26/05/2024
गर्भपात(भ्रूण-हत्या) एक महापाप और अपराध है।
गर्भपात निश्चित ही जीव-हत्या है । एक पंचेन्द्रिय जीव की हत्या है। भ्रूण-हत्या-चाहे नरभ्रूण हो या मादाभ्रूण हो - एक जिन्दा शिशु की हत्या है। भ्रूण-हत्या एक अजन्मे मासूम शिशु का कत्ल है । फिर चाहे वह भ्रूण 1 दिन का हो, 10 दिन को हो, 3 महीने का हो या 9 महीने का हो । गर्भपात गर्भाधान के बाद चाहे जितनी भी जल्दी कराया जाये, उसमें निश्चित ही एक जीव की हत्या होती है। इस भ्रम में मत रहिये कि गर्भाधान के कुछ महीनों बाद ही गर्भस्थ शिशु में प्राणों का संचार होता है। इससे पूर्व वह केवल एक माँस का पिण्ड ही होता है, जिसमें जीव नहीं होता है। सच्चाई तो यह है कि गर्भमे पहले जीव आता है फिर उसका शरीर, उसके अंगोपांग की रचना होती है। वह धीरि-धीरे वहाँ प्रगति करता है तथा अपनी विकास-यात्रा करता हुआ नो माह की कठिन साधना व लंबी प्रतीक्षा के बाद पृथ्वी पर पाँव रखता है। जब वह माँ की कोख से जन्म लेता है, तब वह नौ महीने का हो चुका होता है । जन्म लेना उस जीव की आयु की प्रथम तिथि नहीं है, अपितु उसके माँ की कोख से बाहर संसार में आने की तिथिहै। संसार में कोई जीव आता है तो पहले उसकी आत्मा आती है, बाद में उसका शरीर बनना शुरू होता है।
लेकिन दुर्भाग्य है कि उस आने वाले अतिथि के साथ कोई सम्मानजनक व्यवहार नहीं हो पा रहा है। जन्म लेने से पूर्व ही बड़ी क्रूरता व अमानवीय हिंसक तरीके से उसकी हत्या कर दी जाती है। ध्यान रखना : एक गर्भ्रपात से चार पाप होते हैं। पहला पाप तो आपने एक अतिथि की हत्या की है, क्योंकि गर्भमें आने वाला जीव अतिथि है। तुमने ही उसे निमंत्रण देकर बुलाया है। पति-पत्नी के आमंत्रण पर ही वह तुम्हारे घर आया है और घर आये अतिथि की हत्या तो इस देश में एक बहुत बड़ा पाप है, क्योंकि हमने अतिथि को देवता कहा है : अतिथि देवो भव। दूसरा पाप - वह शरणागत है, तुम्हारी शरण में आया है। शरण में आया हुआ जीव दया का पात्र होता है और जो दया का पात्र है, तुमने उसकी हत्या की है, इसलिए भी तुम पापी हो। शरण में आया हुआ दुश्मन भी अभयदान का पात्र है, तो गर्भ में आया हुआ जीव तुम्हारा दुश्मन तो नहीं है, उसे भी अभय का वरदान मिलना चाहिए क्योंकि वह शरणागत है। तीसरा पाप - वह अनाथ है, दीन-हीन है और आपने उस अनाथ की हत्या की है तथा चौथा पाप कि वह तुम्हारा बेटा है, तुम्हारी बेटी है, तुम्हारा पुत्र है, तुम्हारा खून है ओर अपने ही खून की हत्या करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा खूनी है। अतिथि के साथ विश्वासघात करना, शरणागत के साथ दुर्ग्यवहार करना, अनाथ व असहाय के साथ धोखा-धड़ी करना तथा अपनी संतान की हत्या करनाये केवल साधारण अपराध नहीं हैं, अपितु दुनियां के बड़े से बड़े अपराध हैं, दुनियां के बड़े से बड़े पाप हैं । गर्भपात एक और पाप-चार।
कैसा घोर कलियुग आ गया है कि पालनहार ही हत्यारे बन बैठे हैं। माँ-बाप जो कि संतान के रक्षक और पालक होते हैं, आज वे ही संतान के भक्षक और घातक सिद्ध हो रहे हैं। 'एबोर्शन' जीते-जागते निर्दोष प्राणी की सुनियोजित नृशंस हत्या है और इस हत्या के हत्यारे माँ-बापों की आज समाज में कमी नहीं है। गर्भपात आज एक अच्छा खासा व्यवसाय ही बन गया है। भ्रूण हत्याएँ दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही हैं। लाखों निर्दोष मासूम बच्चों की गर्भाशय में ही हत्या की जा रही है। निश्चित ही यह दुर्भाग्य का विषय है और इसके दूरगामी परिणाम समाज के हित में नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि मनुष्य की हत्या पर जितना दंड है, गर्भपात कराने वाले को भी उतना ही दंड मिलना चाहिए। वह महिला जिसने गर्भपात कराया है, वह पति जिसने गर्भ्रपात के लिए उसे प्रेरित किया है, अनुमोदना की है तथा वह डाक्टर जिसने इस कार्य को अंजाम दिया है - ये तीनों ही हत्यारे हैं । इनके हाथों में एक निरपराधी की हत्या का खून लगा है और ऐसा खून कि उस हत्या के खून को मेंहदी लगाकर छुपाया नहीं जा सकता।
