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Astro Utthan " ज्योतिष भाग्य नहीं बदलता बल्कि कर्म रास्ते बताता है , और सही कर्म से भाग्य को बदला जा सकता है

🙏 जय माँ काली 🙏आज के शुभ दिन माँ काली के दिव्य दर्शन हुए।विश्वास है—माँ की कृपा से हर बाधा दूर होगी, हर मनोकामना पूरी हो...
03/12/2025

🙏 जय माँ काली 🙏
आज के शुभ दिन माँ काली के दिव्य दर्शन हुए।
विश्वास है—माँ की कृपा से हर बाधा दूर होगी, हर मनोकामना पूरी होगी।
जो भी यह पोस्ट पढ़ रहा है, माँ काली आपकी जिंदगी से सभी नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त करें और घर में शांति, समृद्धि और सफलता का आगमन करें।
✨🌺
माँ काली से प्रार्थना:
🔹 जीवन में आने वाली सभी चुनौतियाँ आसान हों
🔹 परिवार में सुख-शांति बनी रहे
🔹 करियर व बिज़नेस में तरक्की मिले
🔹 स्वास्थ्य और धन-समृद्धि का आशीर्वाद प्राप्त हो

अगर आप भी माँ काली से अपनी मनोकामना पूरी करवाना चाहते हैं,
👇 "जय माँ काली" कमेंट करें।
माँ की कृपा सदा आपके साथ बनी रहे। 💗✨

---देव काली दर्शन
माँ काली दर्शन फोटो
काली मंदिर दर्शन
काली माता के चमत्कार
काली माँ का आशीर्वाद
काली पूजा आज
माँ काली की कृपा
देवी दर्शन फोटो
शक्ति स्वरूपा काली
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✨ *केतु – मोक्षकारक, यशदायक, विजय का प्रतीक* ✨🐍 सर्प का सिर काट कर अलग कर दिया जाए, तो शरीर का शेष भाग जिसे कबंध कहते है...
01/12/2025

✨ *केतु – मोक्षकारक, यशदायक, विजय का प्रतीक* ✨

🐍 सर्प का सिर काट कर अलग कर दिया जाए, तो शरीर का शेष भाग जिसे कबंध कहते हैं, विषहीन होने के कारण अविषय होता है। सर्प के मुंह में विष होता है, इसलिए सिर विषय है। सर्प का सिर विषयुक्त होता है, इसलिए
राहु = विषय
और शरीर का शेष भाग (कबंध) विषरहित होता है, इसलिए
केतु = अविषय।
*इसी कारण राहु मारक और केतु अमारक माना गया है।*

🩺 केतु चिकित्सक है।
📚 केतु ज्ञानवान है।
🏆 केतु यश देने वाला है।

🦚 *केतु शिखी है।* शिखी नाम मयूर तथा शिखाधारी पाखंडीद्विज का है। मयूर सर्प खाता है, किंतुकर्णप्रिय ध्वनि उगलता है। मयूर देखने में मनोहर होता है। आचार हीन मात्र लंबी शिखा रखने वाला द्विज शिखी कहलाता है। यह ऊपर से अच्छा, अंदर से खल होता है।

🔥 अग्नि को भी शिखी कहते हैं। लंबी-लंबी लपटें एवं धुआं इसकी शिखा हैं। लपटें जलाने वाली तथा धुआं कालिख एवं घुटन पैदा करने वाला होता है। केतु का प्रभाव ठीक ऐसा ही होता है।

🚩 *केतु = ध्वज*
ध्वज ऊँचे स्थान पर लगाया जाता है,
आकाश में लहराता है और श्रेष्ठता, पद, मान-सम्मान का प्रतीक है।
इसलिए केतु को विजय, यश और उच्च पद देने वाला माना गया है।

🌬️ *केतु वायवीय ग्रह है।*
वातप्रधान प्रकृति का—
जहाँ भी बैठता है, वहाँ गुणों का विस्तार, यश और उत्कर्ष देता है।

