घोली जा रही है।

वह बस एक बच्चा था—न धर्म का, न जाति का, न किसी मज़हब का।
लेकिन इंसानियत ने उसे खो दिया

"कोई भी बच्चा किसी धर्म के साथ पैदा नहीं होता, हम ही हैं जो उन्हें बांटते हैं। धर्म यदि प्रेम सिखाता है, तो वह बोझ क्यों बन जाए?"
इंसानियत_बड़ा_धर्म
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िना_धर्म
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#सोच_बदलें_समाज_बदलेगा

गाँव नवगांवपुर में हर साल एक बड़ा धार्मिक मेला लगता था। गाँव के सारे लोग महीनों पहले से चंदा इकट्ठा करना शुरू कर देते — ...
28/07/2025

गाँव नवगांवपुर में हर साल एक बड़ा धार्मिक मेला लगता था। गाँव के सारे लोग महीनों पहले से चंदा इकट्ठा करना शुरू कर देते — मंदिर की सजावट, मूर्ति विसर्जन, भंडारा, डीजे, आतिशबाज़ी... सब पर लाखों खर्च होते।

लेकिन उसी गाँव की सरकारी स्कूल की छत टपकती थी। बरसात में बच्चे कोनों में सिकुड़कर बैठते। स्वास्थ्य केंद्र में न तो डॉक्टर आता था, न दवाइयाँ मिलती थीं। बेरोजगार युवक सुबह चौपाल पर ताश खेलते और शाम को शराब में डूब जाते।

एक दिन गाँव में एक बूढ़ा व्यक्ति आया — नाम था श्रीधरन, एक रिटायर्ड शिक्षक। वह पेरियार के विचारों का अनुयायी था। उसने गाँव वालों से पूछा,
“बोलिए, आपके बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं?”
लोग बोले, “सरकारी स्कूल में, पर वहाँ कुछ नहीं होता।”
फिर उसने पूछा, “जब बीमार पड़ते हो तो कहाँ जाते हो?”
“शहर! गाँव के अस्पताल में तो सिर्फ ताला ही मिलता है।”
“और रोजगार?”
“कोई योजना नहीं, कुछ काम नहीं।”

श्रीधरन मुस्कराया और बोला,
“तो क्या भगवान आपसे ये सब नहीं पूछेगा कि अपने बच्चों की किताबों के लिए पैसा था या नहीं, लेकिन मूर्तियों की साज-सज्जा में लाख क्यों बहाए?”

गाँव में खामोशी छा गई।

धीरे-धीरे लोगों में बदलाव आया। अगले साल मेले का बजट आधा कर दिया गया। उस पैसे से स्कूल में नई छत डाली गई, किताबें बांटी गईं और एक कंप्यूटर लाया गया। एक स्वास्थ्य शिविर लगवाया गया।

और फिर... गाँव का माहौल बदलने लगा।

अगर हम धर्म को प्राथमिकता देकर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को पीछे कर दें, तो हम अपने ही भविष्य की नींव खोद रहे होते हैं। पेरियार का विचार हमें यही सिखाता है कि असली पूजा — इंसानियत और तरक्की की होनी चाहिए
#धर्म_से_पहले_विकास
#पेरियार_की_आवाज़
#सोच_बदलो_देश_बदलेगा
#बदलाव_की_कहानी

प्रश्न करने वाला संन्यासी"ओशो रजनीश का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में हुआ। उनका असली नाम था रजन...
28/07/2025

प्रश्न करने वाला संन्यासी"

ओशो रजनीश का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के कुचवाड़ा गांव में हुआ। उनका असली नाम था रजनीश चंद्र मोहन जैन। बचपन से ही वे बहुत जिज्ञासु, तार्किक और स्वतंत्र सोच रखने वाले थे। वे किसी भी चीज को आँख मूंदकर नहीं मानते थे – चाहे वह धर्म हो, ईश्वर हो या परंपरा।

छोटे से गांव में पले-बढ़े ओशो का मन दुनियावी चीजों में नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ प्रश्नों में लगता था –
"ईश्वर क्या है?"
"जीवन का उद्देश्य क्या है?"
"मृत्यु के बाद क्या होता है?"

