29/06/2025
विधायकजी डिस्पोज़ेबल में, साहब बोन चाइना में!
एक सत्ताधारी पहलवान नेता ने अपने पॉडकास्ट में बड़ी सहजता से कह दिया —
"ज्यादातर विधायक डीएम, एसएसपी के कमरे में जाकर पाँव छूकर आशीर्वाद लेते हैं।"
अब वो नेता महिला पहलवान प्रकरण में क्लीन चिट पा चुके हैं, तो उनके इस बयान को झूठ मानने का कोई ठोस आधार भी नहीं।
उत्तर प्रदेश में सबसे दिलचस्प कहानियाँ सत्ता और सिस्टम के उसी द्वंद से निकलती हैं, जिसे आम आदमी अफवाह समझता है, लेकिन जो दरअसल सत्यकथा है।
किस्सा नंबर 1: मंत्री, मिल और मीटिंग
एक कैबिनेट मंत्री हाल ही में बागपत पहुँचे। मामला था — चीनी मिल का, जो किसानों के लगभग 400 करोड़ रुपये की बकाया राशि दबाकर बैठी है। ये जानकारी शायद उस विभाग के मंत्री तक नहीं पहुँची, जिनके अधीन चीनी मिल आती है।
लेकिन जैसे ही दूसरे विभाग के मंत्री को भनक लगी, वो किसानों के पक्ष में खड़े हो गए। एक जिले में वो पहले भी किसानों का बकाया दिलवा चुके थे, सो आत्मविश्वास में अफसरों को मीटिंग में बुलाया।
पर ब्यूरोक्रेसी ने अपना "कद" दिखा दिया — न अफसर आया, न मीटिंग हुई।
अगली बार मंत्री ने खुद तारीख तय की — फिर भी बैठक टल गई।
कहा गया कि मूल विभाग के मंत्री ने ही अफसरों को मीटिंग में न जाने को कह दिया। अब ये नहीं पता कि उन्होंने खुद मना किया या चीनी मिल के किसी बाबू ने उनके WhatsApp से आदेश भिजवा दिए।
किस्सा नंबर 2: ट्रॉली, दरोगा और लोकतंत्र
मेरठ में सत्ता पक्ष के एक शीर्ष नेता के परिजन की गौशाला के लिए चारे की ट्रॉली जा रही थी। पुलिस चौकी पर दरोगा जी ने ट्रॉली रोक दी — बोले,
“जनता को असुविधा हो रही है।”
चालक ने नेताजी के रिश्तेदार को फोन किया। उधर से परिचय, पद और संबंधों की पूरी गाथा सुनाई गई। बताया कि चारा गायो का है भैंसों का नहीं।
लेकिन दरोगा जी टस से मस नहीं हुए।
“जनता को असुविधा हो रही है।”
जब मामला न सुलझा, तो नेताजी ने फोन पर कहा —
“कुछ सुविधा दे दो दरोगा जी को, ट्रॉली निकल जाएगी।”
पर अफ़सोस, "गौसेवा ब्रह्मास्त्र" भी दरोगा जी की वर्दी के आगे निष्प्रभावी रहा।
ये कोई एक कहानी नहीं, बल्कि "यूपी का लोकतांत्रिक व्यवहारिक पाठ्यक्रम" है।
किस्सा नंबर 3: डिस्पोज़ेबल कप बनाम सम्मान
एक बार मेरठ में छपरौली से पांच बार विधायक रहे चौधरी नरेंद्र सिंह एडवोकेट से मिलने गया। उनके नाम की नेमप्लेट पर लिखा था: "नरेंद्र पाल सिंह एडवोकेट", MLA का कोई निशान नहीं।
उन्होंने जिला योजना समिति की एक बैठक का किस्सा सुनाया —
मंत्री और डीएम के लिए चाय कप-प्लेट में, बाकी विधायकों के लिए डिस्पोज़ेबल में।
उन्होंने चाय नहीं पी। डीएम ने बार-बार आग्रह किया, तो बोले —
“चाय पिलाने का सलीका नहीं है, तो बार-बार टोकिए मत।”
जब डीएम ने कारण पूछा, तो बोले —
“मैं उस पार्टी से हूं, जिसके नेता ने शिष्टाचार पर किताब लिखी है।”
नतीजा — कप बदल गए, माफी आई और चाय सभ्य हो गई।
वो बताते हैं —
“जब मैं पहली बार MLA बना, तो चौधरी चरण सिंह ने दिल्ली बुलाकर सिखाया कि विधायक का प्रोटोकॉल क्या होता है।”
आज की तस्वीर:
बीच की एक सरकार ऐसी आई जिसमें अफसरों के कहने पर विधायकों के टिकट तक कटने लगे।
और मौजूदा मुख्यमंत्री को तो खुलेआम कहना पड़ा —
"थाने की दलाली मत करो!"
