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धीमी, और भावनाओं के रस से भरी बेहतरीन कहानियाँ... 🎧 बंद आँखों से महसूस कीजिए, और बहने दीजिये अपने आपको अतीत में 💤 | Hindi Romantic, Motivational, Emotional Stories

वो 15 दिन जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी...क्या आपने कभी सोचा है कि सिर्फ पंद्रह दिन की कोई बातचीत आपकी पूरी ज़िंदगी बदल सकती...
13/09/2025

वो 15 दिन जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी...

क्या आपने कभी सोचा है कि सिर्फ पंद्रह दिन की कोई बातचीत आपकी पूरी ज़िंदगी बदल सकती है? मैं भी नहीं सोच सकती थी कि इतने कम दिनों में कोई इंसान मेरी सोच, मेरे फैसलों और मेरे आत्मविश्वास को इतना बदल देगा कि मैं खुद को पहले से कहीं ज्यादा मजबूत और समझदार महसूस करूँ।

मेरा नाम नीहा है। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में मेरी परवरिश हुई। बचपन से ही मुझे यह सिखाया गया था कि लड़के गंदे होते हैं और उनसे केवल काम भर की बातें करनी चाहिए। यह बात मेरे दिमाग में इतनी गहराई से बसी हुई थी कि जब कोई लड़का मुझसे हँसकर कुछ कहता, तो मेरे दिल में डर और झिझक पैदा हो जाती।

इस साल मैंने अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। मेरे पापा, भाई और मां मेरी शादी के लिए रिश्ते देख रहे थे। छोटे शहर में ग्रेजुएशन खत्म होते ही शादी की बात चलना आम बात थी। परिवार के सभी सदस्य मेरी भलाई चाहते थे, लेकिन मैं हमेशा से यह महसूस करती थी कि किसी भी रिश्ते में जाने से पहले मेरी अपनी समझ और सोच बहुत जरूरी है।

एक दिन, मेरे भाई ने फेसबुक पर आदित्य नाम के एक लड़के की प्रोफ़ाइल देखी। आदित्य दिखने में सुंदर, पढ़े-लिखे और बहुत ही शांत स्वभाव वाले थे। उनके परिवार ने दहेज की कोई मांग नहीं की थी, जो हमारे लिए बहुत बड़ी राहत थी। मेरे भाई को यह रिश्ता बहुत पसंद आया और उन्होंने घर में शादी की बात शुरू कर दी। आदित्य ने कहा कि वे शादी से पहले मुझसे कुछ बातें करना चाहते हैं। मेरे भाई ने मुझे बताया और मैं थोड़ी हिचकिचाहट के साथ हामी भर दी।

आदित्य ने मुझे फोन किया। पहली बार किसी लड़के से इतनी खुली बातचीत करना मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था। मुझे नहीं पता था कि कैसे जवाब दूँ, क्योंकि मेरे दिमाग में यह हमेशा बसा था कि लड़के गंदे होते हैं। पर जैसे-जैसे हमने बातचीत शुरू की, मैं महसूस करने लगी कि आदित्य अलग हैं। उनके शब्दों में गंभीरता, समझ और अनुभव था। वह सात साल बड़े थे, और जीवन के हर पहलू को जानने और समझने का उनका तरीका मेरे लिए नए दृष्टिकोण खोल रहा था।

कुछ समय बाद मेरे परिवार वाले आदित्य के घर उनसे और उनके परिवार से मिलने गए। उन्होंने आदित्य और उनके परिवार को देखकर बहुत प्रभावित हुए। आदित्य का घर साफ-सुथरा, और उनका परिवार बहुत मिलनसार था। पापा ने मुस्कुराते हुए कहा कि लड़का अपने नाम के हिसाब से भी सुंदर और समझदार है।

लेकिन उसके बाद जो हुआ, उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। आदित्य के घर से फोन आया कि वे हमारे घर आने में थोड़ा समय लेंगे, और अगर हम ठीक समझे, तो हम अन्य लड़कों को भी देख सकते हैं। मेरे भाई और पापा को यह सुनकर थोड़ा झटका लगा। मुझे समझ में आया कि शायद मुझे इस बातचीत को लेकर कुछ गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

मैंने आदित्य को फोन किया और सीधे पूछा कि क्या हुआ। आदित्य ने धीरे-धीरे समझाया कि मुझे पहले खुद को और समाज को समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि अगर मैं पढ़ाई और समाज की गहरी समझ हासिल कर लूँ, तो मैं अपने लिए भी बेहतर भविष्य चुन सकती हूँ।

उस दिन की उनकी बातें मेरे दिमाग में गूंजती रहीं। मैं अपने दोस्तों से बात करने लगी, जिन्होंने पहले से शादी की थी और समाज में अपने फैसले लेकर खुश थे। धीरे-धीरे मुझे यह समझ में आया कि आदित्य की सलाह सच थी।

मैंने एमसीए में दाखिला लिया और कॉलेज जाने लगी। वहां मुझे समाज के विभिन्न पहलुओं को समझने का अवसर मिला। मैंने सीखा कि सिर्फ पढ़ाई ही नहीं, बल्कि लोगों की सोच, परिस्थितियों और जीवन के व्यावहारिक पहलुओं को समझना भी ज़रूरी है।

तीन साल बाद मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और एक अच्छी कंपनी में नौकरी पाई। उन तीन सालों में, आदित्य की वह पंद्रह दिन की बातचीत हमेशा मेरे साथ रही। उन्होंने मुझे केवल एक रिश्ता नहीं दिया, बल्कि मुझे एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और समझदार लड़की बनाया।

आज भी, शादी के लिए कई रिश्ते आते हैं, लेकिन आदित्य से हुई वह छोटी-सी बातचीत मेरे दिल और दिमाग में हमेशा ताज़ा रहती है। अगर आज मैं उन्हें देख पाऊँ, तो मैं उन्हें गले लगाकर धन्यवाद कहती। कभी-कभी मुझे लगता है कि भगवान ने आदित्य को मेरी ज़िंदगी में एक मकसद के लिए भेजा था, और वह मकसद पूरा होते ही वे मेरी ज़िंदगी से चले गए।

इस कहानी को मैंने इस पेज पर शेयर किया है ताकि आप जान सकें कि कभी-कभी छोटी-सी सीख, छोटे-से अनुभव और पंद्रह दिन की बातचीत भी आपकी पूरी ज़िंदगी बदल सकती है।

आगरा की पुरानी गलियाँ हमेशा से अपने भीतर अजीब-सा जादू समेटे रही हैं। लाल ईंटों की बनी सँकरी दीवारें, उन पर चढ़ी बेलों की...
12/09/2025