⛳ मंदिर के शिखर पर लगाया गया ध्वज शुभता का प्रतीक है।
ध्वज पूज्य है, प्रणम्य है—

*इसीलिए केतु भी प्रणम्य और ब्राह्मण कहलाता है।*

🕉️ वृषभध्वज (भगवान शिव)
🐟 मकरध्वज (कामदेव)
🦅 गरुडध्वज (विष्णु)
ये सभी ध्वजयुक्त नाम केतु की महिमा को दर्शाते हैं—
और इन्हें परम पूजनीय बनाते हैं।



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🙏🌼देवीअर्गलास्तोत्रम्🌼🙏🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🙏ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु...
28/11/2025

🙏🌼देवीअर्गलास्तोत्रम्🌼🙏

🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼

🙏ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥1॥

जिस जगदम्बिका का नाम जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा तथा स्वधा हैं, उस भगवती को हम नमस्कार करते हैं।

🙏जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणी।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ॥2॥

हे चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। प्राणियों का संताप हरण करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो। सबमें व्याप्त रहने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो। संहार रूप से संसार का विनाश करने वाली हे कालरात्रि! तुम्हारी जय हो।

🙏मधु-कैटभ-विद्रावि विधातृवरदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥3॥

मधु तथा कैटभ का विदारण करने वाली एवं ब्रह्मदेव को वरदान देने वाली हे देवि! तुम्हें नमस्कार है। हे भगवती, तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥4॥

महिषासुर का विनाश कर भक्तों को सुख देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏रक्तबीजवधे देवी चण्ड-मुण्ड-विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥5॥

रक्तबीज का वध करने वाली तथा चण्ड, मुण्ड का विनाश करने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥6॥

शुम्भ तथा निशुम्भ और धूम्राक्ष का मर्दन करने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥7॥

वन्दनीय चरणों वाली एवं सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥8॥

अचिन्त्य रूप तथा अचिन्त्य चरित्र वाली, सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश करने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥9॥

हे पापों का नाश करने वाली चण्डिके देवि! जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हें नमस्कार करते हैं, उन्हें तुम रूप दो, जय दो, यश दो तथा उनके शत्रुओं का विनाश करो।

🙏स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥10॥

व्याधियों का विनाश करने वाली हे चण्डिके देवि! जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, तुम उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो तथा उनके शत्रुओं का विनाश करो।

🙏चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥11॥

हे चण्डिके! जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं, तुम उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो तथा उनके शत्रुओं का विनाश करो।

🙏देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥12॥

हे भगवति! तुम मुझे सौभाग्य तथा आरोग्य दो, मुझे अत्यन्त सुख प्रदान करो और मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥13॥

हे देवि! मेरे शत्रुओं का नाश करो, मुझे बल दो, मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥14॥

हे देवि! मेरा कल्याण करो, मुझे विपुल संपत्ति दो, मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏सुरासुर-शिरोरत्न-निघृष्ट-चरणेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥15॥

हे भगवति! देवताओं तथा असुरों के शिरोरत्न के नमस्कार से तुम्हारे चरण घिसते रहते हैं। अतः हे अम्बिके! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥16॥

हे भगवति! तुम अपने भक्तों को विद्वान, यशस्वी तथा लक्ष्मीवान बनाओ। तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏प्रचण्ड-दैत्य-दर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥17॥

बड़े-बड़े उद्धत दैत्यों के घमण्ड को चूर करने वाली हे चण्डिके! मुझ शरणागत को तुम रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र-संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥18॥

चार भुजाओं वाली, ब्रह्मदेव द्वारा स्तुति की जाने वाली, हे परमेश्वरि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥19॥

हे भगवति! भगवान् विष्णु नित्य, निरन्तर तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं, तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏हिमाचल-सुतानाथ-संस्तुते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥20॥

भगवान् सदाशिव द्वारा स्तुति की जाने वाली हे परमेश्वरि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏इन्द्राणीपतिसद्भाव-पूजिते परमेश्वरि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥21॥

इन्द्र के द्वारा शुद्ध भावना से पूजी जाने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏देवि प्रचण्ड-दोर्दण्ड-दैत्यदर्प-विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥22॥