वे पढ़ाई में तेज थे और दर्शनशास्त्र में एम.ए. करने के बाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने। लेकिन उनका असली मार्ग भाषणों और प्रवचनों का था, जहाँ वे लोगों को जीवन के नए अर्थ समझाते थे।

🌺 धर्म का नया दृष्टिकोण

ओशो ने परंपरागत धर्मों की आलोचना की, क्योंकि उन्हें लगा कि ये संस्थाएं लोगों को मृत्यु के बाद स्वर्ग का सपना दिखाकर जीवन में दुःख सहने को कहती हैं।
उन्होंने कहा –

"मरने के बाद सुख दिलवाने का ठेका सभी धर्मों के पास है, भले ही आप ज़िंदा रहते हुए दुःख से मर जाएं।"

उनके प्रवचनों में ध्यान (मेडिटेशन), प्रेम, स्वतंत्रता और आत्म-अनुभूति पर ज़ोर दिया गया। उन्होंने "डायनामिक मेडिटेशन" जैसी ध्यान विधियां विकसित कीं, जो आज भी पूरी दुनिया में लोकप्रिय हैं।

🌍 विश्वभर में प्रसिद्धि और विवाद

ओशो का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल चुका था। अमेरिका में उन्होंने एक विशाल commune बसाई (राजनीशपुरम), लेकिन वहां कई विवादों के चलते उन्हें अमेरिका छोड़ना पड़ा। इसके बाद वे भारत लौटे और पुणे में "ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिज़ॉर्ट" की स्थापना की।

✨ मृत्यु और विरासत

ओशो का देहांत 19 जनवरी 1990 को हुआ। लेकिन उनके विचार, किताबें और वीडियो आज भी लाखों लोगों को प्रेरणा देते हैं। वे मानते थे कि:

"सत्य को खोजो, डर को छोड़ो और स्वयं को जानो – यही सच्चा धर्म है।"

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दिमाग़ का पिंजराएक गांव था — पिछड़ेपन और रूढ़ियों से जकड़ा हुआ। वहां के लोग सदियों से उसी व्यवस्था में जी रहे थे, जहां ज...
27/07/2025

दिमाग़ का पिंजरा

एक गांव था — पिछड़ेपन और रूढ़ियों से जकड़ा हुआ। वहां के लोग सदियों से उसी व्यवस्था में जी रहे थे, जहां जाति, गरीबी और अज्ञानता उनका भाग्य मानी जाती थी।

गांव के बाहर एक लड़का रहता था — नाम था आदित्य। वह किताबों का दीवाना था। एक दिन उसे डॉ. भीमराव अंबेडकर की जीवनी पढ़ने को मिली। उसमें लिखा था:
"मैंने परिंदों को पिंजरे से निकाला है, अब परिंदों के दिमाग से पिंजरा निकालना बाकी है..."

यह पंक्तियां आदित्य के मन में घर कर गईं। उसने सोचा, "हम सबने आज़ादी तो पा ली, संविधान भी मिल गया... लेकिन क्या हम सच में आज़ाद हैं? क्या हमारे विचार आज़ाद हैं?"

गांव के लोग आज भी छोटी जाति, ऊँच-नीच, छुआछूत, और डर के बंधनों में जी रहे थे। आदित्य ने संकल्प लिया — अब वह न सिर्फ़ खुद पढ़ेगा, बल्कि पूरे गांव को शिक्षित करेगा।

वह बच्चों को पढ़ाने लगा, स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाना सिखाया, युवाओं को संविधान और उनके अधिकारों की जानकारी दी। पहले लोग हँसते थे, ताने देते थे —
"पढ़ाई से क्या होगा?"
"किताबें पेट नहीं भरतीं!"