आगरा की पुरानी गलियाँ हमेशा से अपने भीतर अजीब-सा जादू समेटे रही हैं। लाल ईंटों की बनी सँकरी दीवारें, उन पर चढ़ी बेलों की हरियाली, और बीच-बीच में खुलते छोटे-छोटे दरवाज़े जैसे किसी अनकही दास्तान का हिस्सा हों। इन गलियों में चलते हुए ऐसा लगता था जैसे वक्त थम-सा गया है। गर्मियों की दुपहरी में जब लोग अपने घरों के भीतर दुबके रहते थे, तब भी इन गलियों से छनकर आती सरगम सी आवाज़ें, कहीं से आती पकोड़ों की महक और बच्चों की खिलखिलाहटें, इन जगहों को ज़िंदा रखती थीं।

इन्हीं गलियों में पला-बढ़ा था रवि। एक साधारण-सा लड़का, जिसकी आँखों में बड़े सपने थे। उसकी दुनिया बहुत बड़ी नहीं थी, लेकिन उसका दिल बड़ा था। वह घंटों छत पर बैठकर सामने वाली गली की खिड़की को निहारा करता था। उस खिड़की के पीछे रहती थी नेहा। नेहा, जो मोहल्ले की सबसे चंचल, मासूम और हँसती-बोलती लड़की थी।

रवि को याद है जब उसने पहली बार नेहा को देखा था। वह बारिश का दिन था। गली में पानी भर गया था और बच्चे कागज़ की नावें बहा रहे थे। नेहा भी अपनी गुलाबी फ्रॉक में बाहर आई थी। उसके हाथों में एक छोटी-सी नाव थी, जिसे उसने खुद बनाया था। जब उसकी नाव रवि की नाव से टकराई तो नेहा खिलखिला उठी। उसी हँसी ने रवि के दिल में एक ऐसी जगह बना ली, जो कभी भर नहीं सकी।

वक्त गुज़रता गया। दोनों बड़े होते गए। गली की शरारतें अब किताबों और स्कूल की बातें बन गईं। रवि, जो हमेशा पढ़ाई में अच्छा था, नेहा की कॉपियों में छुपकर उसके सवाल हल कर देता। नेहा जब भी कोई नई किताब लाती, तो सबसे पहले रवि को दिखाती। यह सब मासूमियत में होता, पर दिल के किसी कोने में दोनों को एहसास था कि उनके बीच कुछ अलग-सा है।

आगरा की गलियों की शामें सबसे खूबसूरत होती थीं। जब सूरज ढलता और ताजमहल की तरफ से आती ठंडी हवा इन गलियों को छूती, तब मोहल्ले की लड़कियाँ छत पर बैठकर गपशप करतीं और लड़के गली के नुक्कड़ पर क्रिकेट खेलते। रवि का खेलना कम हो गया था। उसका मन बस उस खिड़की की तरफ खिंचता, जहाँ से नेहा अपनी चोटी सँवारते हुए कभी झाँकती और कभी चुपके से मुस्कुरा देती।

लेकिन मोहब्बत का रास्ता इतना आसान कहाँ होता है। रवि के घर की हालत बहुत साधारण थी। उसके पिता जूते-चप्पल बनाने का काम करते थे, जबकि नेहा का परिवार थोड़ा संपन्न था। उसके पिता सर्राफे की दुकान पर मालिक थे। समाज की इन दीवारों के पार कोई सोच भी नहीं सकता था कि रवि और नेहा का रिश्ता कभी नाम पा सकेगा।

एक बार की बात है। दीपावली के दिन पूरी गली दीयों से जगमगा रही थी। नेहा अपनी माँ के साथ दीये सजाने छत पर आई। रवि भी अपनी छत पर था। उसने हिम्मत करके एक छोटा-सा कागज़ का टुकड़ा लिया और उस पर लिखा – “क्या तुम मुझसे दोस्ती करोगी, हमेशा की?” उसने वह कागज़ छोटी-सी गुलेल से नेहा की छत पर फेंक दिया। नेहा ने कागज़ उठाया, पढ़ा और बस एक हल्की-सी मुस्कान दी। उसके बाद उसने पास रखे दीये की लौ से उस कागज़ को जला दिया। लेकिन रवि की आँखों ने देखा कि उस कागज़ को जलाने से पहले नेहा की आँखें भी चमक उठी थीं।

यह मासूम पहला प्यार था। वह न तो नाम चाहता था और न कोई बड़ी कसमें। बस एक साथ रहने की चाह थी। लेकिन जिंदगी कहाँ सुनती है। सालों बाद नेहा के पिता ने उसका रिश्ता तय कर दिया। बारात आई और नेहा लाल जोड़े में विदा हो गई। गली की वही खिड़की अब हमेशा के लिए बंद हो गई।

रवि उसी गली में रह गया। उसने पढ़ाई पूरी की, नौकरी मिली और फिर धीरे-धीरे जिंदगी की रफ़्तार में बह गया। पर जब भी वह उस खिड़की के सामने से गुजरता, तो उसे वही गुलाबी फ्रॉक वाली हँसी याद आती।

कभी-कभी वह सोचता, क्या नेहा ने भी उसे उतना ही चाहा था जितना उसने नेहा को? क्या उस जलाए हुए कागज़ पर उसका जवाब “हाँ” था, या फिर एक मजबूरी? कोई जवाब नहीं मिला। वक्त ने सबकुछ अपने धुंधले परदों में छुपा लिया।

आगरा की गलियों की वह खिड़की अब पुरानी हो चली है। लकड़ी सड़ने लगी है, पेंट उखड़ गया है। मगर रवि के दिल में वह हमेशा नई रहती है। क्योंकि वहीं से शुरू हुई थी उसकी मोहब्बत की कहानी – मासूम, अधूरी और अनकही।

आज भी जब वह अकेला शाम को उन गलियों से गुजरता है, तो हवा में उसे वही हँसी सुनाई देती है, वही कागज़ की नाव तैरती दिखाई देती है, और वही खिड़की उसके दिल को धड़कने पर मजबूर कर देती है।

कुछ मोहब्बतें अधूरी रहकर ही सबसे खूबसूरत लगती हैं। शायद यही पहला प्यार था – मासूम, सच्चा और हमेशा याद रहने वाला।

भोपाल जंक्शन की शाम हमेशा थोड़ी भीगी-भीगी सी लगती है। स्टेशन पर आती-जाती गाड़ियों की सीटी, चाय वालों की पुकार और प्लेटफ़...
12/09/2025