अपनी प्रचण्ड भुजाओं से दैत्यों के घमण्ड को चूर-चूर कर देने वाली हे देवि! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏देवि भक्तजनोद्दाम-दत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥23॥

अपने भक्तजन का अत्यन्त आनंद बढ़ाने वाली हे अम्बिके! तुम मुझे रूप दो, जय दो, यश दो तथा हमारे शत्रुओं का विनाश करो।

🙏पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसार-सागरस्य कुलोद्भवाम् ॥24॥

हे भगवति! हमारी इच्छा के अनुकूल चलने वाली सुन्दर पत्नी मुझे प्रदान करो, जो उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो तथा संसार रुपी सागर से पार करने वाली हो।

🙏इदं स्तोत्रं पठित्वां तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्या-वरमाप्नोति सम्पदाम् ॥25॥

जो लोग इस अर्गला स्तोत्र का पाठ कर दुर्गासप्तशती का पाठ करते हैं, वे सप्तशती के पाठ का उत्तम फल प्राप्त करते हैं तथा भगवती के दया से उन्हें प्रचुर धनराशि भी मिलती है।

🙏॥इतिश्रीदेव्याः अर्गलास्तोत्रंसंपूर्णम्॥🙏




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28/11/2025

दिसंबर 2025 राशिफल | 12 राशियों का मासिक भविष्यफल | किसका चमकेगा भाग्य? 🔥december rashi 2025

दिसंबर 2025 राशिफल | 12 राशियों का मासिक भविष्यफल | किसका चमकेगा भाग्य? 🔥

दिसंबर 2025 का सभी 12 राशियों का मासिक राशदिसंबर 2025 का सभी 12 राशियों का मासिक राशिफल | December 2025 Rashifal | 12 Rashi Bhagya
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मीन दिसंबर 2025 राशिफल






















बिज़नेस में कामयाबी मिलेगी  #फ़ॉलोअर्स
27/11/2025

बिज़नेस में कामयाबी मिलेगी
#फ़ॉलोअर्स

भगवान विष्णु तिरुपति बालाजी कैसे बनेएक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया । यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो ...
26/11/2025

