29/08/2025
जनप्रियता के आयाम
जनप्रिय अभी पढ़ कर ख़त्म की है। इतनी सुंदर किताब निकालने के लिए श्री सुबोध भारतीय को बधाई देने का मन है, जिनके सम्पादन में इस किताब को अपना रूप, रंग और कलेवर मिला है। उन्होंने सही मानों में गागर में सागर समेटने का दुरूह कार्य अंजाम दिया है, जिसके लिए निस्संदेह वे बधाई के पात्र हैं।
किताब जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा जी पर आधारित है, ज़ाहिर है कि किताब का हर लेख उन पर ही आधारित है। हर लेखक ने अपने अपने तरीके से जनप्रिय लेखक श्री शर्मा जी को श्रद्धांजलि प्रस्तुत की है, लेकिन उनके पुत्र श्री वीरेंद्र कुमार शर्मा जी ने अपने पिता के बारे में जो उद्गार प्रकट किए हैं, उनका जवाब नहीं है, जो कि स्वाभाविक भी है।
भूमिका में श्री सुबोध भारतीय लिखते हैं, कि श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक ने जनप्रिय पर कलम चलाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया, कि वे उन्हें उतना जानते नहीं हैं, कि उन पर कुछ लिख सकें। पढ़ कर अच्छा नहीं लगा, क्योंकि अपनी आत्मकथा में उन्होंने बार-बार श्री ओमप्रकाश शर्मा जी का और उनसे अपने सम्बन्धों का ज़िक्र किया है, फिर अगर इस किताब के लिए चंद शब्द लिख देते, तो क्या बुरा था? खैर, जैसी जिसकी सोच....उनकी आत्मकथा से वह अंश उठा कर संपादक ने ठीक ही किया।
अन्य लेखकों ने भी अपने अपने ढंग से जनप्रिय पर कलम चलाई और अपने विचार व्यक्त किए। कुछ ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का जायजा प्रस्तुत किया, तो कुछ ने उनके साथ के अपने संस्मरण पेश किए, जिन्हें पढ़ कर मन में श्री ओमप्रकाश शर्मा की एक छवि बन जाती है, उतनी ही बुद्धिमान है, जितनी विवेकवान है, उतनी ही चिंतनशील है, जितनी सहृदय है। वे नए लेखकों को भी रास्ता दिखाते हैं, और पत्रों के जरिये अपने पाठकों का भी मार्गदर्शन करते हैं। बुद्धिमान और प्रतिभाशाली तो वे अवश्य ही रहे होंगे, भले ही वे उतने पढे-लिखे नहीं थे, वरना वे इतने विभिन्न विषयों पर इतनी सरलता से कलम कैसे चला लेते। उन्होंने जासूसी उपन्यास भी उतनी ही महारत से लिखे हैं, जितनी महारत से सामाजिक या ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं।
सबसे अच्छा मुझे उनकी आत्मकथा वाला हिस्सा लगा। उसमें उनकी कलम का जादू बिखरा हुआ था। पढ़ने लगी तो एक ही बैठक में पूरा पढ़ गई, मगर अफसोस कि यह आत्मकथा पूर्ण नहीं हो सकी। काश उन्हें इसे पूरा करने का अवकाश मिला होता, तो हमें और भी बहुत कुछ जानने का मौका मिला होता।
कई विषयों पर उनके विचार बहुत प्रगतिशील लगे। एक पत्र में नारी के प्रति उनके विचार पढ़ कर मन श्रद्धावनत हो गया।
इतनी सुंदर किताब के लिए श्री सुबोध भारतीय जी को बारंबार बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।
- मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ
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Om Prakash Sharma
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