भोपाल जंक्शन की शाम हमेशा थोड़ी भीगी-भीगी सी लगती है। स्टेशन पर आती-जाती गाड़ियों की सीटी, चाय वालों की पुकार और प्लेटफ़ॉर्म पर बेचैनी से टहलते लोगों के बीच भी एक अजीब सन्नाटा बसा रहता है। उस दिन भी हल्की ठंडक थी, हवा में मूंगफली सेंकने की महक घुली हुई थी और लोग अपने-अपने सफ़र की ओर भाग रहे थे।

आरव उसी भीड़ में चुपचाप खड़ा था। उसकी नज़र बार-बार प्लेटफ़ॉर्म नंबर चार पर लगी इलेक्ट्रॉनिक घड़ी पर जाती और फिर अपनी जेब में रखे छोटे से लिफ़ाफ़े पर। वह लिफ़ाफ़ा कई दिनों से उसके पास था, पर उसने अभी तक उसे खोला नहीं था। लिफ़ाफ़े के ऊपर बस इतना लिखा था—“भोपाल जंक्शन, ट्रेन नंबर 12185, सेकंड क्लास, खिड़की वाली सीट।”

उसे याद नहीं था कि ये चिट्ठी उसके पास कैसे पहुँची। दो हफ़्ते पहले उसके ऑफिस के पुराने अलमारी में किताबों के बीच यह दबा हुआ मिला था। लिखावट पहचान में नहीं आई, पर चिट्ठी के कागज़ से हल्की-सी चंदन की खुशबू आती थी।

ट्रेन की सीटी बजी और भीड़ की लहर सी उठी। आरव धीरे-धीरे आगे बढ़ा और अपने रिज़र्वेशन वाली बोगी में चढ़ गया। सीट पर बैठकर उसने गहरी साँस ली और खिड़की से बाहर झांकने लगा। धुँधली रोशनी में उसने सामने की सीट पर बैठी एक लड़की को देखा। उसकी उम्र पच्चीस-छब्बीस से ज़्यादा नहीं रही होगी। साधारण सलवार-कुर्ता, कंधे पर दुपट्टा और बाल ढीले से बाँधे हुए। वह खिड़की से बाहर देख रही थी, जैसे किसी का इंतज़ार हो।

ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी। डिब्बे में गपशप, बच्चों की किलकारियाँ और खाने के डिब्बों की गंध भर गई। आरव अब भी उस लड़की को देख रहा था। तभी उसने अचानक मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और पूछा, “आपको भी भोपाल उतरना है?”

आरव थोड़ा चौंका। “हाँ… भोपाल ही जाना है।”

लड़की ने सिर हिलाया और कहा, “अच्छा है… कभी-कभी सफ़र अकेले का बोझ बढ़ा देता है।” उसकी आवाज़ में अजीब-सी आत्मीयता थी, जैसे वो पहली बार मिलकर भी उसे बरसों से जानती हो।

कुछ देर तक दोनों चुप रहे। फिर उसने धीरे से पूछा, “आपके हाथ में जो लिफ़ाफ़ा है… क्या वो मेरे नाम का तो नहीं?”

आरव के सीने में जैसे किसी ने धड़कनें तेज़ कर दीं। उसने धीरे-धीरे लिफ़ाफ़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। लड़की ने उसे थामा, चुपचाप खोलकर पढ़ने लगी। उसकी आँखें चमक रही थीं, होंठ काँप रहे थे।

आरव बेचैन हो उठा। “ये चिट्ठी आखिर है क्या?”

लड़की ने आँखें उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी नज़रें गहरी थीं। “ये चिट्ठी मैंने ही लिखी थी… लेकिन जिस इंसान के लिए लिखी थी, वो कभी इसे पढ़ नहीं पाया।”

आरव की भौंहें सिकुड़ गईं। “मतलब?”

उसने गहरी साँस ली और खिड़की से बाहर देखने लगी। “पाँच साल पहले, मैं इसी ट्रेन में सफ़र कर रही थी। इसी खिड़की वाली सीट पर। मेरे साथ एक लड़का बैठा था… बेहद संजीदा, किताबों में खोया हुआ। मैंने उससे बात करने की बहुत कोशिश की, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाई। सफ़र खत्म हो गया और वो भीड़ में खो गया। तब मैंने ठान लिया था, अगर किस्मत ने दोबारा मिलाया तो मैं उसे ये चिट्ठी दूँगी। लेकिन किस्मत ने कभी नहीं मिलाया। बस ये चिट्ठी मैंने किताबों में छुपा दी थी।”

आरव की धड़कनें तेज़ हो गईं। उसे याद आने लगा… सचमुच पाँच साल पहले, इसी ट्रेन में उसने एक लड़की को देखा था। वही सलवार-कुर्ता, वही ढीले बंधे बाल। उसने सोचा भी नहीं था कि वो मुलाक़ात इतने साल बाद इस तरह सामने आ जाएगी।

“तो आप…” आरव बोल ही रहा था कि लड़की ने उसकी बात काट दी।

“हाँ… मैं वही हूँ। और शायद आप भी वही हैं।”

डिब्बे में हल्की पीली रोशनी फैली हुई थी। बाहर के खेत अंधेरे में डूबते जा रहे थे। लड़की की आँखें नम हो गईं। “आपको पता है, इस चिट्ठी में मैंने क्या लिखा था?”

आरव चुप रहा।

उसने चिट्ठी उसके हाथ में रख दी। “पढ़ लीजिए।”

कागज़ पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं।

“कभी अगर ये चिट्ठी तुम्हारे हाथ लगे, तो समझ लेना कि मैं तुम्हारे साथ दोबारा सफ़र करना चाहती हूँ। शायद ज़िंदगी हमें फिर मिलाए, और अगर मिलाए तो इस बार मैं खामोश नहीं रहूँगी।”

आरव ने पढ़कर चुपचाप उसकी ओर देखा। दोनों के बीच का सन्नाटा जैसे शब्दों से गहरा था।

ट्रेन धीरे-धीरे भोपाल की ओर बढ़ रही थी। स्टेशन से पहले आखिरी सिग्नल पर गाड़ी रुकी। बाहर अंधेरे में कुछ झींगुरों की आवाज़ गूँज रही थी। लड़की ने धीरे से कहा, “पता है, अब मैं किसी और की मंगेतर हूँ। अगले महीने शादी है। लेकिन इस सफ़र को पूरा करना ज़रूरी था। शायद अब मेरे दिल का बोझ हल्का हो जाएगा।”