भगवान विष्णु तिरुपति बालाजी कैसे बने
एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया । यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गयी । तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई । ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष्य तो देवगण ग्रहण करते थे । लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी ? यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरुरी था, जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करे ।
1 ब्रह्मा-विष्णु-महेश परम् अात्मा हैं । इनमें से श्रेष्ठ कौन है ? इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे ? भृगु ने इसका दायित्व सम्भाला । वह देवों की परीक्षा लेने चले । ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुँचे ।
2 ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया । इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया ।
भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं । पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ? भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी । ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे । भृगु किसी तरह वहाँ से जान बचाकर भाग चले आए ।
इसके बाद वह शिव जी के लोक कैलाश गए । भृगु ने फिर से धृष्टता की । बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाए या शिव गणों से आज्ञा लिए सीधे वहाँ पहुँच गए, जहाँ शिव जी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे । आए तो आए, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया । शिव जी शांत रहे, पर भृगु न समझे । शिव जी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया । भृगु वहाँ से भागे ।
अन्त में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे । श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं । महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गए थे । उनका मन बहुत दुखी था । विष्णु जी को सोता देख । उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी ।
विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले "हे ब्राह्मण देवता ! मेरी छाती वज्र समान कठोर है और आपका शरीर तप के कारण दुर्बल है, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आयी ? आपने मुझे सावधान करके कृपा की है । आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा ।
भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने तो भगवान की परीक्षा लेने के लिए यह अपराध किया था । परन्तु भगवान तो दण्ड देने के बदले मुस्करा रहे थे । उन्होंने निश्चय किया कि श्रीहरि जैसी विनम्रता किसी में नहीं । वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं । लौट करके उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनायी । सभी ने एक मत से यह निर्णय किया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझकर मुख्य भाग दिया जाएगा ।
लेकिन लक्ष्मी जी ने भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया । परन्तु उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्रीहरि ने उद्दण्ड को दण्ड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और उल्टे क्षमा मांगने लगे ! क्रोध से तमतमाई महालक्ष्मी को लगा कि वह जिस पति को संसार का सबसे शक्तिशाली समझती है, वह तो निर्बल हैं । यह धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश कैसे करते होंगे
महालक्ष्मी ग्लानि में भर गई और मन श्रीहरि से उचाटन हो गया । उन्होंने श्रीहरि और बैकुण्ठ लोक दोनों के त्याग का निश्चय कर लिया । स्त्री का स्वाभिमान उसके स्वामी के साथ बंधा होता है । उनके समक्ष कोई स्वामी पर प्रहार कर गया और स्वामी ने प्रतिकार भी न किया, यह बात मन में कौंधती रही । यह स्थान वास के योग्य नहीं । पर, त्याग कैसे करें
श्रीहरि से ओझल होकर रहना कैसे होगा ? वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं ।
श्रीहरि ने हिरण्याक्ष के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए वराह अवतार लिया और दुष्टों का संहार करने लगे । महालक्ष्मी के लिए यह समय उचित लगा । उन्होंने बैकुण्ठ का त्याग कर दिया और पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं ।
तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया । विष्णु जी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्ण कर वैकुण्ठ लौटे तो महालक्ष्मी नहीं मिलीं । वह उन्हें खोजने लगे ।
श्रीहरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किन्तु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी । उसी शक्ति से उन्होंने श्री हरि को भ्रमित रखा । आख़िर श्रीहरि को पता लग ही गया । लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थीं । दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है । श्रीहरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है, इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे ।