मान्यवर, मेरा नम्र निवेदन है कि इस गर्भपात के रूप में बढ़ती हुई संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्यों की हत्या, हिंसा पर रोक लगाने के लिए आप सामूहिक रूप से प्रयास करिए। आज पशु-पक्षियों की हिंसा को रोकने केलिए अनेक संगठन व संस्थाएँ प्रयासरत हैं लेकिन गर्भस्थ शिशु की निरन्तर बढ़ती हुई हत्या को रोकने के लिए कोई विशेष व सामूहिक प्रयास नहीं किये जा रहे हैं । यही वजह है कि हर वर्ष हमारे अपने ही धर्मप्राण देश में लाखों की संख्या में मासूम व निर्दोष बच्चों को मौत के घाट उतार दिया जाता है।
मेरी उन माताओं -बहनों से, भाई-बंधुओं से गुजारिश है कि वे ऐसा पाप न करें। जो तुम्हारे घर, तुम्हारे आमंत्रण पर अतिथि बनकर आ रहा है उसका स्वागत व सम्मान करें। याद रखना : गर्भ में आने वाला जीव तुम्हारे निमंत्रण पर ही आता है क्योंकि स्त्री-पुरुष के संयोग से ही कोई जीव जन्म लेने की तैयारी करता है। वह तुम्हारा अतिथि है और घर आये अतिथि का तो हम आदर करते ही हैं । देश की परम्परा है कि हमें भोजन मिले ना मिले, लेकिन घर आये अतिथि को तो भोजन मिलेगा ही। हमें पानी मिले या ना मिले पर घर आये मेहमान को हम जरूर पानी पिलायेंगे। हम भूखे और प्यासे रहकर भी, घर आये अतिथि की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं लेकिन इस अतिथि के साथ हम कैसा व्यवहार करते हैं ? आप स्वयं सोचें। पहले तो प्रेम-निमंत्रण देकर बुला लिया और जब वह तुम्हारे घर आ गया तो तुम उसे निपट अकेला पाकर उस पर टूट पड़े। मेरी आपसे गुजारिश है, उसे आने दीजिए, वह जन्म लेने की तैयारी कर रहा है, उसे जन्म तो ले लेने दीजिए। उसे यदि तुम पाल सको तो पाल लेना,भोजन पानी दे सको तो दे देना, उसे यदि तुम माँ का प्यार,पिता का दुलार दे सको तो दे देना और यदि नहीं तो मत पिलाना दूध, मत देना उसे घर की छाया, मत देना उसे आँचल की छाया, मत सुनाना उसे लोरी, मत लेना उसे गोद, पैदा होते ही उसे पटक देना, फेंक आना किसी कचरे केढेर पर, जन्म लेते ही रख आना चुपके से किसी के दरवाजे पर - लेकिन कमप् से कम उसे जन्म तो ले लेने दो, उस आत्मा को इस पृथ्वी पर प्रकट तो हो जाने दो, उसे सही सलामत गर्भरूपी कक्ष से बाहर तो निकल आने दो।
जन्मोपरांत उस आत्मा को अपने हाल पर छोड़ देना, उसे अपने भाग्य भरोसे छोड़ देना। यदि उसका पुण्य होगा तो कोई न कोई उसे दूध पिलाने वाला मिल ही जायेगा, यदि उसका भाग्य होगा तो कोई न कोई उसका सहारा बन ही जायेगा, यदि उसकी किस्मत में होगा, तो किसी न किसी यशोदा की गोद मिल ही जायेगी। आज इस देश में ऐसी यशोदाएँ चाहिए जो इस तरह की अनचाही संतानों को माँ का प्यार दे सकें, माँ का दुलार दे सकें। देश को ऐसी यशोदाओं की सख्त जरूरत है जो किसी कारागृह में जन्मे कन्हैयाओं को आश्रय दे सकें, कंस के चंगुल से मुक्ति दिला सकें। तो तुम्हारे आस-पड़ौस में, तुम्हारे घर-परिवार में अगर ऐसी कोई महिला हो जो अपने गर्भ में पल रही संतान को, बेटे को, बेटी को नष्ट करने के लिए तैयार हो, तो आप उसे समझाइये। कहिये : बहिन! ऐसा पाप मत करो, जो आ रही है वह तुम्हारी ही बेटी है और क्या एक माँ अपनी बेटी के कत्ल की स्वीकृति दे सकती है ? नहीं, कभी नहीं। उसे कहें कि आने वाला जीव अपना पुण्य स्वयं लेकर आता है। अपनी व्यवस्था स्वयं करके आता है | माँ-बाप और परिवार के लोग तो केवल निमित्त होते हैं ।
उपरोक्त लेख क्रांतिकारी राष्ट्रसंत मुनिश्री तरुणसागर जी महाराज की बहुचर्चित कृति "एक लड़की " से लिया गया है ।