आरव को जैसे किसी ने भीतर से खाली कर दिया हो। वह कुछ बोल नहीं पाया। बस उसकी आँखों में धुंधली चमक थी।

स्टेशन की भीड़ सामने आने लगी। लड़की ने अपना दुपट्टा ठीक किया, बैग उठाया और खड़ी हो गई। “धन्यवाद… इस सफ़र के लिए। शायद ज़िंदगी ने हमें दोबारा मिलाया, लेकिन सिर्फ़ आखिरी बार।”

ट्रेन रुकते ही वह भीड़ में खो गई। आरव खिड़की से देखता रहा, जब तक उसकी परछाई धुँधले अंधेरे में विलीन नहीं हो गई।

उस रात आरव ने पहली बार समझा कि कुछ रिश्ते नाम नहीं पाते, लेकिन उनकी गूँज ज़िंदगी भर साथ रहती है।

सुबह का वक्त था। कोहरा धीरे-धीरे छंट रहा था और सर्दियों की धूप बस की खिड़कियों पर हल्की-हल्की झिलमिला रही थी। वो सरकारी ...
12/09/2025

सुबह का वक्त था। कोहरा धीरे-धीरे छंट रहा था और सर्दियों की धूप बस की खिड़कियों पर हल्की-हल्की झिलमिला रही थी। वो सरकारी रोडवेज़ की पुरानी बस थी, जिसकी सीटों की गद्दियाँ जगह-जगह से फटी हुई थीं और खिड़कियों के शीशे धुंधले पड़ चुके थे। फिर भी, उस बस में सफ़र करने का अपना ही अलग मज़ा था। गाँव से शहर की ओर जाने वाले लोग, अपने साथ बोरे, बक्से, टोकरी और कभी-कभी मुरगी तक ले आते थे।

संध्या ने अपनी चादर कसकर ओढ़ी और खिड़की वाली सीट पर बैठ गई। कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसे रोज़ यही सफ़र करना पड़ता था। बस के डगमगाते झटकों में उसने किताबें गोद में रखी थीं, लेकिन मन पढ़ाई में कम और आस-पास के माहौल में ज़्यादा भटकता था।

गाँव से निकलते ही सड़क के दोनों ओर सरसों के खेत पीली चादर की तरह फैले थे। हवा में उनके फूलों की महक घुली हुई थी। संध्या को हमेशा ये नज़ारे खींचते थे। लेकिन उस दिन उसकी निगाहें अचानक बस के दरवाज़े पर ठहर गईं।

एक लड़का बस में चढ़ा। उम्र लगभग पच्चीस बरस होगी। सादा कुर्ता-पायजामा, कंधे पर झोला और आँखों में गहराई। भीड़ भरी बस में वो धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ संध्या के पास आकर खड़ा हो गया। संध्या ने किताब में आँखें गड़ाए रखीं, पर भीतर से उसकी धड़कनें तेज़ हो रही थीं।

लड़के ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा, "क्या यहाँ बैठ सकता हूँ?"

संध्या ने सिर हिलाकर हामी भर दी। सीट तंग थी, दोनों को पास-पास बैठना पड़ा। बस चलती रही और सन्नाटा उनके बीच गहराता रहा।

कुछ देर बाद लड़के ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, "गाँव से शहर का सफ़र हमेशा लंबा लगता है। हर पेड़, हर खेत पीछे छूटता चला जाता है।"

संध्या ने उसकी ओर देखा। उसकी आवाज़ में अजीब सा अपनापन था, जैसे वो कोई पुराना दोस्त हो। संध्या ने धीमे से जवाब दिया, "हाँ, और कभी-कभी पीछे छूटे लोग भी याद आते रहते हैं।"

दोनों की आँखें मिलीं। जैसे अनकहे शब्दों की भाषा हो, जिसे सिर्फ़ दिल समझ सके।

बस हिचकोले खाती आगे बढ़ती रही। बीच-बीच में कंडक्टर टिकट काटते हुए "टिकट-टिकट" चिल्लाता, और लोग चढ़ते-उतरते रहते। मगर उस सीट पर समय जैसे ठहर गया था।

लड़के ने अपना नाम बताया, "मैं रवि हूँ, उज्जैन से आया हूँ। नौकरी की तलाश में जा रहा हूँ।"

संध्या ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद कहा, "मैं संध्या हूँ। कॉलेज जाती हूँ, परीक्षा पास करनी है।"

फिर दोनों हँस पड़े। बातों का सिलसिला धीरे-धीरे खुलता चला गया। रवि ने अपने गाँव की कहानियाँ सुनाईं—कैसे उसके पिता किसान हैं, कैसे उसने रात-रात भर चाँदनी में किताबें पढ़ीं। संध्या ने भी अपनी मुश्किलें साझा कीं—कैसे परिवार ने उसे पढ़ाई के लिए मुश्किल से इजाज़त दी और कैसे हर दिन का सफ़र उसके लिए नई चुनौती है।

बस की खिड़की से आती ठंडी हवा उनके बीच की दूरी मिटा रही थी। दोनों को लग रहा था जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हों।

रास्ते में एक जगह बस रुकी। लोग समोसे और चाय लेने उतर गए। रवि ने पूछा, "आपको चाय पसंद है?"

संध्या ने मुस्कुराकर कहा, "हाँ, पर घर से माँ का दिया हुआ थर्मस लाती हूँ।" उसने थर्मस से कप में चाय डालकर रवि की ओर बढ़ा दिया। रवि ने पहले मना किया, फिर लिया और बोला, "इस चाय का स्वाद हमेशा याद रहेगा।"

संध्या ने महसूस किया कि उसकी आँखें सचमुच में चमक रही थीं।

यात्रा लंबी थी, मगर बातें इतनी गहरी थीं कि वक्त पंख लगाकर उड़ता चला गया। रवि ने एक जगह धीरे से कहा, "कभी-कभी सफ़र में मिलने वाले लोग अजनबी होकर भी अपनों से ज्यादा करीब लगते हैं।"

संध्या चुप रही, पर उसके दिल की धड़कनें जवाब दे रही थीं।

शहर नज़दीक आ रहा था। भीड़ और तेज़ हो गई थी। बस के शोर में दोनों का सन्नाटा और गहरा होता गया। रवि ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए कहा, "मुझे यहीं उतरना है।"

संध्या का दिल कसक उठा। इतनी जल्दी?