मैंने एक राजनीतिक दल के ज़िलाध्यक्ष से पूछा —
“अफसर आपको डिस्पोज़ेबल में चाय देते हैं या कप में?”
वो चौंक गए। मैंने छपरौली वाला किस्सा सुनाया तो हँसकर बोले —
"बात तो कलियुग में भी सच है, पर अब हम चाय के कप को हाथ नहीं लगाते। हमसे बड़े दल वाले तक पी जाते हैं!"
अब आइए मुद्दे की जड़ पर:
विधायक वोट लेकर आता है, अफसर पोस्टिंग लेकर।
विधायक पाँच साल के लिए, अफसर 30 साल की पक्की कुर्सी पर।
और इस 'स्थायी बनाम अस्थायी' सत्ता संघर्ष में जनता बस तमाशबीन है।
जनता की भूमिका:
अब जनता भी अद्भुत हो गई है।
कल तक जो रोते थे — "नेता काम नहीं करते",
आज कैंडल मार्च लेकर अफसरों के समर्थन में सड़कों पर हैं।
जाति और धर्म के चश्मे ने लोकतंत्र की आँखें धुंधली कर दी हैं।
आज कोई अफसर सही है या ग़लत, कोई फर्क नहीं पड़ता —
बस वो "हमारी जाति का" होना चाहिए।
नेता काम करे या न करे, अफसर भ्रष्ट हो या ईमानदार —
जनता को चाहिए — जाति और धर्म वाला जनप्रतिनिधि,
बाकी सब बोनस है।
और अंत में...
लोकतंत्र में जनता सबसे ऊपर होती है — संविधान कहता है।
लेकिन असलियत जाननी हो तो किसी मीटिंग में चले जाइए —
जहाँ विधायक को चाय डिस्पोज़ेबल में दी जाती है, और अफ़सर साहब को धो-धकाकर बोन चाइना में।
अब अगर कोई विधायक चाय नहीं पी रहा, तो समझिए —
उसमें थोड़ी आत्मा बची है।
बाकी विधायक तो अब अफसर की आँखों से चाय पीने का अभ्यास कर चुके हैं।
कुछ तो बाकायदा ‘सर-सर’ करते हुए चुस्की लेते हैं, ताकि अगली फाइल जल्दी बढ़े।
आज का विधायक दो ही जगह दिखता है —
1. थाने में पाँव छूते हुए। (ये छह बार के माननीय सांसद का प्रमाणित कथन है।)
2. फेसबुक पर शेर लिखते हुए —
"हम वो दरिया हैं, जिसे कोई रोक नहीं सकता..."
(जबकि दरोगा उसी दरिया के किनारे ट्रॉली रोक चुका होता है।)
राज्य व्यवस्था इतनी संवेदनशील हो गई है कि
किसी अफसर के खिलाफ बोलना अब राष्ट्रद्रोह के करीब माना जाने लगा है।
कभी अफसर कहते थे — “बैठ जाइए।”
अब कुछ नहीं कहते, और नेताजी खुद ही सोफे पर बैठ जाते हैं।
अब लोकतंत्र का असली प्रतीक चुनाव चिन्ह नहीं, चाय का कप है।
जो कप में चाय पीता है, वही सत्ता के केंद्र में है। बाकी सब — डिस्पोज़ेबल हैं।