महालक्ष्मी ने मानव रुप धरा है तो अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करने के लिए वह भी साधारण मानवों के समान व्यवहार करेंगे और महालक्ष्मी जी का हृदय और विश्वास जीतेंगे । भगवान ने श्रीनिवास का रुप धरा और पृथ्वी लोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महालक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे ।
राजा आकाशराज निःसंतान थे । उन्होंने शुकदेव जी की आज्ञा से सन्तान प्राप्ति यज्ञ किया । यज्ञ के बाद यज्ञशाला में ऋषियों ने राजा को हल जोतने को कहा गया । राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया । राजा ने उस स्थान को खोदा तो एक पेटी के अन्दर सहस्रदल कमल पर एक छोटी-सी कन्या विराजमान थी । वह महालक्ष्मी ही थीं । राजा के मन की मुराद पूरी हो गई थी । चूंकि कन्या कमल के फूल में मिली थी, इसलिए उसका नाम रखा गया "पदमावती" ।
पदमावती नाम के अनुरुप ही रुपवती और गुणवती थी । साक्षात लक्ष्मी का अवतार । पद्मावती विवाह के योग्य हुई । एक दिन वह बाग में फूल चुन रही थी । उस वन में श्रीनिवास (बालाजी) आखेट के लिए गए थे । उन्होंने देखा कि एक हाथी एक युवती के पीछे पड़ा है और डरा रहा है ।
राजकुमारी के सेवक भाग खड़े हुए । श्रीनिवास ने तीर चलाकर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की । श्रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा और रीझ गए । दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ । लेकिन दोनों बिना कुछ कहे अपने-अपने घर लौट गए ।
श्रीनिवास घर तो लौट आए, लेकिन मन पदमावती में ही बस गया । वह पदमावती का पता लगाने के लिए उपाय सोचने लगे । उन्होंने ज्योतिषी का रुप धरा और भविष्य बांचने के बहाने पदमावती को ढूंढने निकल पड़े । धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गयी ।
पदमावती के मन में श्रीनिवास के लिए प्रेम जागृत हुआ । वह भी उनसे मिलने को व्याकुल थीं । किन्तु कोई पता-ठिकाना न होने के कारण उनका मन चिंतित था । इस चिन्ता और प्रेम विरह में उन्होंने भोजन-श्रृंगार आदि का त्याग कर दिया । इसके कारण उसका शरीर कृशकाय होता चला गया । राजा से पुत्री की यह दशा देखी नहीं जा रही थी, वह चिंतित थे । ज्योतिषी की प्रसिद्धि की सूचना राजा को हुई ।
राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और सारी बात बताकर अपनी कन्या की दशा का कारण बताने को कहा । श्रीनिवास राजकुमारी का हाल समझने पहुंचे तो पदमावती को देखकर प्रसन्न हो गए । उनका उपक्रम सफल हुआ । उन्होंने परदमावती का हाथ अपने हाथ में लिया । कुछ देर तक पढने का स्वांग करने के बाद बोले - "महाराज ! आपकी पुत्री प्रेम के विरह में जल रही है । आप इनका शीघ्र विवाह कर दें तो ये स्वस्थ हो जायेंगी ।
पदमावती ने अब श्रीनिवास की ओर देखा । देखते ही पहचान लिया । उनके मुख पर प्रसन्नता के भाव आए और वह हँसीं । काफी दिनों बाद पुत्री को प्रसन्न देख राजा को लगा कि ज्योतिषी का अनुमान सही है । राजा ने श्रीनिवास से पूछा - "ज्योतिषी महाराज ! यदि आपको यह पता है कि मेरी पुत्री प्रेम के विरह में पीड़ित है तो आपको यह भी सूचना होगी कि मेरी पुत्री को किससे प्रेम है उसका विवाह करने को तैयार हूँ, आप उसका परिचय दें
श्रीनिवास ने कहा - "महाराज ! आपकी पुत्री एक दिन वन में फूल चुनने गई थी । एक हाथी ने उन पर हमला किया तो आपके सैनिक और दासियां भाग खड़ी हुईं । राजकुमारी के प्राण एक धनुर्धर ने बचाए थे ।
राजा ने कहा - "हाँ, मेरे सैनिकों ने बताया था कि एक दिन ऐसी घटना हुई थी । एक वीर पुरुष ने उसके प्राण बचाए थे । लेकिन मेरी पुत्री के प्रेम से उस घटना का क्या तात्पर्य है
श्रीनिवास ने बताया - "महाराज ! आपकी पुत्री को अपनी जान बचाने वाले उसी युवक से प्रेम हुआ है ।" राजा के पूछने पर श्रीनिवास ने कहा - "वह कोई साधारण युवक नहीं, बल्कि शंख चक्रधारी स्वयं भगवान विष्णु ही हैं । इस समय बैकुण्ठ को छोड़कर मानव रुप में श्रीनिवास के नाम से पृथ्वी पर वास कर रहे हैं । आप अपनी पुत्री का विवाह उनसे करें । मैं इसकी सारी व्यवस्था करा दूंगा ।" यह बात सुनकर राजा प्रसन्न हो गए कि स्वयं विष्णु उनके जमाई बनेंगे ।
श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गया । श्रीनिवास रुप में श्रीहरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी । शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए । देवी-देवता श्रीनिवास जी से मिलने औऱ बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे ।
परन्तु श्रीनिवास जी को खुशी के बीच एक चिंता भी होने लगी । देवताओं ने पूछा - "भगवन ! संसार की चिंता हरने वाले आप इस उत्सव के मौके पर इतने चिंतातुर क्यों हैं ?"