बस धीरे-धीरे रुक गई। रवि उठ खड़ा हुआ। उसने झोला कंधे पर डाला और जाने से पहले पलटकर कहा, "संध्या, ये सफ़र याद रहेगा। शायद हम फिर न मिलें, लेकिन अगर कभी बस में किसी अजनबी से बात करने का मन करे तो मुझे याद करना।"

संध्या के होंठ काँपे, पर आवाज़ नहीं निकली। रवि भीड़ में गुम हो गया।

बस फिर चल पड़ी। खिड़की के बाहर खेत, पेड़, मकान सब धुंधले हो रहे थे। संध्या ने अपनी किताब खोली, पर शब्द धुंधले थे। उसकी आँखों में रवि की मुस्कान बस चुकी थी।

उसे लगा, ज़िंदगी कभी-कभी ऐसे लम्हे देती है जो पूरे नहीं होते, पर अधूरे रहकर भी दिल को छू जाते हैं।

सावन का महीना था। शाम ढल रही थी और आसमान में बादलों की मोटी परतें ऐसे फैली थीं जैसे किसी ने नीले कैनवास पर काले रंग की प...
12/09/2025

सावन का महीना था। शाम ढल रही थी और आसमान में बादलों की मोटी परतें ऐसे फैली थीं जैसे किसी ने नीले कैनवास पर काले रंग की परत चढ़ा दी हो। हवा में मिट्टी की गंध थी, वो गंध जो पहले पानी की बूंदों के गिरने से उठती है और हर इंसान के दिल में किसी अनकही याद को जगा देती है। कानपुर की गलियों में वो दिन हर किसी के लिए आम था, लेकिन अंशु के लिए कुछ खास।

अंशु, लगभग अट्ठाईस बरस का युवक, सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। उसका घर पुराने मोहल्ले में था, जहाँ गलियाँ इतनी तंग थीं कि एक साथ दो साइकिलें निकलें तो एक को दीवार से सट जाना पड़ता। बचपन से यहीं पला था। हर ईंट, हर मोड़ उसकी यादों में दर्ज था। लेकिन आज की बारिश में एक पुरानी याद ज्यादा गहरी होकर सामने आ गई थी।

ये वही गली थी जहाँ कभी वो और नेहा घंटों खड़े होकर बातें किया करते थे। नेहा उसके घर से कुछ ही दूरी पर रहती थी। स्कूल से कॉलेज तक दोनों की राहें साथ-साथ गुज़री थीं। उस वक्त मोहब्बत का नाम लेना भी किसी गुनाह जैसा लगता था, पर आँखों की भाषा और मुस्कुराहटें सब कुछ कह देती थीं।

आज बरसों बाद, जब पहली बूंद गिरी और अंशु उस भीगी गली में कदम रख रहा था, उसे वही वादा याद आ रहा था जो उसने नेहा से किया था।

नेहा बेहद चंचल लड़की थी। उसकी आँखों में हमेशा शरारत झलकती रहती थी, पर दिल से वो उतनी ही मासूम थी। कॉलेज के दिनों में अक्सर जब बारिश होती, दोनों एक ही छतरी में घर लौटते। कभी-कभी जब छतरी भूल जाते तो भीगते हुए दौड़ लगाते और हंसते-हंसते गलियों को अपनी आवाज़ों से भर देते।

एक दिन बरसात के मौसम में नेहा ने अचानक पूछा था, "अंशु, अगर हम कभी अलग हो गए तो? क्या तू मुझे याद रखेगा?"

अंशु ने थोड़ी देर उसे देखा था। उसकी आँखें गहरी थीं, उनमें सवाल से ज्यादा डर था। उसने मुस्कुराकर कहा था, "नेहा, अगर हम कभी अलग भी हो गए, तो ये गली, ये बारिश, ये मिट्टी की खुशबू हमें हमेशा जोड़कर रखेगी। तू कहीं भी होगी, मैं तुझे इसी बारिश में महसूस करूँगा।"

नेहा ने उसी दिन धीरे से कहा था, "तो पक्का वादा कर, तू मुझे कभी भूल नहीं पाएगा।"

अंशु ने हाथ बढ़ाकर उसकी हथेली पकड़ ली थी। और वही बरसात उस वादे की गवाह बन गई थी।

पर किस्मत ने जैसे दोनों की राहें अलग कर दीं। कॉलेज खत्म हुआ, नेहा के घरवालों ने उसकी शादी की बात शुरू कर दी। अंशु उस वक्त अपने करियर को लेकर भटक रहा था, न नौकरी पक्की, न कोई ठिकाना। नेहा ने एक दिन चिट्ठी भेजी थी जिसमें सिर्फ इतना लिखा था—
"अंशु, तेरे और मेरे बीच ये गली तो हमेशा रहेगी, पर जिंदगी हमें अलग कर रही है। तू अपना ख्याल रखना।"

उस दिन के बाद नेहा जैसे उसकी दुनिया से गायब हो गई।

आज, इतने सालों बाद, वही गली और वही बरसात अंशु को खींच लाई थी। बारिश की बूंदें उसके चेहरे पर गिर रही थीं और उसे लग रहा था जैसे नेहा उसके पास खड़ी है, हंसते हुए, अपनी चूड़ी की खनक से गली को भरते हुए।

अंशु ने गली के उस मोड़ पर कदम रोका जहाँ अक्सर दोनों रुककर बातें करते थे। वहाँ दीवार पर अब काई जम चुकी थी। उसने हाथ से उस दीवार को छुआ और मन ही मन बुदबुदाया, "नेहा, तू जहाँ भी है, तेरा वादा आज भी मेरे साथ है।"

इतना सोच ही रहा था कि अचानक पीछे से एक आवाज़ आई। "अंशु?"

उसकी धड़कन तेज हो गई। वो पलटकर देखने लगा और सामने एक महिला खड़ी थी। उम्र में वही, शायद थोड़ी थकान चेहरे पर, आँखों में हल्की झुर्रियाँ, पर मुस्कान वही पुरानी। वो नेहा थी।

बारिश की बूंदें दोनों के बीच गिर रही थीं, जैसे वक्त भी उस लम्हे को थामना चाहता हो।

"नेहा?" अंशु की आवाज़ भर्रा गई।

नेहा ने हंसते हुए कहा, "सोचा नहीं था, तू अब भी इसी गली में मिलेगा।"

दोनों चुप खड़े रहे। न जाने कितनी बातें थी जो कहना चाह रहे थे पर शब्द कम पड़ रहे थे।

नेहा ने धीरे से कहा, "अंशु, मैं यहाँ अपने मायके आई हूँ। शादी तो हो गई थी, पर जिंदगी वैसी नहीं निकली जैसी सोची थी। बहुत कुछ सहा है, लेकिन... तुझे देखकर लगता है कुछ भी नहीं बदला।"