लेकिन धीरे-धीरे बदलाव दिखने लगा।
लड़कियाँ स्कूल जाने लगीं।
दलित बच्चे मंचों पर भाषण देने लगे।
लोगों ने जात-पात छोड़कर इंसानियत को अपनाना शुरू किया।

एक दिन गांव के बुजुर्ग ने आदित्य से कहा,
"बेटा, तूने हमारे दिमाग से डर का पिंजरा निकाल दिया। अब हमें अपने पंख फैलाने से डर नहीं लगता।"

डॉ. अंबेडकर ने जो संघर्ष किया, वह केवल संविधान तक सीमित नहीं था। असली लड़ाई मानसिकता की होती है।
पिंजरे से निकलना आसान है,
पर उस पिंजरे की आदत छोड़ना... सबसे कठिन।

तो आइए — हम सब अपने दिमाग से भी पिंजरा निकालें।
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“गंगा स्नान”गांव के पास ही एक पवित्र गंगा नदी बहती थी। वहां हर साल मेला लगता और दूर-दूर से लोग गंगा स्नान करने आते। माना...
26/07/2025

“गंगा स्नान”

गांव के पास ही एक पवित्र गंगा नदी बहती थी। वहां हर साल मेला लगता और दूर-दूर से लोग गंगा स्नान करने आते। माना जाता था कि गंगा स्नान से सारे पाप धुल जाते हैं।

गांव में एक व्यक्ति था — नाम था हरिराम। बाहर से वह बहुत धार्मिक दिखता था, माथे पर तिलक, गले में रुद्राक्ष, हाथ में माला। रोज मंदिर जाता, ऊँची आवाज़ में भजन गाता और लोगों को धर्म की बातें सिखाता। लेकिन अंदर से... वो अलग ही था।

वो दूसरों का हक़ मारता, ज़मीन हड़पता, झूठ बोलता और गरीबों का शोषण करता। फिर हर महीने गंगा नहाने चला जाता और लौटकर कहता — “अब तो पाप धुल गए!”

एक दिन गांव में एक साधु आया। वो बहुत शांत था लेकिन उसकी बातों में गहराई थी। हरिराम ने उससे पूछा — “महाराज, मैं तो गंगा स्नान करता हूँ, फिर भी मन अशांत क्यों रहता है?”

साधु मुस्कुराया और बोला —
“तुमने पाप किए और फिर गंगा में धो डाले, लेकिन क्या गंगा धोखा नहीं समझती?
किसे बेवकूफ बना रहे हो — खुद को? गंगा को? दुनिया को?
कर्मों का फल सीधा होता है,
छल का फल भी छल ही होता है —
आज नहीं तो कल, मिलेगा ही मिलेगा।”

हरिराम की आंखों में जैसे बिजली कौंध गई। पहली बार उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने गंगा नहीं, खुद को धोखा दिया था।

उस दिन से हरिराम ने अपना जीवन बदल दिया। अब वो मंदिर जाता, लेकिन साथ ही गरीबों की सेवा भी करता, सच्चाई से जीने लगा।

गांव वालों ने बदलाव देखा, और उसे अब “सच्चा भक्त” कहने लगे।
केवल बाहरी पूजा-पाठ से नहीं, बल्कि अपने कर्मों की सच्चाई से ही मन और आत्मा पवित्र होती है। छल से नहीं, सच्चाई से जीवन बदलता है।
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गाँव में एक लड़का था दीपक। वह पढ़ाई में तेज़ और सोचने में समझदार था। लेकिन उसके घरवाले बहुत अंधविश्वासी थे।एक दिन दीपक क...
25/07/2025

गाँव में एक लड़का था दीपक। वह पढ़ाई में तेज़ और सोचने में समझदार था। लेकिन उसके घरवाले बहुत अंधविश्वासी थे।

एक दिन दीपक की माँ ने कहा, "बेटा, आज नीम के पेड़ के नीचे मत जाना। वहाँ भूत रहता है। जो भी जाता है, बीमार हो जाता है।"

दीपक को शक हुआ। उसने विज्ञान की किताबों में पढ़ा था कि नीम तो रोगों से लड़ने वाला पेड़ है।

अगले दिन वह नीम के नीचे बैठकर पढ़ने लगा। दो घंटे बीते, न तो कोई भूत आया और न ही वह बीमार हुआ।

उसने गाँव के बच्चों को भी समझाया, "भूत नहीं होता! डर हमारी सोच में होता है। नीम तो हमें बचाता है।"

धीरे-धीरे गाँव वालों की सोच बदली। लोग अब नीम के नीचे बैठते, उसकी पत्तियाँ दवा में इस्तेमाल करते और अंधविश्वास से दूर हो गए।

डर को ज्ञान से हराओ,
अंधविश्वास को विज्ञान से मिटाओ।
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