श्रीनिवास जी ने कहा - "चिंता की बात तो है ही, धन का अभाव । महालक्ष्मी ने मुझे त्याग दिया, इस कारण धनहीन हो चुका हूँ । स्वयं महालक्ष्मी ने तप से शरीर त्याग मानव रुप लिया है और पिछली स्मृतियों को गुप्त कर लिया है । इस कारण उन्हें यह सूचना नहीं है कि वह महालक्ष्मी का स्वरुप हैं । वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं । मैंने निर्णय किया है कि जब तक उनका प्रेम पुनः प्राप्त नहीं करता, अपनी माया का उन्हें आभास नहीं कराउंगा । इस कारण मैं एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। और वह हैं, राजकुमारी । राजा की पुत्री से शादी करने और घर बसाने के लिए धन, वैभव और ऐश्वर्य की जरुरत है । वह मैं कहां से लाऊं ?"
स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी । मानव रुप में आए प्रभु को भी विवाह के लिए धन की आवश्यकता हुई । यही तो ईश्वर की लीला है । जिस रुप में रहते हैं, उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं । श्रीहरि विवाह के लिए धन का प्रबंध कैसे हो ? इस बात से चिंतित हैं । देवताओं ने जब यह सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ । देवताओं ने कहा - "कुबेर, आवश्यकता के बराबर धन की व्यवस्था कर देंगे ।"
देवताओं ने कुबेर का आह्वान किया तो कुबेर प्रकट हुए । कुबेर ने कहा - "यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि आपके लिए कुछ कर सकूं । प्रभु ! आपके लिए धन का तत्काल प्रबंध करता हूँ । कुबेर का कोष आपकी कृपा से ही रक्षित है ।
श्रीहरि ने कुबेर से कहा - "यक्षराज कुबेर ! आपको भगवान भोलेनाथ ने जगत और देवताओं के धन की रक्षा का दायित्व सौंपा है । उसमें से धन मैं अपनी आवश्यकता के हिसाब से लूंगा अवश्य, पर मेरी एक शर्त भी होगी ।"
श्रीहरि कुबेर से धन प्राप्ति की शर्त रख रहे हैं, यह सुनकर सभी देवता आश्चर्य में पड़ गए । श्रीहरि ने कहा - "ब्रह्मा जी और शिव जी साक्षी रहें । कुबेर से धन ऋण के रुप में लूंगा, जिसे भविष्य में ब्याज सहित चुकाऊंगा ।
श्रीहरि की बात से कुबेर समेत सभी देवता विस्मय में एक-दूसरे को देखने लगे । कुबेर बोले - "भगवन ! मुझसे कोई अपराध हुआ तो उसके लिए क्षमा कर दें । पर, ऐसी बात न कहें । आपकी कृपा से विहीन होकर मेरा सारा कोष नष्ट हो जाएगा ।
श्रीहरि ने कुबेर को निश्चिंत करते हुए कहा - "आपसे कोई अपराध नहीं हुआ । मैं मानव की कठिनाई का अनुभव करना चाहता हूँ । मानव रुप में उन कठिनाइयों का सामना करुँगा, जो मानव को आती हैं । धन की कमी और ऋण का बोझ सबसे बड़ा होता है ।
कुबेर ने कहा - "प्रभु ! यदि आप मानव की तरह ऋण पर धन लेने की बात कर रहे हैं तो फिर आपको मानव की तरह यह भी बताना होगा कि ऋण चुकाएंगे कैसे ? मानव को ऋण प्राप्त करने के लिए कई शर्तें झेलनी पड़ती हैं ।
श्रीनिवास ने कहा - "कुबेर ! यह ऋण मैं नहीं, मेरे भक्त चुकाएंगे । लेकिन मैं उनसे भी कोई उपकार नहीं लूंगा । मैं अपनी कृपा से उन्हें धनवान बनाऊंगा । कलियुग में पृथ्वी पर मेरी पूजा धन, ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण देवता के रुप में होगी । मेरे भक्त मुझसे धन, वैभव और ऐश्वर्य की मांग करने आएंगे । मेरी कृपा से उन्हें यह प्राप्त होगा, बदले में भक्तों से मैं दान प्राप्त करूंगा जो चढ़ावे के रुप में होगा । मैं इस तरह आपका ऋण चुकाता रहूंगा ।
कुबेर ने कहा - "भगवन ! कलियुग में मानव जाति धन के विषय में बहुत विश्वास के योग्य नहीं रहेगी । उन पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करना क्या उचित होगा
श्रीनिवास जी बोले - "शरीर त्यागने के बाद तिरुपति के तिरुमाला पर्वत पर बाला जी के नाम से लोग मेरी पूजा करेंगे । मेरे भक्तों की अटूट श्रद्धा होगी । वह मेरे आशीर्वाद से प्राप्त धन में मेरा हिस्सा रखेंगे । इस रिश्ते में न कोई दाता है और न कोई याचक । हे कुबेर ! कलियुग के आखिरी तक भगवान बाला जी धन, ऐश्वर्य और वैभव के देवता बने रहेंगे । मैं अपने भक्तों को धन से परिपूर्ण करूंगा तो मेरे भक्त दान से न केवल मेरे प्रति अपना ऋण उतारेंगे, बल्कि मेरा ऋण उतारने में भी मदद करेंगे । इस तरह कलियुग की समाप्ति के बाद मैं आपका मूलधन लौटा दूंगा ।
कुबेर ने श्रीहरि द्वारा भक्त और भगवान के बीच एक ऐसे रिश्ते की बात सुनकर उन्हें प्रणाम किया और धन का प्रबंध कर दिया । भगवान श्रीनिवास और कुबेर के बीच हुए समझौते के साक्षी स्वयं ब्रह्मा और शिव जी हैं । दोनों वृक्ष रुप में साक्षी बन गए । आज भी पुष्करणी तीर्थ के किनारे ब्रह्मा और शिव जी बरगद के पेड़ के रुप में साक्षी बनकर खड़े हैं ।
ऐसा कहा जाता है कि निर्माण कार्य के लिए स्थान बनाने के लिए इन दोनों पेड़ों को जब काटा जाने लगा तो उनमें से खून की धारा फूट पड़ी । पेड़ काटना बन्द करके उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी ।