अंशु ने उसकी आँखों में देखा। वहाँ दर्द था, लेकिन कहीं न कहीं वो पुराना अपनापन भी।

बरसात और भी तेज हो चुकी थी। नेहा ने कहा, "याद है, तूने एक वादा किया था? कि चाहे कुछ भी हो, तू मुझे कभी नहीं भूलेगा।"

अंशु की आँखें नम हो गईं। उसने सिर हिलाकर कहा, "नेहा, वो वादा अब भी जिंदा है। हर बरसात मुझे तेरी याद दिलाती है।"

नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "कुछ रिश्ते शायद नाम नहीं पा सकते, पर वो दिल में हमेशा जिंदा रहते हैं।"

इतना कहकर नेहा ने अपनी छतरी सीधी की और धीरे-धीरे गली के मोड़ पर गायब हो गई।

अंशु वहीं खड़ा रह गया। उसके कानों में अब भी नेहा की आवाज़ गूंज रही थी। उसने आसमान की ओर देखा, बारिश की बूंदें जैसे उसके आँसुओं को छुपा रही थीं।

उस दिन उसे समझ आया कि कुछ रिश्ते अधूरे ही अच्छे लगते हैं। वो गली, वो बरसात, और वो वादा हमेशा उसके जीवन का हिस्सा रहेंगे।

और उसने मन ही मन कहा, "ज़िंदगी की यही रीत है… कुछ लोग दूर जाकर भी इतने पास रहते हैं कि उनकी यादें हर पल साथ चलती हैं।

कुछ रिश्ते चाहे अधूरे रह जाएं, पर वही रिश्ते सबसे गहरी छाप छोड़ जाते हैं। हर इंसान की जिंदगी में ऐसी एक गली होती है, जहाँ से लौटना आसान नहीं होता।

मुंबई के एक पुराने मोहल्ले में वीर नाम का लड़का रहता था। उम्र लगभग 28 साल। इंजीनियर था, नौकरी करता था, लेकिन दिल से बहुत...
12/09/2025

मुंबई के एक पुराने मोहल्ले में वीर नाम का लड़का रहता था। उम्र लगभग 28 साल। इंजीनियर था, नौकरी करता था, लेकिन दिल से बहुत अकेला। वजह थी उसकी बड़ी बहन रिया, जिसकी शादी के कुछ महीनों बाद ही उसके जीवन में अंधेरा छा गया था। रिया के जाने के बाद वीर के घर में सबकुछ बदल गया था। माँ सविता और पापा सुधीर मानो चुप्पी की मूर्ति बन गए थे।

रिया अपने पति अर्जुन से बेपनाह मोहब्बत करती थी। जब वह चली गई तो अर्जुन ने खुद को दो साल तक अकेलेपन में झोंक दिया। रिश्तेदारों ने समझाया, दबाव भी डाला और आखिरकार अर्जुन ने दूसरी शादी कर ली। उसकी नई पत्नी का नाम था सोनाली।

सोनाली का स्वभाव एकदम अलग था। आत्मविश्वासी, मिलनसार और खुशमिजाज। घर में उसकी एंट्री हुई तो जैसे बुझी हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं। माँ उसे बेटी की तरह मानने लगीं, पापा घंटों उससे बातें करते। लेकिन वीर के दिल में एक अजीब-सी दीवार खड़ी हो गई थी। उसे लगता, कोई भी उसकी रिया की जगह कैसे ले सकता है। उसने मन ही मन तय कर लिया था कि सोनाली चाहे जैसी हो, वह उसकी बहन कभी नहीं हो सकती।

समय बीतता गया। सोनाली महीने में कई बार माँ-पापा से मिलने आने लगी। कभी मिठाई लाती, कभी कोई गिफ्ट, तो कभी सिर्फ बातें करने। माँ कहतीं देखो वीर, सोनाली कितनी लगन से अपने दोनों घर सँभालती है। वीर सुनता और चुप रह जाता। उसके दिल में चुभन और गहरी होती जाती।

एक बरसात की शाम थी। माँ-पापा किसी रिश्तेदार की शादी में गए थे। वीर घर पर अकेला था। खिड़की से बारिश की बूंदें गिरती देख वह लैपटॉप पर काम कर रहा था कि तभी डोरबेल बजी। दरवाजा खोला तो सामने सोनाली खड़ी थी। हाथ में एक पैकेट था और छतरी पूरी भीग चुकी थी।

वीर ने भौंहें चढ़ाकर कहा, "तुम?"

सोनाली मुस्कुराई, "हाँ, पता था तुम अकेले होगे। सोचा थोड़ा साथ दे दूँ।"

वह बिना पूछे अंदर चली आई। वीर नाराज़ था लेकिन कुछ कह नहीं पाया। उसने टेबल पर पैकेट रखा और बोली, "तेरी पसंद का वेज पुलाव बनाया है। माँ से सुना था कि तुम और रिया दोनों को बहुत पसंद था।"

यह सुनते ही वीर का दिल काँप उठा। यादें ताजा हो गईं। रिया भी वही पुलाव बना कर उसे खिलाया करती थी।

थोड़ी देर बाद सोनाली ने अपने बैग से एक छोटा सा फ्रेम निकाला और वीर को थमाया। उसमें वीर और रिया की बचपन की तस्वीर थी। तस्वीर थोड़ी पुरानी थी लेकिन नया फ्रेम और ग्लास लगवाकर वह चमक रही थी।

"तुम्हें कहाँ से मिली ये?" वीर की आँखें नम हो गईं।

सोनाली ने नरम आवाज़ में कहा, "पिछली बार तुम्हारी पुरानी किताबों के बॉक्स से मिली थी। सोचा इसे सँवार दूँ।"

वीर का गला भर आया। वह कुछ कह नहीं पाया। तभी सोनाली ने धीरे से कहा, "वीर, मुझे पता है तुम मुझे बहन नहीं मानते। और सच कहूँ तो मैं भी रिया की जगह कभी नहीं ले सकती। लेकिन माँ-पापा के लिए तो मैं भी अब परिवार का हिस्सा हूँ। बस चाहती हूँ कि तुम मुझे अपनाओ। बहन नहीं तो दोस्त ही समझ लो।"

वीर ने उसकी आँखों में झाँका। वही अपनापन, वही चमक। अचानक लगा जैसे रिया की छाया उसके सामने खड़ी हो। आँसू छलक आए और वह बोला, "नहीं सोनाली, दोस्त नहीं। अबसे तुम मेरी बहन हो।"

सोनाली की आँखें भी भीग गईं। वर्षों का सन्नाटा टूट चुका था।

उस रात वीर को पहली बार चैन की नींद आई। दीवार पर लगी रिया की तस्वीर की मुस्कान और गहरी लग रही थी। मानो कह रही हो, "मैंने तुम्हें अकेला नहीं छोड़ा।"

दिन गुजरते गए। वीर और सोनाली का रिश्ता गहराता चला गया।

सोनाली अब माँ बनने वाली थी। घर में खुशियों की लहर दौड़ गई। माँ-पापा तो मानो सातवें आसमान पर थे। वीर भी पहली बार मामा कहलाने का सपना जी रहा था। जब भी सोनाली घर आती, वह उसके लिए फल काटकर लाता, डॉक्टर के पास छोड़ता। उसकी देखभाल करता।

एक दिन सोनाली उसे अल्ट्रासाउंड दिखाने ले गई। स्क्रीन पर नन्हा-सा दिल धड़क रहा था। सोनाली ने मुस्कुराकर कहा, "देखो, यह तुम्हारा भांजा… या भांजी।"

वीर की आँखें भर आईं। उसने सोनाली का हाथ थाम लिया, "अब समझा, जिंदगी सिर्फ खोने का नाम नहीं, नए तोहफे भी देती है।"

कुछ महीनों बाद बेटी हुई। जब वीर ने पहली बार उस नन्ही परी को गोद में लिया तो उसके आँसू रुक नहीं पाए। उसने धीरे से कहा, "रिया… तेरी छोटी सी परछाई मेरी गोद में है।"

नाम रखने की बारी आई। वीर ने कहा, "इसे रिया बुलाएँगे।" सोनाली और अर्जुन दोनों मान गए।

अब घर में हँसी की गूँज थी। छोटी रिया की मुस्कान से वीर का हर बोझ हल्का हो जाता। सोनाली उसके लिए अब सिर्फ जीजाजी की पत्नी नहीं थी, सचमुच उसकी बहन बन चुकी थी।

समय पंख लगाकर उड़ गया। छोटी रिया पाँच साल की हो गई। शरारती, मासूम और सवालों की बारिश करने वाली।

एक दिन उसने वीर से पूछा, "मामा, आप हमेशा मेरे साथ क्यों रहते हो? आप मेरे पापा क्यों नहीं हो?" सब हँस पड़े, लेकिन वीर की आँखें भर आईं। उसने उसे गले से लगाकर कहा, "पगली, मैं तेरे लिए मामा हूँ, पर अगर तू चाहे तो पापा जैसा भी बन सकता हूँ।" बच्ची ने उसका चेहरा चूम लिया, "तो आप मेरे मामा भी और पापा भी।"

समय बीता और छोटी रिया स्कूल जाने लगी। उस दिन माँ-पापा और सोनाली व्यस्त थे। वीर ने खुद उसके जूते बाँधे, टिफिन रखा और स्कूल छोड़ने गया। बच्ची ने गेट पर कहा, "मामा, आप यहीं रहोगे जब तक मैं लौटूँगी?" वीर मुस्कुराया, "हाँ, सबसे पहले मैं ही मिलूँगा।" सचमुच, वह घंटों गेट पर खड़ा रहा।

वक्त बीतता गया। रिया सोलह साल की हो गई। पढ़ाई में तेज़ और आत्मविश्वासी। एक दिन सोनाली ने मजाक में कहा, "रिया, तू बिल्कुल अपने मामा पर गई है, जिद्दी और अड़ियल।" रिया हँसकर बोली, "हाँ मम्मी, मैं पापा की बेटी सही, पर मामा की कॉपी हूँ।" वीर हँस पड़ा, लेकिन उसके दिल में एक मीठी टीस उठी।

उस साल वीर का जन्मदिन आया। सबने मिलकर पार्टी रखी। रिया ने उसे एक पेन गिफ्ट किया। वही पुराना पेन, जो वीर ने कॉलेज में खो दिया था। उसने उसे ढूँढकर रिपेयर कराया और चमका दिया। वीर की आँखें भर आईं। रिया ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, "मामा, मैं आई ही इसलिए हूँ कि तुम्हें कभी अकेला न रहना पड़े।"

वक्त बीता और रिया चौबीस साल की हो गई। पढ़ाई पूरी की और नौकरी करने लगी। एक दिन उसने वीर को कहा, "मामा, ऑफिस में आरव नाम का एक दोस्त है। हम शादी करना चाहते हैं।" वीर ने गहरी साँस ली और कहा, "बस इतना ध्यान रखना कि वह तुझे वैसे ही हँसाए, जैसे तेरी हँसी ने हमें जीने का सहारा दिया है। अगर कभी आँसू दिए तो समझ लेना तेरा मामा खड़ा होगा।"

शादी का दिन आया। विदाई के वक्त रिया ने आँसुओं में कहा, "मामा, सच तो ये है कि मेरा असली घर आप ही हो। अगर कभी डगमगाऊँगी, तो सबसे पहले आपके पास ही आऊँगी।" वीर ने माथा चूमकर कहा, "पगली, चाहे तू जहाँ भी रहे, तेरे मामा का दिल हमेशा तेरे साथ है।"

बारात चली गई। घर में सन्नाटा छा गया। माँ ने पूछा, "बेटा, तूने अपनी शादी क्यों नहीं की?" वीर ने हल्की मुस्कान दी, "माँ, मेरी दुनिया उसी दिन पूरी हो गई थी जब मैंने सोनाली को बहन माना और छोटी रिया को गोद में उठाया। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

उसकी नज़र दीवार पर लगी बड़ी रिया की तस्वीर पर गई। होंठों पर शांति भरी मुस्कान थी।

उसके लिए यही परिवार, यही प्यार, यही रिश्ता काफी था। रिश्ते कभी खत्म नहीं होते, बस रूप बदल लेते हैं।

"कभी सोचा है कि जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ कब आता है? जब किसी अजनबी से मुलाकात आपकी तकदीर बदल दे।आज की कहानी ऐसी ही एक मुल...
11/09/2025

"कभी सोचा है कि जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ कब आता है? जब किसी अजनबी से मुलाकात आपकी तकदीर बदल दे।

आज की कहानी ऐसी ही एक मुलाकात से शुरू होती है, जो एक साधारण इंसान को नई दुनिया में ले गई..." जयपुर शहर की पुरानी हवेलियों में से एक हवेली थी कपूर हवेली, जिसकी ऊँची दीवारें और नक्काशीदार दरवाजे आज भी पुराने ज़माने की शान बयाँ करते थे। इस हवेली में रहती थीं अनामिका कपूर, उम्र लगभग 30 साल। लंबा कद, गेहुआँ रंग और आँखों में अजीब सा आत्मविश्वास।