इस तरह भगवान श्रीनिवास (बाला जी) और पदमावती (महालक्ष्मी) का विवाह पूरे धूमधाम से हुआ । जिसमें सभी देवगण पधारे । भक्त मन्दिर में दान देकर भगवान पर चढ़ा ऋण उतार रहे हैं, जो कलियुग के अन्त तक जारी रहेगा
1 श्री पद्मावती समोवर मंदिर
तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है।
यह मंदिर भगवान श्री वेंकटेश्वर विष्णु की पत्नी श्री पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते।
तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।
2 श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर
श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्‍य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं। वार्षिक बह्मोत्‍सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है। दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक
3 श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति के मध्य में स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
4 श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर
कपिला थीर्थम भारत के आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति में स्थित एक प्रसिद्ध शिव मंदिर और थीर्थम है। मा यह मूर्ति कपिला मुनि द्वारा स्थापित की गई था और इसलिए यहां भगवान शिव को कपिलेश्वर के रूप में जाना जाता है। यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है। यह तिरुपति शहर से तीन किमी.दूर उत्तर में, तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे ओर तिरुमाला जाने के मार्ग के बीच में स्थित है कपिल तीर्थम जाने के लिए बस, ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं ओर सरलता से उपलब्ध भी है।
5 यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र नदी भी है। जो सप्तगिरी पहाड़ियों में से बहती पहाड़ियों से नीचे कपिल तिर्थम मे आती हैं जो अति मनोरम्य लगता हैं। इसे अलिपिरि तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर श्री वेनुगोपाल ओर लक्ष्मी नारायण के साथ गौ माता कामधेनु कपिला गाय का य हनुमानजी का अनुपम मंदिर भी स्थित हैं।
यहां महाबह्मोत्‍सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है।
6 श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे। यहां स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।
7 श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।
8 श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर
नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्‍स्‍य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था। मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्‍थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्‍गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है। इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।
9 श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्‍थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।
10 श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर
माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्‍यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं। यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।
11 श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर
तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।
12 श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।
13 श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी
कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है। महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष्‍ा आयोजन किया जाता है।
14 स्वामी पुष्करिणी
इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्‍यवस्‍था की गई है।
माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्‍करिणी कुंड में ही स्‍नान करते है, इसलिए श्री गरुड़जी ने श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे। यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी के दर्शन करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां दर्शन करते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।
15 आकाशगंगा जलप्रपात
आकाशगंगा जलप्रपात तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्‍नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्‍य बहुत की मनमोहक लगता है।
16 श्री वराहस्वामी मंदिर
तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए। अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।
17 श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर
स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था हैं। अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।

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