वह पढ़ी-लिखी और आधुनिक विचारों वाली महिला थीं।

उनके पति अभिषेक कपूर विदेश में काम करते थे और सालों से घर से दूर थे। हवेली में अनामिका अकेली रहती थीं।

उसी शहर के एक मोहल्ले में रहता था राहुल, उम्र 25 साल। राहुल गरीब परिवार से था।

पिता की बीमारी और छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई ने उसे जल्दी ही घर की जिम्मेदारी में धकेल दिया। काम की तलाश में वह यहाँ-वहाँ भटक रहा था।

एक दिन दोपहर को राहुल ने साहस जुटाया और कपूर हवेली का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खुला तो सामने अनामिका खड़ी थीं।

उनकी शख्सियत ऐसी थी कि राहुल एक पल को ठिठक गया।

चेहरे पर हल्की मुस्कान लेकिन आँखों में गहरी गंभीरता। अनामिका ने सख्त लहजे में पूछा, "हाँ, क्या चाहिए?" राहुल थोड़ा झिझकते हुए बोला, "मैडम, मुझे काम की जरूरत है। आप जो भी काम देंगी, मैं कर लूँगा।

क्या आप मुझे नौकरी पर रख लेंगी?" अनामिका ने ऊपर से नीचे तक राहुल को देखा। फिर हल्की मुस्कान के साथ बोलीं, "सब काम कर लोगे?

घर का, बगीचे का, सफाई का... सब कुछ?" राहुल ने आत्मविश्वास से जवाब दिया, "हाँ मैडम, सब कुछ।" अनामिका ने दरवाजा और खोलते हुए कहा, "ठीक है, अंदर आ जाओ।" राहुल पहली बार उस हवेली के अंदर गया। चारों ओर शाही सजावट और खामोशी।

बड़े-बड़े झूमर, संगमरमर की फर्श और पुरानी तस्वीरों से सजी दीवारें। लेकिन अजीब था कि इतने बड़े घर में कोई और नजर नहीं आया। अनामिका ने उसे सोफे पर बैठाया और खुद भी पास आकर बैठ गईं।

उनकी नज़दीकी से राहुल का दिल तेज़ी से धड़कने लगा।

अनामिका बोलीं, "देखो राहुल, मेरे पति विदेश में रहते हैं। इस हवेली को संभालने वाला कोई नहीं है।

मुझे दिन-रात के लिए एक ऐसे इंसान की जरूरत है, जिस पर भरोसा किया जा सके। तुम रहोगे यहाँ, यहीं खाओगे और यहीं काम करोगे।

सुबह से लेकर रात तक सारा काम तुम्हें करना होगा।

क्या कर पाओगे?" राहुल ने बिना सोचे जवाब दिया, "हाँ मैडम, मैं पूरी मेहनत और ईमानदारी से सब करूँगा।" अनामिका ने मुस्कुराकर कहा, "ठीक है। आज रात से ही काम शुरू कर देना।

यह हवेली अब तुम्हारा भी घर है।" राहुल का दिल खुशी से भर गया। उसने सोचा कि अब उसके परिवार की मुश्किलें कुछ आसान हो जाएँगी। रात के आठ बजे वह फिर हवेली पहुँचा।

दरवाजा खोला तो अनामिका साड़ी में खड़ी थीं।

उनकी सादगी और खूबसूरती देखकर राहुल की नज़रें एक पल को ठहर गईं। "आओ, अंदर आओ," अनामिका बोलीं।

उन्होंने राहुल को खाना खिलाया, फिर एक गिलास दूध दिया और कहा, "ताकत चाहिए काम के लिए।" उस रात राहुल को हवेली का एक शानदार कमरा दिया गया। ऐसा कमरा, जैसा उसने सपने में भी नहीं सोचा था।

सुबह उठकर उसने काम शुरू किया।

नाश्ता बनाया, पानी गर्म किया, गार्डन में फूलों को पानी दिया। हवेली इतनी बड़ी थी कि काम खत्म करने में घंटों लग गए। दोपहर को अनामिका उसके पास आईं और बोलीं, "तुम मेहनती हो।

अच्छा काम कर रहे हो।" उनकी तारीफ सुनकर राहुल का आत्मविश्वास और बढ़ गया। दिन गुजरते गए।

राहुल हर काम पूरे मन से करता।

अनामिका उसे सिर्फ नौकर नहीं समझती थीं।

जब वह काम से थक जाता तो खुद उसके लिए नींबू पानी बना देतीं। कई बार उसके परिवार का हाल पूछतीं और उसकी परेशानियों को सुनकर सहारा देतीं। धीरे-धीरे हवेली की खामोशी राहुल को अजीब नहीं लगती।

अब उसे लगता कि यह हवेली सिर्फ अनामिका की नहीं, उसकी भी है। राहुल ने महसूस किया कि अनामिका सिर्फ सुंदर नहीं थीं, बल्कि दिल से मजबूत भी थीं। अकेले रहकर इतनी बड़ी हवेली संभालना आसान नहीं था।

लेकिन वह हर हाल में आत्मविश्वास से खड़ी रहतीं।

एक शाम जब राहुल गार्डन में पौधों को पानी दे रहा था, अनामिका वहाँ आईं। उन्होंने गंभीर लहजे में कहा, "राहुल, इस घर का राज तुमसे छुपा नहीं रहना चाहिए। मेरे पति आठ साल से विदेश में हैं और शायद ही कभी लौटें।

यह हवेली, यह सब... मुझे अकेले ही संभालना है।" राहुल ने उनकी आँखों में देखा। उसमें एक अजीब सा दर्द छुपा था, लेकिन साथ ही ताकत भी। उस दिन के बाद राहुल और अनामिका के बीच एक अटूट विश्वास बन गया।

राहुल सिर्फ काम करने वाला नहीं रहा, बल्कि हवेली का हिस्सा बन गया। अनामिका ने कहा, "तुम सिर्फ मेरे नौकर नहीं, इस हवेली के रक्षक भी हो।" राहुल ने सिर झुकाकर कहा, "मैडम, यह घर अब मेरा भी है। मैं इसे कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा।" समय बीतता गया।

राहुल ने अपनी मेहनत और ईमानदारी से न सिर्फ हवेली को सँभाला बल्कि अनामिका के अकेलेपन को भी भर दिया। अब वह हवेली सिर्फ पत्थरों और दीवारों की इमारत नहीं थी, बल्कि उसमें दो इंसानों का भरोसा और आत्मीयता बसती थी।

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